JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

हिंदी माध्यम नोट्स

Categories: इतिहास

प्राचीन इतिहास का कालक्रम क्या है ? भारतीय इतिहास का काल विभाजन time division of ancient history in hindi

time division of ancient history in hindi प्राचीन इतिहास का कालक्रम क्या है ? भारतीय इतिहास का काल विभाजन ?

-कालक्रम-
तीसरी सहस्राब्दी ई० पू० सिंधु संस्कृति में लेखन की शुरुआत।
1500-1000 ई० पू० ऋग्वेदा
1000-500 ई० पू० यजुर्वेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद।
600-300 ई० पू० श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र।
छठी शताब्दी ई० पू० साहित्य के अनुसार महावीर और बुद्ध।
500-200 ई० पू० धर्मसूत्र।
पाँचवीं शताब्दी ई० पू० पुरातत्त्व के अनुसार महावीर और बुद्ध।
450 ई० पू० पाणिनि का व्याकरण।
326 ई० पू० सिकंदर का आक्रमणा
322 ई० पू० चंद्रगुप्त मौर्य का राज्यारोहणा
तीसरी शताब्दी ई० पू० भारत में बोधगम्य लिखावट।
58-57 ई० पू० विक्रम संव्त।
पहली शताब्दी ई० पू० कलिंग के खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख। श्रीलंका में
प्राचीनतम पालि मूलग्रंथ संकलित।
ईसवी सन् की निम्नांकित तिथियाँ
78 शक संवत् प्रारंभ।
80-115 द पेरिप्लुस ऑफ द एरिथ्रियन सी।
150 टोलेमी की ज्योग्राफी
319 गुप्त संवत् प्रारंभ।
400 महाभारत, रामायण और प्रमुख पुराणों का अंतिम रूप से
संकलन।
चैथी शताब्दी मध्य एशिया में प्राचीनतम भारतीय पांडुलिपि प्राप्त।
पाँचवीं शताब्दी फा-हियान का भारत में आगमन।
छठी शताब्दी वलभी में प्राकृत जैन मूलग्रंथ अंतिम रूप से संकलित।
सातवीं शताब्दी हुआन सांग का भारत में आगमन। बाणभट्ट कृत हर्षचरित
ग्यारहवीं शताब्दी अतुल कृत मूषिकवंश।
ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी विल्हण कृत विक्रमांकदेवचरित।
बारहवीं शताब्दी संध्याकर नंदी कृत रामचरित। कल्हण कृत राजतरंगिणी।
1837 जेम्स प्रिंसेप अशोक का अभिलेख पढ़ने में सफल हुआ।
विदेशी विवरण
विदेशी विवरणों को देशी साहित्य का अनुपूरक बनाया जा सकता है। पर्यटक बनकर या भारतीय धर्म को अपनाकर अनेक यूनानी, रोमन और चीनी यात्री भारत आए और अपनी आँखों देखे भारत के विवरण लिख छोड़े। ध्यान देने योग्य बात है कि भारतीय स्रोतों में सिकंदर के हमले की कोई जानकारी नहीं मिलती। उसके भारतीय कारनामों के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए हमें पूर्णतः यूनानी स्रोतों पर आश्रित रहना पड़ता है।
