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Categories: sociology

सामाजिक स्तरीकरण क्या है | मार्क्स के अनुसार सामाजिक स्तरीकरण किसे कहते है social stratification in hindi

social stratification in hindi सामाजिक स्तरीकरण क्या है | मार्क्स के अनुसार सामाजिक स्तरीकरण किसे कहते है परिभाषा या सिद्धांत क्या है ?

सामाजिक स्तरीकरण और मार्क्स
सामाजिक परिवर्तन को समझने और उसकी व्याख्या करने के लिए मार्क्स ने ऐतिहासिक भौतिकतावाद का सिद्धांत अपनाया। उनके विचार में इतिहास का पहला प्रस्थान बिंदु मानव का अस्तित्व में होना था। मानव समाज का भौतिक गठन और मनुष्यों का प्रकृति से संबंध विकास के महत्वपूर्ण द्योतक हैं। सभी प्राणी जीवित रहने के लिए प्रकति पर निर्भर रहते हैं। पेड पौधे मिट्टी और पानी के लिए प्रकति पर निर्भर रहते हैं, गाय घास के लिए प्रकृति पर आश्रित रहती है तो शेर को जीवित रहने के लिए अन्य जंतुओं का शिकार करना पड़ता है। जीवित रहने के लिए मनुष्य भी प्रकृति पर निर्भर रहता है। मगर मनुष्य और अन्य प्राणियों में यही बुनियादी अंतर है कि वह अपने जीवन के लिए प्रकृति का कायापलट कर सकता है। मगर अन्य प्राणियों को प्रकृति के अनुकूल ढलना पड़ता है। गाय घास खाती है मगर उसे उगा नहीं सकती। इधर मनुष्य प्रकृति का दोहन तो करता है मगर उसमें इसकी कायापलट की शक्ति भी होती है। इसका सीधा सा मतलब यह है कि मनुष्य में अपनी आजीविका के साधन उत्पन्न करने की क्षमता होती है। मार्क्स इसलिए अपनी पूस्तक जर्मन आइडियोलजी में कहते हैंः “मनुष्य को उसकी चेतना, धर्म या किसी भी चीज से पशुओं से अलग किया जा सकता है। मनुष्य जैसे ही अपने जीवन-निर्वाह के साधन उत्पन्न करने लगता है वह अपने आपको पशुओं से अलग करके देखने लगता है। यह चरण उसकी शारीरिक स्थिति निर्धारित करती है। जीवन-निर्वाह के वास्तविक साधन उत्पन्न करके मनुष्य परोक्ष रूप से अपने वास्तविक भौतिक जीवन का सृजन करता है।‘‘ इसी उत्पादन के जरिए ही मनुष्य का विकास हुआ। आदिम मनुष्य पूरी तरह से प्रकृति पर ही निर्भर था। इसका कारण यह था कि उसका जीवन-निर्वाह शिकार या भोजन संग्रहण से ही होता था। ये आदिम समाज जीवित रहने के लिए अपनी न्यूनतम जरूरतें पूरी कर पाते थे। मनुष्य ने प्रकृति को अपने उपयोग के लिए रूपांतरण करना शुरू किया तो मानव समाज में लोगों के निर्वाह के लिए अधिक उत्पन्न करने की क्षमता आई।

 श्रम का विभाजन
प्रौद्योगिकी या टेक्नोलॉजी के विकास के जरिए मनुष्य ने कृषि को उन्नत किया और इससे उसने स्थायी रूप से बसे समुदायों का निर्माण किया। उत्पादन के बढ़ने पर ये समुदाय अपनी आवश्यकताओं से अधिक उत्पन्न करने लगे। इस बेशी उत्पादन के फलस्वरूप उन लोगों का निर्वाह करना संभव हो गया जो भोजन के उत्पादन से जुड़े नहीं थे। आरंभिक समाजों में सभी लोग एक प्रकार के क्रिया-कलापों में लगे रहते थे जो उनके अस्तित्व के लिए जरूरी थे। जैसे रोटी, कपड़ा और मकान । बेशी उत्पादन से अब अन्य लोगों के लिए अपने क्रिया-कलापों को इन बुनियादी जरूरतों से आगे फैलाना संभव हो पाया । इसलिए कुछ लोगों ने भोजन उत्पन्न किया जो सभी के भरण-पोषण के लिए पर्याप्त थे तो अन्य लोग दूसरी गतिविधियों में लग गए। इसे ही श्रम का विभाजन कहा गया।

