JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

हिंदी माध्यम नोट्स

Categories: sociology

सामाजिक समस्याएं कौन-कौन सी है | सामाजिक समस्याएं क्या है निबंध नाम social issues in hindi meaning

social issues in hindi meaning सामाजिक समस्याएं कौन-कौन सी है | सामाजिक समस्याएं क्या है निबंध नाम ?

सामाजिक समस्या की अवधारणा
सभी समाजों में कुछ ऐसी स्थितियाँ होती हैं जो उन पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं। सहज बुद्धि से सामाजिक समस्याएँ उन स्थितियों को माना जाता है जो समाज में विस्तृत रूप से फैली होती है और उस पर हानिकारक प्रभाव डालती है। यद्यपि यह बहुत सरल स्थिति नहीं है। एक समय में जिसे हानिकारक नहीं माना जाता उसे कुछ समय पश्चात् हानिकारक माना जा सकता है। धूम्रपान को बहुत समय तक गंभीर समस्या नहीं माना जाता था। अब स्वास्थ्य आपदाओं के प्रति बढ़ती जागरूकता से यह गंभीर चिंता का विषय बन गया है। ऐसा लगता है कि सामाजिक समस्याओं को समझना आसान है परंतु जब उनका समाधान करने का प्रयत्न किया है तो सामाजिक समस्याओं की जटिलताएँ प्रकट होती है।

एक समाज में जिसे सामाजिक समस्या माना जाता है, आवश्यक नहीं है कि उसे दूसरे समाज में उसी प्रकार समस्या माना जाए। यह प्रतिबोधन समाज में प्रतिमानों और मूल्यों पर आधारित होता है। कुछ समाजों में तलाक एक सामाजिक समस्या होती है, दूसरे समाजों में वह समस्या नहीं होती। इसी प्रकार से मद्यपान को भी ले सकते हैं। एक विस्तृत और विजातीय समाज में, इस संबंध में विभिन्न मत पाए जाते हैं। सभी समाजों में कुछ इस प्रकार के व्यवहार होते हैं, जिन्हें विचलनकारी या हानिकारक माना जाता है जैसे हत्या, बलात्कार, मानसिक रूग्णता। इन स्थितियों में कोई मूल्य-संघर्ष नहीं होता। हालांकि, भिन्न-भिन्न समाजों में इन समस्याओं के समाधान के रास्ते अलग-अलग होते हैं।

सामाजिक समस्याओं के अवधारणीकरण में बहुत से मुद्दे सम्मिलित होते हैं जिनका वर्णन निम्नवत है:
ऽ किस सोपान पर कोई विशिष्ट दशा सामाजिक समस्या मानी जाती है?
ऽ कैसे ‘‘क्या वास्तव में अस्तित्व में है‘‘ और ‘‘क्या होना चाहिए‘‘ के मध्य के अंतराल को निर्दिष्ट किया जाता है?
ऽ सामाजिक समस्या के निर्धारण की कसौटी क्या है?
उपर्युक्त प्रश्न निम्नलिखित बिंदुओं से घनिष्ठ रूप से संबंधित हैं:
क) जनसाधारण का प्रतिबोधन
ख) सामाजिक आदर्श और यथार्थ
ग) एक सार्थक संख्या द्वारा मान्यता।
अब हम इन बिंदुओं पर बारी-बारी से विचार करेंगे।

कोष्ठक 1.2
संकट
संकट एक चिकित्साशास्त्रीय अवधारणा है जो रोगी की रुग्णता की नाजुक स्थिति को दर्शाता है। बहुत से समाजशास्त्री जैसे – कार्ल मॉनहाइम, एर्बोट सोलोमन और बनोर्ड रोजनबर्ग आदि ने आधुनिक समाज की रुग्णता को स्पष्ट करने के लिए विघटन या विचलन के स्थान पर संकट की अवधारणा के प्रयोग को वरीयता दी है।

 जनसाधारण का प्रतिबोधन
प्रायः एक सामाजिक दशा जो समाज के हित में नहीं है लम्बे अंतराल तक बिना किसी पहचान के अस्तित्व में बनी रह सकती है। ऐसी दशा तभी एक सामाजिक समस्या बनती है जब वह एक समस्या के रूप में देखी जाती है। निर्धनता बहुत समय से भारतीय समाज के साथ जुड़ी रही है लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात ही ‘‘गरीबी हटाओ‘‘ कार्यक्रम हमारी नियोजन प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण घटक बना।

