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तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच हुआ द्वितीय युद्ध Tarain battle in hindi first and second

Tarain battle in hindi first and second तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच हुआ द्वितीय युद्ध ?

दिग्विजय अभियान के परिणाम  पृथ्वीराज चौहान द्वारा किये गये दिग्विजय अभियान समयोचित था। इन युद्धों ने पृथ्वीराज की कीर्ति को बढ़ाया। सैनिकों और सामन्तों को सतत् युद्ध अभियानों में लगाये रखने से शक्ति संतुलन बना रहा निकटवर्ती राज्यों की महत्वकांक्षाएं सीमित बनी रही।

लेकिन दूसरे दृष्टिकोण से देखने पर लगता है यह दिग्विजय नीति चौहान राज्य के लिए हितकर सिद्ध नहीं हुई। इस नीति से पृथ्वीराज ने अपने साम्राज्य के चारों ओर शत्रुओं को खड़ा कर लिया। चन्देल एवं गहड़वालों में चौहानों के विरूद्ध गठबंधन स्थापित हो गया, जिनसे सुरक्षित रहने के लिए अपने राज्य के पूर्व में सैनिक शक्ति लगाये रखनी पड़ी जिससे राज्य पर आर्थिक भार बढ़ा गुजरात अभियान से राज्य को कोई लाभ नहीं हुआ मैत्री संधि होने के बावजूद भी तुर्क आक्रमण के समय गुजरात तट बना रहा यदि समूची चौहान चालुक्य गहड़वाल-चन्देल शक्ति मिलकर काम करती तो आने वाले संकटों से देश की रक्षा संभव थी।

तुर्की आक्रमणों का प्रतिरोध

1173 ई. में मुहम्मद गौरी गजनी का सूबेदार बना 1175 ई. में उसने पश्चिमी भारत के मुलतान और उच्छ पर अधिकार कर लिया। 1178 ई. में उसने गुजरात में चालुक्यवंशी नरेश भीमदेव द्वितीय के राज्य पर आक्रमण किया। गौरी बुरी तरह से पराजित होकर वापस लौट गया पृथ्वीराज चौहान ने इस आक्रमण के समय गुजरात की कोई सहायता न करके बहुत बड़ी भूल को गौरी को भी अहसास हो गया कि भारतीय नरेशों से युद्ध में विजय प्राप्त करना इतना सरल नहीं है। 1181 में उसने सियालकोट जीता तथा 1106 ई. में लाहौर पर भी अधिकार करने में सफलता प्राप्त कर ली। इसके पश्चात् उसने यहाँ पर दुर्गा का निर्माण करवा कर भारतीय सीमा पर अपनी स्थिति को सुदृढ़ कर लिया। अब उसके राज्य की सीमा पृथ्वीराज के राज्य की सीमा से स्पर्श करने लगी। सन् 186 ई. से 1191 ई. तक मुहम्मद गौरी, पृथ्वीराज से कई बार बुरी तरह पराजित हुआ। पृथ्वीराज प्रबंध हम्मीर महाकाव्य में गौरी पर सात बार पृथ्वीराज की विजय बतलाई गई है। प्रबंध चिंतामणी तथा पृथ्वीराज रासो में पृथ्वीराज की 24 बार विजय का उल्लेख   है।

तराइन का प्रथम युद्ध (1191 ई.)  = 1191 ई. की शीतऋतु में मुहम्मद गौरी लाहौर से चलकर तबरहिन्द (मटिण्डा पहुँचा और उस पर उसने अधिकार कर लिया। इसके पश्चात् आगे बढ़ता हुआ यह कर्नाल जिले के तराइन के मैदान में आ डटा दूसरी ओर चौहान सम्राट पृथ्वीराज तृतीय दिल्ली के तोमरवंशी सामन्त गोविन्दराज के साथ विशाल सेना सहित मैदान में गौरी के सामने आ पहुँचा। युद्ध आरंभ हुआ चौहान वीरो ने गौरी की सेना के दोनों पाश्र्वों पर भीषण प्रहार किया, जिससे मुस्लिम सेना में तबाही मच गयी तथा बचे खुचे सैनिक पीछे भागने लगे। गोविन्दराज ने गौरी को निशाना बना कर अपनी बध का प्रहार किया, जिससे वह घायल होकर अपने घोड़े पर लुढ़क गया वह रणभूमि में गिरने वाला ही था कि एक खिलजी सैनिक ने सहारा देकर उसे सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया। गौरी की सेना चौहानों की शक्ति का सामना नहीं कर सकी और पीछे भागने लगी लेकिन इस भागती सेना का राजपूतों ने पीछा नहीं किया, उन्हें सुरक्षित चले जाने दिया यह पृथ्वीराज की दूसरी बड़ी भूल थी

