JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

हिंदी माध्यम नोट्स

Categories: Uncategorized

राज्य व्यवस्था क्या है | राज्य व्यवस्था किसे कहते है ? State System in hindi difinition political science

State System in hindi difinition political science राज्य व्यवस्था क्या है | राज्य व्यवस्था किसे कहते है ? विशेषताएँ की परिभाषा लिखिए |

राज्य व्यवस्था (State System)
विश्व समुदाय 185 से अधिक संप्रभुता प्राप्त राज्यों में संगठित है। मानव समुदाय का संप्रभुता प्राप्त राज्य के बीच बटवारा ही आज के राज्य व्यवस्था (State System) कहलाती है। इस व्यवस्था को पश्चिमी राज्य व्यवस्था (Western State System) राष्ट्र राज्य व्यवस्था (Nation State System) या संप्रभुता प्राप्त राज्य व्यवस्था जैसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं। पामर और पार्किन्स ने इसकी परिभाषा इन शब्दों में दी है, “यह राजनीतिक जीवन का ऐसा रूप है जिसमें मानव आबादी संप्रभुता प्राप्त राज्यों के बीच अलग-अलग इस प्रकार बँटी हुई है कि वे राष्ट्र निर्विवाद रूप से सह अस्तित्व के सिद्धांत पर अमल करते दिखाई देते हैं।’’ इस प्रकार हम देखते हैं कि किसी राज्य के दो अत्यंत महत्वपूर्ण गुण ‘‘संप्रभुता तथा निश्चित भू भाग‘‘ हैं। साथ ही, जैसा कि गार्नर ने कहा है कि लोगों का समुदाय तथा एक व्यवस्थित सरकार की मौजूदगी भी किसी राज्य के बुनियादी तत्वों में ही गिनी जाती है। प्रत्येक राज्य खुद में वह ताकत समाहित रखता है जिससे कि वह अपने राष्ट्र राज्य का विकास बीते हुए. महज साढ़े तीन शताब्दियों के इतिहास की बात है। आज यह व्यवस्था तमाम दुनिया में अपना अधिपत्य स्थापित कर चुकी है। अतः अंतर्राष्ट्रीय संबंध वस्तुतः इन्हीं राज्यों के बीच के बनते, बिगडते रिश्ते और उनके बीच की अंतरक्रियाएँ हैं और इन्हीं से राज्य व्यवस्था का निर्माण होता है।

राज्य व्यवस्था की विशेषताएँ
राजकीय व्यवस्था के अस्तित्व के लिए कुछ विशेषताएँ होना अनिवार्य है। इनके बिना राज्य व्यवस्था की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। पामर और पार्किन्स ने इन अत्यावश्यक विशेषताओं को कोरोलरीज के नाम से वर्णित किया है। वे राष्ट्रवाद, संप्रभुता और शक्ति की अवधारणा को स्वीकार करते हैं। राष्ट्रवाद वह मनोवैज्ञानिक या आध्यात्मिक गुण है जो किसी राज्य के लोगों को आपस में जोड़ती है और ‘‘उनमें वह रास्ता अख्तियार करने की इच्छा जगाती है जिसमें कि उन्हें राष्ट्रहित दिखाई देता है।‘‘ संप्रभुता की अवधारणा के पीछे असीमित शक्ति की इच्छा छुपी होती है। एक निश्चित भू-भाग में रहने वाली कोई आबादी तक संप्रभुता प्राप्त कहलाती है जब उसके पास अपनी इच्छानुसार चलने के लिए आंतरिक तथा बाह्य दोनों प्रकार की स्वतंत्रता मौजूद हो। इस प्रकार रू राष्ट्रीय शक्ति गस्तुतः किसी राज्य की वह क्षमता है जिसके बल बूते पर वह अपने कार्यों को ठीक उसी रूप में संपन्न कर पाता है जिसमें कि उसने करने का मन बनाया हुआ था। अतः शक्ति स्थूल एवं अमूर्त कई प्रकार के घटकों से बना तत्व है।

