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सामाजिक मनोवैज्ञानिक परिणाम – सामाजिक गतिशीलता के social psychological consequences of social mobility in hindi

social psychological consequences of social mobility in hindi सामाजिक मनोवैज्ञानिक परिणाम – सामाजिक गतिशीलता के ?

सामाजिक गतिशीलता का सामाजिक-मनोवैज्ञानिक परिणाम
असमान स्तरीकरण व्यवस्था प्रमाण है जो अपने सदस्यों में पुरस्कार एवं विशेषाधिकार असमान रूप से बाँटती है। आधुनिक औद्योगिक समाज प्रायः लोकतांत्रिक रूपों में संगठित होते हैं जिनपर सभी तरफ से वैचारिक दबाव होता है क्योंकि आशा की जाती है कि उनमें सबके लिए समान अवसर हैं। यही मानदंड है ‘सबके लिए अवसर‘ । जो उस समाज के सभी सदस्यों द्वारा अच्छी स्थिति में दिखने के लिए अर्थात् समाज में थोड़ी अच्छी, सबसे अच्छी स्थिति प्राप्त करने के लिए मेहनत कराता है। लेकिन जिस प्रकार श्रेष्ठतम वस्तुएँ दुर्लभ हैं और इसलिए वे बहुमूल्य हैं ठीक उसी प्रकार, श्रेष्ठतम स्थिति भी दुर्लभ है और इसलिए वह भी बहुमूल्य है। प्रत्येक व्यक्ति उनको प्राप्त नहीं कर सकता। प्राथमिक शिक्षा से आरंभ होकर व्यक्ति के अभीष्ट स्थिति पर पहुँचने तक चयन की एक लंबी प्रक्रिया है। इसमें असफल होने के पर्याप्त अवसर हैं। इसलिए जो व्यक्ति अपने अभीष्ट लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाते, मानसिक तनाव में रहते हैं। यह मानसिक तनाव उनकी योग्यता अस्वीकृत होने के कारण उत्पन्न होता है। बहुत से मामलों में व्यक्ति स्वयं भी अपने को स्वीकार नहीं कर पाता अर्थात् उसे स्वयं से नफरत हो सकती है। वह अपनी योग्यता से निम्न स्थिति को स्वीकार कर लेता है। वेब्लेन के अनुसार, यह आत्म-विकास में बाधा के रूप में कार्य करता है। आत्म-योग्यता की यह नकारात्मक भावना प्रायः निचले स्तर और अल्पसंख्यक वर्गों के व्यक्तियों में पाई जाती है जैसे कि यहूदियों में। लेकिन इस आत्म-ग्लानिक की भावना को बनाए रखना कठिन है क्योंकि आत्म-योग्यता स्वतः पुनः जोर डालती है और सामाजिक कार्य में चरम सीमा पर पहुँच जाती है। इसके संपूर्ण समाज के लिए अनेक आयाम हो सकते हैं। इस तीव्र मनोवैज्ञानिक व्यवहार के सामाजिक परिणाम प्रायः निम्नलिखित तीन प्रक्रियाओं में देखे जा सकते हैं, जैसा कि एम.एम.लिपसेट और एच.एल.जेटरबर्ग द्वारा प्रस्तुत किया गया है-

1) कुछ व्यक्ति उच्च वर्गों के मुख्य मूल्यों को अस्वीकृत कर सकते हैं। ऐसे मामलों में यह अस्वीकृति निम्न वर्गों के धार्मिक मूल्यों का रूप ले सकती है जो प्रायः धन और शक्ति के मूल्यों को अस्वीकृत करने से मना करती हैं।
2) दूसरे प्रमुख मूल्यों को अस्वीकृत करने का दूसरा रूप और आत्म-योग्यता का दावा विद्रोही ‘रोबिन हुड‘ विचारधारा या औपचारिक क्रांति या समाज सुधार आंदोलनों का रूप ग्रहण कर सकता है।
3) अंतिम, व्यक्ति अपनी स्थिति को सुधारने के लिए कानून या गैर-कानूनी प्रयत्न कर सकते हैं।

