JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

हिंदी माध्यम नोट्स

Categories: 12th geography

राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्रोतों की विवेचना कीजिए sources of rajasthan history in hindi

sources of rajasthan history in hindi राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्रोतों की विवेचना कीजिए ?

इतिहास के स्रोत

इतिहास, अतीत काल की घटनाओं का प्रामाणिक दस्तावेज है, जो इतिहासकार द्वारा गया है, अर्थात् अतीत काल की घटनाओं को प्रत्यक्ष रूप से तो नहीं देखा जा सकता लेकिन साक्ष्य या प्रमाण ऐसे होते हैं, जो उसकी जानकारी देते हैं साक्ष्य स्वयं में मूक होते हैं. इतिहास स्मारक सिक्के, अभिलेख, साहित्य उन्हें बुलवाता है। ये हमें कई रूपों में उपलब्ध होते हैं जैसे दस्तावेज आदि राजस्थान के अत्यन्त प्राचीन काल के इतिहास को जानने के लिए केवल पुराताि साक्ष्य ही उपलब्ध होते हैं, क्योंकि तब मानव ने पढ़ना लिखना भी नहीं सीखा था। मध्यकाल में इति ज्ञात करने के अनेक साधन उपलब्ध हो जाते हैं समय-सत्य पर आने वाले विदेशी यात्रियों ने भी अ दृष्टि से यात्रा सम्बन्धी लेखन कार्य किया है। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व राजस्थान में अनेक छोटी-बड़ी रियासतें थी जिन्होंने अपने स्तर पर अपने अपने पूर्वज का इतिहास संजोया था इसलिए स्वतंत्रत पूर्व राजस्थान का इतिहास इन्हीं रियासतों का इतिहास है। इन सबके इतिहास को जोड़ कर देखा तो राजस्थान का इतिहास दिखाई देता है अतः राजस्थान के इतिहास के साधनों को हम अध्ययन सुविधा की दृष्टि से निम्नलिखित चार भागों में विभक्त कर सकते हैं- 

  1. पुरातात्विक स्रोत
  2. साहित्यिक स्रोत
  3. पुरालेख
  4. आधुनिक साहित्य

1. पुरावाश्विक स्रोत प्राचीन राजस्थान के इतिहास के निर्माण में पुरातात्विक स्रोतों की अह भूमिका है। पुरातत्व का अर्थ है भूतकाल के बचे हुए भौतिक अवशेषों के माध्यम से मानव के क्रिया कलापं का अध्ययन ये अवशेष हमें अभिलेख, मुद्राएँ (सिक्के), मोहरें, भवन, स्मारक, मूर्तियाँ, उपकरण, मृदभार आभूषण एवं अन्य रूपों में प्राप्त होते हैं इतिहास की जानकारी के लिए पुरातात्विक स्रोतों का अधि महत्त्व है, क्योंकि साहित्यिक स्रोतों की तुलना में इनसे प्राप्त जानकरी अधिक विश्वसनीय, प्रामाणिक दोष रहित मानी जाती है इसके दो कारण है। प्रथम पुरातात्विक अवशेष समसामयिक एवं प्रामाि दस्तावेज होते हैं। द्वितीय, साहित्यिक स्रोतों की तुलना में इनमें अतिरंजना का अभाव होता है काल विशेष के दोषरहित एवं पारदर्शी दस्तावेज होते हैं इन्हें पाँच भागों में विभक्त किया जा स है- (1) अभिलेख (2) मुद्राएँ या सिक्के (3) स्मारक (दुर्ग मंदिर, स्तूप, स्तंभ) (4) शैलचित्र कला (5) उत्स पुरावशेष, भवनावशेष, मृदभाण्ड, उपकरण, आभूषण आदि।

