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जैन धर्म ग्रंथ का नाम क्या है | जैन धर्म ग्रंथों को कहते हैं , की पवित्र पुस्तक text book of jainism in hindi

text book of jainism in hindi जैन धर्म ग्रंथ का नाम क्या है | जैन धर्म ग्रंथों को कहते हैं , जैन धर्म की पवित्र पुस्तक ?

जैन धर्म के संप्रदाय (Sects in Jainism)
सभी जीवंत धर्म के एक बड़े दायरे में विभिन्न विचारों का समावेश रहता है। इस प्रक्रिया से ही कई संप्रदाय और पंथ उभरते हैं। साहित्य से यह पता चलता है कि जिन (महावीर) के ही जीवन काल में जैन धर्म में ‘‘निहनव‘‘ (nihnava) की अवधारणा उभरने लगी थी। इस तरह सात और चिंतन-धाराएं दो प्रमुख शाखाओं-दिगंम्बर और श्वेताम्बर के उभरने के पहले सामने आ चुकी थी। यह विभाजन महावीर की मृत्यु के 609 वर्ष बाद हुआ (वैसे वास्तविक तिथि को लेकर मतभेद हैं) और मुद्दा था कि जैन श्रमण को वस्त्र धारण करना चाहिए अथवा नहीं। भतभेद का दूसरा बिन्दु था जिसमें दिगम्बर कहते थे कि स्त्रियां मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकतीं। शताब्दियों तक उत्थान के क्रम में इस धर्म के प्रमुख संप्रदाय भी कई पंथों अर्थात ष्गच्छष् में बंट गए। 16वीं शताब्दी में श्वेताम्बर शाखा के भीतर ही ‘‘स्थानकवासी‘‘ नामक पंथ पश्चिमी भारत में उभरा। इस पंथ ने (महावीर) की मूर्तियों की पूजा का त्याग कर दिया। उधर 16वीं शताब्दी में ही दिगम्बर संप्रदाय के अंदर ‘‘तेरापंथ‘‘ नामक पंथ चल पड़ा। तेरापंथ ने भी जैन धर्म में मूर्ति पूजा का विरोध किया। महत्वपूर्ण बात यह है कि श्वेताम्बर संप्रदाय से 84 गच्छ कई शताब्दियों में निकले लेकिन उनमें से अधिकांश आज अस्तित्व भी नहीं हैं। श्वेताम्बर शाखा से निकले पंथों में खस्तरा, तप एवं अंचला गच्छ सबसे महत्वपूर्ण थे। दिगम्बर संप्रदाय की महत्वपूर्ण पंथों में से नंदी, कस्ठ, द्रविड़ तथा सेन हैं।

जैन धर्म ग्रंथ (Jain Scriptures)
महावीर के युग से ही जैन धर्म के पवित्र धर्म ग्रंथ मौखिक रूप से संरक्षित किये जा रहे थे। जैन परिषद के द्वारा समय-समय पर इस साहित्य को क्रमानुसार भी किया जाता था। ईसा पूर्व चैथी शताब्दी के अंत में पहली बार पाटलीपुत्र (पटना) में आयोजित परिषद की बैठक ने प्रामाणिक जैन धर्म-विधान साहित्य को क्रमबद्ध किया। उसके बाद ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में भी यह काम मथुरा तथा वल्लभी में सम्पन्न किया गया। परिषद द्वारा चैथी और अंतिम बार यह कार्य वल्लभी में सन 454 अथवा 467 ई. में किया गया। यह परिषद श्वेताम्बर जैन धर्म ग्रंथों का मुख्य स्रोत रहा है। श्वेताम्बर जैन-विधान में 45 अंग हैं जिनमें 11 अंग (मूल रूप से 12 अंग थे, 12वां अंग अब नहीं मिलता), 12 उपांग (छोटे हिस्से), 4 मूल-सूत्र, 6 चेद सूत्र, 2 चुलिका सूत्र और 10 परिकीर्णक (मिला-जुला पाठ) हैं। श्वेताम्बर शाखा के यही धर्म-विधान माने जाते हैं।

श्वेताम्बर पवित्र धर्म विधान के रूप में अगम का अनुसरण करते हैं। दिगम्बर यह मानते हैं कि जैन धर्म का मूल धर्म-विधान खो चुका है और महावीर के उपदेशों का सार जैन चित्रों, मूर्तियों आदि में ही सुरक्षित है। वे प्राकृत भाषा में पुष्पदंत एवं भूतबलिन रचित ‘‘कर्म‘‘ में ‘‘कर्म प्रभ्रत‘‘ का ध्यान तथा गुणाधार रचित ‘‘काषाय‘‘ के अध्याय काषायप्रभ्रत को मान्यता देते हैं। वे कुछ प्राकृत के ग्रंथों को सम्मान के भाव से देखते हैं।

