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Categories: Biology

रेशम कीट की परिभाषा , रेशमकीट पालन क्या है , जीवन चक्र , रेशम कीट के लार्वा का नाम , silkworm in hindi

प्राणियों का घरेलुकरण :

रेशमपालन (seri culture) : रेशम की प्राप्ति हेतु रेशम के कीट को पालने की क्रिया रेशम पालन या रेशम कीट पालन कहलाता है।

रेशम के धागे की खोज सर्वप्रथम 2697 BC में K.wang Ti के द्वारा प्रदेश की महारानी Lotzu के लिए की।

भारत में इसकी खोज leproy के द्वारा सन 1905 में की गयी।  इस वैज्ञानिक के द्वारा इसकी खोज नयी दिल्ली स्थित PUSA संस्था में की।

रेशम के बाजार में भारत का उत्पन्न की जाने वाली रेशम की चमक धमक , गुणवत्ता तथा पारंपरिक रंगों के संगठन के कारण एक प्रतिष्ठित स्थान है।

सामान्यत: भारत में सर्वाधिक रूप से पाया जाने वाला रेशम किट Bomby x mori है जो कीट वर्ग के Bombycidal कुल का सदस्य है।

इस कीट के द्वारा उत्पन्न की जाने वाली रेशम मलमरी शिल्क के नाम से जानी जाती है।

मलमरी रेशमकीट का जीवन चक्र (silkworm in hindi)

इस कीट की वयस्क अवस्था शलम कीट के नाम से जानी जाती है जिसका सामान्यत: रंग गन्दा सफ़ेद रंग होता है तथा इस की सामान्य लम्बाई 3 से 4 सेंटीमीटर या 4 से 5 cm होती है।

रेशमकीट के जीवन चक्र में अंडा , लार्वा , प्युवा तथा व्यस्क शलभ अवस्थाएं पायी जाती है , इस किट में निषेचन आंतरिक होता है तथा अण्ड अवस्था सामान्यत: 8 से 10 दिन तक पायी जाती है तत्पश्चात रेशम कीट की लार्वा अवस्था का निर्माण होता है इसे Cater pillar लार्वा अवस्था के नाम से जाना जाता है।  रेशम कीट में यह अवस्था सर्वाधिक लम्बी पायी जाती है , इस अवस्था की अवधि लगभग 30 से 35 दिन होती है तथा यह अवस्था रेशम किट की सबसे अधिक सक्रीय अवस्था कहलाती है।

रेशम कीट की लार्वा अवस्था में पाँच instar उपअवस्थाएं पायी जाती है जिनका निर्माण चार निर्मोचन या molting के द्वारा होता है।

रेशम कीट की लार्वा अवस्था बेलनाकार चिकनी सतह युक्त तथा 4 से 5 सेंटीमीटर लम्बी होती है।

इस अवस्था में एक जोड़ी रेशम ग्रंथि पायी जाती है जो लार ग्रंथियों में रूपांतरित हो जाती है।  लार्वा अवस्था में रेशम किट शहतूत की पत्तियों का सेवन करता है परन्तु पूर्ण विकसित होने पर भोजन लेना बन्द कर देता है इसी समय यह अपने ऊपर रेशम के धागे को लपेटकर कोकुन (cocun) का निर्माण करता है तथा स्वयं को कीट की अन्य अवस्था प्युबा में परिवर्तित कर लेता है।

प्युबा अवस्था को crysalis अवस्था के नाम से भी जाना जाता है।

प्युपा अवस्था के निर्माण के पश्चात् लगभग 10 से 12 दिन बाद व्यस्क शलभ अवस्था का निर्माण होता है।

रेशम उत्पादन उद्योग

व्यावसायिक स्तर पर रेशम के उत्पादन हेतु रेशम किट का लालन पालन , रेशम कीट पालन या seri culture के नाम से जाना जाता है।

व्यावसायिक स्तर पर रेशम उत्पादित करना एक जटिल प्रक्रिया है परन्तु इस उद्योग की मूलभूत आवश्यकताये तथा विभिन्न चरण या सोपान निम्न प्रकार है [यह सभी आवश्यकतायें तथा चरण Bombyx meri से सम्बन्धी है क्योंकि अन्य प्रकार के रेशम कीट की आवश्यकताएँ समान है] –

रेशम कीट पालन के अंतर्गत सर्वप्रथम मूलभूत आवश्यकता Bombyx meri की उन्नत प्रजाति है तथा शहतूत के अच्छे पोषक गुणों वाले पादपो की आवश्यकता है इसके अतिरिक्त अन्य आवश्यकताएं निम्न प्रकार से है –

(A) मचान :- रेशम किट को पालने हेतु उचित स्थान।

(B) पालन पोषण ट्रे : ट्रे नुमा संरचनाएं जिनमे रेशम कीट के अन्डो को रखने के लिए शहतूत के कोमल तथा ताजे पत्ते बिछाए जाते है।