आपने इकाई 2 में राष्ट्रवाद की अवधारणा के बारे में पढ़ा है तथा इस इकाई के अगले अध्याय में शक्ति की अवधारणा (Concept of Power) की विस्तृत रूप से विवेचना की गयी है अभी हम संप्रभुता की अवधारणा के विषय में संक्षेप में नीचे चर्चा करेंगे। आज के आधुनिक राज्य यथा भारत, ब्रिटेन, रूस अमरीका, पाकिस्तान, या मिस्र आदि में एक साझा गुण पायेंगे। इस सब में आप मानव आबादी के विशाल समुदाय को उसमें मौजूद पायेंगे जो एक सरकार द्वारा शासित होती है। राज्य विशेष की आबादी जहाँ सरकार के निर्देशों का पालन करती दिखाई देती है वहीं यह सरकार किसी भी बाहरी ताकत का हुक्म मानने को बाध्य नहीं होती। ऐसे तमाम राष्ट्र एक निश्चित भू-भाग की सीमा में अवस्थित होते हैं।

इस प्रकार संप्रभुता की साधारण व्याख्या की जाए तो इसका मतलब किसी राज्य की वह असीमित शक्ति है जिसका प्रयोग वह बाहरी तथा आंतरिक दोनों हालातों में करता है। संप्रभुता ही वह मुख्य गुण है जो किसी राष्ट्र को अन्य संस्थाओं या संगठनों से अलग करता है।

संप्रभुता की शुरूआती परिभाषाओं में से एक लोकप्रिय परिभाषा फ्रांस के फिलास्फर जीन बोडिन (1530-1596) द्वारा दी गई है। इसके अनुसार ष्संप्रभुता शासितों एवं नागरिकों के उपर लागू होने वाला वह असीमित अधिकार है जिसे कानून के किसी दायरे में बांधा नहीं जा सकता।‘‘ हालांकि बोडिन की संप्रभुता को इस प्रकार परिभाषित करने के पीछे असल इरादा तत्कालीन फ्रांस सम्राट की गद्दी को मजबूत करना था जो उन दिनों अराजकता तथा गृह युद्ध के मसले को लेकर डगमगा रहा था।

थोम्स हॉब्स (1588-1679) ने संप्रभुता की परिभाषा को नया विस्तार दिया। उसने संप्रभुता की शक्ति को व्यक्तिवादी दायरे से बाहर निकाला। उसके अनुसार संप्रभुता राजा या किसी व्यक्ति विशेष में नहीं बल्कि सत्ता या राज्य में सन्निहित होती है। हॉब्स ने संप्रभुता की तुलना राज्य और सरकार के साथ की। उन्होंने आतरिक और बाह्य संप्रभुता के बीच एक बहुत ही महत्वपूर्ण रेखा खींची है। आंतरिक संप्रभुता सर्वोच्च होती है जो राज्य और उसमें रहने वाले नागरिकों पर कानूनी प्राधिकार प्राप्त होती है।

दूसरी ओर, बाह्य संप्रभुता उस हालात. को कहते हैं जिसमें दुनिया के तमाम राज्य प्रत्येक देश की स्वतंत्रता, उसकी क्षेत्रीय अखंडता एवं अभेदयता को स्वीकार करते हैं तथा उसके इन गुणों का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकार को मान्यता देते हैं। हालैंड के विधवेता हयूगो ग्रोटियस (1583-1645) ने संप्रभुता की व्याख्या ‘‘उस शक्ति के रूप में की जिसका क्रियान्वयन दूसरों की नियंत्रण शक्ति के दायरे से बाहर हो।‘‘ ग्रोटिप्स के अनुसार संप्रभुता उस वक्त अपने सबसे उज्जवल रूप में दिखाई देती है जब एक राज्य अपने आंतरिक मामलों के निर्वहन के वक्त दूसरे राज्यों के नियंत्रण से पूर्णता मुक्त हो। इन परिभाषाओं के साथ संप्रभुता वर्तमान काल की आधुनिक अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था का सबसे निर्णायक तत्व माना जाता है। हम यहाँ इसी बाह्य संप्रभुता के विषय में चर्चा कर रहे हैं।