जनसाधारण का प्रतिबोधन इस बात पर निर्भर करता है कि कोई समस्या कैसे दृष्टिगोचर होती है। अपराध की पहचान आसानी से होती है और लोग इसका समस्या के रूप में प्रतिबोधन करते हैं। जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया गया है, बहुत सी समस्याएँ अस्तित्व में तो हो सकती हैं लेकिन उनका प्रतिबोधन नहीं होता है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो किसी विशेष परिस्थिति से लोगों को अवगत कराने की चेष्टा करते हैं। सामाजिक आंदोलन इसी प्रकार प्रारंभ होते हैं। बहुत से समाजों में महिलाएँ अनेकों निर्योग्यताओं, जैसे – संपत्ति पर उनका स्वामित्व न होना, विधवा पुनर्विवाह पर रोक, तलाक का निषेध, असमान वेतन आदि से पीड़ित होती हैं। इन परिस्थितियों को कुछ समाजों ने केवल कुछ दशकों पूर्व ही समस्या के रूप में माना। महिलाओं का मुक्ति आंदोलन उनकी दशा के प्रति लोगों को जागरूक बनाने की चेष्टा कर रहा है। इस तरह कहा जा सकता है कि जनसाधारण में सार्थक संख्या में लोगों का होना आवश्यक है जो एक विशेष परिस्थिति को समस्यामुलक माने।

सामाजिक आदर्श और यथार्थ
सामाजिक समस्याएँ ‘‘क्या वास्तविक रूप में अस्तित्व में हैं‘‘ की तुलना में ‘‘क्या होना चाहिए या क्या आदर्श के रूप में माना जाता है‘‘ के अंतराल को दर्शाती हैं। सामाजिक आदर्श उसकी मूल्य प्रणाली पर आधारित होते हैं। सामाजिक समस्याएँ एक समाज के अवांछनीय दशाओं के रूप में परिभाषित की जा सकती हैं अवांछनीय क्या है, यह मूल्यों द्वारा परिभाषित होता है। क्या अच्छा और क्या बुरा है, इसका निर्धारण मूल्य करते हैं। पूर्व में यह इंगित किया गया है कि विभिन्न समाजों में भिन्न-भिन्न मूल्य होते हैं। अतः एक समाज में जो बुरा या अवांछनीय माना जाता है उसे दूसरे समाज में वैसा भी माना जा सकता है।

सामाजिक मूल्य गत्यात्मक हैं – वे परिवर्तित होते रहते हैं। कुछ वर्षों पूर्व जिसे एक समस्या माना जाता रहा, अब संभव है कि अवांछनीय न माना जाए। कुछ वर्षों पूर्व, लड़कों और लड़कियों का विद्यालय और महाविद्यालय में साथ-साथ पढ़ना अधिकांश लोगों द्वारा अनुमोदित नहीं था। अब इसका बहुत कम विरोध होता है। कुछ समय पूर्व तक प्रदूषण – कल-कारखानों के धुएँ, कूड़ा-करकट नदियों में डालना, वनों को काटना आदि से लोग बहुत चिंतित नहीं होते थे। यद्यपि, अब पर्यावरण संरक्षण के लिए जागरूकता तथा प्रबल इच्छा है। असंतुलित पारिस्थितिकी के यथार्थ और संतुलित तथा लाभप्रद पर्यावरण के आदर्श में अंतराल दिखाई पड़ रहा है।

 सार्थक संख्या द्वारा मान्यता
कोई सामाजिक दशा तब तक सामाजिक समस्या नहीं बनती है, जब तक कि वह पर्याप्त लोगों द्वारा समस्या के रूप में मान्य न हो जाए। मत-निर्माता लोगों के सोच-विचार को प्रभावित कर सकते हैं। पहले प्रदूषण और वनों की कटाई के विषय में कुछ किया जा सकता है, इस पर बहुत थोड़े से लोगों के मन में विचार था। इन समस्याओं द्वारा समाज पर पड़ने वाले गंभीर परिणामों के प्रति अब अधिक जागरूकता है। पेड़ों की कटाई से होने वाले दुष्प्रभावों को कम करने क लिए प्रयास किए जा रहे हैं। यदि लोगों के छोटे समूह द्वारा किसी विशेष परिस्थिति को हानिकारक माना जाता है तो उन्हें लोगों को शिक्षित करने की आवश्यकता है जिससे जन-जागरूकता हो।

