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विद्युत दोहरी सतह का सिद्धांत क्या है , Theory of electrical double layer in hindi definition
पढ़िए कैसे और विद्युत दोहरी सतह का सिद्धांत क्या है , Theory of electrical double layer in hindi definition ?
(ब) विद्युतीय दोहरी सतह का सिद्धान्त (Theory of electrical double layer) — यह सिद्धान्त सर्वप्रथम 1879 में हेल्म-होल्ट्ज द्वारा दिया गया था। उनके अनुसार कोलॉइडों में विद्यमान दो प्रावस्थाओं क्रमशः ठोस व द्रव के मध्य एक विद्युत की दोहरी सतह बन जाती है। उन्होंने इसकी तुलना समानान्तर प्लेट संघनित्र से की जिसके मध्य पदार्थ के अणु की दूरी है। उन्होंने सुझाया कि दोनों प्रावस्थाओं के अन्तरापृष्ठ (inter face) पर विभवान्तर बहुत तीक्ष्ण (sharp) होना चाहिए। गॉय (Gouy) ने 1909 में इस अवधारणा में कुछ सुधार किया और विसरित दोहरी सतह (diffused double layer) की अवधारणा दी। स्टर्न ने इन दोनों अवधारणाओं को मिश्रित करके कोलॉइडी विलयनों के आवेश की व्याख्या की। स्टर्न के अनुसार दोहरी सतह में दो भाग होते हैं : (1) एक भाग ठोस सतह के साथ लगभग स्थिर रहता है। इसे दोहरी सतह का स्थिर भाग कहते हैं जिस पर धनायन या ऋणायन आयन होते हैं। इसमें विभव की तीव्र गिरावट होती है।
(2) दूसरा भाग कुछ दूरी तक द्रव प्रावस्था में फैला रहता है इसे विसरित भाग कहते हैं। इसमें दोनों आवेशों वाले आयन विद्यमान रहते हैं। इस भाग का कुछ आवेश स्थिर भाग के आवेश के एकदम समान एवं विपरीत जीटा विभव चिह्न का होता है। (चित्र 6.9) इसमें विभव की गिरावट शनैः शनैः होती है, क्योंकि द्रव के अधिकांश भाग में आवेश का वितरण असमान होता है। स्थिर एवं विसरित भाग युक्त दोहरी सतह में विपरीत आवेश होने के कारण इन दोनों सतहों के मध्य एक विभव स्थापित हो जाता है। इस विभव को विद्युत् गतिज विभव (electro kinetic potential) (zeta potential) कहा जाता है और (जीटा) द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। स्थिर विसरित इस प्रकार स्थिर सतह और वितरण माध्यम के मध्य emf स्थापित हो जाता है।
यही सिद्धान्त कोलॉइडी विलयनों पर लागू होता है, जो आवेश आयन कोलॉइडी कणों द्वारा वरीयता से अधिशोषित हो जाते है, वे दोहरी या द्विक स शेष आयन विसरित सतह में रहते हैं। अधिशोषित आयनों के कारण कोलॉइडी कण आवेशित हो जाते हैं। और दोनों भागों के विपरीत आवेश के कारण इनकमध्य एक विभवान्तर स्थापित हो जाता है।
कोलाइडी कणों पर आवेश का उद्गम (Origin of Charge on Colloidal Particles) | कोलॉइडों का एक प्रमुख गुण वैद्युत गुण है और कोलॉइडों के स्थायित्व का कारण भी यही वैद्युत गुण है तो प्रश्न उठता है कि इन कोलॉइडी कणों पर धन अथवा ऋण आवेश आता कहां से है, इस आवेश का उद्गम क्या है? इसकी व्याख्या करने के लिए कई धारणाएं हैं जिनमें से प्रमुख हैं :
पुरानी धारणाएं (Old views) :
