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जनजातीय आन्दोलन किसे कहते है | जनजाति आंदोलन पर एक निबंध लिखिए , कारण , परिणाम tribal movement in hindi

tribal movement in hindi जनजातीय आन्दोलन किसे कहते है | जनजाति आंदोलन पर एक निबंध लिखिए , कारण , परिणाम ?

 भारत में सामाजिक एवं राजनीतिक आन्दोलन
 उपनिवेशपूर्व काल
उपनिवेशपूर्व काल में कुछ जनजातियों ने उत्तर-पूर्व से लेकर, मध्य भारत होते हुए पश्चिमी व दक्षिणी भारत तक फैले अपने अधिकार क्षेत्र में राज्य स्थापित किए। जहाँ उन्होंने राज्य स्थापित नहीं किए, भरपूर स्वायत्तता व स्वतंत्रता कायम रखते हुए वे क्षेत्रीय राजनीतिक व्यवस्था में समाहित कर लिए गए। कहीं-कहीं जनजातियाँ के औपनिवेशिक शासन से पूर्व अशांत स्थितियों में होने की भी खबर थी। उदाहरणार्थ, एक रिपोर्ट के अनुसार, पश्चिमी भारत में गोंड, भील, कोली, जैसी जनजातियाँ अशांत स्थिति में थीं। यह सब आमूल रूप से औपनिवेशिक शासन के दौरान बदल गया जबकि जनजातीय स्वायत्तता और भूमि, वन, खनिज, आदि जैसे संसाधनों पर जनजातियों के नियंत्रण पर पहला बड़ा आघात देखा गया। उपनिवेशवाद ने जनजातियों अथवा वे जिन्होंने उन्हें समाहित किया था, द्वारा बनाए गए उपनिवेशपूर्ण राजनीतिक ढाँचों का विध्वंस भी देखा। इसी कारण, जनजातियाँ आयेदिन विद्रोह करती रहीं तथा औपनिवेशिक काल में उन्होंने किसी भी अन्य समुदाय की अपेक्षा एक वृहत्तर स्तर पर आन्दोलन व विरोध-प्रदर्शन आयोजित किए।

प्रथम चरण (1795-1860)
ब्रिटिश शासन के उदय और स्थापना के दौरान जनजातीय विद्रोहों का पहला चरण (1795-1860) दृष्टिगोचर हुआ जिसका वर्णन प्राथमिक विरोध आन्दोलनों के रूप में किया जा सकता है। संथाल विद्रोह (1855-6) ने कृषिक विद्रोह व पुनरुत्थान द्वारा संकेतित एक अन्तरवर्ती चरण का प्रतिनिधित्व किया।

उत्तर-पूर्व में भी जनजातीय क्रांतियों के उप-चरण इसी प्रकार सीमांकित किए जा सकते हैं। गारो और हजोंग जो अपने जमींदारों की नादिरशाही से मुक्त होने के लिए ब्रिटिश शासन के आगे झुक गए थे, पगाल पंथी के भाव में आ गए। उनका मुखिया, टीपू जो दमित कृषि-वर्ग का नेता बन गया था, ने एक साम्राज्य स्थापित किया और गिरफ्तार कर लिया गया। खासी उन मैदानी इलाकों में लूटपाट में लगे थे जहाँ उन्होंने 1787 से 1825 तक धावा बोले रखा। सिंगफो, मिशनी, लुशैस, खम्पती और दफ्लाओं ने मैदानी इलाकों में धावा बोला और लोगों को मार डाला। खासियों ने सड़क-निर्माण का विरोध किया, और तिरोत सिंह के नेतृत्व में खासी सरदारों के परिसंघ ने उनके देश पर कब्जा किए जाने हेतु ब्रिटिश प्रयास का प्रतिरोध किया। ब्रिटिशों ने लुसही, मिशमी आदि को दण्डित करने के लिए अभियान दल भेजे। मध्य भारत में, यह चरण 1857 में असम के मणिराम दीवान और सारंग राजा की क्रांति के साथ ही समाप्त हो गया।

