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उज्जैन किस नदी के किनारे स्थित है , ujjain is situated on the banks of which river in hindi
ujjain is situated on the banks of which river in hindi उज्जैन किस नदी के किनारे स्थित है ?
उज्जैन (23.17° उत्तर, 75.79° पूर्व)
उज्जैन क्षिप्रा नदी के तट पर मध्य प्रदेश में स्थित है। इसे अवन्तिका नाम से भी जाना जाता था। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में यह अवन्ति महाजनपद की राजधानी था।
मौर्यकाल में यह एक प्रमुख प्रांत था तथा तक्षशिला भेजे जाने से पूर्व यह अशोक के नियंत्रण में था। टालमी (द्वितीय शताब्दी ईस्वी) के समय उज्जैन शक शासक चष्टन के शासन के अंतर्गत था।
उज्जैन उत्तर एवं उत्तर-पश्चिमी व्यापारिक मार्ग पर स्थित था तथा श्पेरिप्लस ऑफ द इरीथ्रियन सीश् के विवरणानुसार यह एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र था।
‘विजय की नगरी‘ एवं ‘पवित्रता की नगरी‘ के नाम से भी प्रसिद्ध उज्जैन में कई मंदिर हैं। इनमें सबसे प्रमुख महाकालेश्वर मंदिर है, जो भारत के ज्योतिर्लिंगों में से एक है। प्रसिद्ध कवि एवं नाटककार कालिदास उज्जैन के ही थे। उन्होंने महाकालेश्वर मंदिर में देवदासी प्रथा (देवदासी प्रथा के प्रचलन का प्रथम साहित्यिक प्रमाण) के प्रचलन का उल्लेख किया था। अन्य प्रसिद्ध मंदिर, कालभैरव मंदिर है, जिसका उल्लेख स्कंद पुराण में भी प्राप्त होता है। उज्जैन भृतहरि की गुफाओं; 24 अवतारों; बड़ी संख्या में हिन्दू एवं जैन मंदिरों रू अहिल्याबाई होल्कर का महल; कालीदेह महल; वेधशाला (जंतर-मंतर) एवं कालिदास अकादमी के लिए भी प्रसिद्ध है। यहां कुंभ मेले का आयोजन भी होता है।
उदंवल्ली गुफाएं (16.30° उत्तर, 80.44° पूर्व)
उदंवल्ली गुफाएं आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले में कृष्णा नदी के दक्षिणी तट के निकट स्थित हैं। ये गुफाएं शैलकर्त वास्तुकला और मूर्ति निर्माण की एकाश्म शैली के लिए प्रसिद्ध हैं। चैथी तथा पांचवीं शताब्दी के मध्य एक पहाड़ी पर ठोस बलुआ पत्थर को काटकर इन गुफाओं का निर्माण किया गया। इन गुफाओं को स्थानीय गवर्नर माधव रेड्डी ने अनंतपदमनाभ स्वामी मंदिर तथा नरसिंह स्वामी मंदिर को समर्पित किया।
यह माना जाता है कि उदंवल्ली गुफाओं को बौद्ध धर्म के अनुयायियों द्वारा बनाया गया था, जैसाकि यह तथ्य वर्तमान में मौजूद कुछ बौद्ध मूर्तियों से स्पष्ट होता है, लेकिन बाद में इन गुफाओं को हिंदू मंदिरों में परिवर्तित कर दिया गया। चार मंजिला, सबसे बड़ी एवं मुख्य गुफा, जिसमें दूसरी मंजिल पर ग्रेनाइट के एक ब्लॉक पर तराशी विष्णु की विशाल प्रतिमा विश्राम मुद्रा में है। गुफा के अंदर के अन्य मंदिरों को त्रिमूर्ति को समर्पित किया गया है। उदंवल्ली गुफाओं पर निर्माण, गुप्त वास्तुकला के प्रारम्भिक उदाहरणों में से एक है। मुख्य रूप से शिला काट कर बनाए गए प्रारम्भिक बौद्ध विहार बलुआ पत्थर की पहाड़ियों को तराश कर बनाए गए हैं। यह वास्तुकला उदयगिरि एवं खांडगिरि की वास्तुकला के सदृश है।
उदयपुर (24.58° उत्तर, 73.68° पूर्व)
