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धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा क्या है | धर्मनिरपेक्षता किसे कहते हैं अर्थ विशेषताएं परिभाषित कीजिए Secularism in hindi
(Secularism in hindi) definition meaning धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा क्या है | भारतीय धर्मनिरपेक्षता किसे कहते हैं अर्थ विशेषताएं परिभाषित कीजिए राज्य या देश को बताइये |
धर्मनिरपेक्षता : अर्थ एवं परिभाषा
हम इस इकाई का आरंभ धर्मनिरपेक्षता का अर्थ समझने के प्रयास से करेंगे। पश्चिम में धर्मनिरपेक्षता नए विचारों व संस्थाओं की एक पूरी श्रृंखला का हिस्सा था जिसने सामन्ती व्यवस्था के अंत तथा ओर्थिक संगठन के नए स्वरूपों वाले एक प्रभुसत्तासम्पन्न आधुनिक राष्ट्र-राज्य के उदय को प्रभृत किया। इसके स्पष्टतः पाश्चात्य, और अधिक निश्चित रूप से ईसाई मूल, को यद्यपि अन्य संस्कृतियों में लागू करने से रोकने की आवश्यकता नहीं थी। आधुनिक पाश्चात्य धर्मनिरपेक्षता धार्मिक युद्धों (अक्सर विभिन्न धारणाओं वाले ईसाइयों के बीच) से बचाव की खोज का तथा राज्य और चर्च के अधिकार-क्षेत्रों को अलग-अलग करने की आवश्यकता का परिणाम थी। धर्मनिरपेक्ष पहचान के एक सामान्य भाव पर आधारित राज्य-व्यवस्था के साथ एकरूपता के सशक्त भाव को सुनिश्चित करने हेतु आधुनिक लोकतान्त्रिक राष्ट्र-राज्यों के लिए आवश्यक हो गई है, जहाँ कि एक नागरिक होना अन्य सभी पहचानों जैसे परिवार, प्रजाति, वर्ग एवं धर्म, से ऊपर है।
‘धर्मनिरपेक्षता‘ शब्द उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में जॉर्ज जैकब हाल्योक द्वारा गढ़ा गया जो लैटिन शब्द सैक्यूलम (ैमबनसनउ) पर आधारित था। राज्य से चर्च के अलगाव को इंगित करने के अलावा, यह वैयक्तिक स्वतंत्रता का भी सुझाव देता है। यूरोप में ‘ज्ञानोदय‘ ने एक नए युग का उद्घोष किया जहाँ धर्म की बजाय ‘तर्क‘, मानव जीवन के सभी पहलुओं के लिए निर्देशक कारक बन गया। यह तर्क दिया जाने लगा कि धर्मनिरपेक्ष विषय इस संसार के हैं, और धर्म जो अज्ञात संसार से संबंधित है, इससे दूर रखा जाना था। हालाँकि, यह आवश्यक रूप से दोनों के बीच किसी शत्रुतापूर्ण संबंध को इंगित नहीं करता था, सिर्फ यह कि दोनों अनन्य है। इस स्थिति के साथ एक कठोर विषमता यह है कि लोग धर्म और धर्मनिरपेक्षता को मूलतः एक-दूसरे के विरोधी के रूप में देखते हैं, वो इस संदर्भ में कि किसी समाज में धर्म की निरंतर उपस्थिति इसके पिछड़ेपन को दर्शाती है, और यह कि अन्ततागत्वा, मानव प्रगति और सम्पन्नता, तथा एक सच्चे समतावादी समाज की रचना सिर्फ धर्म की अनुपस्थिति में हो सम्भव है। भारत में, प्रचलित रूप में इसे ही सर्वोत्तम दर्शन समझा जाता है जो विविध धार्मिक पृष्ठभूमियों से संबंध रखनेवाले लोगों को एक सामान्जस्यपूर्ण ढंग से एक साथ रहने में मदद करेगा, और एक ऐसे राज्य की रचना करेगा जो सभी धर्मों को एक समान आदर और स्वतंत्रता प्रदान करेगा।
बोध प्रश्न 1
नोट: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए रिक्त स्थान का प्रयोग करें।
ख) अपने उत्तरों की जाँच इकाई के अन्त में दिए गए आदर्श उत्तरों से करें।
1) एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य के लिए धर्मनिरपेक्षता क्यों आवश्यक है?
2) ‘धर्मनिरपेक्षता‘ शब्द किसने दिया और यह सामान्यतः क्या इंगित करता है ?
