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आत्मसम्मान आंदोलन क्या है | भारत में आत्म सम्मान आन्दोलन किसे कहते है Self Respect Movement in hindi

Self-Respect Movement in hindi आत्मसम्मान आंदोलन क्या है | भारत में आत्म सम्मान आन्दोलन किसे कहते है कब हुआ था और किसने शुरू किया नेता कौन था क्यों हुआ और इसके परिणाम क्या थे ?

आत्मसम्मान आंदोलन
ब्राह्मणों के वर्चस्व को तोड़ने के लिए दक्षिण भारत में अन्य पिछड़ी जातियों और अछूतों ने आत्म-सम्मान आंदोलन छेड़ा। अपने शैशवावस्था में इस आंदोलन में समाज सुधार की प्रवृत्ति थी, जो ब्राह्मणों के आनुष्ठानिक वर्चस्व और सांस्कृतिक महत्ता को चुनौती दे रही थी। परंतु शीघ्र ही यह आंदोलन जातिगत राजनीति के दलदल में फंस गया, जिसका मुख्य उद्देश्य अंग्रेजों के प्रति अपनी निष्ठा के बदले में उनसे तरह-तरह की रियायतें और लाभ बटोरना बन गया। इस तरह के सरोकार के चलते यह आंदोलन स्वतंत्रता संग्राम का विरोधी हो गया, जिसे यह ब्राह्मणों का सरोकार मानता था। इस आंदोलन की शक्तियों ने तमिलनाडू के उन चुनिंदाश् ब्राह्मणों को अपने हमलों का निशाना बनाया, जो राजनीति, नौकरशाही और उच्च व्यवसायों पर काबिज थे। ब्राह्मणों से हावी सामाजिक व्यवस्था में अपने लिए कोई सम्मानजनक स्थान हासिल नहीं कर पाने के कारण समाज के गैर-ब्राह्मण तबकों ने ब्रिटिश शासकों की सहायता और प्रोत्साहन से निम्न जातियों को बहुत बड़े पैमाने पर संगठित करके 1920 में सत्ता पर कब्जा कर लिया। सत्ता हासिल करते ही आंदोलन के नेताओं ने वर्चस्व के अन्य क्षेत्रों में भी अपनी उपस्थिति को बढ़ाने के लिए कारगर कदम उठाए। इस आंदोलन का फैलाव सभी तमिल जनपदों तक था। इस के कार्यकर्ताओं में जाति क्रम-परंपरा में निम्न जातियों के लोग भी शामिल थे। इस आंदोलन में अछूतों ने भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया, जो इसके प्रति खासा आकर्षित थे। जीवन के आनुष्ठानिक और सांस्कृतिक पहलुओं पर ब्राह्मणों की जकड़ से मुक्ति पाने के लिए समाज सुधार आंदोलन के रूप में शुरू हुए इस आंदोलन ने अपनी शक्ति को औपनिवेशिक शासकों और रियासतों से पिछड़े वर्गों के लिए रियायतें और आरक्षण जुटाने में लगाई, जिसके बदले में वह स्वतंत्रता संग्राम के विरोध में खड़ा हो गया। राजनीतिक प्रतिनिधित्व प्राप्त करने में सफल होने के बाद आंदोलन ने पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग उठाई।

परंतु आंदोलन के नेतृत्व ने कालांतर में अपना ध्यान मध्यवर्ती और छोटी जातियों के हितों की साधना पर केन्द्रित कर अछूतों को उनके हाल पर छोड़ दिया। छोटी जातियों की इस तरह की आकांक्षाओं को बाद में कांग्रेस से भी समर्थन मिलने लगा जो अपने दल में गैर-ब्राह्मण जातियों को शामिल करके अपने जनाधार को बढ़ाना चाहती थी। बहरहाल दक्षिण भारत में चले गैर-ब्राह्मणवादी आंदोलन में देश के अन्य भागों में हुए आंदोलनों की अपेक्षा तालमेल अधिक था।