(C) बुनने वाली ट्रे या चन्द्रा किस ट्रे या spring ट्रे : ऐसे संरचनाएँ जिनकी आवश्यकता पूर्ण विकसित होने वाली इल्लियो को रखने हेतु।

यह अवस्थाएं कुछ ही समय में व्युपा में परिवर्तित हो जाती है।

(D) डाल : शहतूत की पत्तियों को एकत्रित करने के लिए तथा रेशमकीट पालन के स्थान तक लाने के लिए उपयोग किये जाने वाले पादप।

(E) शहतूत की पत्तियों को काटने हेतु उपयोग में लिया जाने वाला चाक़ू।

इसकी सहायता से शहतूत की पत्तियों को छोटे छोटे टुकडो में बाँटा जाता है।

(F) टोकरियाँ : शहतूत की पत्तियों को विभिन्न ट्रे में पहुचाने हेतु उपयोग लिए जाने वाले छोटे छोटे पादप।

(G) आद्रतामापी : रेशमकीट पालन वाले स्थान की आद्रता को मापने के लिए उपयोग किया जाने वाला यन्त्र।

(H) तापमापी : रेशमकिट पालन वाले स्थान के ताप को मापने वाला यन्त्र।

(I) फ्रीजर : रेशम कीट पालन हेतु संचित करने के लिए उपयोगी यन्त्र तथा इसमें सामान्यत: रेशमकीट के अन्डो को संग्रहित किया जाता है।

रेशम पालन के अंतर्गत अपनाए जाने वाले विभिन्न चरण

i. रेशम कीट पालन के अन्तर्गत अन्डे देने से लेकर ग्रीष्म सुप्त अवस्था तथा शीत सुप्त अवस्था अंडे सेना , इल्लियो की प्रारंभिक अवस्थाओं की देखभाल तथा कोकून बनने तक सारी प्रक्रियाएं रेशम कीट पालन के अंतर्गत सम्मिलित की जाती है।

ii. रेशम कीट पालन के अंतर्गत अपनाएँ जाने वाले प्रमुख चरण निम्न प्रकार से है –

(A) बीजागार प्रबन्धन : इस चरण के अंतर्गत रेशम कीट पालकों को उचित प्रकार का बीज या अंडा उपलब्ध करवाया जाता है।

इनके निर्माण हेतु प्रयोगशाला में अन्डो से लार्वा अवस्था तथा लार्वा से वयस्क अवस्था का उचित विकास किया जाता है तथा व्यस्क अवस्था से रोग रहित रेशम कीट के अंडे प्राप्त किये जाते है।

अन्डो को प्राप्त करने हेतु कोकून के निर्माण के पश्चात् रेशम कीट को लिंग के अनुसार अलग अलग समूह में एकत्रित कर लिया जाता है तत्पश्चात प्रत्येक कोकून को एक मशीनी उपकरण की सहायता से एक सिरे से काट दिया जाता है तथा कोकून को खोलकर व्यस्क शलभ प्राप्त कर लिया जाता है।

नोट : वयस्क शलभ को प्राप्त करने के लिए कोकून को काटने हेतु एक विशिष्ट मशीन नागाहारा मशीन का उपयोग किया जाता है जिसकी सहायता से एक घंटे में लगभग 10,000 से 15,000 कोकून काटे जा सकते है।

वयस्क शलभ की प्राप्ति हेतु ऐसे कोकून का उपयोग किया जाता है जो शल्द या डिले हो।

सामान्यत: रेशम कीट में एक विशिष्ट बिमारी पायी जाती है जिसे pebrine के नाम से जाना जाता है अत: वयस्क शलभ से अंडे प्राप्त करने से पूर्व सूक्ष्मदर्शी यन्त्र की सहायता से या एक विशेष यन्त्र व्यापक pebrine संसूचक यंत्र की सहायता से pebrine बिमारी की जांच की जाती है तथा केवल वयस्क स्वस्थ शलभो से अंडे प्राप्त किये जाते है।

(B) निर्मित अन्डो को रेशम कीट पालको को सप्लाई या आपूर्ति :

यदि एक रेशम किट पालक कई वर्षो से रेशम किट पालन का कार्य कर रहा है तो ऐसे पालक को रेशम कीट के अंडे उपलब्ध करवाए जाते है।

परन्तु ऐसा पालक जो यह कार्य केवल कुछ समय से ही कर रहा है ऐसे पालक को रेशम कीट की द्वितीय Instar लार्वा अवस्था प्रदान की जाती है।

क्योंकि रेशम किट पालन के अंतर्गत प्रथम तीन लार्वा अवस्था का उचित देखभाल से पोषण करना आवश्यक है।

उपरोक्त पालन के अंतर्गत चौथी तथा पाँचवी Instar लार्वा अवस्था के निर्माण के पश्चात् ऐसे लार्वा को नायलॉन से निर्मित ट्रे में रखा जाता है तथा यह ट्रे सामान्यत: जमीन पर या वायु में जाल की सहायता से लटकाई जाती है।

