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मजदूरी का लौह इस नियम का प्रतिपादन किस अर्थशास्त्री ने किया theory of wages in hindi
theory of wages in hindi मजदूरी का लौह इस नियम का प्रतिपादन किस अर्थशास्त्री ने किया ?
प्रश्न: ‘‘औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप नवीन आर्थिक सिद्धान्तों के उदय ने पूंजीवादी व्यवस्था के साथ ही समाजवादी व्यवस्था का भी पोषण किया।‘‘ विवेचना कीजिए।
उत्तर: नई आर्थिक विचारधारों का विकास। पूँजीवादी व्यवस्था को पोषित करने वाली नई आर्थिक विचारधाराओं का विकास हुआ।
1. पूंजीवाद का उदभव: औद्योगिकरण की प्रक्रिया एक नवीन सिद्धांत पर आधारित थी। व्यक्ति विशेष के द्वारा निवेश, बाह्य श्रम की प्राप्ति व लाभ के एक बड़े हिस्से को पाना।
2. आर्थिक स्वतंत्रता के सिद्धांत का विकास: आर्थिक गतिविधियों में राज्य व सरकार के नियंत्रण एवं अहस्क्षेप को नकारा गया। नियंत्रण व हस्तक्षेप की अनुपस्थिति में आर्थिक प्रगति व विकास के अधिक सकारात्मक पक्षों को समझा गया।
3. एडम स्मिथ का लैसेज फेयर का सिद्धांत इसका महानतम प्रतिनिधि था। अर्थात् राज्य कम से कम हस्तक्षेप करे। डेविड रिकार्डो ने भी इसी सिद्धान्त को समर्थन प्रदान किया।
4. माल्थस के सिद्धान्तों का उद्भव: माल्थस ने कहा कि श्रमिकों की दयनीय स्थिति प्राकृतिक नियम से संबंधित है। श्रमिकों की निर्धनता को बनाये रखने का दृष्टिकोण था। उसका आधार बताया कि जनसंख्या वृद्धि संसाधनों की तलना में बहुत तेजी से बढ़ती है। जनसंख्या की वृद्धि गुणात्मक जबकि खाद्यान की वृद्धि समांतर बढ़ती है अतः जनसंख्या सीमित रखने का सबसे अच्छा उपाय मजदूरों को दरिद्र अवस्था में बनाएं रखना चाहिए।
5. मजदूरी का लौह नियम : रिकार्डी – मजदूर के लिए केवल जीविका से अधिक कमा सकना संभव नहीं है।
6. पूंजीवाद की बराईयों के विरोध में समाजवाद का उद्भव था। समाजवाद वस्तुतः आर्थिक व्यक्तिवाद के विरोध में सामाजिक विद्रोह था। इंग्लैण्ड व फ्रांस के चिन्तकों ने इसमें विशेष भूमिका निभायी।
7. मानतावादी उद्योगपति: कुछ मानवतावादी उद्योगपति हुए जिन्होंने श्रमिकों एवं मजदूरों के कल्याण के लिए कुछ कदम उठाए। जिनमें ब्रिटिश – रॉबर्ट ओवन, विलियम थामसन, टॉमस हाडस्किन, फ्रांसीसी-सेंट साइमन, फाउरिये, लई ब्लॉक आदि समाजवादी विचारक प्रसिद्ध हैं। जिसे व्यवहारवादी धरातल प्रदान किया कार्ल मार्क्स एवं हीगल ने।
8. मार्क्सवाद का उद्भव: यह समाजवाद का वैज्ञानिक रूप था। साम्यवादी सिद्धान्त था जो पंजीवाद के प्रबल विरोध से जुड़ गया। समाजवाद अर्थात समाज में समानता की स्थापना करना। समानता – आर्थिक और राजनीतिक समानता।
इसमें अवसरों की समानता, योग्यतानुसार कार्य करने का अधिकार, समान कार्य के लिए समान वेतन, जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करने की भावना सन्निहित है। अन्तिम लक्ष्य है – वर्ग संघर्ष का अन्त कर वर्गहीन समाज की व्यवस्था करना। उत्पादन एवं वितरण के साधनों पर राष्ट्र का नियंत्रण हो।
i. आर्थिक व्यक्तिवाद के विरूद्ध
ii. श्रमिक व मजदूरों की एकता
iii. धन का न्यायोचित वितरण
प्रश्न: ‘‘किसी अन्य अवधारणा ने समाज को उतना प्रभावित नहीं किया, जितना कि औद्योगिक क्रान्ति ने।‘‘ औद्योगीकरण के सामाजिक प्रभावों की समीक्षा करें।
