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प्रतिमान का क्या अर्थ है ? प्रतिमान की परिभाषा किसे कहते है social pattern in sociology in hindi
social pattern in sociology in hindi meaning definition प्रतिमान का क्या अर्थ है ? प्रतिमान की परिभाषा किसे कहते है ?
प्रश्न (I) : प्रतिमान का क्या अर्थ है?
उत्तर : (I) इस प्रत्यय का शाब्दिक अर्थ एक शब्द की विभक्तियाँ हैं या भिन्न-भिन्न शब्दों के मध्य व्याकरणीय संबंध है। समाज विज्ञानों में सर्वप्रथम थॉमस क्यून ने 1962 में इसका प्रयोग विचार के लिए लीक से हटने अथवा वैचारिक क्रांति या बहुत वाद-विवाद या चर्चा के उपरांत विचारों में क्रांति के अर्थ में किया था।
पपप) क) उदार, पूंजीवाद,
ख) साम्यवाद,
ग) लोकतंत्रीय समाजवाद।
घ) गांधीवादी
इन दृष्टिकोणों की अपर्याप्तता
प्रकार्यवादी, माक्र्सवादी तथा गांधीवादी दृष्टिकोणों ने अपने परिप्रेक्ष्य में सामाजिक समस्याओं को समझने का प्रयास किया है। कोई भी दृष्टिकोण अंतिम नहीं माना जा सकता। हमको ध्यान रखना है कि इन दृष्टिकोणों का अपने काल एवं उद्गम-स्थान की आवश्यकताओं के अनुसार उद्भव हुआ। शास्त्रीय प्रकार्यवादी जैसे काम्टे, स्पेंसर, दुर्खीम का संबंध उन्नीसवीं शताब्दी के यूरोपीय समाज की समस्याओं से था जो कि रूपांतरण की प्रक्रिया की नवीन चुनौतियों का अनुभव कर रहा था अर्थात् ग्रामीण से नगरीय, कृषि से औद्योगिक, सामंती से पूँजीवादी व्यवस्था की ओर बढ़ रहा था। स्वाभाविक रूप से उनका संबंध समाज के पुनर्गठन, प्रकार्यात्मक एकीकरण तथा सामाजिक एकात्मकता से था। दूसरी ओर कार्ल माक्र्स का अधिकांश संबंध मानव समाज के ऐतिहासिक विकास, औद्योगिकीकरण एवं पूँजीवाद से उत्पन्न समस्याओं से था जैसे कि परकीयकरण अथवा सिवसंवधन, मानव का मानव द्वारा शोषण, अमानवीकरण तथा कार्य करने की दशाएँ। गांधी का प्रमुख संबंध भारतीय समाज की समस्याओं से था जैसे कि उपनिवेशवाद, साम्राज्यवादी शोषण, स्त्रियों की परिस्थिति, मद्यपान, ग्रामीण समदायों का दर्बल होना तथा विनाश की ओर बढ़ना तथा घरेलू उद्योग धंधों का विनाश होना, इत्यादि।
इन विचारधाराओं की कुछ सीमाएं थी जिनके बारे में प्रश्न भी उठाए गए। आइए, इन सीमाओं की एक-एक कर पहचान करें।
प्रकार्यवादी दृष्टिकोण का समीक्षात्मक पुनर्विवेचन
इन दृष्टिकोणों की अपर्याप्तता के विषय में सवाल उठाए गए हैं। संक्षेप में हम इन दृष्टिकोणों की अपर्याप्तता का विवेचन करेंगे। प्रकार्यवादी दृष्टिकोण की इन मूलभूत प्रस्तावनाओं पर पी.ए. सोरोकिन ने अपनी पुस्तक ‘‘सोशियालोजिकल थियरीज टुडे‘‘, 1996 में आपत्ति की है। सोरोकिन के अनुसार, दासों एवं स्वामियों, अधीन तथा उनके विजेताओं के सहभाजित अभिविन्यासों तथा लक्ष्यों में समानता नहीं है जबकि यह तथ्य है कि वे एक ही समाज के भाग हैं। दुष्क्रियात्मक पक्षों के विषय में, सोरोकिन सवाल करता है कि सुकरात, ईसा तथा माक्र्स की क्रियाओं को क्या कहा जा सकता है – प्रकार्यवादी या दुष्क्रियावादी। पूर्वकालीन ईसाई समुदायों द्वारा दिया गया बल या नागरिक अधिकारों के लिए काम करने वालों के द्वारा दिया गया बल अनुकूलन पर है या प्रतिकूलन पर। इन प्रश्नों के उत्तर इस पर निर्भर होंगे कि हम अपनी पहचान क्रमशः इन समाजों में किस पक्ष के साथ रखते हैं।