संप्रभुता की इस अवधारणा को सबसे पहले वैध अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के रूप में मान्यता 1648 की वेस्टफालिया संधि के तहत मिली। इस मान्यता ने इसे पहली बार संस्थागत रूप (प्देजपजनजपवदंसपेमक) में देखा। वेस्टफालिया संधि के तहत संप्रभुता के लिए निम्नलिखित विशेषताओं की चर्चा की गयी:
1) केवल संप्रभुता प्राप्त राज्य ही अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के मामलों में शामिल माने जा सकते हैं
2) किसी भी राष्ट्र को अंतर्राष्ट्रीय मामलों में शामिल होने की मान्यता तभी दी जा सकती है जब उसके पास एक निश्चित भू-भाग, उसमें रहने वाली तयशुदा आबादी और ऐसी प्रभावकारी सैन्य ताकत हो जिसके जरिए वह अपने अंतर्राष्ट्रीय सहभागिता सुनिश्चित कर सके, और
3) अंतर्राष्ट्रीय कानूनों एवं अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के अनुपालन में तमाम संप्रभुताप्राप्त राज्यों को समान अधिकार प्राप्त हैं।

राज्य व्यवस्था का विकास
यूरोप में तीस वर्षों के युद्ध का समापन 1684 में वेस्टफालिया की संधि के रूप में हुआ। इसी संधि की शर्तों में आधुनिक काल की राज्य व्यवस्था की शुरूआत के सूत्र खोजे जा सकते हैं। ऐसा नहीं कि वेस्टफालिया संधि के पहले दुनिया में राज्यों का अस्तित्व नहीं रहा हो या कि उनमें पारस्परिक संबंधों का निर्वाह नहीं होता था। राज्यों या अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की सामग्री इस संधि के पहले भी दुनिया में मौजूद थी, फर्क बस इतना था कि वर्तमान राज्य व्यवस्था से उनकी तुलना नहीं की जा सकती थी। प्राचीन काल में ग्रीस, भारत, मिस्र और इटली में छोटे-छोटे नगर राज्य हुआ करते थे। प्राचीन ग्रीस में ऐसे नगर राज्य एथेंस और स्पार्टा के रूप में थे तो भारत में इंद्रप्रस्थ और हस्तिनापुर के रूप में। तब इन नगर राज्यों का शासन वंश के आधार पर पीढ़ी दर पीढ़ी चलाया जाता था। प्राचीन काल के विशाल रोमन साम्राज्य के बारे में कौन नहीं जानता जिसका शासन पूरे सभ्य पश्चिमी यूरोप में चलता था। लेकिन तब, नस्ल संबंधों के आधार पर राष्ट्र राज्य की अवधारणा प्रचलित नहीं थी और न ही संप्रभुता नामक कोई मान्यता प्राप्त व्यवस्था थी।

तीस वर्षों के युद्ध की शुरूआत प्रोटेस्टेंट एवं कैथोलिक विवादों के बीच हुई। इस लम्बे संघर्ष के बावजूद दोनों धर्मों में से कोई एक दूसरे का अस्तित्व मिटाने में सफल रहा हो, ऐसा तो नहीं हो पाया, हाँ इतना जरूर हुआ कि संघर्ष की समाप्ति के बाद कैथोलिक चर्च की धाक जम गयी। इसका एक सुखद परिणाम यह निकला कि एक दूसरे के अस्तित्व को बरदास्त एवं स्वीकार करने की भावना में जोरदार इजाफा हुआ। यह स्वीकार भावना आज तक बरकरार चल रही है। इसी स्वीकार्य भावना ने राष्ट्र राज्य व्यवस्था की अवधारणा को जन्म दिया। पामर और पार्किन्स लिखते हैं कि ष्विनाशकारी बरबादी के बावजूद सार्वभौमिक चर्च की सत्ता पर हुए हमले तथा युरोप के टुकड़ों के रूप में सुपरिभाषित राष्ट्र राज्यों का जन्म वेस्टफालियाँ संधि (1648) के रूप में दिखाई दी। इस संधि से उत्पन्न शांति ने यूरोप के लिए तत्कालीन स्थिरता का माहौल बना दिया।’’

वेस्टफालियाँ संधि के रूप में तीस वर्षों के युद्ध की समाप्ति ने भविष्य में पनपने वाले उन सिद्धांतो के बीज बो दिये जिनसे राज्यों के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में अपनाए जाने वाले आपसी व्यवहार की रूपरेखा निकलनी थी। इसने मध्यकालीन यूरोप में प्रचलित उन अवधारणाओं को बदलना शुरू कर दिया जो सिर्फ यूरोप पर अवलंबित थी और जिनके पीछे की मूल भावना क्रिस्चयन कामनवेल्थ की सोच से ऊपर नहीं उठ पा रही थी। इस संधि ने अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को विश्व व्यापी ऐसी नई अवधारणा के रूप में देखा गया जो संप्रभुता प्राप्त राज्यों के सह-अस्तित्व पर आधारित थी। नई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में सहभागिता करने का एकछत्र वैध अधिकार केवल ऐसे ही निश्चित भू-भाग वाले राज्यों को मिला। इस प्रकार अब केवल संप्रभुता प्राप्त राज्यों का अधिकार बनता था कि वे युद्ध छेड़ सकें, संधियों में शामिल हो सकें अथवा एक दूसरे के साथ मैत्री संबंध बना सकें।