कर्नाटक का प्रजामित्र मंडल
कर्नाटक में दबंग भूधर जातियों के संगठनों ने ब्राह्मणों के वर्चस्व को तोड़ने के लिए प्रजामित्र मंडल का गठन किया। इस पहल से जो शक्तियां उभरीं उनके दबाव के फलस्वरूप लोक सेवाओं में गैर-ब्राह्मण लोगों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने के लिए कदम उठाए गए। प्रजामित्र मंडल के टूट जाने के बाद उसकी जगह प्रजापक्ष ने ले ली, जिससे मध्यवर्ती जातियों और खासकर वोक्कालिगाओं और लिंगायतों की स्थिति और मजबूत हुई। स्वतंत्रता के पश्चात ये दोनों जातियां राज्य की राजनीति में प्रमुख शक्ति के रूप में उभरी। मगर सत्ता के ढांचे में सबसे प्रभावशाली स्थिति लिंगायतों ने बनाई। सो देश की आजादी के बाद पिछड़े वर्गों के इर्द-गिर्द जो सत्ता उभरी उसने भूधर किसानों के हितों के लिए गंभीर कदम उठाए। जमीन को जमींदार ब्राह्मण. जातियों से उन लोगों को हस्तांरित करने के लिए कानून पारित किए गए जो वास्तव में जमीन कमाते थे। जमीन कमाने वाले लोग मुख्यतः मध्यवर्ती जातियों के थे। कर्नाटक के ब्राह्मणों को अपने गांवों से पलायन कर सफेदपोश नौकरियां ढूंढनी पड़ी। पर इसके फलस्वरूप जो सत्ताधिकार या शक्ति संतुलन बना वह भी छोटी पिछड़ी जातियों के उदय से छिन्न-भिन्न हो गया, जो शक्तिशाली मझोली या मध्यवर्ती जातियों के वर्चस्व के विरोध में उठ खड़ी हुई। असल में ओबीसी में जो जातियां सत्ता में इस वर्चस्व का हिस्सा नहीं बन पाईं, वे भी संगठित होकर सत्ता की दावेदार बन गई।

आंध्र और केरल के आंदोलन
आंध्र-प्रदेश में भी ब्राह्मणों का विरोध हुआ। पारंपरिक और उभरते सामाजिक स्तरीकरण में अभिजात वर्ग के रूप में ब्राह्मणों को जो स्थान मिल रहा था, उसके कारण कई जातियों के लोग अवसर के ढांचे से दूर हाशिए पर चले गए। सो जो जातियां कृषि में आई व्यावसायिक क्रांति से लाभान्वित हुई थीं वे ब्राह्मणों के खिलाफ उठ खड़ी हुई, जिन्होंने पहले पुरानी व्यवस्था को बनाए रखा था और फिर अब नई व्यवस्था में भी सत्ता हथिया ली थी। छोटी जातियां ब्राह्मण अभिजातवर्ग की श्रेष्ठता या वर्चस्व को चुनौती देने लगी। इन जातियों को पारंपरिक स्तरीकरण व्यवस्था में अन्य छोटी जातियों का समर्थन मिला। इन लोगों ने भी कांग्रेस के स्वराज (होमरूल) का विरोध किया क्योंकि वे इसे एक ऐसे आंदोलन के रूप में देखती थीं जो पुरानी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए किया जा रहा था। ब्राह्मणों के वर्चस्व को लेकर आशंकित होने के कारण इन गैर-ब्राह्मण वर्गों ने विशाल आंध्र आंदोलन का विरोध किया. जो मद्रास प्रेसीडेंसी के तेलुगु भाषी लोगों के लिए एक पृथक राज्य प्राप्त करने के उद्देश्य से उठाया गया था। मगर यहां भी मुट्ठीभर अ-ब्राह्मण समृद्ध किसान जातियां हावी हो गईं जो अपने से छोटी जातियों के हितों को लेकर चलने की इच्छुक नहीं थी। सो अन्य छोटी जातियां भी अलग से अपने हितों की पैरवी में जुट गईं। स्वतंत्रता से पहले हुए मुन्नुरु दापा और पदमासली आंदोलन इस तरह के दावों का उदाहरण हैं। स्वतंत्रता के बाद आरक्षण पाने के लिए पिछड़ी जातियों ने अपने संगठनों का विलय कर लिया। वंचितों की इस प्रायोजित गतिशीलता के बावजूद नौकरशाही में ब्राह्मणों का वर्चस्व अभी खत्म नहीं हो पाया है और दबंग कृषक जातियों ने आर्थिक शक्ति और राजनैतिक पैंतरेबाजी के बूते अपने व्यापक प्रभाव को बनाए रखा है।

उधर केरल में बीसवीं शताब्दी के आरंभ से ही इझावा जाति के लोगों ने सवर्णों के वर्चस्व के विरुद्ध मझोली जातियों के आंदोलन का नेतृत्व किया। एक ओर अंग्रेज शासकों की विस्तारवादी नीति के तहत सवर्णों खासकर नायर जाति के लोगों ने संसाधनों को हथियाआ. तो दूसरी ओर ईसाई मिशन ने शिक्षा और सहायता देकर अनुसूचित जातियों का सशक्तीकरण किया। इससे राज्य में सबसे ज्यादा जनसंख्या वाली इझावा जाति के लोगों को लगा कि वे वंचित रह गए हैं। इसलिए डा. पल्पू के नेतृत्व में उन्होंने भी नौकरशाही और नौकरियों में अपना वाजिब प्रतिनिधित्व हासिल करने के लिए आंदोलन किया।