द्वितीय चरण (1860-1920)
दूसरा चरण (1860-1920) उपनिवेशवाद के गहन काल के साथ ही शुरू हुआ, जहाँ जनजातीय व कृषि-वर्ग अर्थव्यवस्थाओं के भीतर व्यापारिक पूँजी, उच्चतर लगान-भार, आदि की कहीं अधिक गहरी घुसपैठ देखी गई। उच्चतर जनजातियों के शोषण को प्रबल कर दिया। इसके परिणामस्वरूप. अनेक जनजातियों को शामिल कर, मुल्कुइ लराई, फितूरी, मेली, उलगुलन और भूमअकाल जैसे इस प्रकार के उद्बोधक देशज शब्दों द्वारा अभिव्यक्त, बहुसंख्य आन्दोलन तो हुए ही बल्कि एक कहीं अधिक जटिल प्रकार का आन्दोलन भी हुआ, जिसने कृषिक, धार्मिक व राजनीतिक मामलों के एक विलक्षण घालमेल का भी प्रतिनिधित्व किया। एकेश्वरवाद, शाकाहारवाद, स्वच्छता, मद्य-निषेध, आदि के अपने मतों के साथ भक्ति आन्दोलन जनजातीय क्षेत्रों में सक्रिय भिखारियों (गोसाई), शिल्पकारों और कृषकों द्वारा शुरू किया गया। ईसाई धर्म भी आया और उसी के प्रभाववश एक नया जनजातीय मध्यवर्ग उद्गमित हुआ, जो शिक्षित, सचेत व स्वाभिमानी था। ईसाई धर्म व भक्ति आन्दोलन, दोनों ने सहस्त्राब्दिक आन्दोलनों के उदयार्थ इस चरण में योगदान दिया। जनजातीय आन्दोलनों ने विविध सोपानों में, अपनी व्यवस्था पर धावों और अपनी गढ़ी जाती इमारतों को टेक देने के प्रयास के विरुद्ध जनजातीय प्रतिरोध का प्रदर्शन किया। उनका अनुसरण सामाजिक-धार्मिक अथवा पुनर्जागरण आन्दोलनों द्वारा किया गया, नामतः, संथालों के बीच खेरवाड़ आन्दोलन (1871-80), मुण्डा व ओराओं के बीच ‘सरदार‘ पुनर्जागरण आन्दोलन (1881-90), छोटानागपुर में ताना ‘भगत‘ और हरिबाबा आन्दोलन, मध्यप्रदेश में ‘भगत‘ आन्दोलन तथा भील पुनर्जागरण, जो नए नई व्यवस्था बनाने हेतु जनजातीय आग्रह की अभिव्यक्ति से परिपूर्ण थे। आन्दोलन की ये दो पंक्तियाँ, इस उप-महाद्वीप की लम्बाई और चैड़ाई के माध्यम से विस्मयकारी समानताएँ सामने लायीं- चुनौती देती ताकतों के प्रायः उसी जटिल विचार के प्रत्युत्तर की आधारभूत एकता।

बिरसा मुण्डा (1874-1901) द्वारा चलाया गया आन्दोलन इस चरण के सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलनों में सर्वाधिक प्रसिद्ध है क्योंकि यह आन्दोलन मुण्डा राज स्थापना और स्वाधीनता की फिराक में था। इसके सामाजिक-धार्मिक पहलुओं में, यह किसी दूसरे भगत आन्दोलनों की भाँति ही था, फर्क था तो यह कि उक्त आन्दोलन ईसाई धर्म से भी प्रभावित था, और इसने मुण्डा विचारधारा व विश्व परिदृश्य को बनाने के लिए हिन्दू व ईसाई दोनों ही वाग व्यवहारों का प्रयोग किया। क्रांतिकारियों ने पुलिस थानों व कार्यालयों, गिरजाघरों व मिशनरियों पर हमला किया । यद्यपि दिकुओं (बाहरियों) के विरुद्ध शत्रुता का एक अन्तः प्रभाव था, कुछेक विवादास्पद मामलों को छोड़कर, उन पर कोई खुल्लमखुल्ला प्रहार नहीं हुआ। विद्रोह को कुचल दिया गया, परन्तु इससे मिले सबक छोटानागपुर किराएदारी कानून पास करने में कबूल किए गए। इसने मुण्डा भू-व्यवस्था की रक्षा करने, जनजातीय भूमि हस्तांतरण निषेध करने, भूमि का पुनः दावा करने के लिए जनजातीय अधिकार को मान्यता दिलाने और एक नई प्रशासनिक इकाई बनाने का प्रयास किया। उनकी क्रांति के मेवाड़ दरबार पर एक 21-सूत्रीय समझौता मसविदे पर हस्ताक्षर करने के लिए दवाब डाला।

