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तीर्थयात्राओं का सामाजिक महत्व social significance of pilgrimage in india in hindi तीर्थ यात्रा का महत्व

social significance of pilgrimage in india in hindi तीर्थयात्राओं का सामाजिक महत्व क्या है ? तीर्थ यात्रा का महत्व बताइए ?

तीर्थयात्राओं का सामाजिक महत्व (The Social Significance of Pilgrimages)
तीर्थयात्राओं के सामाजिक महत्व को अच्छी तरह से समझने के लिए हम प्रक्रिया के रूप में तीर्थ पर टर्नर की अवधारणा की समीक्षा करेंगे इस अवधारणा के अंतर्गत टर्नर ने तीर्थयात्राओं में बिरादरी और उनकी सांक्रांतिक प्रकृति पर बल दिया है। फिर हम यह चर्चा करेंगे कि तीर्थयात्रा सामाजिक जीवन के सामाजिक और सांस्कृतिक एकीकरण, शैक्षिक, आर्थिक, राजनीतिक और अन्य प्रकार की गतिविधियों जैसे विभिन्न पक्षों से किस प्रकार जुड़ी है।

 तीर्थयात्रा और सामाजिक-सांस्कृतिक एकीकरण
(Pilgrimage and Socio&Cultural Integration)
किसी व्यक्ति समूह के सामाजिक और सांस्कृतिक एकीकरण में तीर्थयात्राओं का योगदान तीन स्तरों पर देखा जाता है।
प) तीर्थयात्रा से समूह की सीमाओं को तोड़कर राष्ट्रीय या क्षेत्रीय एकीकरण को बढ़ावा मिलता है।
पप) तीर्थयात्रा समूहों के मूल्यों और आदेशों को बनाए रखने और मजबूत करने के संदर्भ में स्वयं तीर्थयात्रियों पर गहरा प्रभाव डालती है।
पपप) अनेक प्रसंगों में तीर्थयात्रा उस क्षेत्र के सामाजिक संबंधों के मौजूदा स्वरूप को सुदृढ़ करती है जहां से तीर्थ के लिए यात्री निकलते हैं:

भारत प्रजाति क्षेत्र, भाषा, पंथ और जाति आदि की विविधता के लिए विख्यात है। इस संदर्भ में भी तीर्थयात्राएँ भारतीय जनमानस की मूलभूत एकता के विचार का अत्यंत महत्वपूर्ण वाहक रही हैं। इसका उल्लेख करते हुए एम.एन श्रीनिवास (1962: 105) ने लिखा है, ‘भारत की एकता की अवधारणा मूल रूप से धार्मिक अवधारणा है‘ प्रसिद्ध तीर्थस्थल देश के कोने-कोने में हैं। ब्रिटिश शासन से पहले के समय में संचार और यातायात बहुत घटिया थे। उन दिनों भी तीर्थयात्री अक्सर भंयकर जानवरों और डकैतों और बीमारियों और अभावों आदि के खतरों से जूझते हुए भी सैकड़ों मील पैदल चल कर तीर्थस्थानों को पहुँचते थे। उनका उद्देश्य पुण्य कमाना होता था। महातीर्थयात्रा प्रदक्षिणा अर्थात भारत भूमि की परिक्रमा करना होती थी।

बनारस जैसे पावन तीर्थस्थल में अनेक प्रकार के लोग और संस्कृति के अनेक स्थानीय और क्षेत्रीय तत्व एक छोटे से स्थान में आस-पास जमे हैं। बनारस में वेद का अध्ययन करने वाले मराठी पुरोहित को मराठी विद्वान की तलाश होगी और उससे ऐसे विद्वान वहाँ मिल भी जाएंगे वहाँ उसे बंगाली और तमिल विद्वान भी मिल जाएंगे और उनकी विशिष्ट क्षेत्रीय संस्कृतियों के रंग वाले संस्कार भी मिल जाएंगे। उदाहरण के लिए पूरे तमिलनाडू राज्य में अनेक तीर्थस्थलों में मिलने वाले मुरूकन देव तमिलनाडू और उसके वासियों के प्रतीक के रूप में स्थापित हैं। तीर्थयात्राएँ तमिलनाडू की क्षेत्रीय अस्मिता की एक विशेषता है। तीर्थयात्रा स्थानीय क्षेत्र के अंदर एक सामाजिक बंधन बनाती है। तीर्थयात्रा पंथवाद के विरुद्ध होती है और उसमें सभी वर्ग के लोग मिलकर गैर पंथवादी कृषि संस्कारों में हिस्सा लेते हैं। ये संस्कार उस क्षेत्र की समूची जनसंख्या से संबंधित होते हैं।