इस व्यवस्था के फलस्वरूप कुछ लोगों ने अन्य लोगों की इस प्रक्रिया से अलग छिटककर उत्पादन के साधनों पर अधिकार जमा लिया। इस तरह जो संपत्ति अभी तक सभी के सामूहिक स्वामित्व में थी वह चंद लोगों के हाथों में चली गई जिससे निजी संपत्ति की धारणा उत्पन्न हुई। इसके बाद सभी लोगों के हित साझे नहीं रहे। हितों में अब तरह-तरह के अंतर आ गए। इस प्रकार व्यक्तियों के निजी हित समुदायिक हितों से बिल्कुल भिन्न हो गए। मार्क्स कहते हैं, “श्रम का विभाजन और निजी संपत्ति समरूप अभिव्यक्तियां हैं। इसका निजी और सामूहिक हितों में अंतर्विरोध था।‘‘

मानव समाज में निजी संपत्ति के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली विषमता से वर्गों का निर्माण होता है। यही वर्ग सामाजिक स्तरीकरण का आधार बनते हैं। सभी स्तरित समाजों में मोटे तौर पर प्रायः दो समूह मिलते हैंः शासक वर्ग और शासित वर्ग। इसके फलस्वरूप इन दोनों वर्गों के बीच अपने-अपने हितों को लेकर बुनियादी द्वंद्व उत्पन्न होता है। अपनी अन्य प्रसिद्ध कृति कंट्रीब्यूशंस ऑफ द क्रिटीक ऑफ पॉलिटिकल इकोनॉमी में मार्क्स कहते हैं कि समाज की विभिन्न संस्थाएं जैसे कानूनी और राजनीतिक व्यवस्थाएं, धर्म इत्यादि असल में शासक वर्ग के वर्चस्व का माध्यम हैं और ये उसके हितों को साधने का काम करती हैं। आइए, अब यह जाने कि वर्गश् का क्या मतलब है।

 वर्ग का तात्पर्य
मार्क्स ने स्तरीकरण की सभी प्रणालियों में दो मुख्य स्तरों के लिए ‘वर्ग‘ शब्द का प्रयोग किया है। जैसा कि हमने पीछे उल्लेख किया है, सभी स्तरित समाजों में मुख्यतः दो बड़े सामाजिक समूह होते हैं-एक शासक वर्ग और दूसरा शाषित वर्ग। शासक वर्ग को शक्ति या सत्ताधिकार उत्पादन के साधनों पर अधिकार करने से हासिल होता है। इस तरह यह अन्य वर्गों के श्रम के फल को हथिया लेने में सक्षम रहता है। द एटीन्थ ब्रुमेयर ऑफ लुई बोनापार्ट में मार्क्स वर्ग का वर्णन इस प्रकार करते हैंः “जब लाखों लोग अस्तित्वभर आर्थिक दशा में जी रहे हों, जो उनकी जीवन शैली, उनके हित और संस्कृति को अन्य वर्गों के लोगों से अलग करती हो और उन्हें इन वर्गों के द्वेषपूर्ण विरोध में ला खड़ा करती हो, तो ऐसे लोग एक वर्ग बन जाते हैं।‘‘

अभ्यास 1
अपने परिचित लोगों से वर्ग के अभिप्राय पर चर्चा कीजिए। इसमें आपको वर्ग की जो व्याख्याएं जानने को मिलती हैं उन्हें नोट कर लीजिए । अब इन व्याख्याओं की तुलना मार्क्स की वर्ग अवधारणा से कीजिए।
मार्क्स के अनुसार स्तरीकरण की व्यवस्था उत्पादन की शक्तियों से सामाजिक समूहों के संबंधों से उत्पन्न होती है। मार्क्स ने वर्ग शब्द का प्रयोग स्तरीकरण की सभी पद्धतियों में मुख्य स्तरों के लिए किया था। वर्ग की उन्होंने जो परिभाषा दी है, उसकी अपनी कुछ विशेषताएं हैं। इस परिभाषा के अनुसार वर्ग में दो मुख्य समूह होते हैं जिनमें से एक उत्पादन के साधनों पर अधिकार किए रहता है। सामाजिक अर्थव्यवस्था में इसे विशिष्ट दर्जा हासिल होने के कारण यह वर्ग अन्य वर्ग के श्रम के फल को हथिया लेता है। इस प्रकार वर्ग एक सामाजिक समूह है, जिसके सदस्यों का उत्पादन शक्तियों से एक साझा संबंध होता है। यह दरअसल एक वर्ग के दूसरे वर्ग से अलग करता है।
मार्क्स की इस परिभाषा से हमें वर्ग का एक और पहलू यह दिखाई देता है कि वर्ग एक दूसरे के विरोध में खड़े होते हैं। मगर साथ-साथ वर्गों में परस्पर निर्भरता का संबंध भी होता है। अगर एक वर्ग उत्पादन के साधनों पर अपने अधिकार के बूते दूसरे वर्ग के श्रम को हथिया सकता है तो इसका यही मतलब है कि दोनों वर्ग एक दूसरे पर निर्भर तो हैं ही, मगर वहीं वे परस्पर विरोधी भी हैं। वर्गों के बीच यह संबंध एक परिवर्तनकारी संबंध है जिसकी परिणति सामाजिक परिवर्तन में होती है। यही कारण है कि मार्क्स की दृष्टि में वर्ग ही सामाजिक कायापलट की धुरी हैं। कम्युनिष्ट मैनिफेस्टो में मार्क्स लिखते हैंः ‘‘अभी तक, सभी समाजों का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है।” दूसरी तरह से कहें, तो मानवजाति के इतिहास में वर्गों के संघर्ष के कारण परिवर्तन आते हैं। इसलिए वर्ग द्वंद्व सामाजिक बदलाव का इंजन है।