तृतीय चरण (1920-1947)
तीसरे चरण (1920 से 1947) में, जनजातीय आन्दोलनों में हम तीन रुझान देखते हैं। पहला रुझान है – महात्मा गाँधी के नेतृत्व वाले स्वतंत्रता संघर्ष का प्रभाव, जहाँ उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन और पुनर्निर्माण कार्यक्रम में प्रमुख जनजातीय समूहों में से कुछ को लामबन्द किया। दूसरे रुझान का प्रतिनिधित्व भूमि व वन पुनरुत्थान तथा जनजातीय समाज के सुधार पर केन्द्रित आन्दोलनों द्वारा किया जाता है। तीसरा रुझान, जनजातीय मध्यवर्ग के नेतृत्व में स्वायत्तता, राज्य का दर्जा, पृथक्करण और स्वाधीनता की खोज करते आन्दोलनों के उदय द्वारा प्रतिबिम्बित होता है।
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हम संक्षिप्त में तीन आन्दोलनों का वर्णन कर सकते हैं: ओराओं के बीच तानाभगत आन्दोलन, हो एवं सम्बद्ध जनजातियों के बीच हरिबाबा आन्दोलन, और गोंड के बीच राजमोहिनी आन्दोलन । ‘मध्यकालीन भक्ति‘ परम्परा में डूबे हिन्दु कृषि-वर्ग के लिए महात्मा एक ‘भक्ति‘ प्रचारक की भाँति प्रतीत हुए, और जनजातीय लोगों के लिए एक भगत की भाँति । सर्वाधिक प्रसिद्ध भगत आन्दोलन था – तानाभगत आन्दोलन जो एक सहजवादी आन्दोलन की तर्ज पर शुरू हुआ। जबकि जनजातियों ने राष्ट्रीयवादी कार्यक्रम को स्वीकार कर लिया राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्यधारा में शामिल हो गए, उन्होंने आर्थिक व सांस्कृतिक शोषण के खिलाफ प्रतिरोध किया। स्वराज का अर्थ ब्रिटिश शासन से मक्ति मात्र नहीं था, बल्कि दिकुओं, साहूकारों, जमींदारों व सामंत-उच्चाधिपति के दमन से मुक्ति भी था।

राजसी राज्यों में जहाँ जनजातीय लोग अपेक्षाकृत अधिक पिछड़े थे, उन्हें लामबंद कर सामन्ती व्यवस्था के विरुद्ध प्रजा मण्डलों ने आन्दोलन शुरू किए। जिन जनजातियों ने खासकर इन आन्दोलनों का प्रत्युत्तर दिया, वे थीं – भील, गोंड, खारवाड़, मुण्डा और खोण्ड । उनमें से अधिकांश देश में सम्पत्ति, निजी या सामुदायिक, की द्योतक थीं, जिस पर औपनिवेशिक व्यवस्था और सामन्ती शोषण का खतरा मंडरा रहा था। कृषिक विषय जिन्होंने उन्हें उत्तेजित किया, थे – बेगार अथवा वेथ (बिना भुगतान अनिवार्य श्रम), रसाल अथवा मगान (आगन्तुक अधिकारियों हेतु रसद की मुफ्त आपूर्ति), और लगान के अलावा अन्य बलात् करों (अबलाओं) की माँग ।