प्रकार्यवादी दृष्टिकोण अपने विवेचन में एक प्रभाव को एक कारण मानती है। वह व्याख्या करती है कि एक व्यवस्था के भाग इसलिए अस्तित्व रखते हैं क्योंकि उनके लाभदायक परिणाम समग्र व्यवस्था के लिए हैं। इसके अतिरिक्त, वह मानव क्रियाओं का निर्धारणवादी दृष्टिकोण प्रदान करता है क्योंकि यह वर्णन किया गया है कि मानव का व्यवहार व्यवस्था द्वारा निर्धारित है। मानव को एक स्वचालित यंत्र, कार्यक्रमबद्ध, निदेशित तथा व्यवस्था द्वारा नियंत्रित चित्रित किया गया है।
एल्विन गूल्डनर कहता है कि साध्यों तथा मूल्यों, जिनका मानव अनुसरण करता है कि महत्ता पर बल देते समय पारसन्स कभी नहीं पूछता कि ये किसके साध्य या मूल्य हैं। थोड़े से प्रकार्यवादी इस संभावना को स्वीकार करते हैं कि समाज में कुछ समूह अपने ही हितों के संदर्भ में क्रिया करते हुए दूसरों पर प्रभाव जमाते हैं। इस दृष्टिकोण से, सामाजिक व्यवस्था शक्तिमान के द्वारा आरोपित है तथा मूल्य-मतैक्य केवल प्रभावी समूह की स्थिति को वैधता प्रदान करता है।
प्रकार्यवादी, इस प्रकार के हितों के संघर्ष का मान्यता प्रदान करने में असफल हैं जिनमें अस्थिरता तथा अव्यवस्था उत्पन्न करने की प्रवृत्ति होती है। संघर्ष भी व्यवस्था का एक अभिन्न अंग है, अतएव सामाजिक समस्याओं के समाजशास्त्रीय विश्लेषण में समान रूप से सार्थक हैं। प्रकार्यवादी दृष्टिकोण में, ऐतिहासिक व्याख्याओं को समाज तथा उसकी समस्याओं को समझने में बहुत कम स्थान दिया गया है।
माक्र्सवादी दृष्टिकोण की समालोचना
दोनों, प्रकार्यवादी तथा माक्र्सवादी, प्रकृति में निर्धारणवादी हैं। पहले में निर्धारणवादी कारक सामाजिक व्यवस्था है जबकि दूसरे में वह कारक उत्पादन की पद्धति तथा अर्थव्यवस्था है।
माक्र्सवादी दृष्टिकोण की आलोचनात्मक समीक्षा में हमको माक्र्सवाद के निम्नलिखित दो पक्षों को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए:
ऽ माक्र्सवाद एक सिद्धांत के रूप में,
ऽ माक्र्सवाद एक कार्यान्वयन के रूप में।
पहले पक्ष के संबंध में माक्र्सवादी दृष्टिकोण ने भौतिक शक्तियों तथा संघर्ष की भूमिका पर अत्याधिक बल दिया है। उसने पूँजीवादी समाज की वर्ग संरचना का अति-सरलीकरण किया है जिसमें नवीन धंधे, व्यवस्था तथा मध्य वर्ग को ध्यान से हटा दिया है।
कार्यान्वयन में माक्र्सवादी कल्पनालोक पहले की सोवियत यूनियन के साम्यवादी राज्यों तथा पूर्वी यूरोप द्वारा प्राप्त न हो सका। साम्यवादी राज्यों की विशेषताएँ थीं: तानाशाही पुलिस राज्य, अकुशलता एवं भ्रष्टाचार। परिणामतः न केवल माक्र्सवादी राज्य ढह गए बल्कि माक्र्सवाद का स्वप्न सोवियत यूनियन तथा पूर्वी यूरोप में चकनाचूर हो गया।
माक्र्स ने भविष्यवाणी की थी कि अंत में मध्य वर्ग समाप्त हो जाएगा और केवल दो वर्ग रहेंगे अर्थात् पूँजीपति तथा श्रमिक वर्ग। परंतु एक विपरीत प्रक्रिया प्रत्यक्ष दिखाई दे रही है जिसके द्वारा समृद्ध हाथ से काम करने वाले श्रमिकों की बढ़ती हुई संख्या मध्यवर्ती स्तर में प्रवेश करके मध्य वर्ग बनता जा रहा है जहाँ जनसंख्या में बहु-संख्या मध्यम वर्ग की है न कि श्रमिक वर्ग की। यह प्रक्रिया दोनों पूँजीवादी तथा साम्यवादी समाजों में दृष्टिगोचर हो रही है।