 उत्तर-प्रदेश में अन्य पिछड़ी जातियां
उत्तरी भारत में मध्यवर्ती जातियां या ओबीसी उतने दबंग तरीके से नहीं उभर पाईं। भारत की सांस्कृतिक कर्मभूमि समझा जाने वाले उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणवाद ने अपनी सत्ता को परंपरा के सहारे बनाए रखा। इस काल में जो भी जातिगत संगठन अंतरजातीय सौहार्द और एकता बनाने के लिए खड़े किए गए वे कभी-कभार सवर्णों की ज्यादातियों के खिलाफ भी बोलते थे। उदाहरण के लिए यादव महासभा के वार्षिक अधिवेशन में ऊंची जातियों के विरोध में बोला जाता था, जिन्हें वे शोषक और अपनी उन्नति में बाधक मानते थे। मध्यवर्ती जातियों में जो लोग समृद्ध और प्रभावशाली थे। उन्होंने समाज में अपना दर्जा ऊंचा करने के लिए संस्कतीकरण का मार्ग चना। इस स्तर की जातियों में स्तरीकरण व्यवस्था में ऊंचा स्थान प्राप्त करने के लिए मची आपसी होड़ उस एकता की राह में रोड़ा बन गई जो एक असरदार आंदोलन के लिए जरूरी थी। बहरहाल स्थितियां ओबीसी के उत्थान के प्रतिकूल बनी रहीं। कारगर ढंग से संगठित नहीं होने के कारण वे कोई सार्थक उपलब्धि हासिल नहीं कर पाईं। फलस्वरूप मध्यवर्ती जातियां स्वतंत्रता के शुरुआती वर्षों में उन समीकरणों से बंधी रहीं जिनमें सवर्ण जातियां हावी थीं। पर कालांतर में हरित क्रांति और उसके बाद चैधरी चरणसिंह जैसे नेताओं के नेतृत्व में अन्य पिछड़ी जातियों के राजनैतिक शक्ति के रूप में उभरने के बाद यथास्थिति को बनाए रखने वाला यह शक्ति संतुलन टूटा। पिछड़ी जातियों में जो भी एकता और बंधुता उभरी उसका आधार ऊंची जातियों के साथ समानता हासिल करने की दिशा में किए जाने वाली पहल है। पर सामंजस्य और संगठन के अभाव में ऐसी आकांक्षाएं पूरी नहीं हो पाई हैं।

 बिहार में अन्य पिछड़ी जातियां
उधर बिहार में अन्य पिछड़ी जातियों में अभिजात वर्ग ने संस्कृतीकरण का मार्ग अपनाकर अपनी पारंपरिक सामाजिक स्थिति को ऊंचा उठाया। कुर्मियों और यादवों में खासकर जो तबके समृद्ध और जागरूक थे उन्होंने अपने समाज को सुधारने और अपनी दशा में सुधार लाने के लिए दबाव डालने के लिए जाति संगठन बनाए। त्रिवेणी संघ के तत्वावधान में शक्तिशाली मध्यवर्ती जातियों को एकता के सूत्र में बांधने का प्रयास भी किया गया। यह संगठन यादवों कर्मियों और कोइरियों का महासंघ था। पर इस तरह की पहल का कोई सार्थक प्रभाव नहीं रहा क्योंकि उन्हें ऊंची जातियों के नेताओं से कोई समर्थन नहीं मिला, जो सत्ता की धुरी में थे। स्वतंत्रता संग्राम में जिन नेताओं ने जन-जन को लामबंद किया था उन्होंने अपने जातिगत हितों को ध्यान में रखते हुए इन्हें अनदेखा करना श्रेयष्कर समझा, क्योंकि ऐसा नहीं करने पर समाज के इन तबकों को जो भी राहत या रियायतें दी जातीं वे निश्चित ही उनके जातिगत हितों के विरुद्ध जाती।