दो स्वदेशी आन्दोलन जनजातीय संस्कृति के विशुद्ध व मौलिक तत्त्वों को पुनर्जाग्रत करने के प्रयास में लगे थे। 1889 के आरम्भ होते-होते खासी जीवन-शैली के संरक्षणार्थ सैंग खासी, खासियों के एक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन, की स्थापना हो चुकी थी। इसी मंच के माध्यम से गैर-ईसाई खासियों ने कुल संबंध की उस प्राचीन व्यवस्था को दृढ़ करने का प्रयास किया है जो बृहद्स्तर पर धर्म-परिवर्तन – खासी से ईसाई बनाने, से भंग हो गई थीं। दूसरा आन्दोलन, जेलीआंगनोंग आन्दोलन, जादूनांग के तत्त्वावधान में एक धार्मिक-सांस्कृतिक आन्दोलन के रूप में शुरू हुआ। यह एक ऊँचे राजनीतिक सुर में ढल गया और राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन से संबंध स्थापित कर लेने वाला एकमात्र आन्दोलन बन गया। गैडिनलियू के नेतृत्व में यह प्रबल रूप से राष्ट्रवादी रहा, उसने जनजातीय भाई-चारे को प्रोत्साहित किया और जेलीआंगनोंग लोगों के लिए एक पृथक् प्रशासनिक इकाई बनाने की माँग की जो कि मणिपुर, असम और नागालैण्ड के निकटवर्ती क्षेत्रों में निर्वाचक जनजातियों द्वारा आवासित राज्यक्षेत्रों में से ही बनाई जानी थी, और जिसके लिए ये राज्य सहमत नहीं हुए।

बोध प्रश्न 1
नोट: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए रिक्त स्थान का प्रयोग करें।
ख) अपने उत्तरों की जाँच इकाई के अन्त में दिए गए आदर्श उत्तरों से करें।
1) सँग खासी क्या है?
2) 1920-47 के दौरान भारत में जनजातीय आन्दोलनों की मुख्य प्रवृत्तियों को पहचानें।

बोध प्रश्नों के उत्तर
बोध प्रश्न 1
1) यह खासियों का एक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन था, जो 1889 में स्थापित हुआ। यह बृहद् स्तर पर खासियों द्वारा ईसाई धर्म अपनाए जाने के विरुद्ध खासी जीवन-शैली की रक्षा पर. अभिलक्षित था।
2) जनजातीय आन्दोलन की मुख्य प्रवृत्तियाँ थीं:
प) प्रथम प्रवृत्ति: भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रभाव और इसमें जनजातियों की भागीदारी।
पप) भूमि व वन से संबंधित जनजातीय आंदोलन और जनजातीय समाज में सुधारार्थ आंदोलन का सम्मिलन ।
पपप) स्वायत्तता, राज्य का दर्जा, पृथक्करण और स्वाधीनता की खोज में आंदोलन का उदय, और जनजातीय मध्यवर्गों का नेतृत्व ।

 उपनिवेशोपरांत काल
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उपनिवेशोपरांत काल में, शिक्षा व रोजगार में प्रगति, राजनीति में प्रतिनिधित्व तथा सत्ता में भागीदारी, और जनजातीय मध्यवर्ग के एक भाग की समृद्धि के बावजूद, जनजातीय लोगों की भू-संसाधन दोहन की उत्कटता और उनका उपांतकरण, आप्रवासन अथवा दारिद्र्य देखा गया । इसी कारण, इस काल में पहचान, समानता, अधिकार-प्रदान, स्व-शासन, आदि विषयों पर केन्द्रित बड़ी संख्या में आन्दोलनों का उदय देखा भी गया। जनजातीय आन्दोलन सामान्यतः दो वर्गों में बाँटे जा सकते हैं:
ऽ स्वायत्तता, स्वाधीनता, राज्य-निर्माण, और स्व-शासन हेतु राजनीतिक आन्दोलन ।
ऽ कृषिक व वनाधारित आन्दोलन – भूमि व वन जैसे संसाधनों पर नियंत्रण हेतु आन्दोलन अथवा भू-स्वत्व-अंतरण व विस्थापन के विरुद्ध तथा वन में प्रतिबंधों के विरुद्ध और वन संरक्षण हेतु दिशानिर्देशित आन्दोलन।

