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कर्मचारी किसे कहते हैं | staff in hindi meaning definition कर्मचारी की परिभाषा क्या है मतलब अर्थ

staff in hindi meaning definition कर्मचारी की परिभाषा क्या है मतलब अर्थ कर्मचारी किसे कहते हैं ?

किसी कारखाना द्वारा नियोजित सभी व्यक्तियों को ‘कर्मचारी‘ कहा जाता है। एक कर्मचारी शारीरिक रूप से श्रम करने वाला, अथवा क्लर्क या एक प्रबन्धक हो सकता है। उन सभी को कर्मचारी की श्रेणी में रखा गया है। किंतु विनिर्माण प्रक्रिया में शामिल कर्मचारियों तथा एसे कर्मचारी जो विनिर्माण प्रक्रिया से अलग हैं के बीच विभेद किया गया है। कर्मचारी जिसे (प्रत्यक्ष अथवा किसी एजेन्सी के माध्यम से) किसी विनिर्माण प्रक्रिया अथवा विनिर्माण प्रक्रिया से जुड़े किसी अन्य प्रकार के कार्य के लिए नियोजित किया गया है को ‘कर्मकार‘ भी कहते हैं। इस प्रकार क्लर्क को सिर्फ कर्मचारी की सूची में रखा जा सकता है जबकि किसी मेकैनिक को कर्मचारी और कर्मकार दोनों की सूची में रखा जाएगा।

उद्देश्य
यह इकाई संगठित क्षेत्र में लघु और बृहत् उद्योगों, दोनों में रोजगार की वृद्धि अथवा ह्रास से संबंधित है। इस इकाई में, हम निम्नलिखित के संबंध में ज्ञान प्राप्त करेंगेः
ऽ सरकार द्वारा यथा अंगीकृत लघु और बृहत् उद्योगों की परिभाषा क्या है;
ऽ समुच्चय के विभिन्न स्तरों पर औद्योगिक रोजगार संबंधी आँकड़ों को कैसे पढ़ा जाए;
ऽ रोजगार की समय प्रवृत्ति; और
ऽ रोजगार की प्रवृत्ति को प्रभावित करने वाले कारकों के संबंध में हम क्या जानते हैं?

प्रस्तावना
भारतीय उद्योग अपनी विविधता के लिए सुविदित है। इसमें न सिर्फ विशालकाय कारखानों से लेकर अत्यन्त ही लघु कारखाने तक सम्मिलित हैं अपित इनमें कहीं तो अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी का उपयोग हो रहा है तो कहीं उसी पुरानी प्रौद्योगिकी का। उदाहरण के लिए एक विद्युत संयंत्र में हजारों कर्मकार काम करते हैं जबकि आपके पड़ोस में स्थित मोटर-गैरेज में मात्र दो या तीन मेकैनिक ही होते हैं। इसी प्रकार टी वी का विनिर्माण कर रही कंपनी जापान की अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी का उपयोग कर रही होती है तो टी वी के रिमोट में लगाया जाने वाला बैटरी शायद पुरानी प्रौद्योगिकी से ही बनाया जा रहा हो।

हमारे उद्योग रोजगार के सृजन में कहाँ तक सफल रहे हैं? स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् हमारा अनुभव क्या रहा है? इस इकाई में हम ऐसे ही कुछ प्रश्नों पर चर्चा करेंगे। ऐसा करते समय हम देखेंगे कि यही विविधता, जिसे बहुधा अर्थशास्त्रियों ने द्वैधता भी कहा है और इसे विकासशील देशों की प्रघटना के रूप में देखा जाता है, कुछ समस्याएँ भी पैदा करता है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि इस द्वैध चरित्र के कारण किसी भी नीति का उद्योग के सभी उप-क्षेत्रों पर एक समान प्रभाव नहीं पड़ता है। इनमें से कुछ-लघु और पिछड़ी प्रौद्योगिकियों पर निर्भर फर्मों- के संबंध में हमारी जानकारी और तथ्यात्मक ज्ञान भी कम है, हालाँकि सैद्धान्तिक स्तर पर हम भलीभाँति समझते हैं कि इन उप-क्षेत्रों का उनके आधुनिक सहयोगियों के साथ परस्पर स्थिति कैसी होगी। इसलिए, हमारी सर्वोत्तम रणनीति यह होगी कि हम उन्हीं उद्योगों का विश्लेषण करें जिनके संबंध में हमारे पास क्रमबद्ध जानकारी है और फिर दूसरों के सामान्य अनुमानों तथा शोध निष्कर्षों से इस अंतराल को भरा जाए। हम लोग सबसे पहले रोजगार की समुच्चय प्रवृत्ति पर विचार करेंगे और उसके बाद हम इसकी गहरी छानबीन अधिक विसमुच्चय स्तरों पर करेंगे।