 परिभाषाएँ
सामाजिक समस्याओं के विभिन्न दृष्टिकोणों और सिद्धांतों की दृष्टि से इसकी एक सर्वमान्य परिभाषा देना कठिन कार्य है। मर्टन और निसबेट (संपा.) (1971) के अनुसार जहाँ तक सामाजिक समस्याओं की परिभाषा का प्रश्न है, कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि मानो यह परस्पर विरोधी सिद्धांतों की अव्यवस्था मात्र है। लेकिन समाजशास्त्र में सैद्धांतिक बहुलवाद की स्थिति है जिसमें अक्सर विभिन्न सिद्धांत एक दूसरे के पूरक होते हैं। सामाजिक समस्याओं को समझने के लिए सिद्धांतों और दृष्टिकोणों की विवेचना हम विस्तृत रूप से इस खंड की इकाई 2 में करेंगे।

निसबेट का मानना है कि सामाजिक समस्याएं व्यवहार का ऐसा प्रतिरूप है जो समाज के बड़े वर्ग द्वारा सामाजिक प्रतिमानों के विरुद्ध माना जाता है (आर.के. मर्टन एंड राबर्ट निसबेट (संपा.) (1971)। मर्टन का विचार है कि सामाजिक समस्याएँ स्वीकृत सामाजिक आदर्शों से विचलन हैं और वे दुष्प्रकार्यात्मक होती हैं।

दूसरी ओर स्पेक्टर और किट्सस ने सामाजिक समस्याओं को परिभाषित करते हुए कहा है कि यह समूहों की क्रियाकला है जो संगठनों, संस्थाओं और अभिकरणों की उन दशाओं का विरोध करते हैं, जिन्हें वे शिकायत योग्य मानते हैं।

इन परिभाषाओं से दो स्पष्ट परिप्रेक्ष्य प्रकट होते हैं:
ऽ सामाजिक समस्याएँ स्वीकृत प्रतिमानों का अतिक्रमण और स्वीकृत सामाजिक आदर्शों से विचलन हैं।
ऽ वे एक प्रकार से कुछ शिकायतों के प्रति प्रतिरोध के समान हैं।

 सामाजिक समस्याओं की विशेषताएँ
अब हम सामाजिक समस्याओं की विशेषताओं को समझने का प्रयास करेंगे। वे निम्नवत हैंः

प) एक सामाजिक समस्या बहुत से कारकों से मिलकर बनती है
पूर्व में दर्शाया गया है कि सामाजिक समस्या के मूल में कार्यकारण संबंध होता है। इसका यह आशय नहीं है कि सामाजिक समस्या की व्याख्या केवल एक कारक द्वारा की जा सकती है। निरक्षरता के पीछे बहुत से कारक है उनमें से कुछ प्रमुख हैं – लोगों की शिक्षा के प्रति अभिवृत्ति, बहुत से क्षेत्रों में विद्यालय का अभाव, लड़कियों की परिस्थिति, छोटे बच्चों का बड़े बच्चों द्वारा देखभाल, कुपोषण और निर्धनता। निरक्षरता की समस्या के समाधान के लिए इन सभी समस्याओं को भी ध्यान में रखना होगा।

पप) सामाजिक समस्याएँ अंतःसंबंधित हैं
प्रायः विभिन्न सामाजिक समस्याओं के मध्य आपसी संबंध होते हैं। अस्वस्थता का संबंध निर्धनता, बेकारी, चिकित्सा की सुविधाओं की अनुपलब्धता तथा महिलाओं की परिस्थिति से है। इन सभी ‘‘कार्य-कारण‘‘ के मध्य के संबंधों को जानना बहुत दुरुह कार्य नहीं है।

पपप) सामाजिक समस्याएँ व्यक्तियों को विभिन्न तरीकों से प्रभावित करती हैं
मुद्रास्फीति की अवस्था में कुछ लोग दूसरों की अपेक्षा इससे अधिक प्रभावित होते हैं। निर्धन या निश्चित आय वाले लोग साधन संपन्न लोगों की तुलना में इसे बड़ी समस्या मानते हैं। दहेज, धनवालों की अपेक्षा निर्धनों के लिए बहुत बड़ी समस्या है। उन परिवारों में जिनमें लड़कियाँ अधिक हैं, दहेज एक भयावह समस्या है। उनके लिए जो कम शिक्षित हैं, या कोई हस्तकौशल नहीं जानते हैं, बेकारी एक गंभीर समस्या है। यह भी संभव है कि कुछ समूह इन समस्याओं से दूसरों की अपेक्षा अधिक प्रभावित हो रहे हों जैसे – महिलाएँ, कमजोर वर्ग, अल्पसंख्यक, ग्रामीण तथा नगरीय निर्धन लोग।