राज्यों की संप्रभुता की अवधारणा के मूर्तरूप लेते ही इसकी स्वाभाविक परिणति या उसके परिणाम के रूप में राष्ट्रों की समानता के सिद्धांत वाली सोच सिर उठाने लगी। इस नये सिद्धांत की वकालत में व्हील की यह दलील पूरी दुनिया में मशहूर हो गई कि, ‘‘एक बौना व्यक्ति भी उतना ही बड़ा इंसान है जितना कि एक विशालकाय कद-काठी वाला व्यक्ति, एक छोटा गणतंत्र किसी भी मामले में एक सबसे शक्तिशाली राष्ट्र से कम संप्रभुता प्राप्त नहीं है।‘‘

लेकिन, राष्ट्रों की समानता का यह सिद्धांत कानूनी तौर पर भले सहज स्वीकार्य दिखता हो किंतु इसकी व्यावहारिक स्थिति भिन्न दिखाई देती थी। जहाँ तक राज्यों की समानता की बात थी तो व्यावहारिक रूप में यह केवल यूरोप की महाशक्तियों यथा फ्रांस, ग्रेट ब्रिटेन, आस्ट्रिया और रूस तक ही सीमित थी। न्यायोचित शक्ति संतुलन की अवधारणा में सन्निहित तथाकथित वर्चस्व विरोधी व्यवस्था वस्तुतः इन्हीं महाशक्तियों का विशेषाधिकार थी और इसके कायदे कानून इन्हीं मुट्ठीभर देशों के लिए प्रचलित थे। यही कारण था कि वेस्टफालिया संधि के बाद अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के निर्वहन के लिए जो वास्तविक योजनाएँ दुनिया के रोजमर्रा की जिंदगी में आई उनमें से यूरोप के देश प्रायः बाहर ही थे।
बल्कि, इसे यूँ समझें कि इस अवधि के अंतर्राष्ट्रीय कायदे कानून तब के प्रभावी राष्ट्रों में वंशानुगत शासन व्यवस्था की अवधारणा पर आधारित थे। यहाँ संप्रभुता का यह अर्थ समझा जाता था कि यूरोप के विभिन्न भूभागों पर शासन कर रहे वंशानुगत सम्राटों की पीढ़ियों एक दूसरे को अधिकार प्राप्त, स्वतंत्र एवं संप्रभुता प्राप्त की मान्यता देगी। इस प्रकार वेस्टफालिया संधि के बाद की – व्यवस्था ने संबंधों के अपने खास स्तर विकसित कर लिये।

वेस्टफोलिया संधि तथा उसके बाद के उदश्ट संधि के बीच की अवधि में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर दो घटनाक्रम विशेष तौर पर हावी रहे। एक तरफ जहाँ लूई चैदहवाँ, फ्रांस का वर्चस्व बढ़ाने में जुटा रहा वहीं दूसरी तरफ ब्रिटेन, फ्रांस हॉलैड और स्पेन के बीच प्रतिस्पर्धी नयी हदों को पार करती रही। इसका समापन उट्ट संधि (1713) पर हुआ जिसमें फ्रांस को भारी नुक्सान उठाना पड़ा। इस अवधि में स्वीडन, रूस या पोलैंड की हैसियत ऐसी नहीं थी कि वे पश्चिमी यूरोपीय देशों को विश्वास में लिए बिना अंतर्राष्ट्रीय मामलों में कोई स्वतंत्र फैसला ले सके।

