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सर्वोच्च न्यायालय किसे कहते हैं , परिभाषा क्या है सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की शक्तियां supreme court in hindi
supreme court in hindi सर्वोच्च न्यायालय किसे कहते हैं , परिभाषा क्या है सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की शक्तियां वेतन कितना होता है ? नियुक्ति कौन और कैसे करता है |
सर्वोच्च न्यायालय
सम्पूर्ण न्यायाधीश समुदाय तीन निःश्रेणियों में बाँटा गया है। शीर्ष पर सर्वोच्च न्यायालय है, इसके नीचे उच्च न्यायालय और सबसे निचले स्थान पर सत्र न्यायालय होता है।
सर्वोच्च न्यायालय ही कानून का उच्चतम न्यायालय है। संविधान के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित कानून भारतीय राज्यक्षेत्र के भीतर सभी छोटी अदालतों पर बाध्यकर होगा। सर्वोच्च न्यायालय के नीचे राज्य स्थिति उच्च न्यायालय होते हैं। प्रत्येक उच्च न्यायालय के तहत जिला सत्र न्यायालय, अधीनस्थ न्यायालय तथा लघु वाद न्यायालयों के नाम से, लघु क्षेत्राधिकार अदालतें होती हैं।
परिमित सरकार पर टिकी एक संघीय व्यवस्था में न्यायपालिका के महत्त्व के साथ, सर्वोच्च न्यायालय संविधान की व्याख्या में उसे अन्तिम प्राधिकरण बनाने हेतु अभिकल्पित किया गया। न्यायिक प्रावधान रखते समय संविधान सभा ने न्यायालयों की स्वतंत्रता, सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति तथा न्यायिक पुनरीक्षण जैसे विषयों के प्रति काफी ध्यान दिया।
संयोजन तथा नियुक्तियाँ
सर्वोच्च न्यायालय में होते हैं – भारत के मुख्य न्यायमूर्ति तथा अन्य न्यायाधीशों की वह संख्या जो कानून द्वारा दी गई हो। जब सर्वोच्च न्यायालय का उद्घाटन हुआ, इसमें मात्र आठ न्यायाधीश थे । यह संख्या बढ़कर अब पच्चीस हो गई है। भारत का राष्ट्रपति, जो नियुक्ति करने का एकमात्र अधिकारी है, ये नियुक्तियाँ प्रधानमंत्री तथा मंत्रिपरिषद् का सलाह पर करता है।
अनुच्छेद 124 (2) में संविधान शर्त रखता है कि राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के उन न्यायाधीशों – से विचार-विमर्श के बाद, जिन्हें वह आवश्यक समझता है, अपने हस्ताक्षर व मुहर के अधीन ही सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को नियुक्त करेगा। भारत के मुख्य न्यायमूर्ति के ममले में, राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से विचार-विमर्श करेगा जिन्हें वह आवश्यक समझता हो। इस स्पष्ट संवैधानिक प्रावधान के बावजूद, भारत के मुख्य न्यायमूर्ति का मामला एक राजनीतिक विवाद बन गया है। यहाँ वे मुद्दे स्मरणीय हैं जो कि 1973 में तब उठाए गए थे जब भारत सरकार ने पदच्युत होते मुख्य न्यायमूर्ति, एस.एम. सिकरी की सिफारिशों के विरुद्ध, चार अन्य न्यायाधीशों को हटाकर भारत के मुख्य न्यायमूर्ति के रूप में न्यायधीश एस.एस. रे को नियुक्त कर दिया।
न्यायाधीशों की नियुक्ति से राजनीति को दूर करने के लिए, ऊँची न्यूनतम अर्हताएँ निर्धारित की गई हैं । सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्ति हेतु व्यक्ति भारत का नागरिक हो, वह कम-से-कम पाँच वर्ष उच्च न्यायालय का न्यायाधीश रहा हो, अथवा कम-से-कम दस वर्ष उच्च न्यायालय का वकील रहा हो अथवा भारत के राष्ट्रपति के विचार में एक विशिष्ट विधिवेत्ता रहा हो।
कार्यकाल