कुछ तीर्थयात्राएँ राष्ट्रीय सीमाओं से भी पार की जाती हैं, इसलिए वे राष्ट्र राज्य से बड़े समुदायों को इकट्ठा करने का काम करती हैं। मक्का की तीर्थयात्रा तमाम अलग-अलग समुदायों के मुसलमानों को मक्का के प्रति श्रद्धा रखने वाले एक समुदाय में जोड़ देती है।

बोध प्रश्न 3
प) संरचना और बिरादरी के विषय में टर्नर के क्या विचार हैं? लगभग 5 पंक्तियों में उत्तर दीजिए।
पप) तीर्थयात्रा के सामाजिक सांस्कृतिक पक्ष पर लगभग 5 पंक्तियों की एक टिप्पणी लिखिए।

बोध प्रश्न 3 उत्तर
प) संरचना वाली स्थिति में हमें यह देखने को मिलता है कि लोगों में परिस्थिति और पद के आधार पर भेद किया जाता है। यह अक्सर श्रेणीबद्ध रूप में व्यक्त होता है। दूसरी ओर बिरादरी संरचना को तोड़ती है और मूलभूत एकता के बंधनों का निर्माण करती है।
पप) तीर्थयात्रा सामाजिक सांस्कृतिक एकीकरण करती है। उदाहरण के लिए, बनारस में तमिल, मराठी, बंगाली और पंजाबी आदि सभी क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व होता है। अनेक सामाजिक बंधन बनते हैं। उनमें से कुछ राष्ट्रीय सीमाओं से परे होते हैं ।

तीर्थयात्रा और शिक्षा (Pilgrimage and Education)
तीर्थयात्रा ऐसा करने वालों के लिए शिक्षा, सूचना और सांस्कृतिक चेतना का एक महत्वपूर्ण स्रोत रही है। उदाहरण के लिए, हिन्दू तीर्थयात्रा दूरस्थ गाँवों में रहने वाले असंख्य लोगों को समूचे भारत और उसके विभिन्न रीति रिवाजों, जीवन शैलियों और प्रथाओं को जानने का अवसर प्रदान करती है। कर्वे (1962: 13-29) के अनुसार तीर्थयात्रा में शिक्षा की तीन विशेषताएँ मिलती हैं, ये हैंः

प) पारंपरिक ज्ञान का संरक्षण
पप) उसका संवर्धन,
पपप) और अगली पीढ़ी में उसका प्रसार ।

ऐसी शिक्षा बहु आयामी भी है। धर्म और दर्शन के अतिरिक्त संगीत, नृत्य और नाटक की तीन कलाएं भी इसमें शामिल थीं। यह भारतीय समाज के अंदर पाए जाने वाले तमाम समुदायों, जातियों और वर्गों को कुछ समय के लिए साथ रहने का अवसर भी प्रदान करती हैं।