बोध प्रश्न 2
सही उत्तर पर () का निशान लगाइए
1) जैन धर्म ने,
क) बौद्ध धर्म की तरह वेदों को प्रमाण के रूप में माना।
ख) बौद्ध धर्म से उलट वेदों को प्रमाण के रूप में नहीं माना।
ग) बौद्ध धर्म की तरह वेदों को प्रमाण नहीं माना।
घ) बौद्ध धर्म से उलट वेदों को प्रमाण के रूप में मान लिया।
2) जैन धर्म का मूल सिद्धांत है,
क) पूरी प्रकृति जीवंत है
ख) केवल मनुष्य जीवंत है
ग) कुछ भी जीवंत नहीं है
घ) चट्टान भी साधना के बाद जीवंत हो सकता है।

बोध प्रश्न 2 उत्तर
प) ग)
पप) क)

जैन धर्म के धार्मिक अनुष्ठान (Religions Practices of the Jains)
पिछले अनुभाग में हमने एक काल-खंड में जैन धर्म के उत्थान और विकास तथा उसके मूल सिद्धांत के बारे में चर्चा की। अब हम धार्मिक अनुष्ठानों और जैन जीवन शैली के बारे में चर्चा करेंगे।

 जैन धर्म (Religions among the Jains)
जैन अनुयायियों के बीच धार्मिक अनुष्ठान पर मुख्यतः दो स्वतंत्र कारकों का प्रभाव रहा है और वे हैं- जैन-आस्थाएं तथा हिन्दू सामाजिक दृष्टिकोण । सामान्य रूप से जैन का एक चतुर्मुखी संघ रहा है जिसमें श्रमण, साध्वी साधारण पुरुष और साधारण महिलाएं शामिल हैं। उनकी त्रिरत्न में बाहरी आस्था रही है अर्थात सही विश्वास, ज्ञान एवं आचरण । उनका विश्वास है कि त्रिरत्न के पालन से उन्हें मोक्ष मिल जाएगा। हालांकि बाह्य और आंतरिक मोक्ष तो निग्किंठ यानी श्रमण को ही मिल सकता है, लेकिन गृहस्थों को भी कुछ अनुष्ठानों जैसे मूर्ति पूजा की भी अनुमति मिली हुई है। महत्वपूर्ण बात यह है जैन-संप्रदाय में जनसाधारण जो हिन्दू लोकाचारों से जुड़े थे, उन्होंने भक्ति-आकांक्षओं को अनदेखा नहीं किया। इसलिए हालांकि मंदिर में दीप जलाकर आरती करना, फल-फूल तोड़कर चढ़ाना, चंदन घिसना आदि में हिंसा की संभावना है, फिर भी ऐसे अनुष्ठानों के प्रति सहनशीलता बढ़ती गई क्योंकि अंततः ये सब ईश्वर की आराधना की प्रक्रिया के ही अंग थे। श्रमणों तथा जन-साधारण को कुछ शपथ लेने पड़ते थे। श्रमण और साध्वी शपथ लेते थे कि वे जीवन को हानि नहीं पहुंचाएंगे, भोजन और पेय रात्रि में नहीं लेंगे (क्योंकि अंधकार में कीट-पतंगों की उसमें गिरने की संभावना रहती है)। जैनियों का चतुर्मुखी संघ दो श्रेणियों में विभाजित हैं- श्रावक (जन-साधारण) एवं यति (तपस्वी)। श्रावक को भी कुछ महत्वपूर्ण शपथ लेने पड़ते हैं जिसमें अहिंसा, सत्य-निष्ठा, दान आदि शामिल हैं। ये गृहस्थ श्रमणों की जीवन शैली का अनुकरण करते हुए कुछ अनिवार्य कर्तव्यों का पालन करते हैंः
प) मन को सही मनस्थिति में लाने का प्रयत्न करना
पप) नियमित साधना करना
पपप) चंद्रमा के शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष में आठवें तथा चैदहवें दिन उपवास रखना
पअ) अपने अवगुणों की स्वीकारोक्ति (कैलियट, 1987ः510)

जैनियों के सख्त नियम हैं कि कोई मादक वस्तु या द्रव जैसे भांग, अफीम, शराब आदि का सेवन न करें। यहाँ तक कि शहद और मक्खन भी प्रतिबंधित वस्तुओं की सूची में शामिल हैं क्योंकि शहद निकालने में मधुमक्खी की हत्या हो सकती है। जन-साधारण के दैनिक जीवन के लिए नियम है कि उसे प्रातःकाल में सवेरे उठना चाहिए, फिर मौन भाव में मंत्रों को अंगुलि पर गिनते हुए दुहराना चाहिए, फिर उसे अपने आपसे कहना चाहिए कि मैं यह हूं, मेरे इष्ट देवता कौन हैं, कौन मेरे गुरूदेव हैं, मेरा धर्म क्या है और मुझे क्या करना चाहिए (बेसेंट, 1968ः97)

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