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स्वराज पार्टी के उदय की परिस्थितियां क्या थी ? इसके उद्देश्य क्या थे ? स्वराज पार्टी की स्थापना कब और कहां हुई थी Swaraj Party in hindi

यहाँ जान लीजिये कि Swaraj Party in hindi स्वराज पार्टी के उदय की परिस्थितियां क्या थी ? इसके उद्देश्य क्या थे ? स्वराज पार्टी की स्थापना कब और कहां हुई थी आदि ?

प्रश्न: स्वराज पार्टी के उदय की परिस्थितियां क्या थी ? इसके उद्देश्य एवं कार्यक्रम क्या थे ? इसके कमजोर पक्ष होने के बावजूद असहयोग के पश्चात् की राजनीतिक निष्क्रियता को सक्रियता में परिवर्तित करने में इनकी भूमिका की विवेचना कीजिए।
उत्तर : असहयोग आंदोलन के कार्यक्रमों के निर्धारण में विधायिका के बहिष्कार को लेकर विवाद उभरा था यद्यपि इसे असहयोग आंदोलन के कार्यक्रम में शामिल कर लिया गया था।
असहयोग आंदोलन की समाप्ति के बाद।
1. राजनीतिक निराशा की स्थिति उत्पन्न हो गई।
2. गांधीजी को हिरासत में लिया जाना (आन्दोलन का नेतृत्वविहीन होना)।
3. हिन्दू-मुस्लिम एकता का पतन।
4. गांधीवादी रणनीति पर एक प्रश्नचिन्ह – गांधीजी के इस विचार पर प्रश्नचिन्ह लगाया जाने लगा कि अभी देश की जनता सत्याग्रही नहीं बन पायी है अतः अभी कुछ दिन इस कार्य में लगेंगे और इस बीच आंदोलन में विराम लाकर संरचनात्मक कार्यों पर बल दिया जाए।
5. उपरोक्त कारणों से एक दुविधा की स्थिति में एक नये राजनीतिक विकल्प की खोज स्वराजवादियों द्वारा की गयी।
असहयोग आंदोलन की समाप्ति के बाद का यह मुद्दा पुनः उभरा। विधायिका में प्रवेश की बात की ताकि विधायिका मे सरकार के साथ असहयोग किया जा सके। लेकिन कांग्रेस मंच ने इसे स्वीकार नहीं किया। इस प्रकार कांग्रेस अपरिवर्तनवादी व परिवर्तन चाहने वाले दो गुटों में विभक्त हो गई। परिवर्तन चाहने वाले चेंजर्स तथा परिवर्तन न चाहने वाले नो चेंजर्स (कांग्रेस के भीतर) कहलाए।
देशबन्धु चितरंजनदान, मोतीलाल नेहरू, बिट्ठलभाई पटेल आदि ने मिलकर स्वराज पार्टी की स्थापना 1 जनवरी, 1923 में दिल्ली में की। यह कांग्रेस खिलाफत स्वराज पार्टी के नाम से भी जानी गई। यह एक राजनीतिक पार्टी थी जो ब्रिटिशराज से भारतीय लोगों के लिए अधिक से अधिक स्वशासन और राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग की थी अर्थात् यह स्वराज की अवधारणा से प्रेरित थी। सी.आर. दास स्वराज पार्टी के अध्यक्ष तथा मोतीलाल नेहरू इसके सचिव बने।
उद्देश्य थे –
1. विधानमंडलों में प्रवेश कर उसके भीतर कार्यवाही को ठप्प करके राष्ट्रीय आंदोलन को जारी रखना।
2. 1919 के सुधारों का खोखलापन उजागर करना।
3. परिषद के सभी कार्यों में अड़चन डालकर नौकरशाही को बेनकाब करना।
4. स्वराजवादियों का अन्ततः उद्देश्य था कर-रोको अभियान की शुरूआत सविनय अवज्ञा आन्दोलन (शान्तिपूर्ण तरीके से कानून को तोड़ना)
5. स्वराजवादियों ने डोमिनियन स्टेट्स की बात की। शासन भारतीयों द्वारा चलाये जाये लेकिन सम्प्रभुता ब्रिटिश क्राउन में निहित हो।
6. नौकरशाही पर नियन्त्रण की स्थापना उद्देश्य।
7. विदेशों में एजेंसियों की स्थापना जिसका उद्देश्य राष्ट्रीय प्रचार-प्रसार था।
8. एशियाई देशों के एक संघ (Federation) के निर्माण की बात (व्यापार व वाणिज्य को प्रोत्साहन देने के लिए) जमींदार/पूंजीपति व कृषक/मजदूरों की एकता का दृष्टिकोण था। साम्प्रदायिकता पर अंकुश लगाने का दृष्टिकोण था।
स्वराजियों की विचारधारा एवं कार्यक्रम
मांगों को न माने जाने पर विधायिका के कार्यों में अवरोध व विरोध