नोट : रेशम कीट पालन के अंतर्गत निर्मित होने वाली विभिन्न लार्वा अवस्थाएं तापमान के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होती है अर्थात इस लार्वा अवस्था का एक उचित तापमान पर उचित विकास होता है।

विभिन्न लार्वा अवस्था का निम्न तापमान पर सम्पूर्ण विकास होता है –

I instar larwa अवस्था – 27 डिग्री सेल्सियस

II instar larwa अवस्था – 27 डिग्री सेल्सियस

III instar larwa अवस्था – 25 डिग्री सेल्सियस

IV instar larwa अवस्था – 24 डिग्री सेल्सियस

V instar larwa अवस्था – 23 डिग्री सेल्सियस

(C) कोयो का निर्माण

रेशम कीट की परिपक्व लार्वा अवस्था के निर्माण के पश्चात् या परिपक्व इल्ली के निर्माण के पश्चात् यह अवस्था भोजन लेना बंद कर देती है तथा अपनी रेशम ग्रंथियों से चिपचिपे पदार्थ का स्त्रावण करना प्रारंभ कर देती है , ऐसी स्थिति में इन इल्लियो को बुनने वाली ट्रे में स्थानांतरित कर दिया जाता है तथा ऐसे ट्रे कुछ समय के लिए सूर्य की तिरछी रौशनी में रखी जाती है जिसके फलस्वरूप तीन दिन के भीतर spinning की क्रिया पूर्ण हो जाती है तथा कोयो (कोकून) का निर्माण हो जाता है इसे रेशम कीट पालन की अंतिम अवस्था कही जाती है।

(D) कोकून से रेशम प्राप्त करने की विधियाँ

कोकुन या कोयो के निर्माण के पश्चात् निम्न विधि की सहायता से रेशम प्राप्त किया जाता है।
इस विधि के अंतर्गत निर्मित कोकून को गर्म जल में डाला जाता है या गर्म ओवन में रखकर कृमिकोष को मार दिया जाता है तथा यह प्रक्रिया स्टिफलिंग कहलाती है।
स्टिफलिंग की क्रिया के पश्चात् कोकून से रेशम उधेडा जाता है यह क्रिया रीलिंग कहलाती है।  कोकून को गर्म करने से रेशम के धागे ढीले हो जाते है जिन्हें सीधा पूर्वक उधेड़ा जा सकता है।
एक कोकून एक रेशम धागे से निर्माण होता है अत: एक कोकून से लगभग 1000 से 15000 मीटर लम्बा रेशम का धागा प्राप्त किया जाता है।
प्राप्त होने वाले रेशम के धागे को सर्वप्रथम एक बड़े चक्कर पर लपेटा जाता है तत्पश्चात इसे spool पर लपेटा जाता है।  प्राप्त इस रेशम को कच्चा रेशम या Reeled रेशम कहते है।  यह रेशम सामान्यतया गंदा तथा कम चमकीला होता है अत: इसे कुछ विशिष्ट रसायनों के साथ पुनः उबाला जाता है जिसके फलस्वरूप साफ़ तथा चमकीला रेशम प्राप्त होता है। प्राप्त होने वाले इस साफ़ रेशम को ऐंठकर धागों का निर्माण किया जाता है जिसे व्यावसायिक रेशम धागे या फाइबर शिल्क के नाम से जाना जाता है।

रेशम कीट में उत्पन्न होने वाली बीमारियाँ

रेशम किट में निम्न प्रकार की बीमारियाँ उत्पन्न हो सकती है –
(I) Pebrine : यह बिमारी मुख्यतः दो प्रकार की होती है –
1. वायरस के द्वारा – Borreline bornbycis नामक वायरस के द्वारा :-
यह बीमारी लार्वा अवस्था में होती है।
8 से 10 दिन में लार्वा अवस्था की मृत्यु।
ऐसे लार्वा को स्वस्थ लार्वा से पृथक किया जाना चाहिए।
पृथक्करण हेतु उपयोगी उपकरण ट्राई क्लोरो एसिटिक अम्ल के 15% विलयन में 30 मिनट तक धोना चाहिए।
2. जीवाणु द्वारा : यह बीमारी Nosema bombycis जीवाणु के कारण होती है।
यह बीमारी लार्वा अवस्था तथा प्रोढ़ अवस्था दोनों में होती है।
इस बीमारी के अंतर्गत किट या लार्वा के आकार में कमी आती है अर्थात बीमारी के कारण सुख जाता है व सिकुड़ जाता है।
इस बिमारी के अन्तर्गत सामान्यतया कृमिकोष के निर्माण से पूर्व किट की मृत्यु हो जाती है अत: रेशम किट पालन हेतु स्वस्थ अन्डो का उपयोग किया जाना चाहिए।
नोट : वायरस से जनित्र pebrine बीमारी virus inffected pebrine तथा bacterial pebrina कहलाती है।
रेशम किट में उत्पन्न होने वाली यह बीमारियाँ जीवाणु जनित्र या बैक्टीरिया के द्वारा उत्पन्न होती है।
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