 1. अभिलेख पुरातात्त्विक स्रोतों के अन्तर्गत सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्रोत अभिलेख हैं। इसका गु कारण उनका तिथियुक्त एवं समसामयिक होना है ये प्रायः पाषाणः पट्टिकाओं स्तंभों, शिलाओं, ताम्रप मूर्तियों आदि पर खुदे हुए मिलते हैं ये अधिकाशंतः महाजनी लिपि या हर्ष लिपि में खोदे गये है। इ वंशावली क्रम, तिथियों, विशेष घटना, विजय, दान आदि का विवरण उत्कीर्ण करवाया जाता रहा है। की जानकारी मिलती है। स्पष्ट है. इन अभिलेखों में शासक वर्ग की उपलब्धियाँ अंकित करवायी जाती थीं। चित्तौड़ की प्राचीन स्थिति तथा मोरी वंश के इतिहास की जानकारी मानमोरी के अभिलेख से जो 713 ई. (770 वि. स.) का है प्राप्त होती है 946 ई. (1003 वि. स.) के प्रतापगढ़ लेख से तत्कालीन कृषि, समाज एवं धर्म की जानकारी मिलती है 953 ई. (1010 वि. स.) के सांडेश्वर के अभिलेख से वराह मंदिर की व्यवस्था, स्थानीय व्यापार कर, शासकीय पदाधिकारियों आदि के विषय में पता चलता है। इसी तरह बीसलदेव चतुर्थ का हरिकेलि नाटक तथा उसी के राजकवि सोमेश्वर रचित ललितविग्रह नाटक शिलाओं पर लिखे हैं, जो चौहानों के इतिहास के प्रमुख स्रोत है 1161 ई. (1218 वि. स.) के कुमारपाल के लेख में आबू के परमारों की वंशावली प्रस्तुत की गयी है 1169 ई. (1226 वि.स.) के बिजोलिया शिलालेख से चौहानों के समय की कृषि, धर्म तथा शिक्षा व्यवस्था पर प्रकाश पड़ता है 1460 ई. (1517 )वि. स.) की कीर्तिस्तंभ प्रशस्ति में बप्पा, हम्मीर तथा कुंभा के विषय में विस्तृत जानकारी मिलती है। 1676 ई. (1732 वि. स.) में मेवाड़ के महाराणा राजसिंह ने राज प्रशस्ति लिखवाई। इसमें मेवाड इतिहास व महाराणा की उपलब्धियों का वर्णन है।

इसी प्रकार गौरी द्वारा चौहानों की पराजय के पश्चात् भारत में तुर्क प्रभाव स्थापित हुआ और उन्होंने भी फारसी भाषा में अनेक अभिलेख लिखवाये। अजमेर में ढाई दिन के झोंपड़े का अभिलेख 1200 ई. का फारसी अभिलेख है। ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में 1637 ई. का शाहजहाँनी मस्जिद का अभिलेख है, जिससे ज्ञात होता है कि शाहजादा खुर्रम ने मेवाड़ के महाराणा अमर सिंह को हराने के बाद यहाँ मस्जिद बनवायी थी मुगलकाल में अजमेर, नागौर रणथम्भोर गागरोन शाहबाद, चित्तौड़ आदि स्थानों पर फारसी अभिलेख खुदवायें इन अभिलेखों न हिजरी सम्वत् का प्रयोग है अतः फारसी अभिलेख भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्रोत

 (2) मुद्राएँ (सिक्के) राजस्थान के प्राचीन इतिहास के लेखन में मुद्राओं या सिक्कों से बड़ी सहायता मिली है। ये सोने, चांदी, ताम्बे और मिश्रित धातुओं के हैं। इन पर अनेक प्रकार के चिन्ह-त्रिशूल, छत्र, हाथी, घोड़े, बँवर, वृक्ष, देवी-देवताओं की आकृति, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि खुदे रहते हैं। तिथि-क्रम, शिल्प कौशल, आर्थिक स्थिति, राजाओं के नाम तथा उनकी धार्मिक अभिरूचि आदि पर ये प्रचुर प्रकाश डालते हैं सिक्कों की उपलब्धता राज्य की सीमा निर्धारित करती है राजस्थान के विभिन्न भागों में मालव, शिवि यौधेय आदि जनपदों के सिक्के मिलते हैं। राजस्थान में रेद्र के उत्खनन से 3075 चांदी के पंचमार्क सिक्के मिले हैं। ये सिक्के भारत के प्राचीनतम सिक्के हैं। इन पर विशेष प्रकार के चिन्ह टंकित है और कोई लेख नहीं है। 10-11 वीं शताब्दी में प्रचलित सिक्कों पर गधे के समान आकृति का अंकन मिलता है, इन्हें गरि या सिक्के कहा जाता है। महाराणा कुंभा के चांदी एवं ताम्बे के सिक्के मिलते हैं मुगल शासन काल में जयपुर में झाड़शाही, जोधपुर में विजयशाही सिक्कों का प्रचलन हुआ। ब्रिटिश शासन काल में अंग्रेजों ने अपने शासक के नाम के चांदी के सिक्के चलवाये। 