जिलास के अनुसार साम्यवादी राज्यों में एक नए वर्ग का उदय हुआ जिसमें, साम्यवादी नेता भी शामिल थे। इस वर्ग के पास राजनीतिक शक्ति और बेहतर अवसर उपलब्ध थे। साम्यवादी राज्यों में भी वर्ग, संरचना और नए वर्ग का अधिसंख्यक वर्ग पर अधिपत्य पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सका।
सामाजिक समस्याओं के कई कारण थे। किसी एक कारण से विश्लेषण संभव नहीं था। हालांकि माक्र्स ने केवल आर्थिक कारणों पर ही बल दिया था। इसके अलावा संस्कृति और सामाजिक संरचना के समग्र दृष्टिकोण में अन्तिम परिणाम पर बल देना बहुत तर्कसंगत नहीं था।
समाज बदल रहा था। कई प्रवृत्तियां एक दूसरे में घुल मिल रही थीं, कई में टकराव हो रहा था। इससे नई चेतना पैदा हो रही थी और इसके परिणामस्वरूप पहले से अलग प्रकार की सामाजिक समस्याएं पैदा हो रहीं थीं। सामाजिक समस्याओं को एकीकृत दृष्टिकोण के संदर्भ में दिक् और काल का संदर्भ महत्वपूण हो गया।
गांधीवादी दृष्टिकोण पर पुनर्दृष्टि
गांधीवादी दृष्टिकोण वर्तमान व्यवस्था की आलोचनात्मक समीक्षा करता है, एक नवीन समाज के निश्चित मूल तत्वों को प्रस्तुत करता है तथा सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए एक पद्धतिशास्त्र प्रदान करता है। आलोचकों की युक्ति है कि गांधीवादी दृष्टिकोण में मौलिकता का अभाव तथा यह परंपरात्मक भारतीय विचारों, समाजवाद तथा उदारतावाद का एक सम्मिश्रण वह आदर्शवादी है तथा सामाजिक वास्तविकता की रुक्ष प्रकृति से परे है। अन्याय के प्रतिकार की गांधीवादी सत्याग्रह की पद्धति आज किसी न किसी रूप में सारे विश्व में मान्य है। संयुक्त राज्य अमेरिका में निवास करने वाले लोगों ने गोरों के अन्याय से मुक्ति के लिए इस पद्धति का सफलतापूवर्क उपयोग किया है। दक्षिण अफ्रीका के नस्ल विरोधी संघर्ष में भी इस पद्धति का उपयोग किया गया है। पूर्वी यूरोप की जनता ने साम्यवादी तानाशाही के विरुद्ध भी इसका उपयोग किया है।
अभ्यास 3
किसी गांधीवादी रचनात्मक कार्यक्रम (जैसे कि गांधी आश्रम, हरिजन सेवक संघ या आदिम जाति सेवक संघ) के कार्यों पर एक पृष्ठ का एक नोट लिखिए।
समकालीन सामाजिक वास्तविकता: दुष्क्रियात्मक पक्ष
वे क्रियाएँ तथा दशाएँ जो समाज की सरल प्रकार्यात्मकता पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है दुष्क्रियात्मक कहलाती है। समाजशास्त्र में इस शब्द का प्रयोग मर्टन ने किया। सभी समाजों में अपराध, बाल अपराध, मद्यपान, मादक द्रव्य व्यसन, वेश्यावृत्ति, निर्धनता तथा सामाजिक-आर्थिक असमानता दुष्क्रियात्मक स्वीकार की गई हैं।
समकालीन समाज में अनेक दुष्क्रियात्मक क्रियाएँ एवं दशाएँ हैं जो विश्व, राष्ट्रीय तथा स्थानीय स्तर पर पाई जाती हैं। इन तीनों स्तरों की दुष्क्रियात्मक क्रियाएँ एक दूसरे से बड़ी गहराई से जुड़ी हुई हैं।
विश्व स्तरीय दुष्क्रियाएं