राजनीतिक आन्दोलन
स्वतंत्रोत्तर काल में गोंडों और भीलों के बीच राजनीतिक स्वायत्तता हेतु संसाधनों की अभिव्यक्ति के प्रयास हुए। राज्य पुनर्संगठित आयोग के समक्ष प्रस्तुत किए गए एक ज्ञापन-पत्र में, राजा नरेश सिंह जैसे राज गोंड नेताओं ने छत्तीसगढ़ तथा रेवा क्षेत्र में विदर्भ के निकटवर्ती जिलों के जनजातीय क्षेत्रों में से काटकर निकाले जाने वाले आदिवासियों हेतु एक पृथक राज्य निर्माण की माँग की। 19 मई, 1963 में नारायण सिंह उकी, गोंडवाना आदिवासी सेवा मंडल के प्रधान, ने गोंड तथा छत्तीसगढ़ तथा महाराष्ट्र में विदर्भ के निकटवर्ती जिलों के अन्य जनजातीय क्षेत्रों को सम्मिलित कर, गोंडवाना राज्य के निर्माण की माँग दोहराई।

यह बिहार के छोटानागपुर-संथाल परगना क्षेत्र में ही था कि जहाँ राजनीतिक स्वायत्तता और एक राज्य निर्माण हेतु आन्दोलन वास्तव में आगे बढ़ा। 1949 में, आदिवासी महासभा समाप्त कर दी। गई और वह एक नए क्षेत्रीय दल, झारखण्ड पार्टी में विलय हो गई। इसके पीछे थे – अतिवादी आन्दोलनों की विफलता और भारतीय संविधान निर्माण के अनुभव । झारखण्ड पार्टी, कम-से-कम, सिद्धांततः ही, छोटानागपुर के सभी निवासियों के लिए खुली थी। इस प्रकार, आन्दोलन में निर्माणकारी कारक के रूप में तृजातीयता से क्षेत्रवाद के बीच एक संक्रमण काल था। झारखण्ड आन्दोलन व दल के लिए 1952 से 1957 का काल अनेक विध उत्कर्ष काल था, जब वह छोटानागपुर-संथाल परगना क्षेत्र में प्रमुख दल के रूप में उद्गमित हुआ। 1957 में हुए दूसरे आम चनावों में इसका प्रभाव उड़ीसा तक फैलता देखा गया, जहाँ उसने पाँच सीटों पर कब्जा कर लिया और प्रदेश की राजनीति में सत्ता संतुलन बनाए रखा जो कि अस्थिरता की मारी थी। इसने उल्लेखनीय एकता दर्शायी, जनजातीय क्षेत्र में कानून लागू किए, यही हजारों लोगों को लामबन्द कर सका और अल्पकाल में ही अनेक विशालकाय जुलूस निकाल सका। साठ के दशकारंभ में इस दल का पतन शुरू हो गया। इसके पतन के निम्नलिखित कारण थे: विकास प्रक्रिया लोगों की संबद्धताय विकास के लिए शिक्षा पर प्रतिस्पर्धा, रोजगार तथा संसाधनों पर नियंत्रण से उन्नत ईसाई जनजातीय लोगों तथा पिछड़े गैर-ईसाई जनजातीय लोगों के बीच पनपती प्रतिद्वंद्विताय और झारखण्ड से कांग्रेस व जनसंघ को गैर-ईसाई जनजातीय लोगों के समर्थन का विचलन ।