एक बार नियुक्त होने के बाद, न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु प्राप्त करने तक पद पर बना रहता है। सर्वोच्च न्यायालय का एक न्यायाधीश अपने पद से त्याग-पत्र दे सकता है और दुराचार अथवा अक्षमता के मामले में उसे हटाया जा सकता है। संविधान में उल्लिखित प्रक्रियानुसार, संसद के प्रत्येक सदन को उपस्थित तथा मतदान करने दो-तिहाई सदस्यों द्वारा समर्थित एक प्रस्ताव पारित करना होता है। 1991 में पहली बार संसद में किसी न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग प्रस्ताव रखा गया। इसमें सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति वी.रामास्वामी शामिल थे। जब एक लेखा-परीक्षा रिपोर्ट ने यह उजागर किया कि पंजाब तथा हरियाणा उच्च न्यायालय के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान न्यायाधीश महोदय द्वारा अनेक अनियमिताएँ बरती गईं, एक त्रि-व्यक्ति न्यायिक समिति गठित की गई जिसमें थे – सर्वोच्च न्यायालय का एक सेवारत तथा एक सेवा-निवृत्त न्यायाधीश और बम्बई उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति । समिति ने निष्कर्ष निकाला कि सार्वजनिक राजकोष की लागत पर वास्तव में पद-स्थिति का एक ज्ञानकृत एवं अक्षम्य दुरुपयोग और साभिप्राय और आभ्यासिक अपव्यय हुआ था जो ‘दुराचार‘ के बराबर था। न्यायमूर्ति रामास्वामी ने, बहरहाल, यह तर्क दिया कि प्रस्ताव की विज्ञप्ति, समिति के संविधान और उसकी प्रकार्यात्मकता में कार्यविधिक अनियमितताएँ थीं। मई 1993 में लाया गया यह महाभियोग प्रस्ताव इसके पक्ष में 401 में से 196 मतों के साथ गिर गया और 205 ने मतदान में भाग ही नहीं लिया। परन्तु वास्तविकता को स्वीकार करते हुए, न्यायाधीश महोदय ने तदोपरांत त्याग-पत्र दे दिया।
वेतन
एक अति महत्त्वपूर्ण घटक जो न्यायाधीशों की स्वतंत्रता निर्धारित करता है, वह है उनके द्वारा प्राप्त किया जाने वाला पारिश्रमिक। न्यायाधीशों के वेतन तथा भत्ते उनकी स्वतंत्रता, दक्षता और निष्पक्षता को सुनिश्चित करने के लिहाज से ऊँचे तय किए जाते हैं। वेतन के अतिरिक्त, प्रत्येक न्यायाधीश एक किराया-मुक्त सरकारी निवास का हकदार है। संविधान यह भी व्यवस्था देता है कि न्यायाधीशों के वेतनों को, वित्तीय आपास्थिति के समय छोड़कर, कभी भी उनके अहित न नहीं बदला जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय के प्रशासनिक व्यय, न्यायाधीशों के वेतन, भत्ते, आदि भारत की संचित निधि से चुकाए जाते हैं।
उन्मुक्तियाँ
न्यायाधीशों को राजनीतिक विवादों से बचाने के लिए, संविधान उन्हें अपने पद पर रहते किए गए निर्णयों तथा कार्रवाइयों के विरुद्ध आलोचनाओं से उन्मुक्ति प्रदान करता है। न्यायालय को उनके विरुद्ध अवमानना कार्रवाई शुरू करने का अधिकार है जो न्यायाधीशों को उनके पदसंबंधी कर्तव्यों को निभाने में कारण आरोपित करते हैं। यहाँ तक कि संसद भी न्यायाधीश के आचरण पर चर्चा नहीं कर सकती है, सिवाय इसके कि जब उसके समक्ष उसको हटाने के लिए कोई प्रस्ताव होता है।
बोध प्रश्न 1
नोट: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए रिक्त स्थान का प्रयोग करें।
ख) अपने उत्तरों की जाँच इकाई के अन्त में दिए गए आदर्श उत्तरों से करें।
1) सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए क्या अर्हताएँ वांछित हैं?
2) सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश के हटाने के लिए क्या प्रक्रिया है?