उत्तर: औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप नवीन सामाजिक संरचना व पदानुक्रम का विकास सम्भव हुआ। पूर्व आधुनिक यूरोपीय समाज कुलीन, पुरोहित वर्ग और जनसाधारण की श्रेणियों में विभाजित था जिसे सामान्यतः इस्टेट्स कहा जाता था। इन्हें अलग-अलग. अधिकार प्राप्त थे। उनमें किसी प्रकार की स्वायत्तता नागरिकों के समान अधिकारों का प्रश्न नहीं था। औद्योगिकरण के साथ ही सामाजिक संरचना में इस्टेट्स या तो समाप्त हो गए, इनका महत्त्व कम हो गया। समूह या श्रेणी की अवधारणा का स्थान प्रत्येक नागरिक के अधिकार ने ले लिया। इन नागरिकों का समूहीकरण जन्म के स्थान पर कर्म पर आधारित हुआ और समूहों का उदय वर्गों के रूप में हुआ, जिनमें भूमिपति वर्ग, बुर्जुआ वर्ग, श्रमिक वर्ग आदि थे।
कृषिगत क्रान्ति एवं व्यावसायिक क्रान्ति के फलस्वरूप भूपतियों को अत्यधिक मुनाफा हुआ जिससे उन्होंने उद्योगों में पूँजी का निवेश किया। इस प्रकार अंग्रेजी भूमिपतियों का पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में प्रवेश हुआ। 1832 ई. के अधिनियम के पूर्व संसद में भी इनका वर्चस्व था, बाद में इनके अधिकारों में व्यापक कमी आई और बुर्जुआ वर्ग की समृद्धि का मार्ग प्रशस्त हुआ।
पश्चिमी यूरोप में 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध को बुर्जुआ युग कहा जाता है। औद्योगिक समृद्धि में बुर्जआ वर्ग का वर्चस्व, नौकरशाही, स्वास्थ्य, कानून, शिक्षा, प्रकाशन, संचार एवं परिवहन आदि क्षेत्रों में बुर्जुओं वर्ग का वर्चस्व तथा ब्रिटेन में एक नई संस्कृति का विकास हुआ। बुर्जुआ वर्ग ने जनतंत्रीकरण के जरिए शक्ति एवं महत्व को प्राप्त किया और इस प्रक्रिया में यह भूमिपतियों एवं राजतंत्रों से हमेशा ही दूरी बनाए रखी। उनके बीच आपसी मतभेद अवश्य थे, लेकिन फिर भी वे विशेषाधिकार व तानाशाही के विरुद्ध एकजुट हुए। इसका मुख्य कारण यह था कि वे जब शासक वर्ग में शामिल हुए और उन्हें मजदूरों की ओर से जब उन्हें चुनौती मिली तो वे एक वर्ग के रूप में एकजुट रहे। इन प्रक्रियाओं के बाद धीरे-धीरे भूपतियों का भी बुर्जुआकरण हो गया।
20वीं शताब्दी में शिक्षा के प्रचार-प्रसार से इस वर्ग में सामान्य जन का भी प्रवेश हुआ और पूरे यूरोप एवं रूस में उग्र सुधारवादी राजनीति में इसी वर्ग के लोग आए। इससे सामाजिक प्रजातंत्र व महिला आंदोलन का जन्म हुआ। निम्न मध्यमवर्ग और मजदूर वर्ग की स्थिति के कारण शोषण पर आधारित शासन तथा समाजवाद का उदय हुआ। नवीन पारिवारिक संरचना का विकास भी औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप हुआ। अब संयुक्त परिवार के स्थान पर एकल परिवार की अवधारणा का विकास हुआ। अब विवाह के आधार पर परिवार के साथ-साथ पेशे पर आधारित परिवारों का विकास सम्भव हुआ। इस प्रकार पूर्वी यूरोप में एकल परिवार की संकल्पना का विकास एक नवीन विशेषता थी। इसके साथ-साथ समाज में धर्म का स्थान गौण होता चला गया तथा एक सामाजिक शक्ति के रूप में धर्म का महत्व कम हो गया।
औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप समाज में गतिशीलता का प्रादुर्भाव हुआ। इससे न सिर्फ लोगों का ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में पलायन हुआ, बल्कि यह गतिशीलता आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक गतिशीलता के रूप में भी मुखर हई।
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