(I) आयनों के कारण उत्पन्न आवेश (Charge produced due to ions) – कुछ कालाइडा मापदाय के आयनों के कारण आवेश उत्पन्न होता है। उदाहरणार्थ, साबुन (C17,H35SCOONa , सोडियम स्टीयरेट) के विलयन में ऋणावेशित स्टीयरेट आयन परस्पर संयुक्त होकर झुण्ड रूप में जो कोलॉइडी कण बनाएंगे वे ऋणावेशित होंगे। अतः साबुन, अपमार्जक अथवा इस प्रकार के अन्य पदार्थों के कोलॉइडी विलयन ऋणावेशित होते हैं।
(ii) अवशोषण-वियोजन के परिणामस्वरूप उत्पन्न आवेश (Charge resulting from absorption-dissociation) : कभी-कभी कोलॉइडी कण किसी अणु को अवशोषित करके फिर वियोजित हो जाते हैं जिससे आवेशित कोलॉइडी कण बनते हैं। उदाहरणार्थ, आर्सेनियस सल्फाइड सॉल के कण HS को अवशोषित करके फिर वियोजित होकर प्रोटॉन त्याग देते हैं जिससे ऋणावेशित कणों वाला सॉल बनता है।
As2S3 + H2S AS2S3H2S As2S3HS + H+
ऋणावेशित कोलॉइड
(iii) घर्षण से भी इनमें विद्युत् आवेश आ सकता है।
(iv) धातुओं के विद्युत् वितरण के समय कोलॉइडी कण इलेक्ट्रॉनों को ग्रहण करके ऋणावेशित कण बना सकते हैं।
(v) कोलॉइडी कण पर यदि अम्लीय अथवा क्षारीय समूह है तो वे माध्यम से प्रोटॉन ग्रहण करके अथवा प्रोटॉन त्याग करके आवेशित कण बना लेते है। उदाहरणार्थ, प्रोटीन का कोलॉइडी विलयन यदि अम्लीय माध्यम में लिया जाए तो उनके-NH2 समूह प्रोटॉन ग्रहण करके -NH समूह बना लेंगे और इस प्रकार धनावेशित हो जाएंगे। इसके विपरीत यदि प्रोटीन का कोलॉइडी विलयन क्षारीय माध्यम में लिया जाए तो क्षारीय माध्यम इसके _COOH समहों में से प्रोटॉन ग्रहण करके उन्हें —C00 समूह में परिवर्तित कर देंगे। इस प्रकार प्रोटीन का ऋणावेशित कोलॉइडी विलयन प्राप्त होगा। II. आधुनिक धारणाएं (Modern Views) :
(अ) आयनों का प्रायिक अधिशोषण (Preferential Absorption of lons) — कुछ कोलॉइडी कण समान आयनों को अधिशोषित करके आवशित हा जात ह। अतः यदि NaCI विलयन में AgNO3 जाएगा तो AgCI का अवक्षेप बनेगा जो विलयन के समान आयन CT को अधिशोषित करके ऋणावेशित कोलॉइडी विलयन बनाएगा [चित्र 6.8 (a)]
इसके विपरीत यदि AgNO3 विलयन में HCI विलयन डाला जाए तो बना हुआ AgCI का अवक्षेप अपने से समान Ag’ आयनों को अधिशोषित करके धनावेशित कोलॉइडी विलयन बना लेते हैं। इस प्रकार विपरीत परिस्थिति में AgCI का धनावेशित कोलॉइडी विलयन प्राप्त होता है (चित्र 6.8 (b)]
(iv) गतिक गुण (Kinetic properties) : सन् 1827 में एक अंग्रेज बनस्पति शास्त्री रॉबर्ट ब्राउन (Robert Brown) ने पाया कि यदि पराग कणों को जल में डाला जाए तो वे लगातार इधर-उधर अनिश्चित पथ पर गति करते रहते हैं। बाद में पाया गया कि समस्त कोलॉइडी विलयनों के कण भी ऐसे ही अनिश्चित वेग से अनिश्चित पथ पर गति करते हैं। कोलॉइडी कणों की इस गति को ब्राउनियन गति (Brownian movement) कहते हैं (चित्र 6.5)। यह गुण प्रत्येक कोलॉइडी विलयन का गुण है। _