वेस्टफालियन व्यवस्था आने वाले दिनों में नये रूप परिवर्तित करती रही और इन रूपों का विस्तार भी होता गया। इनकी स्पष्ट झलक विएना कांग्रेस (1815) के बाद की उभरी व्यवस्था में दिखाई देने लगी। नयी व्यवस्था भी मुख्य रूप से युरोप पर ही आधारित थी। इस नयी व्यवस्था में शामिल 23 राष्ट्रों में से 22 तो यूरोप के ही थे। यूरोप से बाहर के एकमात्र राष्ट्र संयुक्त राज्य अमरीका को इस व्यवस्था में स्थान मिला था। इस विरोधाभास के बावजूद यह नयी व्यवस्था अनेक मामलों में विश्व व्यापी व्यवस्था के रूप में नजर आने लगी थी। इस व्यवस्था के अंतर्गत ऐसे अनेक कायदे कानून बनाये गये थे जिनका असर कमोवेश पूरी दुनिया पर पड़ना था। इस व्यवस्था का नतीजा यह निकला कि विकास की दौड़ में पिछड़े राष्ट्र तत्कालीन महाशक्तियों की समरधुरि बन गये जहाँ ताकतवर देशों के आपसी झगड़े सुलझाये जाने लगे। इस प्रकार विएना कांग्रेस के बाद उत्पन्न व्यवस्था वस्तुतः महाशक्तियों के वर्चस्व की व्यवस्था थी। इस व्यवस्था को कनसर्ट ऑफ युरोप के नाम से पुकारा जाता है। आज की दुनिया में जो सामूहिक सुरक्षा (क्लेक्टव सिक्यूरिटी) की प्रचलित अवधारणा देती जा रही है उसके बीच कंसर्ट ऑफ यूरोप में ही पड़ गये थे। कंसर्ट ऑफ यूरोप के तहत पाँच महाशक्तियों यथा, ब्रिटेन, फ्रांस, प्रसिया, रूस और आस्ट्रिया ने खुद के उपर यह जिम्मेदारी ले ली कि वे अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था की देखरेख करेंगे। यह व्यवस्था इस अवधारणा पर आधारित थी कि विश्व व्यवस्था के सुचारू निर्वहन के लिए अत्यावश्यक है कि ये पाँचो महाशक्तियाँ विशेष अधिकारों से लैस रहे। विएना कांग्रेस (1815) के बाद वेस्टफालियन व्यवस्था में जो परिवर्तन आते दिखाई दिये, उनके पीछे मुख्य दबाव राष्ट्रीयता का उदय तथा इसकी वजह से प्रचलन में आये नये कायदे कानून थे। इस परिवर्तन की आंधी में संप्रभुता प्राप्त राष्ट्र की अवधारणा को तो चुनौती नहीं मिली लेकिन इसका आधार राजशाही से खिसककर राष्ट्रीयता की तरफ होने लगा।

इस प्रकार राज्य की अवधारणा का राष्ट्रीयता के साथ मेल हुआ और आधुनिक राष्ट्र राज्य की बुनियाद पड़ी। अंततः फीमियन युद्ध की समाप्ति पेरिस सम्मेलन में हुई जिसमें राष्ट्रीय आत्म निर्धारण (छंजपवद ेमस िकमजमतउपदंजपवद) के सिद्धांत को मान्यता मिली। इस प्रकार धीरे-धीरे प्रत्येक राष्ट्रीयता का यह अधिकार पनपा कि वें समानता के आधार पर स्वतंत्र राजनीतिक इकाई के रूप में काम कर सके। आधुनिक अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के विकास की दिशा में यह मील का पत्थर साबित हुआ।

वर्ष 1914 तक इस व्यवस्था से जुड़े सदस्यों की संख्या 43 तक पहुँच चुकी थी। इस प्रकार यह पहला मौका था जब अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के परिचालन के मामले में यूरोप के वर्चस्व को भारी झटका पहुँचा। तत्कालीन व्यवस्था में लैंटीन अमरीका के 17 देश, एशिया के 3 तथा अफ्रीका और मध्यपूर्व देशों से एक-एक सदस्य शामिल थे। इस प्रकार आधुनिक कूटनीति का बीच जहां वेस्टफालिया में अंकुरित हुआ और विश्ना और पेरिस समझौतों के तहत पनपा वहीं उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में। जाकर ही वह माहौल बना जब राज्यों के आचरण को लेकर नियमित रूप से अंतर्राष्ट्रीय बैठकें होने लगी और उनमें आवश्यक फैसले लिए जाने लगे। इन कंवेंशनों में जिन विषयों पर चर्चा होती थी। उनमें कूटनय के नियम, (रैक, प्रोटोकाल अपनाये जाने वाले तरीके तथा विशेषाधिकार) समुद्री व्यापार के नियम, तटस्थता, नाकांबदी व अवैध व्यापार, मुक्त सामुद्रिक यात्रा, अंतर्राष्ट्रीय जलमार्ग संबंधी कानून, कापीराइटस और पेटेंट तथा युद्ध के नियम शामिल थे।