(3) स्मारक (दुर्ग, मंदिर, स्तूप, स्तंभ) राजस्थान में अनेक स्थलों से प्राप्त भवन, दुर्ग, मंदिर, स्तूप, स्तम्भ आदि से तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है। हडप्पा संस्कृति से सम्बद्ध उत्तरी राजस्थान के हनुमानगर जिले में कालीबंगा के परातानिक उत्खनन अलिखित फली हुई दायें में अनेक भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं, जिनसे तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है राजस्थान दुर्गा के कारण प्रसिद्ध है। यहाँ अनेक भव्य एवं कलात्मक मंदिर है विराटनगर में बीज पहाड़ी पर मोर्ययुगीन बौद्ध स्थापत्य के पुरावशेष क्षेत्र में बौद्ध केन्द्र का होना सिद्ध करते हैं। हर्ष मात का मंदिर (आभानेरी), देव सोमनाथ का मंदिर (सोम नदी के तट पर), सास-बहू का मंदिर (नागदा देव का मंदिर (आ) पुष्कर, चितौड़ एवं झालरापाटन के सूर्य मंदिर किराडू और ओसियों के मंदिर बाली एवं दरा के मंदिर अपने समय की सभ्यता धार्मिक विश्वास तथा शिल्प कौशल को अभिव्य करते हैं।

राजस्थान की मध्ययुगीन इमारतें, जिनमें भग्नावशेष, दुर्ग, राजप्रासाद आदि सम्मिलित है. से इतिहास विषयक जानकारी प्राप्त होती है चितौडगढ़, कुम्भलगढ़, गागरोन रणथम्भोर आमेर, जालौर जोधपुर, जैसलमेर आदि दुर्ग सुरक्षा व्यवस्था पर ही प्रकाश नहीं डालते बल्कि उस समय के राजपरिवार तथा जन साधारण के जीवन स्तर को अभिव्यक्त भी करते हैं।

 (4) शैलचित्रकला प्रागैतिहासिक काल में मानव पर्वतों की गुफाओं, नदियों की कगारों तथा चट्टानो शिलाखण्डों द्वारा बने आश्रय स्थलों में शरण लेता था ये स्थल उसके आवास स्वरूप थे नैसर्गिक रूप से बनी इन पर्वतीय संरचनाओं को शैलाश्रय कहा जाता है। राजस्थान की अरावली पर्वत श्रृंख से तथा चम्बल नदी घाटी में नदी कगारों के रूप में बहुत से ऐसे शैलाश्रय प्राप्त हुए है जिन प्रागैतिहासिक काल के मानव द्वारा प्रयोग में लिये गये पाषाण उपकरण, अस्थि अवशेष एवं अन्य पुरासामग्री प्राप्त हुई है। इन शैलाश्रयों की छमिति, कभी-कभी फर्श आदि पर इस प्रकार की कलाकृतियाँ दिखाई देती हैं, जो रंगों द्वारा या कठोर उपकरणों द्वारा कुरेद कुरेद कर बनायी गयी है. इन शैलकला‘ (Rock Art) तथा चित्रांकन को चित्र कहते हैं ये शैलचित्र तत्कालीन मानव द्वारा विभि

प्रकार के रंगों से बनाये गये हैं। सामान्यतः आसानी से उपलब्ध गेरू के द्वारा लाल रंग के बने चित्र प्राप् होते हैं। गेरू या हेमेटाइट (लोह खनिज) के टुकड़े को घिसने पर लाल रंग का चूर्ण बन जाता है, उस द्वारा तत्कालीन मानव ने शैलाश्रयों की दीवारों पर विभिन्न प्रकार के दृश्यों का बहुत अच्छे ढंग से चित्रांकन किया है। इनमें सर्वाधिक आखेट दृश्य उपलब्ध होते हैं जिनमें तत्कालीन आखेटक जीवन के विभिन्न पक्ष  उपकरणों के प्रयोग की विधियों, उनके प्रकार जीव जन्तुओं की प्रजातियों तथा तत्सम्बन्धी पर्यावरण आदि की विशद जानकारी प्राप्त होती है। अर्थात् शैलाश्रयों में किया गया चित्रांकन तत्कालीन मानव द्वारा निर्मित उसके अभिलेखीय साक्ष्य है चित्रित शैलाश्रयों की दृष्टि से चम्बल नदी घाटी का क्षेत्र उल्लेखनीय है। यही कन्यादह, रावतभाटा अलनियों, दश आदि स्थलों में अनेक चित्रित शैलाश्रय प्रकाश में आये है। बूंदी जिले में छाजा नदी इस दृष्टि से उल्लेखनीय है विराटनगर (जयपुर), सोहनपुरा (सीकर) तथा हरसौरा खडीकर (अलवर) में भी अनेक चित्रित शैलाश्रय प्राप्त हुए हैं।