राष्ट्रीय मांगों को वहां प्रस्तुत करना

अन्दर जाकर बहुमत (गठबन्धन) बनाना

विधायिका में प्रवेश

चुनाव लड़ना

विधायिका में प्रवेश
भाग -1
इस्तीफा देने के बाद पुनः चुनाव लड़ना व पुनः विधायिका मे अवरोध, विरोध करने से सरकार पर दबाव को ज्यादा करने का दृष्टिकोण था व साथ ही जनता से लगातार जुड़े रहने का दृष्टिकोण था।
स्वराजियों को सफलता
स्वराजियों ने 1923 के चुनाव में केन्द्रीय विधानमंडल की 101 सीटों में से 42 सीटों पर विजय प्राप्त की। प्रांतीय विधान मंडलों में मद्रास व पंजाब को छोड़कर स्वराजियों को अच्छी सफलता मिली। कुछ नगर पालिकाओं में स्वराजियों तथा कुछ स्थानों पर कांग्रेसियों को बहुमत मिला।
1. कलकत्ता – सुभाष चन्द्र बोस
2. अहमदाबाद – विठठल भाई पटेल
3. पटना – राजेन्द्र प्रसाद
4. इलाहाबाद – जवाहरलाल नेहरू
जून, 1925 में सी.आर. दास की मृत्यु होने से स्वराजियों का जोश ठण्डा पड़ गया।
स्वराजवादियों के पतन के कारण (कमजोर पक्ष/सीमाएं /विफलता)
1. बहुमत का निर्माण (गठबंधन) – वैचारिक मतभेद नेशनलिस्ट पार्टी मालवीय के नेतत्व में तथा इंडिपेंडेन्स पार्टी जिन्ना के नेतृत्व गठित। मालवीय, जिन्ना का गठबन्धन में होना।
2. गतिरोध, प्रतिरोध मे इसकी मजबूत स्थिति का न होना। गर्वनर द्वारा अध्यादेश जारी करने व विशेषाधिकारों के प्रयोग से इस नीति की सफलता संदिग्ध थी।
3. सरकार के साथ सहयोग करने लगे। (बाद में कई स्वराजी सरकार के साथ सहयोग करने लगे। जिन्हें प्रत्युत्तरवादी कहा गया।)
4. इनके कार्यक्रम बहुत व्यापक व आदर्शवादी थे जिनकी प्राप्ति में वे असफल रहे। साथ ही वे विधायिका के अन्दर के कार्यक्रमों व बाहर के कार्यक्रमों के बीच सन्तुलन स्थापित नही कर सके।
5. 1927 में साइमन कमीशन के विरोध के कारण सभी राष्ट्रवादियों को इस विरोध के लिए एकजुट होना पड़ा। अन्ततः स्वराजवादी राष्ट्रवादियों का कांग्रेस में विलय।
स्वराजियों का महत्व-
1. 1922 में असहयोग आंदोलन की समाप्ति के बाद की परिस्थितियां। राजनीतिक विराम की स्थिति व सक्रिय संघर्ष का अनपस्थित होना। राजनीतिक सक्रियता को बनाये रखने में भूमिका थी। स्वराजवादियों के कार्य से राजनीतिक गतिविधियों की एक नये रूप में निरन्तरता बनी रही। प्रेस के माध्यम से इनकी गतिविधियों का प्रचार-प्रसार।
2. राजनीतिक संघर्ष के एक नवीन दृष्टिकोण का प्रस्तुतीकरण। विधायिका के अन्दर असहयोग, विधायिका को राजनीतिक राष्ट्रीय संघर्ष के एक मंच के रूप में प्रयोग करना।
3. औपनिवेशिक शासन के कमजोर पक्षों को दर्शाना। उसके प्रजातान्त्रिक दावों की वास्तविकता का प्रस्ततीकरण।
4. संवैधानिक राजनीति में एक नवीन अनुभव। विधायिका के अन्दर की भूमिका से एक संवैधानिक प्रशिक्षण की प्राप्ति हुई।