बोध प्रश्न 1 उत्तर
आपके उत्तर में निम्नलिखित बिन्दु आने चाहिए:
1) राज्य-व्यवस्था के साथ पहचान का एक सशक्त भाव उत्पन्न करना आवश्यक है।
2) जॉर्ज जैकब होल्योक, और इसका अर्थ है
ऽ राज्य से धर्म का विलगन
ऽ हर किसी को ऐसा जीवन जीने की आजादी जिसमें तर्क, न कि धर्म, पथ-प्रदर्शक कारक हो।
ऽ भारतीय संदर्भ में लोग सामान्यतः इसे एक फलसफे के अर्थ में स्वीकारते हैं जो हमारे जैसे बहु-धर्मी समाज को सद्भावना के साथ अस्तित्व में रहने योग्य बनाता है।
भारतीय संविधान और धर्मनिरपेक्षता
भारत में धर्मनिरपेक्षता के व्यवहार की इस आधार पर अक्सर निन्दा की जाती है कि धार्मिक और अधार्मिक व्यवहारों का कोई यथातथ्य पृथक्करण सम्भव नहीं है। यद्यपि, ऐसी अतर्कसंगत स्थिति के लिए बहस करने की बजाय, यह अच्छा होगा कि धर्मनिरपेक्षता को कुछ धार्मिक और गैर-धार्मिक संस्थाओं के विभाजन के रूप में परिभाषित कर लिया जाए, जैसा कि राजीव भार्गव तर्क देते हैं। भारतीय धर्मनिरपेक्षता पर अपनी चर्चा में, वह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि जब सामाजिक-लोकतंत्र के सिद्धांतों के प्रति पूर्ण वचनबद्धता ने भारतीय संविधान-निर्माताओं को धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों को अपनाने के लिए मार्गनिर्देशित किया, बिगड़ते हुए हिन्दू-मुस्लिम संबंध और (भारत-पाक) विभाजन के तत्कालीन प्रसंग ही वे प्रमुख कारक थे जिन्होंने हमारे धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के अंगीकरण को प्रभावित किया। भार्गव यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि भारत में बोस्निया जैसा नरक बनने से बचाने के लिए धर्मनिरपेक्ष संस्थाएँ आवश्यक हैं, यानि ये न सिर्फ धर्मान्धता पर नियन्त्रण रखने के लिए आवश्यक हैं वरन् यह भी सुनिश्चित करने के लिए हैं कि धार्मिक सम्प्रदायों के बीच विवाद, जो आवश्यक नहीं कि धर्म को लेकर ही हो, एक निश्चित सीमा को पार न करें जिससे कि यह विकृति आज यूरोप के कुछ भागों में देखे जा सकने वाले भवावह दृश्यों के रूप में न उभरें।
यह ऐसी घोर विपत्तियों से बचने के लिए ही था कि भारतीय राज्य ने धर्म पर आधारित पृथक निर्वाचन क्षेत्र बनाना, धार्मिक समुदायों के लिए चुनाव क्षेत्र एवं काम आरक्षित करना, धर्म के आधार पर नौकरियाँ आरक्षित करना और धर्म के आधार पर ही भारतीय संघ के राज्यों का संघटन करना आदि प्रक्रियाएँ बड़ी सफाई से परिचालित की। इस प्रकार साम्प्रदायिक विवाद से बचने एवं (भारत-पाक) विभाजन जैसी स्थिति की पुनरावृत्ति रोकने के लिए राज्य-संस्थाओं से धर्म वर्जित हो गया।
इन्हीं निर्देश-सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए, धर्म को सांस्कृतिक आयात के मामलों में एक दिशा-निर्देश के रूप में शामिल कर लिया गया। इन उदाहरणों में से, वास्तव में, सर्वाधिक उल्लेखनीय है- अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों को पृथक् अधिकारों का दिया जाना, ताकि वे गरिमापूर्ण तरीके से रह सकें। यह बात उभरकर आई कि अधिकारों के बिल्कुल एकसमान घोषणा-पत्र पर जोर देना न तो वांछित था, न ही राष्ट्रीय अखण्डता के लिए आवश्यक । इस प्रकार धर्मनिरपेक्षता भारत में न सिर्फ सम्प्रदायों के बीच भाई-चारा बढ़ाने के लिए, बल्कि भारत में आम जीवन की संरचना की रक्षा करने के लिए भी, अंगीकृत की गई। बहु-विवाह अथवा बाल-विवाह को गैर-कानूनी बनाने अथवा दलितों को हिन्दू मन्दिरों में प्रवेश करने के अधिकार दिलाने के भारतीय राज्य के प्रयासों को हमें इसी आलोक में देखना चाहिए। भारत की धर्मनिरपेक्षता के आलोचक अक्सर हिन्दुवाद में हस्तक्षेप