राजस्थान में स्थित उदयपुर को सूर्याेदय की नगरी के नाम से जाना जाता है। यह नगरी मेवाड़ साम्राज्य का एक रत्न थी तथा यहां 1200 वर्षों से अधिक समय तक सिसोदिया वंश के शासकों ने शासन किया। इसका अपना स्वयं का इतिहास है, जो मुगलों के विरुद्ध बहादुरी एवं शौर्य के कारनामों से भरा पड़ा है।
उदयपुर तीन झीलों के समीप स्थित है। ये झीलें हैं-पिछोला, फतेह सागर एवं उदय सागर। उदयपुर नगर के प्रवेश के लिए 11 भव्य प्रवेश द्वार हैं। पूर्वी दिशा में स्थित ‘सूरजपोलश‘ सबसे मुख्य प्रवेश द्वार है, यहां राजा उदय सिंह द्वारा पिछोला झील में बनवाया गया पिछोला लेक पैलेस सभी महलों में सबसे सुंदर है।
चित्तौड़गढ़ पर अकबर के कब्जे के उपरांत राणा उदय सिंह ने अपनी राजधानी उदयपुर में स्थानांतरित कर दी तथा 1572 ई. में अपनी मृत्यु तक मुगलों के विरुद्ध सशक्त संघर्ष जारी रखा। उदयपुर के उत्तराधिकारी एवं पुत्र राणा प्रताप के समय में भी यह संघर्ष चलता रहा। औरंगजेब के शासनकाल में, मेवाड़ ने जोधपुर के दुर्गादास एवं अजीत सिंह को संरक्षण दिया, जो मुगल दरबार से बच कर भाग निकले थे।
26 दिसंबर, 1817 को, उदयपुर ने अंग्रेजों से मित्रता की एक संधि कर ली। 1852 में, डलहौजी के व्यपगत के सिद्धांत के अंतर्गत उदयपुर को ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया। यद्यपि लार्ड कैनिंग ने डलहौजी के इस निर्णय को अस्वीकृत कर दिया। 1947 में उदयपुर भारत में सम्मिलित हो गया।
उदयगिरि एवं खंदगिरि की गुफाएं (20.26° उत्तर, 85.78° पूर्व) भुवनेश्वर के पश्चिम में, मात्र 7 किमी. की दूरी पर उदयगिरि एवं खंदगिरि की जुड़वां पहाड़ियां स्थित हैं। इन पहाड़ियों में अशोक के पाषाण अभिलेखों के उपरांत उड़ीसा स्थित भारतीय इतिहास के सबसे प्रमुख स्मारक विद्यमान हैं। खंदगिरि एवं उदयगिरि की पहाड़ियों को काटकर जैन भिक्षुओं के लिए बहुमंजिली गुफाओं का निर्माण किया गया है। ये गुफाएं कलिंगराज खारवेल द्वारा प्रथम सदी ईसा पूर्व में निर्मित मानी जाती है। खारवेल महामेघवाहन वंश का शासक था। उसे कलिंग साम्राज्य के विस्तारक एवं विभिन्न लोकोपकारी कार्यों यथा-नहर व्यवस्था के प्रवर्तन इत्यादि के लिए जाना जाता है।
खंदगिरि में 15 गुफाएं हैं जो बाईं ओर स्थित हैं तथा उदयगिरि में 18 गुफाएं हैं, जो दाहिनी ओर स्थित हैं। उदयगिरी की गुफाओं में ही हाथीगुम्फा की प्रसिद्ध गुफाएं स्थित हैं, जहां से कलिंगराज खारवेल का प्रसिद्ध हाथीगम्फा अभिलेख पाया गया है।
प्रसिद्ध रानीगुम्फा गुफाएं भी उदयगिरी में ही स्थित हैं। इनमें ऊपरी एवं निचली मंजिल, एक बड़ा आंगन, तथा कई बड़े कक्ष हैं। इस गुफा में कई चित्र भी उत्कीर्ण हैं, जैसे-लोकप्रिय गाथाओं के दृश्य, ऐतिहासिक दृश्य, धार्मिक क्रियाकलाप एवं कई नर्तक-नर्तकियों के चित्र। इनकी शैली काफी विकसित प्रतीत होती है।
गणेश गुम्फा थोड़ी अलग है। इसमें बरामदे के साथ बड़ा निवास स्थान है। ऊपर पहुंचाने के लिए सीढ़ियां एवं आंगन भी हैं।
ये सभी गुफाएं छोटी हैं तथा चट्टान के प्राकृतिक विन्यास का अनुकरण करती हैं। मूर्तियां संपूर्णता के साथ लोक कला का प्रदर्शन करती हैं।