5. विधायिका के अन्दर राष्ट्रीय मांगों का प्रस्तुतीकरण। अभी तक राष्ट्रीय मांगों का प्रस्तुतीकरण विधायिका के बाहर था।
6. उनके (स्वराजवादियों) कार्य जिनसे यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि इनके कार्यों ने असहयोग आंदोलन के स्थगन के बाद उत्पन्न राजनीतिक निष्क्रियता को सक्रियता में बदले रखा।
प्रश्न: भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में क्रान्तिकारी आंतकवाद के विभिन्न चरणों के विकास एवं इन चरणों की तुलनात्मक विवेचना कीजिए। राष्ट्रीय आंदोलन में इसके योगदान की चर्चा कीजिए।
उत्तर: दोनों चरणों की क्रांतिकारी गतिविधियों के स्वरूप में अंतर
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में 1910 व 1920 के दशक में क्रांतिकारी आतंकवाद का विकास हुआ, जिसे क्रमशः प्रथम, चरण एवं द्वितीय चरण की संज्ञा दी जाती है।
।. प्रथम चरण – यह तीन धाराओं में विकसित हुआ
प्रथम धारा: कांग्रेस का मंच – यह राष्ट्रीय धारा थी इसमें उदारवादी एवं उग्रवादी दोनों ही विचारधारा असफल हुई जिससे असंतोष पनपा। इस असंतोष से एक नए क्रांतिकारी आतंकवादी विचारधारा का उद्भव हुआ। इसके तहत –
1. एक नवीन राजनीतिक विकल्प की खोज की गई।
2. इन्हें बौद्धिक प्रभाव, बाहरी क्रांतिकारी गतिविधियों के प्रभाव से प्रेरणा मिली।
द्वितीय धारा: यह क्रांतिकारी आतंकवादी धारा थी। इसका एक अलग मंच था। एक अलग राष्ट्रीय विचारधारा थी।
तृतीय धारा: इसका प्रचार-प्रसार विदेशों में हुआ।
यह क्रांतिकारी आंतकवादी विचारधारा 1900-1915 तक चली। 1915 में इस प्रथम चरण का पतन हो गया। इस पतन के पश्चात् कई क्रांतिकारी देशी रियासतों में चले गये और वहा वे राष्ट्रीयता के प्रचार-प्रसार में लग गये।
प्रथम चरण के पतन के कारण
क्रांतिकारी आतंकवादियों का कोई सामाजिक आधार नहीं (व्यापक जनसंपक्र नहीं मिल पाया) था। ये व्यक्तिगत स्तर पर अपने कार्यों को करते थे। यह भी शहरों तक ही सीमित था। संगठन का अभाव था साथ ही इनके बीच उद्देश्यों की एकता का न होना असफलता का एक कारण था। हिन्दुत्व का भी होना एक नकारात्मक पक्ष था। अंग्रेजों द्वारा इनका दमन भी क्रांतिकारी आतंकवाद के पतन का एक प्रमुख कारण था।
ठ. द्वितीय चरण
1920 में कांग्रेस का असहयोग आन्दोलन इस आश्वासन के साथ शुरू हुआ कि 1 वर्ष में स्वराज प्राप्ति मिल जाएगी। अतः क्रांतिकारी आंतकवादी इस आन्दोलन से जुड़ गये। 1922 ई. में असहयोग आंदोलन को स्थगित कर दिया गया। इससे सम्पूर्ण देश में निराशा की भावना ने जन्म ले लिया। क्रांतिकारी आतंकवादी विशेष रूप से इस स्थगन से बहुत ज्यादा निराश हो गये। वे पुनः कांग्रेस की धारा से हट गये। अब पुनः एक नये विकल्प की तलाश में वे सोचने लगे। असहयोग आंदोलन की समाप्ति के बाद गांधीजी ने रचनात्मक कार्यों को जन्म दिया।
क्रांतिकारियों के सामने 4 विकल्प उभरे
ऽ गांधी के रचनात्मक कार्यों से जुड़ जाएं।
ऽ कांग्रेस से ही एक दूसरा विकल्प स्वराज्यवादियों ने प्रस्तुत किया। इन दोनों विकल्पों को आतंकवादियों ने ठुकरा दिया।
ऽ इसी काल में एक तीसरा विकल्प सामने आया।
समाजवाद के रूप में
1. शोषण की बात
2. वर्ग संघर्ष की बात
3. क्रान्ति की बात। इस विकल्प से क्रांतिकारी आतंकवादी जुड़ गये क्योंकि यह उनके लक्ष्यों के अनुरूप था।
4. एक चैथा विकल्प क्रांतिकारी आतंकवाद का था जिसमें वे पहले से ही जुड़े थे। अतः समाजवाद व क्रांतिकारी आतंकवाद को पुनः स्वीकार कर लिया।
अब क्रांतिकारी आतंकवाद एक नये चरण में प्रवेश कर गया। इस चरण में वह प्रथम चरण से कुछ रूपों में भिन्न था। वे क्रांति द्वारा एक समाजवादी समाज की स्थापना का विचार रखने लगे। 1922 के बाद व 1930 के प्रारम्भिक वर्षों में इस चरण को देखा जा सकता है।
प्रथमं चरण द्वितीय चरण
1. अधिकांश आतंकवादी नेता राष्ट्रवादी थे, जिन्होंने धर्म एवं रहस्यवाद का सहारा लिया।
2. कार्यक्रम एवं पद्दति-हत्याओं व लूट पर अत्यधिक केंद्रित।
3. योजना एवं संगठनात्मक नेतृत्व का अभाव
4. इस चरण के राष्ट्रादियों का उद्देश्य।
5. ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकना था लेकिन स्वतंत्रता के बाद के समाज के निर्माण से संबंधित दृष्टिकोण का अभाव था।