बोध प्रश्न 1
1) श्रम के विभाजन के बारे में मार्क्स के क्या विचार हैं? पांच पंक्तियों में बताइए।
2) मार्क्स के अनसार वर्ग का क्या मतलब है? पांच पंक्तियों में उत्तर दीजिए

बोध प्रश्न 1 उत्तर
1) प्रौद्योगिकी (टेक्नोलॉजी) में विकास होने के साथ-साथ उत्पादन भी उन्नत हुआ। इससे बेशी उत्पादन संभव हुआ और इसके फलस्वरूप क्रियाकलापों का वर्गीकरण यानी श्रम का विभाजन हुआ। इसका एक परिणाम यह भी रहा है कि उत्पादन के साधनों पर चंद लोगों का अधिकार हो गया जिससे निजी संपत्ति का प्रादुर्भाव हुआ। मार्क्स के अनुसार इससे लोगों के हित सामुदायिक हितों से अलग हो गए और इस प्रकार समाज में वर्गों का उदय हुआ।

2) मार्क्स के अनुसार स्तरीकरण व्यवस्था में दो मुख्य स्तर होते हैं। इनमें एक शासक वर्ग और दूसरा शासित वर्ग है। उत्पादन के साधन शासक वर्ग के अधिकार में रहते हैं जिसके बूते यह वर्ग श्रमिक वर्ग के श्रम को हथिया लेता है। अंततः ये वर्ग एक दूसरे के विरोधी होते हैं।

वर्ग का विकास
समाज का विकास वर्ग संघर्ष की प्रक्रिया के जरिए होता है। एक वर्ग का किसी अन्य वर्ग पर प्रभुत्व होने के कारण ही वर्ग द्वंद्व उत्पन्न होता है। इसके साथ-साथ प्रौद्योगिकी में आने वाले परिवर्तनों के कारण उत्पादन की प्रक्रिया भी विकसित होती है, जिसके फलस्वरूप वह उन्नत होती जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि वर्गीय ढांचे में परिवर्तन आ जाता है क्योंकि उत्पादन तकनीकों में वृद्धि होने के कारण मौजूदा वर्ग अपनी प्रासंगिकता खो देते हैं। इससे नए वर्गों की रचना होती है जो पुराने वर्गों का स्थान ले लेते हैं। इससे वर्ग संघर्ष और बढ़ता है। मार्क्स के मतानुसार पश्चिमी समाजों का विकास मुख्यतः चार चरणों में हुआः आदिम साम्यवाद, प्राचीन समाज, सामंतवादी समाज और पूंजीवादी समाज। आदिम साम्यवाद के चरण के प्रतिनिधि प्रागैतिहासिक समाज हैं, शिकार और भोजन संग्रहण पर निर्भर करते हैं और जिनमें श्रम का कोई विभाजन मौजूद नहीं है। इस चरण के बाद सभी समाज मुख्यतः दो वर्गों में बंटे होते हैः प्राचीन समाज में ये स्वामी और दास, सामंतवाद समाज में ये जमींदार और कृषिदास (काश्तकार) और पूंजीवादी समाज में ये पूंजीवादी और वैतनिक श्रमिक हैं। प्रत्येक युग में उत्पादन के लिए आवश्यक श्रम शक्ति की पूर्ति शासित वर्ग यानी दास, कृषिदास और वैतनिक श्रमिक वर्ग ही करता था।