तीर्थयात्रा और कलाएँ (Pilgrimage and the Arts)
नृत्य और संगीत, वास्तुकला, मूर्तिकला और चित्रकला को भी तीर्थयात्रा से बहुत प्रोत्साहन मिलता है और यह इन कलाओं के हस्तांतरण का काम भी करती हैं। हिन्द और तीर्थों के अनेक मन्दिर अपनी कलात्मक सुंदरता और अभिकल्पना के लिए प्रशंसनीय हैं और उनसे उदाहरण लेकर और भी वैसे ही भवन बने हैं। भारत के मंदिरों के विषय में यह कहना सही है कि वे ईंट, पत्थर में कविता और दर्शन के प्रतीक हैं और मंदिर पूजा के कारण ही एक प्रकार से मूर्तिकला, चित्रकला, संगीत और नृत्य की महान कलाओं का विकास हुआ और वे उत्कृष्टता के असाधारण स्तर तक पहुँची। उत्तर और पश्चिम भारत में काफी प्राचीन मंदिर आसानी से नहीं मिलते क्योंकि देश के इन भागों में बार-बार विदेशी आक्रमण और विध्वंस होते रहे हैं। उत्तर भारत की तीर्थ परंपरा में किसी भूमि या क्षेत्र के दैवीकरण के माध्यम से वहाँ तीर्थ बन जाता है। मंदिर जिस पवित्र क्षेत्र में खड़े होते हैं वे स्वयं उससे कम महत्वपूर्ण होते हैं। इसके विपरीत, मंदिर बनाकर और देवी या देवता की वहाँ स्थापना करके तीर्थ का निर्माण करना अधिकतर दक्षिण भारतीय परंपरा है। इसलिए बड़े-बड़े मंदिर परिसर और दीवारों से घिरा पवित्र क्षेत्र दक्षिण की विशेषताएँ हैं।

 तीर्थयात्रा, भौतिक संस्कृति और अर्थव्यवस्था (Pilgrimages, Material Culture and Economy)
तीर्थयात्रा के मार्ग में तीर्थयात्रियों के बीच जो विचारों और सामग्री का आदान-प्रदान होता है उसके माध्यम से भौतिक संस्कृति के प्रसार में तीर्थयात्रा की विशेष भूमि का योगदान भी होता है। प्राचीन तीर्थयात्राओं के मार्गों का नक्शा देखने से उत्तर और दक्षिण के बीच संपर्क के कम से कम दो स्वीकार्य क्षेत्रों या गलियारों का पता चलता है। लगता है ये गलियारे हल कृषि के दक्षिण की ओर प्रसार करने के उद्देश्य से पसंद किए गए थे। हल कृषि के लिए कम उपयुक्त क्षेत्र ऐसे दायरे के बाहर रहते थे, इसलिए वहाँ आदिवासी लोगों की आबादी कम है। हरिद्वार के पुरोहित या पंडे बड़ी-बड़ी बहियाँ रखते हैं जिनमें उनके जजमानों की वंशावली का लेखा जोखा रहता है। ये बहियाँ उनके पास पीढ़ियों से चली आ रही हैं और पिता से पुत्र के हाथों में दे दी जाती हैं। यह दूसरे पुरोहितों को बेच भी दी जाती हैं और दहेज में दामाद को भी दी जा सकती हैं या फिर संपत्ति के रूप में उनका लेन-देन भी हो सकता है। ऐसे पंडों की जीविका के साधन तीर्थों के साथ जुड़े होने के कारण हैं कि पंडे अपनी जीविका के लिए तीर्थयात्रा पर आने वाले तीर्थयात्रियों के दिए दान पर निर्भर रहते हैं। किसी तीर्थस्थल में तीर्थयात्रियों की लगातार आवाजाही से उस क्षेत्र में व्यापार की गतिविधियों में तेजी आती है। तीर्थयात्रियों की छोटी-बड़ी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विभिन्न प्रकार की बाजारी व्यवस्थाएं बन जाती हैं। वहाँ अस्थाई आश्रय, भोज्य, पूजा सामग्री आदि तीर्थ से जुड़ी आवश्यकताओं के अलावा कई प्रकार के मनोरंजन भी सहायक व्यवसाय के रूप में नजर आने लगते हैं। उदाहरण के लिए राजस्थान का पुष्कर तीर्थ अपनी पावन प्रकृति के अतिरिक्त अपने मेले के लिए भी प्रसिद्ध है। जहाँ काफी दूर-दूर से लोग मवेशी खरीदने और बेचने के लिए आते हैं और इससे इस क्षेत्र में अच्छा धंधा होता है।