छोटानागपुर के औद्योगिक और खनन पट्टी में और 1980 के आम चुनावों के बाद प्रदेश की राजनीति में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति के रूप में उद्गमित हुआ। अपने दायरे में कृषिक व कामगार वर्गों को शामिल कर इसने अलगाववादी आन्दोलन को विस्तृत आधार प्रदान करने का प्रयास किया। झारखण्ड का वर्णन उसके विचारधारकों द्वारा उस अन्तरूउपनिवेश के रूप में किया जाता है जिसका बाहरी व्यक्तियों द्वारा शोषण किया जा रहा हो । यद्यपि क्षेत्र खनिजों के 28 प्रतिशत का विवरण देता है, यह अपने विकासार्थ राज्य के बजट का मात्र 15 प्रतिशत ही प्रयोग करता है। विकास प्रक्रिया स्वयं ही स्थानीय निवासियों की शोषक है और बाहरी व्यक्ति रोजगार के सभी अवसरों पर कब्जा करने को घुस आए हैं।

उन अनेक परिवर्तनों के माध्यम से जिन्होंने झारखण्ड आन्दोलन को प्रभावित किया, एक पृथक राज्य हेतु समर्थनाधार का बढ़ना जारी रहा और प्रमुख राजनीतिक दलों को अपने विस्तार में लेते हुए, प्रचण्ड भी हुआ। उन्होंने अस्सी के दशक में क्षेत्रीय ढाँचों को खड़ाकर शुरुआत की। 1980 में प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने घोषणा की कि छोटानागपुर एक सांस्कृतिक रूप से भिन्न क्षेत्र है। नब्बे के दशकारंभ में यही बात एक स्वायत्त राजनीतिक प्राधिकार के शब्दों में तब्दील हो गई। 1988 में, भारतीय जनता पार्टी ने क्षेत्रीय पिछड़ेपन का वास्ता देकर वनांचल राज्य‘ गठित किए जाने हेतु स्वयं को वचनबद्ध किया। इस प्रकार, उन दो मुख्य पात्रों ने अपनी भूमिकाएँ ही बदल डाली जो काफी लम्बे समय से झारखण्ड के विरोध में थे। अस्सी के दशक में, भू तथा वन विषय राष्ट्रीयता, वर्ग तथा नृजाति प्रश्न, जो प्रमुख दलों द्वारा प्रायः उपेक्षित रहते थे, पर जोर देते हुए भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (मार्क्स.) को छोड़कर सभी वामपंथी दल ने एक पृथक् राज्य हेतु माँग का समर्थन किया। इस प्रकार, जबकि एक ओर झारखण्ड राज्य दृढ़ता से विकसित हो रहा था, नब्बे के दशक में यही बात, खासकर श्भाजपाश् द्वारा राज्य-समर्थक दलों हेतु चुनावी फायदों के शब्दों में रूपांतरित हो गई।

‘झारखण्ड विषयक समिति‘ ने एक स्वायत्त शासन स्थापित किए जाने की सिफारिश की। 1993 में झारखण्ड क्षेत्र स्वायत्त परिषद् (जे.ए.ए.सी.) अस्तित्व में आई, लेकिन यह उन लोगों की आकांक्षापूर्ति नहीं कर सकी जो एक सम्पूर्ण राज्य की माँग से कम पर राजी हो जाते। 1995 व 1996 में हुए दो आम चुनावों में, एक पृथक राज्य की वकालत करते अखिल भारतीय दल चुनाव जीत ले गए। 15 नवम्बर 2000 को, 1950 में झारखण्ड पार्टी द्वारा रखे गए एक झारखण्ड राज्य के लक्ष्य को वास्तविक रूप से प्राप्त करते और लगभग एक सौ वर्ष पूर्व, बिरसा मुण्डा द्वारा देखे गए एक जनजातीय राज के सपने को साकार करते हुए, झारखण्ड राज्य एक वास्तविकता बन गया।