परस्पर विरोधी समूहों में वर्गों का धुवीकरण वर्गीय चेतना का परिणाम है। यह एक अलग मगर वर्ग से ही जुड़ा प्रसंग है। वर्गीय चेतना अनिवार्यतः वर्ग-रचना का परिणाम नहीं होती। वर्गीय चेतना का संबंध वर्गों के धुवीकरण की प्रक्रिया से है। अपने वर्गीय हितों के जाने बगैर भी एक वर्ग अस्तित्व में हो सकता है।

बॉक्स 5.01
किसी खास समूह के लोग, जिसकी सदस्यता उत्पादन के ऐसे संबंधों से तय होती है जिनमें या तो वे जन्म लेते हैं या स्वेच्छा से प्रवेश करते हैं, जब वे एक विशिष्ट या भिन्न समूह के रूप में अपने । अस्तित्व के बारे में सजग हो जाते हैं तो उन्हें अपने वर्ग के प्रति चैतन्य माना जाता है। उदाहरण के लिए, मजदूर अपनी मजदूरी बढ़ाने के लिए बराबर संघर्षरत रहते हैं जो उनके हित में है। ये हित पंजीवादी समाज के आर्थिक संबंधों के परिणाम हैं। ये हित वस्तनिष्ठ रूप से विद्यमान होते हैं, जिसका यह अर्थ है कि इन हितों को कोई सिद्धांत राजनीतिक दल, मजदर संघ या इस तरह की कोई बाहरी शक्ति ईजाद नहीं करती है। मगर इन वस्तनिष्ठ स्थितियों का विद्यमान रहना ही पर्याप्त नहीं होता। कामगारों को इन स्थितियों के बारे में जागरूक होना चाहिए।

एटीन्थ ब्रुमेयर ऑफ लुई बोनापार्ट के निष्कर्ष में मार्क्स वर्ग निर्माण की महत्ता का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि एक वर्ग तभी अपने अस्तित्व के प्रति सचेत होता है, जब वह अन्य वर्ग से अपने विरोध के प्रति जागरूक हो। अपने सबसे: ग्रंथ दास कैपिटल में मार्क्स कहते हैं कि अगर श्रमिकों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाए तो हो सकता है कि वे इस बात से अनभिज्ञ रहें कि उनके वर्गीय हित अन्य वर्ग (पूंजीवादी वर्ग) के हितों के प्रतिकूल हैं। उन्होंने कहा है कि पूंजीवादी उत्पादन में उन्नति एक ऐसा श्रमिक वर्ग खड़ा करता है जो अपनी शिक्षा, परंपरा और स्वभाव से उत्पादन की स्थितियों को प्रकृति के स्वयंसिद्ध नियमों के रूप में देखता है। यानी वह उन्हें स्वाभाविक, प्रकृति-सममत मानता है साधारण स्थितियों में श्रमिक को स्वयंसिद्ध नियमों के रूप में उत्पादन के प्राकृतिक नियमों के हवाले किया जा सकता है साधारण स्थितियों में श्रमिक को उत्पादन के प्राकृतिक नियमों के हवाले किया जा सकता है। वर्ग चेतना के किससित होने पर वर्ग संबंधों की यह गतिहीन प्रकृति एक गतिशील और परिवर्तनकारी स्वरूप धारण कर लेती है। वर्ग चेतना के बिना श्रमिक वर्ग पूंजी के संबंध में श्रमिक वर्ग बन के रह जाता है। यह अपने-आप में एक वर्ग मात्र है। द पॉवर्टी ऑफ फिलॉसफी में मार्क्स कहते हैं कि जो श्रमिक वर्ग इस स्थिति में रहता हो वह व्यक्तियों का एक समूह मात्र है और अपने-आप में एक वर्ग है। यह जब अपने संघर्ष में पूंजीवाद के खिलाफ संगठित हो जाता है तो यह ‘‘अपने लिए एक वर्ग का स्वरूप धारण कर लेता है जिन हितों की यह रक्षा करता है। वे इस वर्ग के हित बन जाते हैं।‘‘

मार्क्सवादी ढांचे में इस प्रकार हम वर्ग को एक गतिशील, परिवर्तनकारी इकाई के रूप में पाते हैं। प्रौद्यागिकी में उन्नति के साथ-साथ इसके स्वरूप में भी बदलाव आ सकता है, मगर इसकी रचना का आधार वही रहता है। वर्ग किसी भी समाज में स्तरीकरण पद्धति का मुख्य आधार है। वर्ग का सीधा संबंध हर समाज में प्रचलित उत्पादन प्रक्रिया से है। वर्गीय ढांचे में बदलाव उत्पादन प्रक्रिया में बदलाव होने से आता है। इस प्रकार समाज में स्तरीकरण की व्यवस्था उत्पादन संबंधों पर निर्भर होते हैं।

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