तराइन के इस प्रथम युद्ध के पश्चात् पृथ्वीराज तृतीय विजयोत्सव में रम गया और कुछ भोग विलास मैं जबकि गौरी अपनी पराजय का प्रतिशोध लेने की तैयारियों में लग गया।

तराइन का द्वितीय युद्ध (1192 ई.)  = एक वर्ष के पश्चात् गौरी विशाल सेना लेकर पुनः तराइन के मैदान में आ गया। अपना दूत भेज कर उसने पृथ्वीराज को संदेश भेजा कि वह इस्लाम ग्रहण कर ले, तथा अधीनता स्वीकार करे पृथ्वीराज ने उसके दूत को कहा कि गौरी को उसके संदेश का उत्तर युद्ध भूमि में दिया जायेगा। पृथ्वीराज विशाल सेना के साथ शीघ्रता पूर्वक तराइन के मैदान में आ पहुँचा। पृथ्वीराज ने भी गौरी को संदेश भेजा कि वह अब भी वापस लौट जाये ” हम उसे किसी भी प्रकार की हानि नहीं पहुंचायेंगे, वरना इस बार किसी को भी जीवित नहीं जाने दिया जायेगा। गौरी ज शौर्य, निष्कपटता, वीरता, निश्छलता आदि गुणों से भलीभांति परिचित था। उसने पूर्तता एवं चालान मार्ग अपनाया और पृथ्वीराज को संदेश भिजवाया” मैं अपने भाई का सेनापति है, उसी के आदेश से आया हूँ, आपके संदेश को में, भाई के पास भिजवा रहा हूँ जब तक उनका कोई आदेश नहीं आता है तक मैं आपसे संधि करने को तैयार हूँ।” इससे राजपूत सरदार निश्चित हो गये और आमोद-प्र दूब गये और गौरी ने रात्रिकाल में चौहान सेना को चारों तरफ से घेर लिया तथा प्रातःकाल जब गोदा अपने नित्यकमों में लीन थे उस समय उन पर अचानक आक्रमण कर दिया। इस अप्रत्याशि सैना के प्रहार को राजपूत सेना झेल नहीं सकी तथा लड़ते-लड़ते दिन के तीन बजे थक सी ग ऐसी स्थिति में गौरी की आरक्षित सैन्य टुकड़ी ने धावा बोल दिया। यह निर्णायक घड़ी थी. राजपूत पराजित हो गये। पृथ्वीराज को सिरसा में बंदी बना लिया गया, तत्पश्चात् उसका वध करवा दिया. यह युद्ध राजपूत शक्ति के लिए भारी आघात था इसमें एक लाख राजपूत वीरगति को प्राप्त हुए दिल्ली और अजमेर पर तुर्की का आधिपत्य स्थापित हो गया। इस युद्ध के परिणामस्वरूप भारत सत्ता की स्थापना हो गयी।

उपलब्धियों एवं व्यक्तित्व  = पृथ्वीराज चौहान तुर्कों की धोखाधड़ी व चालाकी को नहीं समझ जिसके परिणामस्वरूप उसकी जीवन लीला एवं प्रतिष्ठा समाप्त हो गई। फिर भी पृथ्वीराज एक व साहसी शासक था। अपने शासन काल में वह प्रारम्भ से ही युद्ध करता रहा, जो उसके अच्छे संनिय सेनाध्यक्ष होने को प्रमाणित करता है तराइन के द्वितीय युद्ध की धोखेबाजी को छोड़ कर यह इसर सभी युद्धों में विजयी हुआ था। गौरी को भी वह अनेकों बार पहले ही बुरी तरह परास्त कर बुद्ध से प्राण बचाकर भागने को विवश कर चुका था। अन्त में परास्त होने के बावजूद भी अपने आत्म सम को ध्यान में रखते हुए उसकी अधीनता को वीकार नहीं किया और मृत्यु का आलिंगन किया