इस प्रकार, असमानता स्वाभाविक रूप से ही सामाजिक व्यवस्था में अस्थिरता लाती है।

इस प्रकार, आधुनिक औद्योगिक समाज में अस्थिरता का यह इतना व्यापक तत्व है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व के लिए इसके नकारात्मक परिणाम होते हैं। जब किसी समाज के सदस्य अत्यधिक गतिशील होते हैं तो ‘एनोमीश् (दुखाईम द्वारा प्रतिपादित प्रसिद्ध सिद्धांत, देखें 32.3.5) संपूर्ण समाज में फैल जाता है। विभिन्न भूमिकाओं और स्थितियों की वर्षों पुरानी परिभाषाएँ विकृत हो जाती हैं यदि ये दूसरी परिभाषाओं द्वारा विकृत या परिवर्तित न हों तो भी पदधारी इतनी तेजी से गतिशील होते हैं कि उनके पास उन भूमिकाओं को पूरा करने के लिए आवश्यक पारंपरिक दायित्वों में मिश्रित होने का न तो समय है और न ही अभिरुचि। इस प्रकार, इसमें निर्मित किसी भूमिका की स्थिरता से उत्पन्न सुरक्षा तथा आशाएँ विकृत हो जाती हैं। इसका उन नवयुवकों के समाजीकरण के लिए विघटनकारी परिणाम होता है जो अपनी भूमिका निभाने की उचित तैयारी के अभाव में पर्याप्त रूप से अच्छी भूमिका निभाने के योग्य नहीं होते। यहाँ तक कि अभिभावक भी स्थितियों के तीव्र परिवर्तन के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाते। वे एक दशक में ही स्वयं को पुनः सामाजिक बनने की आवश्यकता महसूस करते हैं। यह समाज के बहुत बड़े भाग में व्यापक रूप से असुरक्षा की भावना भर देता है। इसी संदर्भ में अनेक विचारकों ने व्यक्ति के विघटित व्यक्तित्व या पार्श्व व्यक्ति की लघुता की बात की है।

इस प्रकार, सामाजिक गतिशीलता के सामाजिक-मनोवैज्ञानिक परिणामों के विघटनकारी प्रभाव हो सकते हैं तो भी कुछ व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत गतिशीलता में आत्म-योग्यता का मार्ग पा सकते हैं। यह उनके व्यक्तिगत प्रयत्नों की सकारात्मक पराकाष्ठा है।

बोध प्रश्न 3
1) आत्म-योग्यता की अस्वीकृति का व्यक्ति के लिए क्या परिणाम होता है? लगभग पाँच पंक्तियों में उत्तर दीजिए।
2) एक आधुनिक औद्योगिक समाज में असुरक्षा का विस्तार कैसे होता है? पाँच पंक्तियों में वर्णन कीजिए।

बोध प्रश्न 3 उत्तर
1) व्यक्ति उच्च वर्गों की धन और शक्ति की प्रमुखता को अस्वीकार कर सकते हैं या वे वैयक्तिक रूप में अथवा समाहिक रूप में सुधार आंदोलन आरंभ कर सकते हैं। या फिर भी किसी भी तरीके से अपनी व्यक्तिगत स्थिति को सुधारने के प्रयत्न कर सकते हैं।
2) तीव्र सामाजिक गतिशीलता पारंपरिक भूमिकाओं के स्तरों तथा इनमें निहित आशाओं को समाप्त कर सकती है। व्यक्ति प्रभावशाली ढंग से अस्थिर और आधार-विहीन हो सकता है। इस प्रकार, एक आधुनिक औद्योगिक समाज में असुरक्षा का प्रसार हो जाता है।

बोध प्रश्न 1
1) बुर्जुआ तत्व क्या है? इसे अभिधारण न मानकर परिकल्पना के नाम से क्यों जाना जाता है? पाँच पंक्तियों में लिखिए।
2) क्या हम श्रमिक वर्ग को एक सामाजिक समूह कह सकते हैं? अपने कारण पाँच पंक्तियों में लिखिए।
3) ‘विघटित मध्य वर्ग‘ फेज से आप क्या समझते हैं? पाँच पंक्तियों में स्पष्ट कीजिए।
4) वर्ग निर्भरता पर सामाजिक गतिशीलता दर का क्या प्रभाव पड़ता है? लगभग पाँच पंक्तियों में स्पष्ट कीजिए।
5) सामाजिक गतिशीलता के परिणाम के रूप में सामाजिक व्यवस्था के रूप की व्याख्या कीजिए। अपना उत्तर लगभग पाँच पंक्तियों में दीजिए।