को अनुमति देने एवं इसके कुछ दमनकारी सामाजिक कृत्यों के लिए भारतीय व्यवस्था की निन्दा इस आधार पर करते हैं कि राज्य के ऐसे कदम एक सच्चे धर्मनिरपेक्ष राज्य की नीतियों के विरुद्ध जाएँगे, अथवा इस आधार पर कि हिन्दू सामाजिक प्रथाओं में ऐसे हस्तक्षेप की तुलना अन्य समुदायों की सामाजिक प्रथाओं में इसी प्रकार के हस्तक्षेपों से की जानी चाहिए। सामाजिक-धार्मिक समूहों के अधिकारों की रक्षा भी सच्ची धर्मनिरपेक्ष पद्धति से विचलन के रूप में व्याख्या की जाती है, जो कि आलोचकों के अनुसार, व्यष्टि में अधिष्ठापित है।
पूर्ववर्ती चर्चा के आधार पर यह आभास हो सकता है कि जैसे धर्मनिरपेक्षता न्यायसंगत है, और कुछ परिस्थितियों विशेष में पृथक् की गई नागरिकता की प्रतिरक्षा और धार्मिक समूहों के अधिकारों को भी यह अभिप्रेरित करती है। इसके अलावा, यह स्पष्ट है कि राज्य की धर्मनिरपेक्षता को हमेशा बीच-बचाव, अहस्तक्षेप अथवा धार्मिक समूहों से समान-दूरी की नीतियों से दूर रखने की आवश्यकता नहीं होती, जैसा कि हुआ करता है। अन्य शब्दों में, एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की व्याख्या ऐसे राज्य के रूप में की जा सकती है जो धर्म से एक सैद्धान्तिक दूरी रखता है। भारतीय धर्मनिरपेक्षता इस धारणा पर आधारित है कि राज्य धर्म से एक सैद्धांतिक दूरी तो बना कर रखेगा, मगर जब आवश्यकता होगी तो धार्मिक मामलों से उठने वाले विषयों पर स्वयं ही सम्बोधन देगा। बहरहाल, मौलिक नियम यह रहेगा कि दूर रहने और हस्तक्षेप करने, दोनों ही के लिए तर्क हमेशा असम्प्रदायिक होंगे। भारतीय राज्य को धर्मनिरपेक्षता के व्यवहार में यह समस्या है कि वह उत्तरोत्तर रूप से साम्प्रदायिक हितों के लिए दिखावा करता रहा है।
स्वतंत्रताप्राप्ति के समय भारत एक आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर लोकतंत्र के निर्माण के लिए नए एवं चुनौतीपूर्ण प्रयास की ओर बढ़ता हुआ एक ऐसा देश था जो अपने सभी नागरिकों को एक नजर से देखता था। इस उद्यम के एक भाग के रूप में, भारत ने धर्मनिरपेक्षता का प्रण लिया, जिसको धर्म के आधार पर द्वि-शहर सिद्धांत तथा पाकिस्तान का जन्म के परिप्रेक्ष्य में कहीं अधिक महत्त्व मिल गया। सन्देश यही था कि भारत अपनी नागरिकता और राष्ट्रीयता का निर्माण धार्मिक पहचान के आधार पर नहीं करेगा। एक भारतीय होने का अर्थ था राष्ट्रीय आन्दोलन के आदर्शों और संविधान निर्माताओं की लोकतान्त्रिक परिकल्पना के प्रति वचनबद्ध होना।
डोनाल्ड यूजीन स्मिथ “इण्डिया एज ए सैक्यूलर स्टेट‘ शीर्षक से अपने उत्कृष्ट विश्लेषण में धर्मनिरपेक्ष राज्य की एक ऐसे रूप में परिभाषित करते हैं जो प्रत्येक व्यक्ति व समष्टि को धार्मिक स्वतंत्रता की सुनिश्चितता प्रदान करता है, हर व्यक्ति को नागरिक मानता है चाहे उसका धर्म जो भी हो, किसी धर्म विशेष से संवैधानिक रूप से सम्बद्ध नहीं होता है, न ही धर्म को प्रोत्साहन देने अथवा उसमें हस्तक्षेप करने की चेष्टा करता है। विशेषतः यह बात दिलचस्प है कि ‘‘धर्मनिरपेक्ष‘‘ शब्द का भारतीय संविधान में मौलिक रूप से स्थान ही नहीं था, यद्यपि संविधान सभा के एक सदस के.टी. शाह ने दो अवसरों पर इस शब्द को पेश करने का प्रयास किया। काफी बाद में, 1976 में बयालिसवें संशोधन के एक अंग के रूप में यह हुआ कि ‘‘धर्मनिरपेक्ष‘‘ शब्द भारतीय संविधान की प्रस्तावना में शामिल कर लिया गया।