एक श्रेष्ठ और आत्माभिमानी गुणों के साथ साथ वह विद्यानुरागी था। पृथ्वीराज का शासनक साहित्यिक सांस्कृतिक उपलब्धियों के लिए भारतीय इतिहास में गौरवशाली रहा है वह स्वयं गु व्यक्तित्व का मालिक था, साथ ही साथ गुणीजनों का सम्मान करने वाला था। जयानक, विद्यापति वागीश्वर जनार्दन, विश्वरूप आशाधर एवं पृथ्वीमट् (जिन्हें चन्दरबरदाई कहा जाता है) आदि विद्वान उसके दरबार में आश्रय प्राप्त थे जयानक ने पृथ्वीराज विजय नामक प्रसिद्ध कृति की की चन्दरबरदाई तत्कालीन प्रसिद्ध कवि था जिसने पृथ्वीराज रासो नामक ग्रंथ लिखा पृथ्वीर राजदरबार में और भी कई विद्वान थे। यही नहीं, ये सब विद्वान शास्त्रार्थ करें, गोष्ठियों करें साहित्य, धर्म, संस्कृति का निरंतर विकास होता रहे, इस हेतु पृथ्वीराज ने एक पृथक रूप से मंत्रा गठित कर रखा था तथा उसका मंत्री भी पद्मनाभ नामक एक विद्वान था डॉ० दशरथ शर्मा ने को इन्हीं गुणों के आधार पर एक सुयोग्य शासक कहा है।

इतना सब होते हुए भी पृथ्वीराज में दूरदर्शिता एवं कूटनीति का अभाव था उसने अपने राज्यों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों की स्थापना नहीं की उल्टे उनसे युद्ध करके, उनकी शत्रुता मोल ली कारण से उसको तुर्की के साथ युद्ध करते समय उनका कोई सहयोग नही मिला।

तराइन के प्रथम युद्ध में पराजित तुर्की सेना को सुरक्षित लौट जाने दिया जाना भी उस भूल थी यदि उसी समय उन पर भीषण प्रहार किया जाता तो तुर्की सेना की पुन: भारत पर आक्र की हिम्मत नहीं होती। इस उदारता को शत्रु ने पृथ्वीराज की कमजोरी माना गया और एक वर्ष जो अपने प्राण बचाकर युद्ध भूमि से भाग खड़े हुए थे, पुनः युद्ध भूमि में लड़ने के लिए आ

पृथ्वीराज ने अपने साम्राज्य को सुरक्षित रखने के लिए उत्तर-पूर्वी पूर्वी तथा दक्षिण के को अपनी शक्ति का परिचय करवा दिया था, इसी कारण से उत्तर-पूर्व से भण्डानक, पूर्व से चन्देश दक्षिण से चालुक्य जो अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए प्रयासरत थे, चौहान साम्राज्य की ओर आँख उठा कर नहीं देख सके। पृथ्वीराज के साम्राज्य पर पश्चिमोत्तर दिशा से निरंतर अनेकों अक्रमण हुए जिनमें उसने उन्हें हर बार बुरी तरह खखदेड़ा था, फिर भी यह अज्ञात विषय है कि उसने इस और साम्राज्य को सुरक्षित करने के विशेष प्रयास क्यों नहीं किये।

राजस्थान के प्रमुख शासकों द्वारा दिल्ली सल्तनत का प्रतिरोध

तराइन के द्वितीय युद्ध के पश्चात् भारतीय राजनीति में एक नया मोड़ आया लेकिन इस युद्ध से चौहानों की शक्ति समाप्त हो गयी हो. ऐसा नहीं है. आगामी लगभग 100 वर्षों तक चौहानों की विभिन्न शाखाएँ जो रणथम्भौर, जालौर, नाडील, चन्द्रावती तथा आबू में शासन कर रही थी, राजपूत शक्ति की महत्वपूर्ण धुरी बनी रही। इन्हीं शक्तियों ने सल्तनत काल में मुस्लिम शासकों से मुकाबला कर शौर्य एवं अदम्य साहस का परिचय दिया था।

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