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आपेक्षिकता का सिद्धांत किसने दिया , theory of relativity was given by in hindi विशिष्ट और सामान्य
theory of relativity was given by in hindi आपेक्षिकता का सिद्धांत किसने दिया विशिष्ट और सामान्य ?
विषय-प्रवेश (Introduction)
अल्बट आइन्सटीन द्वारा प्रतिपादित आपेक्षिकता का सिद्धान्त एक ऐसा सिद्धान्त है जिसने अपने । समय के प्रचलित चिरसम्मत अनेक सिद्धान्तों एवं अभिधारणाओं को बदल डाला है। इस सिद्धान्त के दो भाग हैं
- आपेक्षिकता का विशिष्ट सिद्धांत (Special theory of relativity),
(ii) आपेक्षिकता का सामान्य सिद्धान्त (General theory of relativity)|
आपेक्षिकता के विशिष्ट सिद्धान्त को आइन्सटीन ने 1905 में प्रतिपादित किया था। यह सिद्धान्त नियत वेग से गतिशील निर्देश तन्त्रों में पिण्डों के व्यवहार से सम्बन्ध रखता है। इस सिद्धान्त का मुख्य उद्देश्य पिण्डों की निरपेक्ष गति (absolute motion) की पहेली (riddle) को हल करने का है। आइन्सटीन ने कई प्रयोगों के परिणामों की व्याख्या करते समय यह ज्ञात किया कि स्थिर निर्देश फ्रेम मुक्त आकाश (free space) में भी ज्ञात नहीं किया जा सकता है अर्थात मुक्ताकाश में निरपेक्ष गति का कोई अर्थ नहीं। होता है।
सन् 1915 में आइन्सटीन ने गुरुत्वीय क्षेत्रों की उपस्थिति तथा त्वरण के प्रभाव को ध्यान में रखकर अपने इस सिद्धान्त को व्यापक रूप दिया। इसे आपेक्षिकता का सामान्य सिद्धान्त कहते हैं।
इस सिद्धान्त का आधार ‘तुल्यता का सिद्धान्त’ (Principle of equivalence) है, जिसके अनुसार
‘प्रकृति के नियमों की रचना इस प्रकार की जानी चाहिए कि एकसमान गुरुत्वीय क्षेत्र और त्वरित निर्देश तन्त्र में अन्तर स्थापित करना असम्भव हो जाये।’ ।
उपर्यक्त सिद्धान्त को समझने के लिये कल्पना कीजिये कि एक प्रेक्षक किसी बन्द लिफ्ट में स्थित है। जब लिफ्ट एकसमान वेग से गति करती है तो उस समय यदि वह कुछ गेंदे लिफ्ट में ही ऊपर से गिराये तो सब गेंदे समान त्वरण ‘g’ से गति करती हैं और प्रेक्षक के अनुसार उन सब पर समान गुरुत्वीय क्षेत्र कार्य करता है। उपर्युक्त व्याख्या इस तथ्य पर आधारित है कि प्रेक्षक को लिफ्ट के समान वेग से गति का ज्ञान है। यदि उसे यह ज्ञान न होता तो यह भी कल्पना की जा सकती थी गण्ट रुधिर त्वरण a = g से ऊपर की ओर गतिशील है व गेदों पर कोई क्षेत्र कार्यरत नहीं है। मस्त हैं व प्रेक्षित त्वरण त्वरित निर्देश तन्त्र के कारण आभासी (छदम) त्वरण है। इसी प्रकार व में यदि कोई प्रेक्षक जड़त्वीय निर्देश तन्त्र के सापेक्ष त्वरण ‘g’ से क्षेत्र की दिशा में गति नोपभाविक रूप से गुरुत्वीय क्षेत्र प्रभावहीन हो जाता है और भारहीनता की अवस्था प्राप्त होती है। शक की त्वरित गति गुरुत्वीय क्षेत्र को निष्प्रभावी बना सकती है। इस प्रकार प्रभाव स्वरूप गुरुत्वीय क्षेत्र व त्वरित निर्देश तन्त्र में अन्तर करना असंभव होता है।
संक्षेप में भौतिकी के नियमों को ऐसे रूप में लिखा जाना चाहिए कि वे निर्देश तंत्र की गति पर निर्भर न हों।
Oa’ = √Oa2 + aa2
Ct21 = √d2 + v 2 t212
या t21 = d/√c2 – v2
चित्र (4) इसी प्रकार परावर्तित प्रकाश किरण a’ से लौटकर आयेगी तो बिन्दु 0 विस्थापित होकर O’ पर पहुँच जायेगा तथा a’ से 0′ तक पहुँचने में समय लगा होगा
T22 = d/√c2 – v2
इस प्रकार परावर्तित प्रकाश किरण को 0 से a’ तक तथा वापस O’ तक पहुँचने में लगा कुल समय होगा
T2 = t21 + t22
= 2d/√c2 – v2 = 2d/c (1 – v2/c2)-1/2
= 2d /c (1 + 1 v2/2 c2) …………………….(2)
[द्विपद प्रमेय के उपयोग से तथा
के उच्च घातों वाले पदों को उपेक्षीय मान कर, क्योंकि v2/c2
अतः परावर्तित तथा अपवर्तित किरणों को दर्पण M1 तथा M2 से परावर्तित होकर पुनः प्लेट तक पहुंचने में लगे समय का अन्तर
T = t2 – t1 = 2d/c (1 + v2/c2) -2d/c (1 + v2/2c2)
= 2d/c (1 + v2/c2 – 1 – v2/2c2)
T = 2d/c x (v2/2c2)
= dv2/c3 …………………(3)
यह समयान्तर निम्न पथान्तर के तुल्य होगा
पथान्तर x = c t = dv2/c2 …………………….(4)
अब दूरदर्शी T द्वारा व्यतिकरण प्रतिरूप देखने के पश्चात् सम्पूर्ण उपकरण को 90° से घुमा देते हैं ताकि Ob पथ पृथ्वी की गति की दिशा के लम्बवत् तथा Oa पद समान्तर हो जाये। यह घूर्णन विपरीत दिशा में पथान्तर उत्पन्न कर देगा जिससे कुल पथान्तर
2x = 2dv2/c2
यदि इस पथान्तर में n फ्रिजें आती हैं तो 2x = n λ
202
विस्थापित व्यतिकरण फ्रिन्जों की संख्या n = 2dv2/ λc2 …………………………..(5)
माइकलसन-मोरले प्रयोग में d = 11 मीटर तथा λ = 5890 x 10-10 मीटर रखा गया था। पृथ्वी का रेखीय वेग v = 3x 104 मी/से तथा c = 3 x 108 मी/से होता है। उपर्युक्त मानों को समीकरण (5) में रखने पर,
विस्थापित फ्रिन्जों की संख्या n = 2 x 11 /5890 x 10-10 (3 x 104/3 x 108)2
= 0.37
अत: उकरण को 90° घमाने से फ्रिन्जों में विस्थापन 0.37 फ्रिन्ज होना चाहिए। परन्तु माइकलसन
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