पअ) सामाजिक समस्याएँ सभी लोगों को प्रभावित करती हैं
लोग समाज में एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं। एक समूह को जो समस्या प्रभावित करती है वह समय के साथ समाज के अधिकांश सदस्यों को भी प्रभावित करेगी। बहुत कम लोग इस योग्य होते हैं जो हिंसा, बेकारी, मुद्रास्फीति, साम्प्रदायिक दंगों तथा भ्रष्टाचार आदि जैसी समस्याओं से अपनी पूर्ण सुरक्षा कर पाते हैं।

नीथ हेनरी (1978) का यह मानना उचित ही है कि सामाजिक समस्याएं समाजशास्त्रीय प्रक्रिया विचारधारा की दृश्टि से निरूपति तथा विभिन्न सैद्धांतिक दृष्टिकोणों की विषयवस्तु हैं।

 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक नीति
सामाजिक नीति सरकार के उस दृष्टिकोण को दर्शाती है जिसे वह किसी विशेष परिस्थिति के प्रति रखती है तथा उसका किस प्रकार मुकाबला करती है। भारत में शिक्षा, महिला, पर्यावरण, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन-जाति, नगरीकरण तथा मादक द्रव्य व्यसन से संबंधित सामाजिक नीति है। सामाजिक आंदोलन सामाजिक समस्याओं और सामाजिक नीति का आपस में प्रगाढ़ संबंध होता है।

सामाजिक आंदोलन सरकार पर यह दबाव रखते हैं कि वह सामाजिक समस्याओं के नियंत्रण के लिए सुधारवादी कार्यक्रमों को तैयार करे। इस प्रसंग में हमें यह ध्यान रखना होगा कि मात्र नीति को स्वीकारने और उसकी घोषणा करने से सामाजिक समस्याओं का समाधन नहीं होता है। शारदा एक्ट बाल विवाह को रोकने के लिए बनाया गया था लेकिन वह बाल-विवाह को पूरी तरह से रोकने में सफल नहीं रहा। अस्पृश्यता के विरुद्ध सामाजिक विधानों को पांचवें दशक के मध्य में पारित किया गया था लेकिन वह आज तक हमारे समाज से अस्पृश्यता संबंधी व्यवहार का पूर्ण रूप से उन्मूलन नहीं कर सका। संवैधानिक प्रावधानों के होते हुए भी विद्यालय जाने योग्य सभी बालक विद्यालय नहीं जा पाते हैं।

वास्तव में, सुदृढ़ सामाजिक आंदोलन, जन-जागरूकता और आधिकारिक नीतियाँ – इन तीनों को आपस में मिलकर सामाजिक समस्याओं के विरुद्ध कार्य करना चाहिए। इस प्रसंग में हमें यह ध्यान रखना होगा कि आधुनिक समाज में राज्य एक अत्यधिक शक्तिशाली और महत्वपूर्ण संस्था है। सामाजिक समस्याओं के विरुद्ध संघर्ष में इसकी बहुत अहम भूमिका है। लेकिन राज्य के हस्तक्षेप की अपनी सीमाएँ हैं और यह अधिक प्रभावी ढंग से तभी कारगर हो सकती हैं जब राज्य के कार्यक्रमों और स्वीकृत नीतियों को जन-समर्थन प्राप्त हो।

 नीति, विचारधारा और कल्याण
हमें अभी एक ओर सामाजिक नीतियों और सामाजिक कल्याण तथा दूसरी ओर सामाजिक नीति और सामाजिक विचारधारा के मध्य के संबंध को समझना है। सामाजिक नीतियों और सामाजिक कल्याणकारी नीतियों के मध्य भिन्नता को स्पष्ट करना कठिन है क्योंकि कुछ ऐसे समूह हैं जिन्हें सामाजिक नीतियों के अंतर्गत रखा जाता है पर उन लोगों को कल्याण की भी आवश्यकता है।

संपूर्ण विश्व में राज्य, विचारधाराओं पर ध्यान न देकर, कल्याणकारी नीतियाँ स्वीकार कर रहे हैं जैसे कि बाल-कल्याण, युवा-कल्याण, महिला-कल्याण, वृद्ध-कल्याण, कमजोर वर्गों का कल्याण, रोजगार संबंधी नीतियाँ, सुरक्षा, स्वास्थ्य कार्यक्रम, शिक्षा, पारिस्थितिकी तथा ग्रामीण-स्तरीय विकास। इन नीतियों ने बहुत-सी सामाजिक समस्याओं के जोखिमों को रोकने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। सामाजिक समस्याओं से संबंधित नीतियाँ, विचारधारा पर आधारित होती हैं। पूँजीवादी दृष्टिकोण यह होगा कि खुला बाजार और मुक्त अर्थव्यवस्था समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करेगी। व्यक्ति अपने कल्याण की देखभाल कर सकते हैं। समाजवादी यह अनुभव करते हैं कि राज्य के हस्तक्षेप द्वारा सामाजिक संरचना में परिवर्तन लाया जा सकता है। इसीलिए एक सरकार अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के आधार पर नीतियों को प्रतिपादित करती है। सभी सामाजिक समस्याओं से संबंधित कोई एक व्यापक नीति नहीं हो सकती है। प्रत्येक समस्या को अलग-अलग सुलझाना होगा। अक्सर विशेष समस्याओं से संबंधित कानून पारित किए जाते हैं। उदाहरणार्थ – मादक द्रव्य-व्यसन, दहेज, मद्य निषेध, बाल-मजदूर आदि। यह स्पष्ट होगा कि इनमें प्रत्येक से एक विशेष प्रकार का व्यवहार किया जाए।