यूनानी लेखकों ने 326 ई० पू० में भारत पर हमला करने वाले सिकंदर महान के समकालीन के रूप में सैंड्रोकोटस के नाम का उल्लेख किया है। यह सिद्ध किया गया है कि यूनानी विवरणों का यह सैंड्रोकोटस और चंद्रगुप्त मौर्य, जिनके राज्यारोहण की तिथि 322 ई० पू० निर्धारित की गई है, एक ही व्यक्ति थे। यह पहचान प्राचीन भारत के तिथिक्रम के लिए सुदृढ़ आधारशिला बन गई। चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में दूत बनकर आए मेगास्थनीज की इंडिका उन उद्धरणों के रूप में ही सुरक्षित है जो अनेक प्रख्यात लेखकों की रचनाओं में आए हैं। इन उद्धरणों को एक साथ मिलाकर पढ़ने पर न केवल मौर्य शासन व्यवस्था के बारे में ही बल्कि मौर्यकालीन सामाजिक वर्गों और आर्थिक क्रियाकलापों के बारे में भी मूल्यवान जानकारी मिलती है। इंडिका अतिरंजित बातों से मुक्त नहीं है, पर ऐसी बातें तो अन्यान्य प्राचीन विवरणों में भी पाई जाती हैं।
ईसा की पहली और दूसरी सदियों के यूनानी और रोमन विवरणों में भारतीय बंदरगाहों के उल्लेख मिलते हैं, और भारत तथा रोमन साम्राज्य के बीच होने वाले व्यापार की वस्तुओं की भी चर्चा मिलती है।
यूनानी भाषा में लिखी गई पेरिप्लुस ऑफ द एरिथ्रियन सी और टोलेमी की ज्योग्राफी नामक पुस्तकों में भी प्राचीन भूगोल और वाणिज्य के अध्ययन के लिए प्रचुर महत्त्वपूर्ण सामग्री मिलती है। इनमें पहली पुस्तक 80 और 115 ई० के बीच किसी समय किसी अज्ञात लेखक ने लिखी, जिसने लाल सागर, फारस की खाड़ी और हिंद महासागर में होने वाले रोमन व्यापार का वृत्तांत दिया है। दूसरी पुस्तक 150 ई० के आसपास की मानी जाती है। प्लिनी की नेचुरलिस हिस्टोरिका ईसा की पहली सदी की है। यह लैटिन भाषा में है और हमें भारत और इटली के बीच होने वाले व्यापार की जानकारी देती है।
चीनी पर्यटकों में प्रमुख हैं-फा-हियान और हुआन सांग। दोनों बौद्ध थे और बौद्ध तीर्थों का दर्शन करने तथा बौद्ध धर्म का अध्ययन करने भारत आए थे। फा-हियान ईसा की पाँचवी सदी के प्रारंभ में आया था और हुआन सांग सातवीं सदी के दूसरे चतुर्थांश में। फा-हियान ने गुप्तकालीन भारत की सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक स्थिति पर प्रकाश डाला है, तो हुआन सांग ने इसी प्रकार की जानकारी हर्षकालीन भारत के बारे में दी है।