‘‘धर्मनिरपेक्ष‘‘ शब्द को समाविष्ट करने की संविधान सभा की अनिच्छा के बावजूद, संविधान के प्रावधानों के एक सर्वेक्षण के अनुसार, राज्य धर्म से अलग रहेगा और सभी मतों के मानने वाले नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता सुनिश्चत करेगा, जबकि धर्म के आधार पर किसी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं बरता जाएगा। इस प्रकार भारतीय संविधान, मौलिक अधिकारों के अध्याय में, अनुच्छेद 25-28 के माध्यम से धर्म की व्यक्तिगत व सामूहिक, दोनों, स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है। इसी अध्याय में, अनुच्छेद 15 व्यवस्था देता है कि राज्य किसी के प्रति भेदभाव नहीं करेगा, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, लिंग, प्रजाति और जन्म-स्थान का हो । अनुच्छेद 16 यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी भारतीय नागरिक से धर्म के आधार पर सार्वजनिक रोजगार के मामलों में भेदभाव नहीं किया जाएगा।
अनुच्छेद 25, धर्मज्ञान की स्वतंत्रता और किसी भी धर्म का मुक्त रूप से प्रचार करने, उसकी दीक्षा लेने और आचरण करने के अधिकार को सुनिश्चित करता है। आपको विदित होगा कि अभी हाल ही में धार्मिक मिशनरियों पर हिंसात्मक हमलों ने इस अधिकार का आधार ही बदल दिया है। इस हिंसा के दुर्भाग्यशाली शिकार अल्पसंख्यक थे, विशेषतः ईसाई। आशय यह लगता है कि हिन्दूवाद ही भारतीय कौम का सबसे प्रामाणिक धर्म है, और अन्य सभी धर्मों की उपस्थिति, खासकर जो विदेशी मूल के हैं, से भारत की राष्ट्रीयता को खतरा है। ऐसा तर्क, जाहिर है, एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की मौलिक अवधारणाओं के विरुद्ध है जो कि हमारा संविधान भारत में स्थापित करना चाहता है।
अनुच्छेद 27 एवं 28, इसके आगे, धर्म की वैयक्तिक स्वतंत्रता को मजबूती प्रदान करते हैं- किसी धर्म विशेष को समर्थन देने के उद्देश्य से करारोपण पर रोक लगाकर और मान्यताप्राप्त अथवा राज्य द्वारा सहायताप्राप्त संस्थानों में धार्मिक शिक्षा पर रोक लगाकर। अनुच्छेद 28 सभी धर्मों को न्यास व संस्थान, खोलने और सम्पत्ति अर्जित करने व अपने निजी मामलों को निबटाने की स्वतंत्रता देता है।
अनुच्छेद 325 एवं 326, धर्म, प्रजाति व लिंग के आधार पर निर्वाचन व प्रतिनिधित्व क्षेत्र में नागरिकों के बीच भेदभावहीनता का सिद्धांत प्रदान करता है। भारत में कोई राज्य-धर्म नहीं है, न ही यह बहुसंख्यकों के धर्म को कोई संवैधानिक मान्यता प्रदान करता है, जबकि वास्तव में तथ्य यही है कि भारत सरकार के पास कोई पुरोहितीय विभाग है ही नहीं। ये सभी तथ्य मिलकर मोटे तौर पर यही प्रदर्शित करते हैं कि भारतीय संविधान ने कांग्रेस पार्टी और उसके 1931 में कराची सत्र में किए गए संकल्प ‘‘कि राज्य सभी धर्मों के विषय में तटस्थता अपनाएगा‘‘, का काफी हद तक पालन किया है। संवैधानिक प्रावधानों का एक सर्वेक्षण बहुत स्पष्ट रूप से एक धर्मनिरपेक्ष राज्य (कुछ असंगतियों के बावजूद) की संरचना का सुझाव देता है, यद्यपि, राजनीति, भारतीय राज्य का स्वभाव और कार्यप्रणाली इस संरचना से दूरी कायम रखने का सुझाव देते लगते हैं। एक आम-सहमति कि जवाहरलाल नेहरू इसका, और आर्थिक स्वावलम्बन, समतावाद और गुटनिरपेक्षता (विदेश-नीति के क्षेत्र में) जैसे अन्य सिद्धांतों का रास्ता गढ़ सकते थे, टूट गई लगती है। तब भारतीय अनुभव के साथ ऐसी क्या बात हो गई और यह क्यों हुआ, यह अगला प्रश्न है जो हम अब देखेंगे।
बोध प्रश्न 2
नोट: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए रिक्त स्थान का प्रयोग करें।
ख) अपने उत्तरों की जाँच इकाई के अंत में दिए गए आदर्श उत्तरों से करें।
1) अनुच्छेद 25-28 के प्रावधानों की चर्चा करें और दर्शाएँ कि कैसे वे भारतीय राज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को सुनिश्चित करते हैं?