बोध प्रश्न 1 उत्तर
1) सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जाने वाला व्यक्ति भारत का नागरिक हो, कम-से-कम पाँच वर्ष किसी उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रहा हो, कम-से-कम दस वर्ष उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहा हो अथवा एक विशिष्ट विधिवेत्ता रहा हो।
2) केवल मौलिक अधिकार ही नहीं वरन् एक सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश दुराचार अथवा अक्षमता के कारण हटाया जा सकता है, संसद के प्रत्ययिक सदन को उपस्थित और मतदान करते दो-तिहई सदस्यों द्वारा समर्थित पारित किया करना होता है।
सर्वोच्च न्यायालय का अधिकार-क्षेत्र
अनुच्छेद 141 घोषित करता है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अर्पित कानून भारतीय राज्य क्षेत्र के भीतर सभी अदालतों पर लागू होगा। वे विभिन्न श्रेणियाँ जिनमें सर्वोच्च न्यायालय का अधिकार-क्षेत्र बाँटा गया है, निम्नलिखित हैं: (1) मौलिक अधिकार-क्षेत्र, (2) अपील संबंधी अधिकार-क्षेत्र, (3) सलाहकारी अधिकार-क्षेत्र, और (4) पुरावलोकन अधिकार-क्षेत्र।
मौलिक अधिकार-क्षेत्र
सर्वोच्च न्यायालय का एक संघीय न्यायालय के रूप में प्रथमतः मौलिक क्षेत्राधिकार है। एक संघीय प्रणाली में, जो भारत में है, संघ व राज्य सरकारें अपनी शक्तियाँ एक ही संविधान से व्युत्पन्न करती हैं और एक ही से परिमित हैं। शक्तियों के संघ-राज्य वितरण की व्याख्या में मतभेदों, अथवा राज्य सरकारों के बीच विवादों को सरकार के दोनों स्तरों से स्वतंत्र एक न्यायिक घटक द्वारा प्रामाणिक समाधान की आवश्यक होती है। अनुच्छेद 131 के तहत, सर्वोच्च न्यायालय को संघ व किसी राज्य के बीच अथवा एक अनन्य क्षेत्राधिकार दिया गया है। जब हम यह करते हैं कि भारत में किसी भी अन्य अदालत को ऐसे विवाद सुलझाने का अधिकार नहीं है। इसी प्रकार, सर्वोच्च न्यायालय के मौलिक क्षेत्राधिकार का अर्थ होगा कि विवाद के वादी-प्रतिवादी संघ की इकाइयाँ होने चाहिए। आस्ट्रेलिया और संयुक्त राज्य में सर्वोच्च न्यायालयों से भिन्न, भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के पास विभिन्न राज्य निवासियों के बीच अथवा राज्य तथा दूसरे राज्य के निवासी के बीच विवादों को निपटाने का मौलिक क्षेत्राधिकार नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय के पास मौलिक अधिकारों के रक्षक के रूप में इतर-अनन्य मौलिक क्षेत्राधिकार भी है। संविधान का अनुच्छेद 32 नागरिकों को संविधान के भाग-प्प्प् में परिकलित मौलिक अधिकारों में से किसी के भी बाध्यकारण हेतु सीधे सर्वोच्च न्यायालय जाने का अधिकार देता है। मौलिक अधिकारों के अभिभावक के रूप में सर्वोच्च न्यायालय के पास बन्दी प्रत्यक्षीकरण, अधिकार पृच्छा, प्रतिषेधादेश, उत्प्रेषण-लेख, और परमादेश जैसे लिखित आज्ञा-पत्र जारी करने का अधिकार है। बन्दी प्रत्यक्षीकरण नामक लिखित आज्ञा-पत्र अवैध अभिरक्षा से किसी व्यक्ति को अदालत के समक्ष लाने हेतु न्यायालय द्वारा जारी किया जाता है। न्यायालय हिरासत की वैधता निर्धारित कर सकता है और यदि हिरासत अवैध गयी जाती है, उस व्यक्ति को रिहा कर सकता है। परमादेश