ऐतिहासिक दृष्टि
प्राचीन भारतीयों पर आरोप लगाया गया है कि उनमें ऐतिहासिक दृष्टि का अभाव था। यह तो स्पष्ट है कि उन्होंने वैसा इतिहास नहीं लिखा जैसा आजकल लिखा जाता है, और न वैसा ही लिखा जैसा यूनानियों ने लिखा है। फिर भी, हमें पुराणों में एक प्रकार का इतिहास अवश्य मिलता है। पुराणों की संख्या अठारह है; अठारह पारंपरिक पद हैं। विषयवस्तु की दृष्टि से पुराण विश्वकोश जैसे हैं, पर इनमें गुप्तकाल के आरंभ तक का राजवंशी इतिहास आया है। इनमें घटना के स्थलों का उल्लेख है और कभी-कभी घटना के कारणों और परिणामों का विवेचन भी किया गया है, परंतु यथार्थ में ये घटनाएँ विवरण लिखे जाने के काफी पहले हो चुकी थीं। इन पुराणों के लेखक परिवर्तन की धारणा से अनभिज्ञ थे, जो इतिहास का सारतत्त्व होती हैं। पुराणों में चार युग बताए गए हैं-कृत, त्रेता, द्वापर और कलि। इनमें हर युग अपने पिछले युग से घटिया बताया गया है और कहा गया है कि एक युग के बाद जब दूसरा युग आरंभ होता है तब नैतिक मूल्यों और सामाजिक मानदंडों का अधःपतन होता है। काल और स्थान, जो इतिहास के महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं, उनका महत्त्व इनमें बताया गया है। महाभारत के शांति पर्व में कहा गया है कि देश और काल के बदलने से अधर्म धर्म हो जाता है और धर्म अधर्म होता है। कई प्रकार के संवत् जिनके निर्देश के साथ घटनाएँ अभिलिखित होती थीं, प्राचीन भारत में ही शुरू हुए। विक्रम संवत् का आरंभ 57-58 ई० पूल में हुआ, शक संवत् का 78 ई० में और गुप्त संवत् का 319 ई० में। उत्कीर्ण अभिलेखों में घटनाओं का उल्लेख काल और स्थान के संदर्भ में किया गया है। तीसरी सदी ई० पू० के दौरान अशोक के शिलालेखों में काफी ऐतिहासिक दृष्टि लक्षित होती है। अशोक ने 37 वर्ष शासन किया। उसके शिलालेखों में उसके शासनकाल के आठवें से लेकर सत्ताइसवें वर्ष तक की घटनाएँ वर्णित हैं। अभी तक उसके जो शिलालेख मिले हैं उनसे उसके शासनकाल के केवल नौ वर्षों की घटनाओं का पता चलता है। भविष्य में और अभिलेखों के मिलने पर उसके शासनकाल के शेष वर्षों की घटनाओं का भी पता चल सकता है। इसी तरह ईसा की पहली सदी में कलिंग के खारवेल ने हाथीगुम्का अभिलेख में अपने जीवन की बहुत-सी घटनाओं का ज़िक्र वर्षवार किया है।
भारत के लोगों ने जीवनचरितात्मक रचनाओं में ऐतिहासिक दृष्टि का अच्छा परिचय दिया है। इसका सुंदर उदाहरण है हर्षचरित, जिसकी रचना बाणभट्ट ने ईसा की सातवीं सदी में की। यह लगभग जीवनचरित के ढंग का गद्यकाव्य है और अलंकारों से इतना जटिल है कि परवर्ती नकलचियों को निराश होना पड़ा। इसमें हर्षवर्धन के आरंभिक जीवन का वृत्तांत है। अत्युक्तियों की भरमार होते हुए भी यह हर्ष के दरबार की चहल-पहल और अपने युग के सामाजिक और धार्मिक जीवन का विलक्षण आभास देता है। बाद में कई और भी चरित लिखे गए। संध्याकर नंदी के समचरित (बारहवीं सदी) में बताया गया है कि कैवत्र्त जाति के किसानों और पाल वंश के राजा रामपाल के बीच किस तरह लड़ाई हुई और किस तरह रामपाल विजयी हुए। विल्हण के विक्रमांकदेवचरित में कल्याण के चालुक्य राजा विक्रमादित्य पंचम् (1076-1127) के पराक्रमों का वृत्तांत है। बारहवीं-तेरहवीं सदी में गुजरात में तो कई सेठों के भी चरित (जीवनी) लिखे गए। इस तरह की ऐतिहासिक रचनाएँ दक्षिण भारत में भी हुई होंगी, लेकिन अभी तक ऐसा एक ही वृत्तांत प्रकाश में आया है। इसका नाम है मूषिकवंश, जिसकी रचना अतुल ने ग्यारहवीं सदी में की। इसमें मूषिक राजवंश का वृत्तांत है जिसका शासन उत्तरी केरल में था। परंतु आरंभिक ऐतिहासिक लेखन का सबसे अच्छा उदाहरण है राजतरंगिणी (राजाओं की धारा), जिसकी रचना कल्हण ने बारहवीं शताब्दी में की। यह कश्मीर के राजाओं के चरितों का संग्रह है। दरअसल, यह पहली कृति है जिसमें आज के अर्थ में इतिहास के बहुत कुछ लक्षण विद्यमान हैं।