  1. उत्खनित पुरावशेष (भग्नावशेष. मृद्भाण्ड, उपकरण, आभूषण आदि) अन्वेषण एवं उत्खनन में प्राचीन काल की सामग्री उपलब्ध होती रहती है, जैसे पाषाण उपकरण मृदभाण्ड, धातु उपकरण, अस्त्र-शस्त्र, बर्तन आभूषण आदि। लेकिन गृद्भाण्डों की उपलब्धि सर्वाधिक है जिनको उनकी गठन, बनावट तथा तकनीक के आधार पर चार सांस्कृतिक वर्गों में विभाजित किया जाता है, जो निम्नानुसार है-

(1) गेरुए रंग की मृदपात्र संस्कृति (OCP)

(2) काले एवं लाल रंग की मृदपात्र संस्कृति (B&R)

(3) चित्रित सलेटी रंग की मृदपात्र संस्कृति (PGW)

(4) उत्तरी काली चमकीली मृदभाण्ड संस्कृति (NBP)

मृद्भाण्डों की भांति, प्राचीन काल के पाषाण एवं धातु उपकरणों की सहायता से संस्कृतियों के विकास क्रम को समझने में सहायता मिलती है।

2. साहित्यिक स्रोत साहित्य समाज का दर्पण होता है ग्रंथ चाहे यह धर्म से सम्बन्धित हो, ऐतिहासिक हो या लौकिक हो, उसमें अपने रचना काल की प्रवृतियाँ समाविष्ट रहती हैं। इसलिए इतिहास की दृष्टि से ये महत्वपूर्ण स्रोत है राजस्थान में साहित्य का सृजन संस्कृत, राजस्थानी हिन्दी एवं फारसी भाषा में किया गया है। अनेक राजा महाराजाओं ने अपने दरबार में विद्वान कवियों एवं साहित्यकारों को आश्रय दिया है उनकी कृतियाँ इतिहास के प्रमुख स्रोत हैं लेकिन दरबारी लेखन में अतिशयोक्तिपूर्ण विवरण की पूरी संभावना रहती है, जिसकी पुष्टि इतिहासकार अन्यत्र किये गये स्वतंत्र लेखन से करते हैं।

संस्कृत साहित्य = 12 वीं शताब्दी में जयानक ने पृथ्वीराज विजय की रचना की। इसमें सपादलक्ष के चौहानों के विषय में जानकारी प्राप्त होती है जा बन्द सूरि द्वारा रचित हम्मीर महाकाव्य रणथम्भोर के चौहान वंश की जानकारी का स्रोत है चन्द्रख कृत सुर्जन चरित समाज जीवन के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी देता है। मेवाड़ के शिल्पी ण्डन द्वारा रचित राजबल्लभ में महाराणा कुंभा के काल की जानकारी मिलती है। इसके अतिरिक्त मेरुतुंग रचित प्रबन्ध चिंतामणि, राजशेखर कृत प्रबन्ध कोष रणछोड़ मद्द द्वारा रचित अमर काव्य वंशावली आदि महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं। 

राजस्थानी एवं हिन्दी साहित्य =  राजस्थानी भाषा में  भी अनेक ग्रंथों की रचना हुई जिनका इतिहास पृथ्वीराज रासो की काव्य रचना चन्दरबरदाई लेखन हेतु स्रोत के रूप में उपयोग किया जाता है, जैसे ने की। इसमें पृथ्वीराज चौहान तथा मुहम्मद गौरी के मध्य युद्ध का वर्णन है। हम्मीर की उपलब्धियों का उल्लेख विजयसाकुरा हमीर देव चौसाई जोधराज कृत हम्मीर रासो चन्द्रशेखर कृत हम्मीर हठ तथा राजरूप रचित हम्मीर राछाड़ा में मिलता है।

जालौर के शासक कान्हड़ दे के समय रचित कान्हड़ दे प्रबन्ध एक महत्वपूर्ण कृति है। इसकी रचना पद्मनाभ ने की। करणीदान द्वारा रचित सूरज प्रकाश ग्रन्थ में जोधपुर नरेश अजय सिंह के शासन काल की महत्वपूर्ण घटनाओं का विवरण है।

ख्यात साहित्य – ऐसा साहित्य जो ख्याति को प्रतिपादित करे, वह ख्यात साहित्य कहलाता है। ख्यातों का विस्तृत रूप 16वीं शताब्दी के अंत से मिलता है ये राजस्थानी भाषा में गद्य में लिखा गया साहित्य है। अधिकांशतः ख्यात लेखक दरबार के चारण या भाट होते थे किन्तु मुहणोत नैणसी इसके अपवाद है मुहणोत नैणसी री ख्यात बांकीदास री ख्यात दयालदास री ख्यात राजा मानसिंह जी ख्यात और इसी तरह फलौदी, सांचौर, जैसलमेर तथा किशनगढ़ री ख्यात उल्लेखनीय है।

इसके अतिरिक्त राजस्थानी भाषा में रचित अचलदास खींची री वचनिका गागरोन के खींची शासकों की जानकारी का स्रोत है महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण कृत वंश भास्कर एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथ है, जो मराठो के आक्रमणों के विषय में जानकारी उपलब्ध करवाता है।

फारसी साहित्य =  मध्य युगीन राजस्थान की घटनाओं की जानकारी का महत्वपूर्ण स्रोत उर्दू फारसी साहित्य है। इनके लेखक दिल्ली के सुल्तान या मुगलों के संरक्षण में ग्रंथों की रचना कर थे अतः अतिशयोक्ति पूर्ण विवरण भी इनकी रचनाओं में उपलब्ध होता है जिनका उपयोग करते समय सावधानी की आवश्यकता है।

पंचनामा में सिन्ध प्रदेश में अरबी आक्रमण का वर्णन है तबकाते नासिरीमें मिनहाज सिर ने 1200 ई. तक के सुल्तानों के विषय में लिखा है ताज उल मासिर में हसन निजामी ने राजस्थान मुस्लिम सत्ता की स्थापना का उल्लेख किया है।

खजाइन  उल-कुतूह में अमीर खुसरो ने अलाउद्दीन खिलजी के विजय अभियानों का आंखों देख विवरण लिपिबद्ध किया है।

तारीख-ए  फिरोजशाही में जियाउद्दीन बरनी ने खिलजी एवं तुगलक सुल्तानों का वर्णन किया है तारीख-ए-मुबारकशाहीमें याहया बिन अहमद अब्दुलशाह सरहिन्दी ने चम्बल क्षेत्र के अनेक मा की जानकारी के साथ मुबारकशाह खिलजी द्वारा मेवात क्षेत्र मे किये गये आक्रमण का उल्लेख किया है।

तुजुक ए बाबरी में बाबर ने मेवाड़ के राणा सांगा के साथ सम्बन्धों का विवरण लिखा है। मा की बहिन गुलबदन बेगम द्वारा रचित हुमायूँनामा में तथा जौहर आफताबची द्वारा रचित किराते-उल- वाकियात में मारवाड़ के मालदेव तथा जैसलमेर के भाटी मालदेव का वर्णन किया अब्बास सरवानी ने तारीखे शेरशाही में शेरशाह के राजस्थान अभियान का विस्तृत विवरण दिया है। 

अकबर कालीन इतिहासकारों में अबुल फजल ने अकबरनामा में बदायूँनी ने मुन्तख्वाब तवारीख में फरिश्ता ने तारीख-ए-फरिश्ता में राजस्थान की अनेक घटनाओं का वर्णन किया है जहाँगीर ने अपनी आत्मकथा तुजुके- जहाँगीरी में अपने निकट सम्बन्धी शासकों का वर्णन किया है 

3. पुरालेख लिखित दस्तावेज पुरालेख कहलाते हैं। 16 वीं शताब्दी में राजस्थान के सभी शास के पास ऐसे अधिकारी दिखाई देते हैं, जो राजकीय कागज पत्रों को संभाल कर रखने का काम क हैं। इनमें विभिन्न राजा महाराजाओं से प्राप्त पत्र तथा उनके प्रेषित पत्रों की प्रतियाँ, भूमि विषय कार्यवाही, राजस्व सम्बन्धी विवरण यहाँ तक की दरबार की कार्यवाही का रिकार्ड भी संभाल कर र जाने लगा।