उत्तर-पूर्व में राजनीतिक आन्दोलन
क्षेत्र की अनोखी भौगोलिक स्थिति और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की वजह से उत्तर-पूर्व में जनजातीय आन्दोलन स्वयं ही एक श्रेणी में खड़े हैं। सत्ता-हस्तांतरण की पूर्व-संध्या पर उत्तर-पूर्वी पहाड़ियों में राजनीतिक प्रक्रियाएँ अकस्मात् ही शुरू हो गईं जब जनजातीय जनों की एक काफी संख्या और खासी, मिजो, गारो आदि के बीच उनके अभिजात्यों का एक बड़ा वर्ग तथा नागाओं के बीच से भी एक वर्ग भारत की संवैधानिक प्रणाली में भाग लेने को राजी हो गए। पुरानी जनजातियों ने नए नाम रख लिए, छोटी जनजातियाँ बड़ी जनजातियों में विलय हो गईं, और ये जनजातियाँ एक नई नृजाति-व-राज्यक्षेत्र वाली पहचान बनाने को आपस में मिल गईं। जबकि स्वायत्त परिषदों अथवा राज्य के गठन तक की प्रक्रियाएँ सभी जनजातियों हेतु लगभग एक-सी ही थी, राष्ट्र-राज्य के साथ उनके संबंध के प्रश्न पर मतभेद थे। नागाओं के वर्ग ने विद्रोह का रास्ता चुना जिसका मिजो, मीति और त्रिपुरी आदि ने अनुसरण किया। इन्हीं जनजातियों के अन्य वर्गों ने बाद में अखण्डता को सर्वोपरि रखा। उदाहरण के लिए, नागालैण्ड में अन्गामी, आओ तथा सेमा, जिन्होंने नागा विद्रोह के आरम्भ में प्रमुख भूमिका निभाई थी, ने गंभीर क्षेत्रीय राजनीति का विकल्प चुना। गुरुत्वाकर्षण का केन्द्र इन जनजातियों के प्रभुत्व वाले क्षेत्र से कोण्यक व लोथा की ओर अब अन्तर्राष्ट्रीय सीमा तक खिसक गया है। विद्रोह पर अब हेमी, और कोण्यक व सँगखुल आदि का प्रभुत्व है। वास्तव में, इन अल्पसंख्यक जनजातियों के बीच हेमी, और कोण्यक व लैंगखुल आदि के प्रभुत्व वालों के खिलाफ एक विरोध रहा है। दूरस्थ व अल्पविकसित मोन व ट्यून्सैंग जिलों के एक संघीय राज्यक्षेत्र में गठन हेतु माँग भी उठी है।

 जनजातीय आन्दोलनों के लक्षण और परिणाम
जनजातीय आन्दोलनों का नेतृत्व मुख्यतः उनसे स्वयं ही उद्गमित हुआ है। जबकि प्रथम चरण का नेतृत्व जनजातीय समाज की ऊपरी परत से उभरा, दूसरे का इसकी निम्नतम सीढ़ी से उभरा। संथाल बंधु भूमिहीन थे – बिरसा मुण्डा एक रैयत अथवा एक परजा (फसल-बटाईदार) था और गोविंद गिरी एक हाली था। तीसरे चरण और उपनिवेशोपरांत कालों का नेतृत्व उभरते जनजातीय, मध्यवर्ग के सदस्यों द्वारा किया गया, मध्य भारत व उत्तर-पूर्व दोनों में । ये शिक्षित लोग थे जिनमें पादरी, प्रश्नोत्तरवादी, अध्यापक, जन-सेवक, ग्रामीण नेता और व्यवसायी शामिल थे जो अधिकतर धर्मनिरपेक्ष वाग व्यवहार करते थे। समाज-सुधार आन्दोलन का गाँधीवादी कार्यकर्ता जैसे बाहरी व्यक्तियों द्वारा, परजा मण्डल आन्दोलन का मोतीलाल तेजावत जैसे बाहरी व्यक्तियों द्वारा और नागेशिया जैसे कुछ जनजातीय विद्रोहों को “बनियों‘‘ द्वारा भी नेतृत्व किया गया ।