उदयगिरि में ओडिशा का सबसे बड़ा बौद्ध काम्प्लेक्स भी स्थित है। हाल के पुरातात्विक उत्खननों से यह सिद्ध हुआ है कि प्राचीनकाल में इस मठ का नाम माधवपुर महाविहार था। यहां के पुरातात्विक उत्खनन से यहां ईंटों का स्तूप, ईंटों से निर्मित दो मठ, पाषाण से निर्मित एक सुंदर कुंआ एवं प्रस्तर स्थापत्य के कुछ अन्य नमूने भी प्राप्त हुए हैं। इन मठों का निर्माण संभवतः 7वीं से 12वीं शताब्दी के मध्य हुआ था। मूर्तियां बौद्ध धर्म के सभी देवताओं-बड़ी संख्या में बोधिसत्व तथा ध्यानी बुद्ध-को दर्शाती हैं।
उडुपी (13.33° उत्तर, 74.74° पूर्व)
वर्तमान समय में उडुपी कर्नाटक राज्य में स्थित है। मिथक एवं ऐतिहासिक दोनों दृष्टियों से यह एक प्रसिद्ध शहर है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि वर्तमान समय का उड्डुपी भूमि की उस तटीय पट्टी का भाग था जो परशुराम क्षेत्र या परशुराम भूमि कहा जाता था, जिसे परशुराम ने अरब सागर से पुनः प्राप्त किया।
उडुपी, 12वीं शताब्दी के प्रसिद्ध संत एवं द्वैतवादी दर्शन के प्रतिपादक माध्वाचार्य के जन्म स्थान के रूप में भी प्रसिद्ध है। यह कृष्ण मट्ट के लिए भी प्रसिद्ध है। नगर के मध्य भाग में एक बड़े तालाब माधवसरोवर के समीप स्थित एक मंदिर है। श्रद्धालुओं का मानना है कि प्रति दसवें वर्ष इस सरोवर में गंगा प्रवाहित होती है।
यहीं अनंतस्यान मंदिर भी स्थित है। जिसके संबंध में यह माना जाता है कि यहीं माधव अपने शिष्यों को शिक्षा देते हुए अदृश्य हो गए।
उडुपी का कृष्ण मंदिर कनकन किंदी के लिए प्रसिद्ध है। इसी मंदिर में एक छोटा झरोखा है, जिससे कृष्ण ने अपने अनन्य भक्त कनकदास को दर्शन दिये थे।
उरैयूर (10°49‘ उत्तर, 78°40‘ पूर्व) उरैयूर तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली जिले में स्थित है। इसे उरगपुर, उरंदाई एवं अरागुरू नामों से भी जाना जाता था। उरैयूर, कावेरी नदी के दक्षिण किनारे पर स्थित है तथा प्रारंभिक चोलों के समय यहां एक नदीय पत्तन था। प्रारंभिक चोलों ने संगम युग के दौरान उरैयूर को अपनी राजधानी भी बनाया था।
‘पेरिप्लस ऑफ द इरीथ्रियन सी‘ (किसी अज्ञात लेखक द्वारा प्रथम ईस्वी में समुद्री यात्राओं पर लिखी हुई किताब) में उरैयूर का उल्लेख अरागुरु के रूप में किया गया है, जो वस्त्रों के व्यापार का एक प्रमुख केंद्र था। यहां कपड़ों पर रंगाई का काम भी किया जाता था तथा इसके प्रमाण भी यहां से प्राप्त हुए हैं।
उरैयूर से रोमन सिक्कों एवं कुछ अन्य वस्तुओं की प्राप्ति से ऐसा अनुमान है कि इसके रोमन साम्राज्य से व्यापारिक संबंध थे।
यह मोती उत्पादन के केंद्र के रूप में भी प्रसिद्ध था। उरैयूर में शिवस्थल एवं भगवान पंचवर्णेश्वर का मंदिर भी स्थित है। संगम साहित्य में इस नगर का उल्लेख एक फलते-फूलते नगर के रूप में किया गया है।
ऐसा प्रतीत होता है कि पांचवी शताब्दी ईस्वी में इस स्थान ने अपना महत्व खो दिया था।
उत्तरामेरूर (12.61° उत्तर, 79.75° पूर्व)
उत्तरामेरूर चेन्नई के समीप तमिलनाडु में स्थित है। प्राचीन समय में यह ब्रह्मदेय (ब्राह्मण को राजस्व मुक्त भूमि दान) गांव का एक उदाहरण था। यह 10वीं शताब्दी ईस्वी के दो अभिलेखों के लिए प्रसिद्ध है, जो चोल शासक परान्तक प्रथम के शासनकाल से संबंधित हैं। इन अभिलेखों में ‘सभा‘ नामक संस्था के चरित्र, संगठन एवं भूमिका पर प्रकाश डाला गया है। इस प्रकार ये अभिलेख चोल शासन में स्थानीय प्रशासन संबंधी विस्तृत जानकारी प्रदान करते हैं।