समकालीन अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में राष्ट्रों के एक दूसरे के प्रति औपचारिक आचरण की बुनियाद जिन सिद्धांतों पर टिकी होती है उनमें प्रत्येक राष्ट्र की समान संप्रभुता तथा एक दूसरे के आंतरिक मामलों में दखल नहीं देने का रिवाज सबसे प्रमुख माना जाता है। चूंकि वर्तमान व्यवस्था में ऐसी कोई विश्वव्यापी कानूनी संस्था नहीं है, जिसके फैसले तमाम राष्ट्रों पर बाध्यकारी रूप से लागू हो, इसलिए सिद्धांत रूप से प्रत्येक राज्य को यह छट रहती है कि वह अपने तरीके से हित चिंतन के रास्ते टटोल सके। और उनका प्रयोग करे। व्यावहारिक रूप में इस छूट का लाभ केवल चंद महाशक्तियां ही उठा पाती हैं। हालांकि उनके लिए भी निरंकुश होकर हित चिंतन के मार्ग पर चलने की छूट अतिशयोक्ति ही प्रतीत होती है क्योंकि सभ्यता के सैकड़ों काल में धीरे-धीरे पनपे अंतर्राष्ट्रीय कायदे कानून और परम्परा इतनी वैधता तो प्राप्त कर ही चुके हैं कि ताकत से ताकतवर देशों के लिए भी विश्व जनमत की एकदम उपेक्षा करते हुए इनके खिलाफ चलना संभव नहीं रह गया है। लीग ऑफ नेशन्स के उत्तराधिकारी के रूप में पनपा संयुक्त राष्ट्र संघ अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद आज भी विश्व समुदाय की नजरों में प्रतिष्ठा प्राप्त अंतर्राष्ट्रीय संस्था है। यह इसके बावजूद कि अनेक मौकों पर राष्ट्र ताकतवर देशों के आक्रामक तेवरों पर अंकुश लगाने में विफल रहा है।

द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद के उपनिवेशवाद का विश्वस्तर पर सफाया हो गया है। इस कारण से दुनिया का ध्यान अब युरोप की तरफ से हट कर एशिया और अफ्रीका के नवस्वतंत्र राज्यों पर केंद्रित हो गया है।

अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था से संबंधित हाल के घटनाक्रमों पर सरकारी निगाह डालने से उभर रहे नये तौर तरीकों का अहसास होता है जो बताते हैं कि भू-भाग पर आधारित संप्रभुता प्राप्त राष्ट्र राज्यों की वेस्टफालियन. व्यवस्था क्रमिक रूप से अवनति की ओर खिसक रही है।

राष्ट्र राज्यों की विशाल संख्या जो औपचारिक रूप से संप्रभुता प्राप्त राष्ट्रों की मान्यता प्राप्त है, के बावजूद वे नयी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के सापेक्ष में खुद को संतुलित करने की कोशिश में जुटे हैं। विश्व स्तर पर उभरी यह नयी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था तीखे तौर पर विभिन्न स्तरों (हीरेरकी) में बँटी। हुई है जो इन राष्ट्रों को संतुलन बनाने में और मुश्किलें खड़ी करती रहती है। इस नयी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था का आधार महाशक्तियाँ तथा उनके इर्द गिर्द घूमते सेटेलाइट देशों के समूह है। फिर भी। संयुक्त राष्ट्र संघ के हस्ताक्षेप करने वाले कार्यकलाप है (जिसमें कि अंतर्राष्ट्रीय कूटनय के नाम पर महाशक्तियाँ खुले आम विरोधियों के हाथ मरोड़ती रहती है, कठिन शर्तों के साथ खड़े अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा संस्थान आई एम एफ जैसे संस्थान हैं, विशाल. आकार वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ जिनके सालाना बजट तो अनेक देशों के अपने बजटों से भी विशाल होते हैं। इस प्रकार विभिन्न क्षेत्रों के एक एक कर भू-मंडलीकरण की चपेट में आ जाने से राष्ट्रों के संप्रभु अधिकार घट रहे प्रतीत होते हैं। इसके अलावा, विश्व आर्थिक व्यवस्था की बढ़ती अंतर निर्भरता और राष्ट्रों से बड़े दिखाई देने वाले सुप्रा स्टेट अंतर्राष्ट्रीय प्राधिकारों यथा आई एम एफ, गैट, डब्ल्यू एच ओ, वर्ल्ड बैंक आदि का बढ़ता प्रभाव भी राष्ट्रों की संप्रभुता को श्रीहीन बना रहा है। शीतयुद्ध के उतरार्द्ध वाले आज के दिनों में यदि संसार का एकमात्र देश संप्रभुता की अवनति से साफ बचा हुआ है तो कुछ वह है संयुक्त राज्य अमरिका । उल्टे, अमरीका की संप्रभुता तो दिनोदिन ताकतवर होती जा रही है तथा वर्चस्व बढ़ा रही दिखाई दे रही है।