यह विसमुच्चय कई रीतियों से किया जा सकता है। सर्वप्रथम, हम लघु फर्मों को बृहत् फर्मों से पृथक करने के लिए रोजगार को ले सकते हैं। दूसरा, हम प्रौद्योगिकी के आधार पर भी उद्योगों को दो समूहों, आधुनिक और ‘परम्परागत‘ (विद्युत करघा बनाम हथकरघा, डेस्कटॉप प्रकाशन बनाम परम्परागत मुद्रण इत्यादि) में बाँट सकते हैं। तीसरा, व्यक्ति विशेष की ही भाँति सरकार के स्वामित्व में भी अनेक कारखाने हैं। इसलिए स्वामित्व (निजी बनाम सार्वजनिक) भी वर्गीकरण का एक अन्य आधार हो सकता है।

क्या हमारे पास विसमुच्चय के इन सभी स्तरों के संबंध में आँकड़े हैं? नहीं। हमारे शहरों में जगह-जगह पर स्थापित बड़ी संख्या में लघु इकाइयाँ (उदाहरण के लिए पड़ोस का मोटर गैरेज) सरकार के पास पंजीकृत हों यह आवश्यक नहीं, हालाँकि उनकी आर्थिक भूमिका उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि टिस्को या रिलायन्स जैसे भीमकाय उद्योगों का। ये कारखाने असंगठित क्षेत्र में आते हैं और इसलिए यह हमारे विश्लेषण के दायरे में नहीं आते हैं।

अगले दो भागों में, हम आपका औद्योगिक रोजगार से संबंधित कुछ परिभाषाओं और आँकड़ा स्रोतों से परिचय कराएँगे, जहाँ यह स्पष्ट कर दिया जाएगा कि हमारे विश्लेषण का आधार मूल रूप से वह क्षेत्र होगा जिसे संगठित विनिर्माण क्षेत्र कहा जाता है।

सारांश
संक्षेप में, आर्थिक सुधारों से उच्च उत्पादन वृद्धि के रूप में निश्चित तौर पर लाभ हुआ है किंतु इसके साथ ही उद्योग और रोजगार के पुनर्गठन तथा परिवर्तन की प्रक्रिया भी शुरू हुई। यह प्रक्रिया लम्बे समय तक चल सकती है तथा यह विशेषकर मजदूर वर्ग के लिए कुछ कष्टप्रद भी हो सकती है। तथापि, इसका मतलब यह नहीं हुआ कि हम सुधार का रास्ता छोड़ दें क्योंकि मजदूरों का बेरोजगार होना इस पूरी सुधार प्रक्रिया का गौण प्रभाव है, और इसके साथ अनुपूरक नीतियों के माध्यम से अलग से निबटा जा सकता है। यहाँ यह भी अनिवार्य हो जाता है कि इस तरह की नीतियाँ बनाते समय जबरी छुट्टी कर दिए गए श्रमिकों की दशा में सुधार के लिए उपायों पर विशेष ध्यान दिया जाए।

कुछ उपयोगी पुस्तकें एवं संदर्भ
आई.जे. अहलूवालिया, (1992). प्रोडक्टिविटी एण्ड ग्रोथ इन इंडियन मैन्यूफैक्चरिंग, नई दिल्ली, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ।
फैलोन, पीटर और रॉबर्ट ई.बी. लूकस, (1993). “जॉब सिक्यूरिटी रेग्यूलेशन एण्ड दि डायनामिक डिमांड फॉर इण्डस्ट्रियल लेबर इन इंडिया एण्ड जिम्बाब्वे‘‘. जर्नल ऑफ डेवलपमेंट इकनॉमिक्स, खण्ड 40, सं. 2।
लिटिल, इयान एम.डी., दीपक मजूमदार और जॉन एम पेज, जूनियर 1987, स्मॉल मैन्यूफैक्चरिंग एण्टरप्राइसेसः ए कॉम्पेरेटिव एनालिसिस ऑफ इंडिया एण्ड अदर इकोनॉमीज, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, न्यूयॉर्क।
नागराज, आर., (2001). ‘‘पर्कोमेन्स ऑफ इण्डियाज मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर इन दि 1990: सम टेण्टेटिव फाइन्डिंग्स‘‘, शुजी उचीकावा (संपा), इकनॉमिक रिफार्स एण्ड इण्डस्ट्रियल स्ट्रक्चर इन इंडिया, इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपिंग इकनॉमिक्स, टोक्यो में।
रामास्वामी, के.वी., (1994). ‘‘स्मॉल-स्केल मैन्यूफैक्चरिंग इण्डस्ट्रीज: सम आस्पेक्ट्स ऑफ साइज, ग्रोथ एण्ड स्ट्रक्चर‘‘, इकनॉमिक एण्ड पॉलिटिकल वीकली, फरवरी, 26।
राय, तीर्थंकर, (2001). ‘‘ए स्टडी ऑफ जॉब लॉस विद स्पेशल रेफरेन्स टू डिक्लाइनिंग इण्डस्ट्रीज इन 1990-1998ष्, लेबर मार्केट एण्ड लेबर इन्स्टीट्यूशन्स, इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपिंग इकोनौमीज टोक्यो में।

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