1. यह विशेषता इस चरण में दिखाई नहीं देती।
2. व्यक्तियों की हत्याओं की जगह सरकारी संस्थाओं पर हमला तथा इसमें रूकावट पैदा करने वालों की हत्या।
3. योजना एवं संगठनात्मक नेतृत्व मौजूद, यद्यपि ये भी पूरी तरह सफल नहीं हुए।
4. इस चरण में वैकल्पिक समाज एवं राज्य के निर्माण की योजना थी।
5. समाजवादी आधार पर मजदू संघ किसान राज की स्थापना करना तथा पूंजीवादी तत्वों का दमन। इनका विश्वास था कि कांग्रेस का मध्ययवर्गीय संस्था होने के कारण आजादी अगर मिल भी गई तो वह नवीन समाज की रचना समानता के आधार पर नहीं कर पाएगी।
इसके बावजूद क्रांतिकारी आतंकवाद का योगदान था
1. बलिदान की भावना, देशभक्ति की भावना, राष्ट्रीयता की भावना को जगाया।
2. क्रान्तिकारी भावना को जगाया।
3. विशेष रूप से युवकों में राष्ट्र के लिए स्वयं को बलिदान करने की प्रेरणा को जगाना।
द्वितीय चरण का क्रान्तिकारी आतंकवाद समाजवादी आदर्शों से प्रेरित था। इस संदर्भ में यह वामपक्ष की एक लघुधारा का भी प्रतिनिधित्व करता था।

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