बिहार की किसान सभाओं ने भी बटाईदारं किसानों को मध्यवर्ती किसान जातियों के शोषण से मुक्त कराने का घोषित इरादा छोड़ दिया, क्योंकि उनका सवर्ण नेतृत्व इसके विरोध में था। इस तरह के संगठनों के संकीर्ण नजरिए ने इस मुद्दे से आंखें फेर लीं। बहरहाल स्वतंत्रता और भूमिसुधार की दिशा में किए गए कुछ उपायों ने मध्यवर्ती जातियों के उदय के लिए उर्वरक भूमि तैयार की। उधर जमींदारी के उन्मूलन के बाद ऊंची जाति के जमींदारों का वर्चस्व खत्म हो गया। मझोली संपन्न जातियों ने नौकरशाही और अन्य व्यवसायों में अधिक प्रतिनिधित्व पाने के लिए प्रयास किए। सामाजिक-आर्थिक विकास ने उनके सामाजिक उत्थान, आर्थिक समृद्धि और राजनैतिक विकास में सहायता की। संस्कृतीकरण को गतिशीलता के माध्यम के रूप में प्रयोग करना उनमें रुक गया। मगर पारंपरिक स्तरीकरण व्यवस्था में श्रेणी श्रेष्ठता के आग्रह को एक प्रभावशाली सरोकार के रूप में अभिव्यक्ति नहीं दी गई। सो अन्य पिछड़े वर्ग के आंदोलन की विचारधारा में मुख्य थीम सापेक्षिक वंचना का विरोध रहा।

 शिक्षा और मूल्य
पिछड़े वर्गों में समतावादी मूल्यों के प्रसार और शिक्षा का स्तर ऊंचा उठने से वे न्यायोचित अपेक्षा और यर्थाथ के बीच मौजूद नकारात्मक विसंगति के बारे में जागरूक बनी। अपनी प्रबल राजनैतिक हैसियत का एहसास होने पर इन जातियों ने समदृष्टि से संसाधनों के वितरण के लिए संघर्ष छेड़ा। नौकरशाही तिकड़मों के जरिए संपन्न सवर्ण जातियों के हित में संसाधनों के हस्तांतरण का इन्होंने कड़ा विरोध किया। इसके फलस्वरूप मझोली जातियों का जो उदय हुआ, उसने उन समीकरणों को ध्वस्त कर दिया जो पारंपरिक रूप से ऊंची जातियों के वर्चस्व के पक्ष में जाते थे। इन शक्तियों का उदय मध्यवर्ती जातियों के हित में संसाधनों, अवसर और प्रतिष्ठा के वितरण की रणनीति की स्वीकारोक्ति है। मगर मझोली जातियों में इन तबकों की स्थिति संसाधनों पर अधिकार के मामले में अच्छी नहीं है। बहरहाल पारंपरिक स्तरीकरण व्यवस्था के मध्यक्रम में जो दबंग भूधर किसान जातियां सवर्ण-बहुल राजनैतिक दलों की पिछलग्गू थीं वे आज सत्ता की धुरी बन गई हैं।

जाति, वर्ग और सत्ताधिकार
इस प्रकार अ-ब्राह्मण जातियों के आंदोलनों ने एक ऐसी प्रक्रिया का सूत्रपात किया जिसने आगे चलकर वंचितों और अपवर्जितों को एक सामूहिक पहचान दी। बढ़ते आर्थिक विभेदन ने निम्न जातियों के लोगों को एक समूह के रूप में उभरने में सहायता की जिससे कि वे अवसर के ढांचे में अपने हिस्से के लिए दावा जता सकें। प्रस्थिति के ढांचे में ऊंची जातियों जैसा दर्जा पाने की आकांक्षा ने संख्या में अधिक और अभिव्यक्ति में सक्षम मझोली जातियों को शुरू-शुरू में संस्कृतीकरण का मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित किया। पर अपनी निर्धारित स्थिति को ऊंचा उठाने में असमर्थ रहने और अवसर के उभरते ढांचे में अपने प्रतिनिधित्व को बढ़ाने की आकांक्षा के फलस्वरूप अन्य पिछड़े वर्ग या ओबीसी में ऐसे नेतृत्व का जन्म हुआ जो सुशिक्षित, संपन्न था और संस्कृतीकरण के जबर्दस्त विरोधी था। इसके फलस्वरूप निम्न जाति के हिन्दू एक स्वतंत्र राजनैतिक श्रेणी के रूप में उभरे। वर्चस्व के पारंपरिक केन्द्रों का विरोध शक्तिशाली ग्रामीण जातियों ने किया जो खुद दबंग थीं। इन जातियों ने और अन्य राज्यों की ऐसी ही मझोली प्रबल जातियों ने जब सत्ताधिकार के ढांचे में ऊंचा दर्जा हासिल कर लिया तो उन्होंने अपनी जैसी उन जातियों को छोड़ दिया जो हाशिए में थी। सत्ता में उनके आरोहण से हाशिए के इन लोगों को कोई लाभ नहीं पहुंचा। इसलिए ओबीसी में दबंग जातियों को अलग करने के लिए उन्होंने उनसे संबंध तोड़कर उपेक्षित और हाशिए की मझोली जातियों को विशेष रियायतें और सुविधाएं प्रदान किए जाने की मांग की। बहरहाल सत्ता के मौजूदा ढांचे में निर्बल और हाशिए के वर्गों के लिए कोई स्थान नहीं है।

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