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झूम खेती किसे कहते हैं | झूम खेती की परिभाषा क्या है Shifting Cultivation in hindi meaning definition
Shifting Cultivation in hindi meaning definition झूम खेती किसे कहते हैं | झूम खेती की परिभाषा क्या है shifting cultivation is also known as ?
शब्दावली
उत्पादन वानिकी ः ऐसी वानिकी जिसमें उद्योग और वाणिज्य के लिए जरूरी इमारती लकड़ी की किस्मों (Production Forestry) का उत्पादन हो।
झूम खेती (Shifting Cultivation) ः यह एक प्रकार की ढलान पर की जाने वाली खेती है। इसमें किसी भाग पर उगे हुए पेड़ों (अधिकांशतः केवल शाखाएँ) को खाद के लिए जला दिया जाता है। इस जमीन पर दो-तीन साल खेती की जाती है। इसके बाद इसे 18-20 साल के परती छोड़ दिया जाता है ताकि वहाँ फिर से वन उग सकें। उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में झूम खेती कहते हैं। दक्षिणी उड़ीसा और ज्यादातर दक्षिण भारत में उसे पोडू कहते हैं। भारत की जनजातियों के लगभग 25 प्रतिशत लोग ऐसी खेती करते हैं।
नकारात्मक निर्भरता ः किसी संसाधन पर ऐसी निर्भरता जो किसी संसाधन की कमी से या लाभ के उद्देश्य (Destructive Dependence) से हुई हो। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उपभोक्ता संसाधन को नष्ट करता है (जैसे वन का उपयोग जलाऊ लकड़ी या औद्योगिक कच्चे माल के लिए किया जाता है)। ऐसा करते समय उसे इस बात का ध्यान नहीं रहता कि वह संसाधन दुबारा फल-फूल सके।
निर्वृक्षीकरण (Clearfeling) ः एक बार में पूरे के पूरे भूखण्ड पर उगे वृक्षों अथवा बाँस के लट्ठों को काट गिराना। पर्यावरण (Environment) ः वन, वन्य जीवन, वायु, जल, भूमि आदि वातावरण के ऐसे तत्त्व जिन पर मानव निर्भर है।
पारितंत्र या पारिस्थितिक तंत्र ः फसली भूमियों, वन-भूमियों, चरागाहों और परती भूमियों का एक ऐसा समेकित तंत्र (Ecosystem) जिसमें भूमि के उपयोग का हर घटक आपस में एक-दूसरे के साथ इस प्रकार अन्योन्यक्रिया करे कि जब किसी एक घटक पर कोई विपरीत प्रभाव पड़े तो इसका प्रभाव अन्य सभी घटकों पर भी पड़े।
पुनर्वनरोपण (Reforestation) ः ऐसे क्षेत्र में वनरोपण करना (या वन लगाना) जहाँ पहले कभी वन थे, लेकिन अब वे समाप्त हो गए हैं।
वनरोपण (ffAorestation) ः ऐसे क्षेत्र में वृक्षारोपण करके वन तैयार करना जहाँ पहले वन नहीं था।
सकारात्मक निर्भरता ः किसी संसाधन पर खेती निर्भरता जिसके कारण उस संसाधन के उपभोक्ता ऐसा (Constructive Dependence) संतुलन बनाए रखें और यह ध्यान रखें कि एक ओर जहाँ मनुष्यों की आवश्यकताएँ पूरी हों, वहीं दूसरी ओर वन का विनाश भी न हो।
सहजीवी (Symbiotic) ः दो असमान या विषम प्रकार के जीवों में अत्यधिक निकटता और आपसी निर्भरता का संबंध जैसे कि माँ और उसके गर्भस्थ शिशु का।
उद्देश्य
इस इकाई में हम देश में वनों की मौजूदा स्थिति के बारे में चर्चा करेंगे और इसे समझने के लिए हमने इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर एक नजर डालेंगे। इस इकाई को पढ़ने के बाद आपके लिए संभव होगा:
ऽ वनों की वर्तमान स्थिति का वर्णन करना;
ऽ पहली वन नीति के निर्धारण से पूर्व जनजातियों और वनों के बीच परंपरागत संबंध की रूपरेखा को प्रस्तुत करना;
ऽ सन् 1854 से 1988 तक के वन कानून की मुख्य बातों को समझकर उनका वर्णन करना;
ऽ आज वन संसाधन की कमी में उद्योग, राजस्व और वनवासियों की भूमिका का विवरण देना;
ऽ वनों की कटाई के कारण होने वाले पर्यावरणी प्रभाव के बारे में बताना
ऽ वनों की कटाई होने से जन-जीवन पर प्रभाव को बताना; और