बोध प्रश्न 1
टिप्पणी क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तर से अपने उत्तर की तुलना कीजिए।
1) राज्य व्यवस्था से आप क्या समझते हैं ?
2) राज्य व्यवस्था की तीन अवधारणाओं अथवा कोरोलरीज की विस्तार से व्याख्या कीजिए।
3) वेस्टफालियाँ संधि के बाद से राज्य व्यवस्था का विकास कैसे हुआ इसे व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत कीजिए।

बोध प्रश्न 1 उत्तर
1) ऐसी व्यवस्था जिसमें संप्रभुता प्राप्त राष्ट्र अपनी विदेश नीतियों के माध्यम से एक दूसरे के साथ अंतर क्रियाओं में सहभागिता करते हैं। एक राष्ट्र लोगों का ऐसा समुदाय है जो एक निश्चित भुखंड में निवास करता है और जो एक स्वतंत्र सरकार के माध्यम से संप्रभुता का विशेषाधिकार रखता है। ऐसे राष्ट्र राज्य वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था की इकाई बनाते हैं।
2) राज्य व्यवस्था के तीन प्रमुख गुण हैंः
क) राष्ट्रीयता – ऐसी मनोवैज्ञानिक विशेषता जिसमें आबादी में घनिष्ठता आती है।
ख) संप्रभुता
ग) राष्ट्रीय शक्ति, इच्छानुसार कार्य करवाने की सामर्थ्य।
3) राष्ट्रीयता एवं निश्चित भूखंड पर आधारित राष्ट्र. यूरोसेंट्रिक व्यवस्था जिसमें 22 राष्ट्र शामिल थे, प्रथम विश्वयुद्ध के बाद राष्ट्रीय राज्यों का विकास, दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद संप्रभुता प्राप्त राष्ट्रों का विकास।

Sbistudy

Recent Posts

सती रासो किसकी रचना है , sati raso ke rachnakar kaun hai in hindi , सती रासो के लेखक कौन है

सती रासो के लेखक कौन है सती रासो किसकी रचना है , sati raso ke…

11 hours ago

मारवाड़ रा परगना री विगत किसकी रचना है , marwar ra pargana ri vigat ke lekhak kaun the

marwar ra pargana ri vigat ke lekhak kaun the मारवाड़ रा परगना री विगत किसकी…

11 hours ago

राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्रोतों की विवेचना कीजिए sources of rajasthan history in hindi

sources of rajasthan history in hindi राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्रोतों की विवेचना कीजिए…

2 days ago

गुर्जरात्रा प्रदेश राजस्थान कौनसा है , किसे कहते है ? gurjaratra pradesh in rajasthan in hindi

gurjaratra pradesh in rajasthan in hindi गुर्जरात्रा प्रदेश राजस्थान कौनसा है , किसे कहते है…

2 days ago

Weston Standard Cell in hindi वेस्टन मानक सेल क्या है इससे सेल विभव (वि.वा.बल) का मापन

वेस्टन मानक सेल क्या है इससे सेल विभव (वि.वा.बल) का मापन Weston Standard Cell in…

3 months ago

polity notes pdf in hindi for upsc prelims and mains exam , SSC , RAS political science hindi medium handwritten

get all types and chapters polity notes pdf in hindi for upsc , SSC ,…

3 months ago
All Rights ReservedView Non-AMP Version
X

Headline

You can control the ways in which we improve and personalize your experience. Please choose whether you wish to allow the following:

Privacy Settings
JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now