इतिहास का निर्माण
अब तक प्रागैतिहासिक और ऐतिहासिक दोनों तरह के बहत सारे परास्थलों की खदाई और छानबीन की जा चुकी है, परंतु प्राचीन भारतीय इतिहास की मुख्य धारा में उसके परिणामों को स्थान नहीं मिल पाया है। भारत में सामाजिक विकास किन-किन अवस्थाओं से गुजरा है इसका बोध तब तक नहीं हो सकता, जब तक प्रागैतिहासिक पुरातत्त्व के परिणामों की ओर ध्यान नहीं दिया जाएगा। इतिहासकालीन पुरातत्त्व भी उतने ही महत्त्व का है। यद्यपि प्राचीन इतिहास के काल के 150 से भी अधिक पुरास्थलों की खुदाई हो चुकी है, तथापि प्राचीन कालों के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रवृतियों के अध्ययन में उन खुदाइयों की प्रासंगिता का विवेचन सामान्य पुस्तकों में नहीं किया गया है। यह काम परम आवश्यक है। प्राचीन भारत के नगरीय इतिहास के संदर्भ में तो यह और भी जरूरी है। अब तक अधिकांशतः बौद्ध और कुछेक ब्राह्मणिक स्थलों के महत्त्व रेखांकित किए गए हैं, किंतु यह आवश्यक है कि धार्मिक इतिहास के अध्ययन में आर्थिक और सामाजिक पक्षों पर ध्यान दिया जाए।
प्राचीन इतिहास अभी तक मुख्यतः देशी या विदेशी साहित्यिक स्रोतों के आधार पर ही रचा गया है। सिक्कों और अभिलेखों की कुछ भूमिका अवश्य रही है, किंतु अधिक महत्त्व ग्रंथों को ही दिया गया है। अब नए-नए तरीकों की ओर ध्यान देना है। हमें एक ओर वैदिक युग और दूसरी ओर चित्रित धूसर मृद्भांड (पी० जी० डब्ल्यू०) तथा अन्य पुरातात्त्विक सामग्रियों के बीच पारस्परिक संबंध स्थापित करना है। इसी तरह, प्रारंभिक पालि ग्रंथों का सबंध उत्तरी काला पालिशदार मृद्भांड (एन० बी० पी० डब्ल्यू०) पुरातत्त्व के साथ जोड़ना होगा और, संगम साहित्य से प्राप्त सूचनाओं को उन सूचनाओं के साथ मिलाना है जो प्रायद्वीपीय भारत के आरंभिक महापाषाणीय पुरातत्त्व में मिलती हैं।
पुराणों में दी गई लंबी-लंबी वंशावलियों की अपेक्षा पुरातात्त्विक साक्ष्य को कहीं अधिक मूल्य दिया जाना चाहिए। पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार, अयोध्या के राम का काल 2000 ई० पू० के आसपास भले ही मान लें, पर अयोध्या में की गई खुदाई और व्यापक छानबीन से तो यही सिद्ध होता है कि उस काल के आसपास वहाँ कोई बस्ती थी ही नहीं। इसी तरह महाभारत में कृष्ण की भूमिका भले ही महत्त्वपूर्ण हो, पर मथुरा में पाए गए 200 ई० पू० से 300 ई० तक के बीच के अभिलेखों और मूर्तिकला कृतियों से उनके अस्तित्व की पुष्टि नहीं होती है। इसी तरह की कठिनाइयों के कारण महाभारत और रामायण के आधार पर कल्पित महाकाव्य युग (एपिक एज) की धारणा त्यागनी होगी, हालाँकि अतीत में प्राचीन भारत पर लिखी गई लगभग सभी सर्वेक्षण-पुस्तकों में इसे एक अध्याय बनाया गया है। अवश्य ही रामायण और महाभारत दोनों में सामाजिक विकास के विभिन्न चरण ढूँढे जा सकते हैं। इसका कारण यह है कि ये महाकाव्य सामाजिक विकास की किसी एक अवस्था के द्योतक नहीं हैं, इनमें अनेक बार परिवर्तन हुए हैं जैसा कि इस अध्याय में पहले बताया जा
चुका है।
कई अभिलेखों की उपेक्षा अब तक यह कहकर की जाती रही है कि उनका ऐतिहासिक मूल्य नाममात्र है। ‘ऐतिहासिक मूल्य‘ का अर्थ यह मान लिया गया है कि ऐसी कोई जानकारी जो राजनीतिक इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए अपेक्षित हो। पौराणिक अनुश्रुतियों की अपेक्षा अभिलेख निश्चय ही अधिक विश्वसनीय हैं, जैसे अनुश्रुति का सहारा सातवाहनों के आरंभ को पीछे ढकेलने में लिया जाता है, जबकि अभिलेखीय आधार पर उनका आरंभकाल ईसा पूर्व पहली सदी है। अभिलेखों में किसी राजा का शासनकाल, उसकी विजय और उसका राज्य-विस्तार ये बातें मिल सकती हैं, पर साथ ही राज्यतंत्र, समाज, अर्थतंत्र और धर्म के विकास की प्रवृत्तियाँ भी तो दिखाई दे सकती हैं। इसलिए प्रस्तुत पुस्तक में अभिलेखों का सहारा केवल राजनीतिक या धार्मिक इतिहास के प्रसंग में ही नहीं लिया गया है। अभिलेखीय अनुदानपत्रों का महत्त्व केवल वंशावलियों और विजयावलियों के लिए नहीं है, बल्कि और भी विशेष रूप से ऐसी जानकारी के लिए है कि किन-किन नए राज्यों का उदय हुआ और सामाजिक तथा भूमि-व्यवस्था में, विशेषतः गुप्तोत्तर काल में क्या-क्या परिवर्तन हुए हैं। इसी तरह सिक्कों का सहारा केवल हिंद-यवनों, शकों, सातवाहनों और कुषाणों के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए ही नहीं लेना है, बल्कि व्यापार और नगरीय जीवन के इतिहास की झलक पाने के लिए भी लिया जाना आवश्यक है।
सारांश यह है कि इतिहास निर्माण के लिए ग्रंथों, सिक्कों, अभिलेखों, पुरातत्त्व आदि से निकली सारी सामग्री का ध्यान से संकलन होना परमावश्यक है। बताया जा चुका है कि इसमें विभिन्न स्रोतों के आपेक्षित महत्त्व की समस्या खड़ी होती है। जैसे, सिक्के, अभिलेख और पुरातत्त्व उन मिथक से अधिक मूल्यवान हैं जो हमें रामायण, महाभारत और पुराणों में मिलते हैं। पौराणिक मिथक प्रचलित मानकों का समर्थन करते हैं, लोकाचार को वैध बताते हैं, और जातियों या अन्य सामाजिक वर्गों में संगठित लोगों के विशेषाधिकारों और अपात्रताओं को न्यायोचित ठहराते हैं, परंतु उनमें वर्णित घटनाओं को यों ही सही नहीं मान लिया जा सकता है। अतीत के प्रचलनों की व्याख्या उनके वर्तमान अवशेषों से, या आदिम जनों के अध्ययन से प्राप्त अंतर्दृष्टि से भी की जा सकती है। कोई भी ठोस ऐतिहासिक पुनर्निर्माण अन्य प्राचीन समाजों में होने वाली हलचल से आँखें मूंद नहीं सकता। तुलनात्मक दृष्टि को अपनाने से प्राचीन भारत में पाई जाने वाली किसी बात को ‘विरल‘ या ‘अभूतपूर्व‘ मान लेने का दुराग्रह दूर हो सकता है और अध्येताओं को ऐसी प्रवृत्तियाँ भी दिखाई दे सकती हैं जो अन्य देशों के प्राचीन समाजों की प्रवृत्तियों से मिलती-जुलती हों।

Sbistudy

Recent Posts

मालकाना का युद्ध malkhana ka yudh kab hua tha in hindi

malkhana ka yudh kab hua tha in hindi मालकाना का युद्ध ? मालकाना के युद्ध…

4 weeks ago

कान्हड़देव तथा अलाउद्दीन खिलजी के संबंधों पर प्रकाश डालिए

राणा रतन सिंह चित्तौड़ ( 1302 ई. - 1303 ) राजस्थान के इतिहास में गुहिलवंशी…

4 weeks ago

हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ? hammir dev chauhan history in hindi explained

hammir dev chauhan history in hindi explained हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ?…

4 weeks ago

तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच हुआ द्वितीय युद्ध Tarain battle in hindi first and second

Tarain battle in hindi first and second तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच…

4 weeks ago

चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी ? chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi

chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी…

1 month ago

भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया कब हुआ first turk invaders who attacked india in hindi

first turk invaders who attacked india in hindi भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया…

1 month ago
All Rights ReservedView Non-AMP Version
X

Headline

You can control the ways in which we improve and personalize your experience. Please choose whether you wish to allow the following:

Privacy Settings
JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now