सन् 1955 में आइन्स्टीन ने ब्राउनियन गति के कारण की व्याख्या अणुगति Eसिद्धान्त के आधार पर की। उन्होंने बताया कि कोलॉइडी कणों पर वितरण माध्यम या विलायक अणुओं का विपरीत दिशा में असामान्य बल कार्य करता है। इससे चित्र सामायबलमा कोलॉइडी कणों का पथ परिवर्तित होता जाता है और वे बेतरतीब (zig-zag) ढंग से गति करते जाते हैं। इसे चित्र 6.6 द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है।
(v).प्रकाशिक गुण (Optical properties) : यदि प्रकाश की किसी किरण को किसी वास्तविक विलयन में से प्रवाहित किया जाए तो वह उसमें से प्रवाहित हो जाता है, लेकिन हमें दिखायी नहीं देता। लेकिन यदि इसे किसी कोलॉइडी विलयन में से प्रवाहित किया जाए तो बड़े आकार के कोलॉइडी कण इसे विकीर्णित कर देंगे जिससे हमें वह दिखायी देने लगता है (चित्र 6.7)। हम अपने घरों में कई बार देखते हैं कि सुबह-सुबह सूर्य की पहली किरण यदि चित्र 6.6. कोलॉइडी कणों की ब्राउनियन किसी बन्द खिड़की में बने सुराख या छेद में से कमरे में आ रही गति का कारण हो तो हमें किरण के पथ का पूरा स्तम्भ-सा नजर आता है जिसमें अनेकानेक नन्हें-नन्हें कण ब्राउनियन गति करते नजर आते हैं। वस्तुतः वे वायुमण्डल में विद्यमान धूल के कोलॉइडी कण होते हैं जो प्रकाश को विकीर्णित करने के कारण चमकते नजर आते हैं और उन्हीं चमकते कणों के कारण हमें प्रकाश की किरण का स्तम्भ नजर आता है। इसका अध्ययन सर्वप्रथम टिण्डल नाम के वैज्ञानिक ने किया था, इसी से इस प्रभाव को टिण्डल प्रभाव (Tyndall effect) कहते हैं।
(vi) रंग (Colour) : कोलॉइडी कणों के प्रकाश को प्रकीर्णित करने का गण होता है। यदि इस प्रकीर्णित प्रकाश की तरंग-दैर्ध्य का मान प्रकाश के दृश्य क्षेत्र में होता है तो कोलॉइड रंगीन दिखायी देते हैं। रंग की गहराई उनके कणों के आकार पर निर्भर करती है। उदाहरणार्थ, सिल्वर के कोलॉइडी विलयन के कणों के आकार में वृद्धि से उसका रंग गहराता जाता है जैसा कि निम्न सारणी में दर्शाया गया है
सारणी 6.4
सिल्वर सॉल का रंग | कणों का व्यास (mm) | |
1.
2.
3.
4. | नारंगी पीला
नारंगी लाल
पर्पल या हल्का बैंगनी
गहरा बैंगनी | 6 x 10-5
9 x 10-5
13 x 10-5
15 x 10-5 |
(vii) वैद्युत गुण (Electrical properties) : कोलॉइडी कणों का एक महत्वपूर्ण गुण यह है कि कोलॉटरी कणों पर सदैव धन अथवा ऋण-आवेश होता है और किसी एक कोलाइड या साल क समस्त कणों पर समान आवेश होता है। उदाहरणार्थ, ASS, सॉल के कणों पर ऋणावेश होता है तो TIO) व Fe(OH)3 सॉलों के समस्त कण धनावेशित होते हैं।
कुछ प्रमुख कोलॉइडों के आवेश को अग्र सारणी में दर्शाया गया है। ये परिणाम वैद्युत कण संचलन के प्रयोगों से प्राप्त हुए हैं जिनमें जल को वितरण माध्यम के रूप में प्रयुक्त किया गया है :
सारणी 6.5
धनावेशित कोलॉइड | ऋणावेशित कोलॉइड |
(1) . Fe(OH)3 (2) AI(OH)3 (3) क्षारीय रंजक (4) हीमोग्लोबिन (5) TiO2 | (1) धातुएं-Au, Ag, Pt, आदि (2) As2S3 (3) स्टार्च (4) मिट्टी (5) सिलिसिलिक अम्ल |
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