तीर्थयात्रा का सामाजिक-राजनीतिक पक्ष (Socio-Political Aspect of Pilgrimage)
विभिन्न जनजातियों, समुदायों और स्थानों के अनेक लोगों के तीर्थ के समान उददेश्य से एक दूसरे के निकट संपर्क में आने से राजनीतिक एकता के विकास और राजनीतिक प्राधिकरण की स्थिरता का आधार बनता है। तीर्थयात्राओं में अखिल इब्रानी (panhebraism) (धर्म की हिब्रू पद्धति) ने भी उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जितनी आज के अखिल इस्लामवाद (pan&islamism) ने अतीत में सम्राटों के लिए वैचारिक वैधता प्रदान की थी। ईसाई तीर्थयात्राओं के प्रारंभ को फिलिस्तीनी और सीरियाई ‘पवित्र भमि‘ के महिमा मंडन में देखा जा सकता है जिसे सम्राट कांस्टैनटाइन और कलीसियाई परिजनों ने अंजाम दिया। यरुशलम की यात्रा का इरादा करने वाले ईसाइयों में जिहाद की भावना उस समय बनी जब रास्ते की परेशानियाँ ईसाई जिहाद के विरोधी अरब या मुस्लिम शासकों की असहिष्णुता के कारण बढ़ गई। इसमें कोई संदेह नहीं कि ग्यारहवीं, बारहवीं और तेरहवीं शताब्दियों में ईसाई जिहाद में और तीर्थयात्रा की प्रथा में भी सांसारिक महत्वाकांक्षाओं और राजनीतिक विजय का उद्देश्य घुस आया। इसी तरह बौद्ध और इस्लामी तीर्थ क्रमशः सम्राट अशोक और मुहम्मद साहब और उनके धार्मिक कार्यकर्ताओं के बौद्ध धर्म और इस्लाम को राज्य धर्मों के रूप में प्रतिष्ठित करने के प्रयासों के परिणामस्वरूप शुरू हुए।

बोध प्रश्न 4
प) तीर्थयात्रा शिक्षा, सूचना और सांस्कृतिक चेतना का स्रोत किस प्रकार है? लगभग 5-7 पंक्तियों में उत्तर दीजिए।
पप) आपके विचार से तीर्थस्थलों और प्रदर्शन कलाओं के बीच क्या संबंध है? लगभग 5-7 पंक्तियों में उत्तर दीजिए।
पपप) तीर्थस्थलों के आसपास बाजार क्यों बन जाते हैं? लगभग 7-10 पंक्तियों में उत्तर दीजिए।

बोध प्रश्न 4 उत्तर
प) तीर्थयात्रा के दौरान लोगों का विविध क्षेत्रों से आए अलग-अलग सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों के साथ परस्पर सपंर्क होता है। इस परस्पर संपर्क से उन्हें क्षेत्रों के लोगों के बारे में उनकी जीवन शैलियों और प्रथाओं के बारे में जानने का अवसर प्राप्त होता है।
पप) अधिकांश तीर्थस्थानों पर अक्सर ऐसे प्रदर्शन होते हैं जिनमें नाटक, नृत्य-गायन और वादन जैसी प्रदर्शन कलाओं के प्रसार के लिए पर्याप्त अवसर होता है। इसके अतिरिक्त अनेक मंदिर वस्तुकला के अनूठे उदाहरण हैं और उनमें सुंदर चित्र और शिल्प होते हैं।
पपप) बुनियादी तौर पर तीर्थस्थानों में तीर्थयात्रियों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बाजार बन जाते हैं। तीर्थयात्राओं में राह पर निकले तीर्थयात्रियों की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रावधान होते हैं। दैनिक आवश्यकताओं के अतिरिक्त पूजा और अन्य कर्मकांडों के लिए आवश्यक सामग्री उपलब्ध कराना भी दुकानों के बन जाने का एक कारण है। इसके अतिरिक्त मनोरंजन के लिए तीर्थस्थलों के अंदर और उनके आसपास विभिन्न प्रकार की व्यवस्थाएं की जाती हैं।

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