बोध प्रश्न 3
प) सामाजिक विघटन की परिभाषा उपयुक्त उदाहरणों सहित पाँच पंक्तियों में दीजिए।
पप) विचलित व्यवहार क्या है? उपयुक्त उदाहरणों सहित चार पंक्तियों में लिखिए।
पपप) सामाजिक आंदोलन के विभिन्न सोपानों का उल्लेख चार पंक्तियों में कीजिए।
पअ) सामाजिक नीति को परिभाषित कीजिए।

बोध प्रश्न 3
प) सामाजिक विघटन प्रभावशील संस्थागत कार्य प्रणाली के टूटन को दर्शाता है। जब कभी भी समाज में संघर्षरत मूल्यों के कारण संतुलन बिगड़ता है तो सम्यक समाजीकरण का अभाव तथा सामाजिक नियंत्रण की क्रियाविधि में दुर्बलता आती है। समाज की यह अवस्था सामाजिक विघटन कहलाती है। इसके उदाहरण हैं – पारिवारिक विघटन, वैवाहिक असफलता और सामुदायिक विघटन।

पपद्ध प्रायः प्रत्येक समाज में ‘‘सामान्य‘‘ व्यवहार के स्वीकृत विचार होते हैं। जब कभी कोई स्वीकृत प्रतिमानों से अलग हटता है और भिन्न प्रकार से व्यवहार करता है तो उसका वह व्यवहार असामान्य या विचलित व्यवहार माना जाता है। विचलित व्यवहार के अपराध, बाल-अपराध, मानसिक असंतुलन, आदि उदाहरण हैं।

पपप) क) कुछ व्यक्तियों में जागरूकता
ख) लोगों के बीच अपने दृष्टिकोणों को फैलाना
ग) संगठित मतभेद, विरोध, प्रदर्शन
घ) अंत में, एक आंदोलन का निर्माण

पअ) सामाजिक नीति सरकार का वह दृष्टिकोण है जो वह किसी विशेष परिस्थिति के प्रति रखती है और वह तद्नरूप उस परिस्थिति का मुकाबला करती है।

Sbistudy

Recent Posts

सती रासो किसकी रचना है , sati raso ke rachnakar kaun hai in hindi , सती रासो के लेखक कौन है

सती रासो के लेखक कौन है सती रासो किसकी रचना है , sati raso ke…

15 hours ago

मारवाड़ रा परगना री विगत किसकी रचना है , marwar ra pargana ri vigat ke lekhak kaun the

marwar ra pargana ri vigat ke lekhak kaun the मारवाड़ रा परगना री विगत किसकी…

15 hours ago

राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्रोतों की विवेचना कीजिए sources of rajasthan history in hindi

sources of rajasthan history in hindi राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्रोतों की विवेचना कीजिए…

2 days ago

गुर्जरात्रा प्रदेश राजस्थान कौनसा है , किसे कहते है ? gurjaratra pradesh in rajasthan in hindi

gurjaratra pradesh in rajasthan in hindi गुर्जरात्रा प्रदेश राजस्थान कौनसा है , किसे कहते है…

2 days ago

Weston Standard Cell in hindi वेस्टन मानक सेल क्या है इससे सेल विभव (वि.वा.बल) का मापन

वेस्टन मानक सेल क्या है इससे सेल विभव (वि.वा.बल) का मापन Weston Standard Cell in…

3 months ago

polity notes pdf in hindi for upsc prelims and mains exam , SSC , RAS political science hindi medium handwritten

get all types and chapters polity notes pdf in hindi for upsc , SSC ,…

3 months ago
All Rights ReservedView Non-AMP Version
X

Headline

You can control the ways in which we improve and personalize your experience. Please choose whether you wish to allow the following:

Privacy Settings
JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now