बोध प्रश्नों के उत्तर
बोध प्रश्न 1
1) बुर्जुआपन एक प्रक्रिया है जिसमें हाथ से कार्य करने वाले श्रमिकों की बढ़ती संख्या समाज के मध्य वर्ग में प्रवेश करती है तथा मध्य वर्ग बन जाता है। फिर भी, इसे एक परिकल्पना ही माना जाता है। चूंकि यह एक वैचारिक प्रमाण है, जिसे सर्वाधिक उपयुक्त परिस्थितियों में जाँचा और अस्वीकृत हो गया।
2) रातफ डैडरेंद्रोफ के अनुसार, आधुनिक औद्योगिक अर्थव्यवस्था के कारण कार्य-प्रणाली में परिवर्तन हो गया है। श्रमिक वर्ग को उच्च कुशल, अर्ध-कुशल तथा अकुशल श्रमिकों में विभाजित किया जा सकता है। इनकी सामाजिक क्रम में भिन्न-भिन्न आर्थिक आमदनी तथा उसी के अनुरूप हैसियत होती है। तो भी, कुछ अन्य विचारक समान जीवन अवसर और उनकी एकरूपता के आधार पर हितों की साझी पहचान का उदाहरण देकर इस भिन्नता को महत्व नहीं देते।
3) मध्य वर्गों की विभिन्नता का वर्णन करने के लिए केनिथ रॉबर्ट्स ने ‘विघटित मध्य वर्ग‘ शब्दों का प्रयोग किया है।
4) वर्ग निर्भरता पर सामाजिक गतिशीलता दर के प्रभाव के बारे में दो विचारधाराएँ हैं। एक, सामाजिक गतिशीलता की दर अप्रत्यक्ष रूप से सामाजिक सम्बद्धता के अनुपात में होता है अर्थात् सामाजिक गतिशीलता दर अधिक होने पर वर्ग सम्बद्धता की दर कम होती है। दूसरे, उर्ध्व सामाजिक गतिशीलता सभी स्तरों पर रूढ़िवादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देती है।
5) पहले हमने ‘विघटन परिकल्पना‘ की चर्चा की है जिसमें समग्र समाज के लिए सामाजिक गतिशीलता के विघटनकारी या नकारात्मक परिणामों का वर्णन किया गया है। फिर संस्कृति-संक्रमण की परिकल्पना पी.एम.ब्लौ द्वारा प्रतिपादित की गई जिसमें व्यक्ति के लिए विघटनकारी परिणामों के कारण स्पष्ट किए गए हैं। अंत में, फ्रेंक पार्किन तथा अन्य विद्वान आशावादी दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं क्योंकि वे सामाजिक गतिशीलता को सामाजिक व्यवस्था के लिए सकारात्मक परिणाम के रूप में देखते हैं।

संदर्भ ग्रंथ
गिड्डेंस ए. (1989) सोशियोलॉजी, इंगलैंड: पॉलिटी प्रेस।
गोल्डथोर्प जे.एच. एण्ड फ्रिंकसन आर. (1994), ट्रेंड्स इन क्लास मोबिलिटी – दि पोस्ट वार यूरोपियन एक्सपीरियंस इन ग्रुस्की (संपा) सोशल स्ट्रेटिफिकेशन कलास रेस एण्ड जेंडर, लंडन वेस्टवयू प्रेस।
लिपसेट एस.एम. एण्ड आर. बेंडिक्स (1959) सोशल मोबिलिटी इन इंडस्ट्रियल सोसायटीज, बर्केले: यूनीवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया प्रेस।
सिंगर एम. एण्ड कोहा बी (संपा) 1996, स्ट्रक्चर एण्ड चेंज इन इंडियन सोसाइटी, जयपुर: रावमत, अध्याय 8, 9, 10।
सिंह, वाई (1986) मॉडर्नाइजेशन ऑफ इंडियन ट्रैडिशन, जयपुर: रावत
सोरोकिन पी.ए (1927), सोशल एण्ड कल्चरल मोबिलिटी, ग्लेनकाइ: फ्री प्रेस।
श्रीनिवास एम.एन. (1966), सोशल चेंज इन मॉडर्न इंडिया, मुम्बई: ओरियंट लांगमैन।
टुम्युन मेल्वीन एम. (1957), अन-प्लांडिड कंसेक्विसेज ऑफ सोशल मोबिलिटी इन ए मास सोसाइटी सोशल फोर्स, वोलः 36 अक्तूबर, 1957 पृ.32-37।

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