ऽ वनों की कटाई और वनवासियों के अन्यभाव की समस्या के समुचित समाधान के बारे में चर्चा करना।
प्रस्तावना
इस खंड की इससे पहले की दो इकाइयों में हमने क्रमशः भू-संसाधन (इकाई 25) और जल संसाधन के बारे में विचार किया था। इन दोनों ही संसाधनों का देश में वनों की स्थिति से गहरा संबंध है। इसीलिए इस खंड की तीसरी इकाई में हमने वन जैसे महत्त्वपूर्ण संसाधन के बारे में चर्चा की है। जब तक हमारे पास वन सम्पदा की बहुतायत होती है, हमें उसके महत्त्व का एहसास नहीं होता है। लेकिन जब वनों की कटाई के कारण वृक्ष संपदा में कमी होती है और उसका प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ता है तभी हमारा ध्यान वनाच्छादन के खत्म होने से पैदा होने वाले कारणों और परिणामों पर जाता है।
पिछले दो दशकों के दौरान हमारे देश के अधिकाधिक लोग सजग होते जा रहे हैं। भारत में व्यापक स्तर पर की जाने वाली वनों की कटाई के कारण पर्यावरण और लोगों को, विशेष रूप से जनजातियों के लोगों को, होने वाले भयंकर नुकसान के प्रति उनका ध्यान जाने लगा है। इस इकाई के पहले भाग (भाग 27.2) में भारत में भारत में वनों की मौजूदा स्थिति के बारे में हमने आपका ध्यान खींचा है। इस समस्या की शुरुआत 19वीं शताब्दी में उस समय हुई जब लोगों के वनों के साथ परंपरागत सकारात्मक संबंध (27.3) टूटने लगे और नई वन नीति लागू की गई। इस नीति के अंतर्गत उठाए गए प्रत्येक नए कदम ने वनवासियों को जीने के पारंपरिक सम्बलों से और अधिक दूर कर दिया। यहाँ तक कि उन्हें वनों का शत्रु घोषित कर दिया गया (भाग 27.4)। धीरे-धीरे, जिन लोगों ने अब तक वनों को सुरक्षा प्रदान की थी, वे भी अब उसे बरबाद करने लगे। इस तरह वनों का विनाश होने लगा और इसके दुष्परिणाम हमें मिट्टी खिसकने, बाढ़, सूखा आदि के रूप में दिखाई देते हैं (भाग 27.5)। इसके अलावा, वनों की क्षति का लोगों पर विशेष रूप से जनजातियों पर, एक प्रमुख नकारात्मक प्रभाव भी पड़ा। जनजातियों के लिए वन परंपरागत रूप से जीवन निर्वाह के आधार थे और इन लोगों ने वनों से सकारात्मक संबंध स्थापित किए थे (भाग 27.6)। वनों के क्षय से ये संबंध भी नष्ट हे गए। अंत में, हमने वनों की कटाई (भाग 27.7) के संदर्भ में उपरोक्त समस्याओं के विभिन्न समाधानों की चर्चा की है।
सारांश
इस इकाई में पहले हमने भारत में वनों की वर्तमान स्थिति की चर्चा की। इसके बाद हमने मोटे रूप से पिछले 150 वर्षों की वन नीतियों और विशेष रूप से चालीस वर्षों के योजनाबद्ध विकास के संदर्भ में भारत में वृक्षावरण में होने वाली कमी के बारे में विचार किया। ब्रिटिश शासकों के आगमन से पूर्व के वनों के इतिहास को देखने पर हमने पाया कि कुछ दशकों पूर्व तक लोगों और वनों के बीच सहजीवी संबंध था। इसी पारस्परिक निर्भरता के कारण वनवासी लोगों ने ऐसी संस्कृति और परंपरा विकसित कर ली थी जो मानवीय और पर्यावरण संबंधी आवश्यकताओं के बीच संतुलन बनाए रखती थी। ब्रिटिश शासकों ने जब वनों पर राज्य का स्वामित्व स्थापित कर दिया तो आपसी निर्भरता समाप्त हो गई और उन्होंने वनों को उन समुदायों के सहयोग के बिना वनों की रक्षा करना संभव नहीं है। इसलिए ऐसा समाधान ढूँढने को प्रयास किया जा रहा है जिसमें स्थानीय लोग प्रमुख हिस्सेदार हों। लेकिन कई परस्पर विरोधी हितों के बीच टकराव के कारण वनों के लिए जो नीतियाँ निर्धारित की जाती हैं वे स्थानीय लोगों की विरोधी होती हैं। इसलिए, यह आवश्यक है कि हम ऐसे नए समाधानों की खोज करें जो विभिन्न हितों को एक साथ पूरा कर सकें।
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