राजपूत घरानों में भी रिकार्ड रखने की प्रथा प्रचलित थी यहाँ बहियाँ लिखी जाती थी ये एक तरह की फाइल थी। प्रत्येक विषय की वही अलग-अलग होती थी जैसे विवाह री बही, हकीकत यही हुकूमत री बही अर्थात् जिसमें सरकारी आदेशों की नकल होती थी, पट्टा वही, परवाना नही आदि इसके अतिरिक्त अड़सट्टा रिकार्ड है जिसमें भूमि की किस्म, किसान का नाम, भूमि के माप, फसलों क विवरण, लगान का हिसाब आदि का विवरण उपलब्ध होता है कुछ बहियाँ व्यापारियों की भी हैं जिन वस्तुओं का बाजार भाव मण्डियों के नाम, वस्तुओं का उल्लेख जो बाजार में बिकने आती थी का उल्ले मिलता है। इस प्रकार इतिहास को जानने के लिए पुरालेख अत्यन्त महत्वपूर्ण साधन है। ये सब रिकॉ विभिन्न अभिलेखागारों में संग्रहित है हमारे राज्य का प्रमुख अभिलेखागार बीकानेर में स्थित है। 

4. आधुनिक साहित्य : राजस्थान के इतिहास का लेखन 19वीं शताब्दी के शुरू में कर्नल टॉड ने कि है। टॉड द्वारा रचित एनल्स एण्ड एन्टीक्वीटीज ऑफ राजस्थान राजस्थान के इतिहास की महत्वपू कृति है। टॉड ने प्राचीन ग्रंथों शिलालेखों, दानपत्रों, सिक्कों ख्यातों और वंशावली संग्रह के आधार पर अपने ग्रंथ की रचना की। टॉड ने उस समय उपलब्ध सभी साधनों का प्रयोग करके यह ग्रंथ लि लेकिन फिर अनेक नवीन स्रोत सामने आयें है। वह एक विदेशी था. शासक वर्ग से सम्बन्धित था अतः उसक सीमाएँ थी। वह भारतीय भाषा रीति-रिवाज आदि को ठीक से नहीं समझ सका और हो सकता है कि उपलब्ध साहित्यिक साक्ष्य उसे मिल न सके हो परवर्ती काल में गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने राजस्थान के इतिहास पर नवीन दृष्टिकोण प्रस्तुत किया ओझा के इस प्रयत्न ने राजस्थान इतिहास लेखन की परम्परा प्रारम्भ की। इनके पश्चात् श्यामलदास, जगदीश सिंह गहलोत तथा डॉ० दशरथ शर्मा ने राजस्थान के इतिहास विषयक ग्रंथों की रचना की राजस्थान के इतिहास के लेखकों में डॉ० गोपीनाथ शर्मा का नाम भी उल्लेखनीय है आधुनिक राजस्थान के लेखन में डॉ० एम० एस० जैन का योगदान भी महत्वपूर्ण है।

Sbistudy

Recent Posts

सती रासो किसकी रचना है , sati raso ke rachnakar kaun hai in hindi , सती रासो के लेखक कौन है

सती रासो के लेखक कौन है सती रासो किसकी रचना है , sati raso ke…

9 hours ago

मारवाड़ रा परगना री विगत किसकी रचना है , marwar ra pargana ri vigat ke lekhak kaun the

marwar ra pargana ri vigat ke lekhak kaun the मारवाड़ रा परगना री विगत किसकी…

10 hours ago

गुर्जरात्रा प्रदेश राजस्थान कौनसा है , किसे कहते है ? gurjaratra pradesh in rajasthan in hindi

gurjaratra pradesh in rajasthan in hindi गुर्जरात्रा प्रदेश राजस्थान कौनसा है , किसे कहते है…

2 days ago

Weston Standard Cell in hindi वेस्टन मानक सेल क्या है इससे सेल विभव (वि.वा.बल) का मापन

वेस्टन मानक सेल क्या है इससे सेल विभव (वि.वा.बल) का मापन Weston Standard Cell in…

3 months ago

polity notes pdf in hindi for upsc prelims and mains exam , SSC , RAS political science hindi medium handwritten

get all types and chapters polity notes pdf in hindi for upsc , SSC ,…

3 months ago

भारत का पहला बायोस्फीयर रिजर्व कौन सा है first biosphere reserve in india in hindi

first biosphere reserve in india in hindi भारत का पहला बायोस्फीयर रिजर्व कौन सा है…

3 months ago
All Rights ReservedView Non-AMP Version
X

Headline

You can control the ways in which we improve and personalize your experience. Please choose whether you wish to allow the following:

Privacy Settings
JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now