2) अनुच्छेद 325 व 326 के प्रावधानों की चर्चा करें।
बोध प्रश्न 2.उत्तर
आपके उत्तर में निम्नलिखित बिन्दु आने चाहिए:
1) अनुच्छेदों के प्रावधानों की चर्चा और इन अधिकारों पर वर्तमान विवाद का संदर्भ ।
2) अनुच्छेदों के प्रावधानों की चर्चा, दोनों ही उत्तरों में एक धर्मनिरपेक्ष राज्य-व्यवस्था में ऐसे अधिकारों को रखने की आवश्यकता पर चर्चा हो।
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
धर्मनिरपेक्षता: अर्थ एवं परिभाषा
भारतीय संविधान और धर्मनिरपेक्षता
धर्मनिरपेक्षता को साम्प्रदायिक चुनौतियाँ
राष्ट्रीय आन्दोलन का स्वभाव
चुनावीय राजनीति और लोकतंत्रीय संस्थाओं का पतन
पूँजीपति विकास का स्वभाव और भारतीय शासक वर्ग का चरित्र
धर्मनिरपेक्षता को प्रति(ंदजप)-आधुनिकतावादी चुनौती
बचाव क्या है?
सारांश
शब्दावली
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर
उद्देश्य
भारत में हाल की राजनीतिक चर्चा में काफी कुछ धर्मनिरपेक्षता के विषय में कहा गया है, जीवन और राजनीति के एक धर्मनिरपेक्ष तरीके के तीव्र समर्थन से लेकर, ये दलीलें धर्मनिरपेक्ष आदर्शों व राजनीति की पूर्ण भर्त्सना तक गई हैं। एक प्रकार से आज यह चर्चा भारतीय राजनीति की धड़कन है। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप इस योग्य होंगे कि:
ऽ धर्मनिरपेक्षता का अर्थ एवं ऐतिहासिक महत्त्व समझें,
ऽ धर्मनिरपेक्षता की चुनौतियों को पहचानें, और
ऽ इन धमकियों से निबटने के लिए कोई रणनीति तैयार कर सकें।
प्रस्तावना
धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, समानता और स्वतंत्रता के आदर्शों के प्रति वचनबद्धता के साथ अंग्रेजी उपनिवेशवाद के विरुद्ध लड़ने के लिए हमारी जनता के एक बड़े हिस्से को प्रेरणा देने वाले कुछ मूलभूत सिद्धांतों में से एक रहा है। आजादी के बाद, ये मूल्य हमारे संविधान द्वारा पोषित हुए, अतः राज्य को इन सिद्धांतों को कायम रखने का आदेश मिला। जब हम अपने समाज को करीब से देखते हैं तो पाते हैं इन आदर्शों का निरन्तर अवमूल्यन, जैसा कि इन्हें विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक विकासों की चुनौती है। हमारे विषमांगी समाज के लिए धर्मनिरपेक्षता निरूशंक सबसे अधिक प्रिय सिद्धांत है। यद्यपि, यह भी है कि इसको साम्प्रदायिक ताकतों द्वारा बुरी तरह ललकारा जा रहा हैं युद्ध-रेखाएँ स्पष्टतः उनके बीच खिंची हैं जो एक लोकतान्त्रिक समाज के लिए खड़े हैं और वे जिनके लिए लोकतंत्र अनावश्यक है। धर्मनिरपेक्षता लोकतंत्र के प्रति वचनबद्धता का एक हिस्सा है और इसलिए वह रक्षा किए जाने और उसके लिए लड़े जाने योग्य है।
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