प्रथम अभिलेख में विभिन्न समितियों (वरियम) में निर्वाचन संबंधी नियमों का उल्लेख है, जबकि दूसरे अभिलेख में, नियमों में संशोधन की व्याख्या है। इस अभिलेख में सदस्यों के निर्वाचन हेतु जिन सामान्य मापदण्डों का अनुसरण किया गया है, उनमें प्रमुख हैं-उसे कर दाता, गृहस्वामी एवं वैदिक साहित्य का अच्छा ज्ञाता होना चाहिए।
ये सभी सदस्य सामूहिक रूप से चुने जाते थे तथा एक बार चयन के उपरांत कोई सदस्य दुबारा नहीं चुना जा सकता था। स्थानीय स्तर पर नियमों का निर्माण एवं उनका संचालन तत्कालीन समय में स्थानीय स्वायत्तता का अद्भुत उदाहरण है, जिसकी तुलना मध्यकाल में किसी अन्य स्थान से नहीं की जा सकती।
वैशाली (25.99° उत्तर, 85.13° पूर्व)
वैशाली की पहचान आधुनिक बसाढ़ नामक ग्राम से की जाती है, जो बिहार के वैशाली जिले में स्थित है। बुद्ध के समय यह एक समृद्धशाली नगर था। वैशाली, लिच्छवी गणराज्य की राजस्थानी था तथा छठी शताब्दी ई.पू. में यह शक्तिशाली वज्जी परिसंघ का मुख्यालय भी था। अजातशत्रु ने इसे विजित कर मगध साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था।
वैशाली जैन एवं बौद्ध दोनों के लिए महत्वपूर्ण था। गौतम बुद्ध की मृत्यु के लगभग 100 वर्ष पश्चात द्वितीय बौद्ध संगीति यहीं आयोजित की गई थी। इस महासभा या संगीति में पूर्वी एवं पश्चिमी भिक्षुओं के मध्य मतभेदों को दूर किया गया तथा भिक्षु एवं भिक्षुणियों के नैतिक नियमों की आचार संहिता तैयार की गई। यहां से एक स्तूप की प्राप्ति एक महत्वपूर्ण खोज है। यह स्तूप पहले मिट्टी तथा बाद में ईंटों से बनाया गया था। कोल्हुआ वह स्थान है, जहां अशोक ने 18.3 मीटर ऊंचा एक स्तंभ खड़ा करवाया था। यह स्थान भगवान बुद्ध का अंतिम भ्रमण स्थल है तथा अशोक का स्तंभ इसी स्थान को समर्पित है। लाल बलुआ पत्थर से निर्मित इस स्तंभ को स्थानीय तौर पर श्भीमसेन की लाठीश् के नाम से जाना जाता है। यह स्तंभ उन दो स्तंभों में से एक है, जो अपने मूल स्थान पर सुरक्षित हैं। इस स्तंभ के समीप ही रामकुंड नामक छोटा जलाशय भी स्थित पुरातत्ववेत्ताओं ने यहां से एक बड़े टीले के अवशेष प्राप्त किए हैं, जो प्राचीन संसद से संबंधित था। इसे ‘राजा वैशाल की गढ़‘ कहा जाता था। यहां बावन पोखर नामक एक मंदिर भी है। इस मंदिर में गुप्त और पाल साम्राज्य की काली बेसाल्ट की मूर्तियां बड़ी संख्या में हैं। एक जलाशय के उत्खनन से यहां चार मुख वाला लिंग भी पाया गया है, जो चैमुखी मंदिर में स्थित था।
बावन पोखर मंदिर के बगल में एक जैन मंदिर है, जिसमें एक तीर्थंकर की मूर्ति है। श्वेतांबर सम्प्रदाय के अनुसार, जैनों के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म वैशाली के कुण्डग्राम में ही हुआ था। ऐसा कहा जाता है कि यहां उन्होंने अपने जीवन के 22 वर्ष व्यतीत किए थे।
राज्याभिषेक तालाब, जिसे ‘अभिषेक पुष्करणी‘ के नाम से भी जाना जाता था, एक कमल तालाब था, जिसका जल प्राचीन काल में अत्यंत पवित्र माना जाता था तथा वैशाली के समस्त निर्वाचित प्रतिनिधि अपना पद ग्रहण करने से पहले इस पवित्र जल में स्नान करते थे। इस अभिषेक पुष्करणी के दाहिने तट पर विश्व शांति स्तूप स्थित है, जिसका निर्माण बुद्ध विहार सभा द्वारा किया गया था।
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