का आज्ञा-पत्र प्रयोग कर, न्यायालय लोक-पदेन अधिकारियों को उनके वैधानिक कर्तव्यों के पालन हेतु आदेश दे सकता है। प्रतिषेधादेश नामक आज्ञा-पत्र किसी न्यायालय अथवा न्यायाधिकरण को उसके अधिकार के अतिक्रमण में कुछ भी करने से रोक सकता है। उत्प्रेक्षण-लेख नामक आज्ञा-पत्र द्वारा, न्यायालय सरकार, स्थानीय निकाय अथवा किसी वैधानिक निकाय के किसी भी पदेन अधिकारी द्वारा पारित किसी आदेश को रद्द कर सकता है। अधिकार पृच्छा नामक आज्ञा-पत्र उस व्यक्ति को, जो प्राधिकृत रूप से किसी सार्वजनिक पद पर है, उस पद से हट जाने के लिए जारी किया जाता है। इन आज्ञा-पत्रों को जारी करने के अतिरिक्त, सर्वोच्च न्यायालय को कार्यकारिणी के लिए समुचित निर्देश तथा आदेश जारी करने का अधिकार प्राप्त है।
अपील संबंधी
सर्वोच्च न्यायालय ही भारत राज्यक्षेत्र में सभी न्यायालयों से पुनरावेदन का उच्चतम न्यायालय है। यह संवैधानिक विषयों से सम्बद्ध मामलोंय सम्पत्ति के ब्यौरेवार प्रारम्भिक मूल्यों अथवा किसी मृत्युदण्डादेश से सम्बद्ध नागरिक तथा आपराधिक मामलोंय और विशेष पुनरावेदनों की विस्तृत-शृंखलाबद्ध शक्तियों में विशद पुनरावेदनकर्ता क्षेत्राधिकार-सम्पन्न है।
संविधान का अनुच्छेद 132, उस स्थिति में किसी उच्च न्यायालय की नागरिक, आपराधिक अथवा अन्य कार्यवाहियों में किसी न्यायालय के किसी निर्णय अथवा अन्तिम आदेश से सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष पुनरावेदन हेतु व्यवस्था देता है, यदि वह संविधान की व्याख्या के संबंध में कानून के किसी महत्त्वपूर्ण प्रश्न से सम्बद्ध है। यह पुनरावेदन पुनः इस बात पर निर्भर है कि क्या इसको उच्च न्यायालय प्रमाणित करता है, और यदि नहीं, तो सर्वोच्च न्यायालय पुनरावेदन के लिए विशेषानुमति प्रदान कर सकता है।
संविधान का अनुच्छेद 133 यह व्यवस्था देता है कि किसी उच्च न्यायालय के किसी भी निर्णय, आदेश अथवा नागरिक कार्यवाहियों से असैनिक मामलों में पुनरावेदन सर्वोच्च न्यायालय पर आता है। यह पुनरावेदन उस स्थिति में भी किया जा सकता है यदि मामला व्यापक महत्त्व वाले कानून के किसी महत्त्वपूर्ण प्रश्न से संबद्ध है अथवा यदि उच्च न्यायालय की राय में उल्लिखित प्रश्न को । सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्णीत किए जाने की आवश्यकता है।
अनुच्छेद 134 सर्वोच्च न्यायालय को किसी भी निर्णय, अन्तिम आदेश, अथवा किसी उच्च न्यायालय के दंडादेश से आपराधिक मामलों में अपील संबंधी क्षेत्राधिकार प्रदान करता है। इस क्षेत्राधिकार हेतु मामलों की केवल तीन विभिन्न श्रेणियों में निवेदन किया जा सकता है: (क) यदि उच्च न्यायालय पनरावेदन पर किसी दोषारोपित व्यक्ति और मृत्युदंडादेश के दोषमुक्ति आदेश को उलट देता है, ख) यदि उच्च न्यायालय ने अपने अधिकाराधीन किसी अदालत से किसी मामले को विचारण हेतु अपने समक्ष प्रत्याहरित कर लिया है और इस प्रकार के न्याय विचार मुकदमे में दोषारोपित व्यक्ति को दोषी सिद्ध किया है और उसे मृत्युदण्डादेश दिया हैय और यदि उच्च न्यायालय यह प्रमाणित करता है कि मामला सर्वोच्च न्यायालय में पुनरावेदन हेतु उपयुक्त है।