आन्दोलन के लक्ष्य उपनिवेशपूर्व राजतंत्र की पुनर्घाप्ति, सेवा कार्यकाल (चुअर), और भूमि (सरदार) और वृक्षारोपण अधिकार से लेकर बाहरी व्यक्तियों के निष्कासन, करारोपण की समाप्ति, समाज सधार, राजनीतिक स्वतंत्रता, या जनजातीय राज की स्थापना अथवा संवैधानिक और लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रणाली, जनजातीय राज्यों की रचना, समानता लाना और शोषण का अन्त करने तक विस्तीर्ण थे।

आन्दोलनों का सामाजिक व नृजातीय विषयक संयोजन एक एकल जनजाति के नेतृत्व वाले आन्दोलन से लेकर इन जनजातियों की अधीनस्थ जनजातियों व जातियों के संघ, शिल्पकारों व सेवा-समहों तक विस्तीर्ण था। अधिकतर आन्दोलन एक जनजाति तक सीमित थे लेकिन प्रथम चरण में इस प्रकार के आन्दोलन, जैसे कोल व संथाल विद्रोह, अनेक जनजातीय व गैर-जनजातीय समूहों पर छा गए । तीसरे व उपनिवेशोपरांत काल में जनजातियों के बीच विस्तृत आधार वाले राजनीतिक दल उभरे, उत्तर-पूर्व तथा मध्य भारत दोनों जगह अखिल भारतीय जनजातीय मंच शनैः शनैः साठ के दशक में उभरे।

सभी जनजातीय आन्दोलन सीमित स्तर के थे परन्तु उनका प्रभाव उस नीति पर तत्काल पड़ा जिसकी चर्चा ऊपर की गई है। उनके प्रभाव का तथापि लघु- व दीर्घावधि दोनों ही परिप्रेक्ष्यों में अध्ययन करना होता है। शुरू-शुरू में प्राधिकारियों ने जनजातीय मसलों को सम्बोधित करने, उनके संसाधनों के रक्षार्थ कदम उठाने, अधिकारियों तक पहुँच आसान बनाने आदि के लिए तत्काल उपाय करके प्रत्युत्तर दिया। लम्बे समय में औपनिवेशिक नीति ने जनजातियों हेतु पृथक्करण का संस्थाकरण किए जाने के लिए एक ढाँचा तैयार किया-प्रत्यक्ष व परोक्ष शासन तत्त्वों का संयोजन (राजसी राज्यों में, उत्तर-पूर्व आदि में), गैर-जनजातियों हेतु स्वत्व-अंतरण के विरुद्ध भूमि रक्षार्थ और वन में प्रथागत अधिकारों के रक्षार्थ वैधानिक व प्रशासनिक उपायों का संयोजन । तथापि, किस प्रकार का कोई विकास नहीं होना था – मिशनरियों को शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं का प्रबंध करने को आजाद छोड़ दिया गया था। जनजातिजनों की गरीबी ऋणग्रस्तता और पिछड़ेपन के विषय में पूछताछ संस्थापित करने और कल्याणकारी उपायों का पहला चक्र चलाने का काम गाँधीवादी कार्यकर्ताओं और तीस की दशकांत में कार्यभार ग्रहण करने वाले कांग्रेसी मंत्रिमंडलों पर छोड़ दिया गया।

विद्रोहों के परिणाम, इस प्रकार, सम्पूर्ण जनजातीय भारत के लिए एकसमान नहीं रहे। जबकि ब्रिटिश भारत में उन्होंने जनजातियों के लिए एक इतर-नियम प्रशासनिक व्यवस्था और जनजातीय जमीन के रक्षार्थ विशेष कृषिक कानून साधित किए थे, राजसी राज्यों में उनके लिए थोड़ा ही किया गया अथवा करने की अनुमति दी गई। तथापि, राजनीतिक एजेण्ट ने परिवर्तन को प्रोत्साहित करने की बजाय यथापूर्व स्थिति बनाए रखने के लिए हस्तक्षेप जरूर किया। यह उभयभाविता औपनिवेशिक व्यवस्था की अभिलक्षक थी।

 

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