कई ऐसी संस्थाएँ हैं जो विश्व स्तर पर कार्य करती हैं। प्रथम विश्व युद्ध के बाद ‘‘लीग ऑफ नेशंस‘‘ की स्थापना भविष्य में होने वाले युद्धों की रोकथाम और विभिन्न राष्ट्रों के बीच पारस्परिक समझ की अभिवृद्धि के लिए हुई थी। यह अपने कार्यों को प्रभावशाली ढंग से पूरा न कर सकी। अंत में सन् 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत हो गई। प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में भीषण बर्बादी हुई। जब तक यू.एस.एस.आर. विघटित नहीं हुआ तब तक शीत युद्ध की धमकी और आणविक अस्त्रों के भय का अनुभव विश्वव्यापी स्तर पर मानव जाति द्वारा किया गया। हाल ही के दशकों में धार्मिक रूढ़िवाद के उद्भव से बेरोजगार की दर में वृद्धि, अर्थव्यवस्था की मंदवृद्धि, सार्वभौमिक आतंकवाद के आविर्भाव की प्रबल सार्वभौमिक चुनौतियाँ हैं।
दुनिया अब भूमंडलीकृत हो गई है, इसलिए सामाजिक समस्याएं राष्ट्रीय सीमाओं में कैद नहीं रह गई हैं परंतु कुछ समस्याएं कुछ खास देशों में ही प्रमुख रूप से सक्रिय है। इस संदर्भ में हम राष्ट्रीय स्तर पर भारत की कछ दुष्क्रियाओं और समस्याओं की चर्चा करने जा रहे हैं। संस्था के रूप में धर्म का काम आदमी आदमी के बीच भाईचारा और सौहार्द फैलाना है। दुर्भाग्यवश भारत में विभाजन के सम्प्रदायवाद के दुष्क्रियात्मक पक्षों को बढ़ावा दिया है। इसके परिणामस्वरूप यहां कट्टरपंथ और आतंकवाद ने काफी तबाही मचाई है।
इसी प्रकार भारतीय समाज की कुछ विशिष्ट समस्याएं हैं, गरीबी, अस्पृश्यता, जातिवाद और भ्रष्टाचार, जो भारतीय प्रजातंत्र को नीचे से झकझोर देता है।
स्थानीय दुष्क्रियाएं
भारतीय समाज की कुछ अन्य दुष्क्रियात्मक दशाएँ हैं जो स्थान विशेष, क्षेत्र अथवा राज्यों से संबंधित हैं। उदाहरणार्थ आतंकवादी गतिविधियाँ मुख्यतया कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों में केंद्रित हैं। इसी तरह, जातीय हिंसा, लिंग आधारित सामाजिक भेदभाव, संरक्षणवाद इत्यादि दुष्क्रियात्मक गतिविधियों के स्थानीय रूप हैं।
वास्तविक प्रश्न यह है कि कैसे और क्यों ऐसी दुष्क्रियात्मक दशाएँ समाज में विकसित होती है। भिन्न-भिन्न समाजों में समस्याओं के अपने विशिष्ट संदर्भ होते हैं। भारत की सामाजिक, आर्थिक दशाओं तथा पश्चिमी यूरोप एवं उत्तरी अमरीका में अंतर है। इस प्रकार इन समाजों के सम्मुख जिन सामाजिक समस्याओं की चुनौती है उनमें भी अंतर है।
एक समाज में दुष्क्रियाओं का निकट संबंध सामाजिक-आर्थिक तथा राजनीतिक विकास से होता है। पश्चिमी औद्योगिक पूँजीवादी समाज जो वैचारिक समर्थन प्रकार्यात्मक सिद्धांत से प्राप्त करते हैं अपराधों, बाल अपराध, मद्यपान, अकेलापन, यौन अपराध मानसिक व्यवधान, तलाक की बढ़ती हुई दर तथा बढ़ती आर्थिक असमानता की चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। उसी प्रकार से, पहले के सोवियत रूस में तथा पूर्वी यूरोप में, जहाँ पिछले सात दशकों से शोषण, अपमानवीयकरण, अजनवीपन तथा सामाजिक-आर्थिक असमानता से मुक्त समाज की रचना का प्रयास किया गया था, वह भी दुःस्वप्न सिद्ध हुआ है। भारतीय समाज भी जहाँ गांधी ने अपने सत्य, अहिंसा तथा नैतिक व्यवस्था के प्रयोग किए आज हिंसा, आतंकवाद, अपराध एवं भ्रष्टाचार की बढ़ती हुई चुनौतियों का सामना कर रहा है।
इन तथ्यों के प्रकाश में यह आवश्यक है कि वैकल्पिक प्रतिमानों को विकसित किया जाए। जो कि सामाजिक समस्याओं की प्रकृति की व्याख्या सामाजिक-आर्थिक विकास के संदर्भ में कर सकें।
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