अन्ततः, सर्वोच्च न्यायालय के पास विशेष अपील संबंधी क्षेत्राधिकार है। उसे किसी भी न्यायालय अथवा न्यायाधिकरण द्वारा पारित किए गए अथवा बनाए गए केस अथवा मामले में किसी भी निर्णय, आज्ञप्ति दण्डादेश अथवा आज्ञा से, अपने विवेकानुसार, विशेषानुमति पुनरावदेन प्रदान करने का अधिकार है।
सलाह संबंधी अधिकार-क्षेत्र
सर्वोच्च न्यायालय किसी भी ऐसे तथ्य अथवा कानून के प्रश्न पर सलाहकारी मत प्रस्तुत करने हेतु अधिकार-सम्पन्न है जो उसे राष्ट्रपति द्वारा निर्दिष्ट किया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय की सलाहकारी भूमिका सामान्य अधिनिर्णयन से तीन अर्थों में भिन्न है: प्रथम, दो पक्षों के बीच कोई वाद नहीं होताय दुसरे, उक्त न्यायालय का सलाहकारी मत सरकार पर बाध्यकर नहीं हैय अन्ततः यह किसी न्यायालय के निर्णय के रूप में निष्पादनीय नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय से सलाहकारी राय माँगने की प्रथा कार्यकारिणी को महत्त्वपूर्ण विषयों पर किसी ठोस निर्णय पर पहुँचने में मदद करती हैं। साथ ही, यह भारत सरकार को कुछ राजनीतिक रूप से कठिन विषयों पर एक सरल विकल्प प्रदान करती है। सरकार ने विवाद के पहलू सम्मति हेतु सर्वोच्च न्यायालय के पास भेजने का निश्चय किया। चूँकि समस्या में कोई भी वैध सारवस्तु नहीं थी, सर्वोच्च न्यायालय को भेजे जाने से उसे हल किए जाने की बजाय न्यायाधिकरण के राजनीतिकरण हेतु अधिक सम्भाव्यता थी, जो अनिवार्यतः एक राजनीतिक समस्या थी।
पुनरीक्षण अधिकार-क्षेत्र
सर्वोच्च न्यायालय को उसके अपने द्वारा सुनाए गए किसी भी निर्णय उसके द्वारा दिए गए आदेश के पुनरीक्षण का अधिकार है। इसका अर्थ है कि सर्वोच्च न्यायालय अपने ही निर्णयादेश का पुनरीक्षण कर सकता है।
उपर्युक्त से यह स्पष्ट है कि भारत का सर्वोच्च न्यायालय संयुक्त राज्य अमेरिका में अपने प्रतिरूप की अपेक्षा कहीं अधिक शक्तिशाली है। अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय मुख्य रूप से वे मामले देखता है जो संघीय संबंध की वजह से उभरते हैं अथवा जो कानूनों व संधियों की संवैधानिक वैधता से संबंध रखते हैं। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय संविधान की व्याख्या करने के अलावा असैनिक तथा आपराधिक केसों के मामलों में देश में पुनरावेदन न्यायालय के रूप में भी कार्य करता है । यह केवल किसी न्यायालय के ही नहीं वरन् भारतीय राज्यक्षेत्र के भीतर किसी भी न्यायाधिकरण के निर्णयों से अपने विवेक पर किसी भी प्रतिबन्ध के बिना पुनरावेदन स्वीकार कर सकता है। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय का सलाहकारी क्षेत्राधिकार भी ऐसा विषय है जिसका अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय के मुख्यांश में अभाव है।
इन शक्तियों के बावजूद, भारतीय सर्वोच्च न्यायालय संविधान की ही रचना है और इन शक्तियों के सातत्य हेतु उस संघीय विधायिका पर निर्भर करता है जो संविधान के संशोधन द्वारा उन पर प्रतिबंध लगा सकता है। इसके अलावा, देश में जब कभी भी आपास्थिति की घोषणा हो इन सभी शक्तियों को निलम्बित अथवा स्थगित किया जा सकता है।
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