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मध्यकालीन भारत में विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में उपलब्धियों की व्याख्या करें , science and technology in medieval india in hindi
science and technology in medieval india in hindi मध्यकालीन भारत में विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में उपलब्धियों की व्याख्या करें ?
मध्यकालीन भारत में वैज्ञानिक विकास
मध्यकाल के दौरान भारत में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी दो रूपों में विकसित हुआ (i) पहले से चली आ रही विज्ञान परम्परा पर आगे बढ़ने का माग्र; और (ii) इस्लामी एवं यूरोपीय प्रभाव के परिणामस्वरूप उत्पन्न नए प्रभावों के आत्मसात्करण द्वारा। जैसाकि आप जागते हैं कि मध्यकाल भारत में मुस्लिमों के आगमन का संकेत देता है। इस समय तक, परम्परागत स्वदेशी शास्त्रीय अधिगम पहले ही ध्वस्त हो चुका था। अरब देशों में व्याप्त शिक्षा प्रतिरूप को धीरे-धीरे इस समयावधि के दौरान अपना लिया गया। परिणामस्वरूप मकतब एवं मदरसे अस्तित्व में आए। इन शैक्षिक संस्थानों को राजसी संरक्षक प्राप्त हुए। कई जगहों पर मदरसों की एक शृंखला खोली गई। दो भाईयों,शेख अब्दुल्ला एवं शेख अजीजुल्लाह, जो तर्क विज्ञान में विशेषज्ञ थे, सम्भल और आगरा के मदरसों के अध्यक्ष बना, गए। देश में मौजूद प्रतिभा के अतिरिक्त, अरेबिया, पर्सिया और मध्य एशिया से भी विद्वानों को मदरसों में शिक्षा की जिम्मेदारी संभालने के लिए आमंत्रित किया गया।
मुस्लिम शासकों ने प्राथमिक स्कूलों के पाठ्यक्रम में सुधार के भी प्रयास किए। गणित, क्षेत्रमिति, ज्यामिति, खगोलशास्त्र, लेखांकन, लोक प्रशासन और कृषि जैसे कुछ महत्वपूर्ण विषयों को प्राथमिक शिक्षा में अध्ययन के लि,शामिल किया गया। यद्यपि शासकों ने शिक्षा में सुधारों को करने के लिए विशेष प्रयास किए, तथापि विज्ञान विषयों पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया। भारतीय पारम्परिक वैज्ञानिक संस्कृति और अन्य देशों में मौजूदा विज्ञान की व्याप्त मध्यकालीन उपागम के बीच एक प्रकार का तारतम्य बैठाने का प्रयास करना था। शाही घरानों एवं सरकारी विभागों तक सामान, जरूरी वस्तुएं एवं उपकरणों की आपूर्ति के लिए बड़े-बड़े वर्कशाॅप्स, जिन्हें कारखाना कहा जाता था, का प्रबंधन किया गया। कारखानों ने न केवल विनिर्माण अभिकरण के तौर पर काम किया, अपितु युवाओं को तकनीकी एवं व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रदान करने का भी केंद्र बन गया। कारखानों ने प्रशिक्षित करके विभिन्न क्षेत्रों में कलाकार एवं दस्तकारों को तैयार किया, जिन्होंने बाद में स्वयं के स्वतंत्र कारखाने स्थापित किए।
भारत में मुस्लिम शक्ति के सशक्त होने के साथ-साथ भारत के शिक्षा ताने-बाने में धीरे-धीरे एक नया पैटर्न स्थापित होने लगा। शैक्षिक प्रेरणा और प्रतिरूप पश्चिम एशिया में अग्रणी इस्लामी सांस्कृतिक केंद्रों से आई। बगदाद मंे गिजामिया का प्राचीन काॅलेजए जहांएक समय मंे अल-गाजली नामक दार्शनिक पढ़ाते थे, ने एक पाठ्यक्रम प्रस्तुत किया जिसे व्यापक तौर पर सिलसिले गजामिया के नाम से जागा जाता है। इस पाठ्यक्रम के अनुसार पढ़ा, जागे वाले विषयों में व्याकरण, काव्यशास्त्र, तर्क, साहित्य, दर्शन, गणित, तत्वमीमांसा और विधि शामिल हैं। दर्शन ने ज्ञान की दो महत्वपूर्ण शाखाओं मीमांसा और तत्वमीमांसा, जो अरस्तु के सिद्धांतों पर आधारित थी, और गणित जिसमें बीजगणित, ज्यामिति और अंकगणित के अतिरिक्त, खगोलशास्त्र, विशेष रूप से टाॅलेमी की भूकेंद्रीय पद्धति,शामिल था, को गले लगाया। इन विषयों को शिक्षा के माध्यमिक और उच्च स्तरों पर लिया गया, जबकि प्राथमिक चरण के निर्देश में, जैसाकि सार्वभौमिक रूप से सभी जगह था, इसे पढ़ना, लिखना एवं प्रारंभिक गणित तक सीमित रखा गया। स्कूलों एवं काॅलेजों में सामान्य तौर पर तकनीकी शिक्षा नहीं दी जाती थी। तकनीकी शिक्षा विशिष्ट संस्थानों और औद्योगिक कर्मशालाओं (कारखानों) में दी जाती थी।
मध्यकाल में गणित विषय
मध्यकालीन भारत में गणित के क्षेत्र में कई पुस्तकें लिखीं गईं। नारायण पंडित, जो नरसिम्हा देवजना के पुत्र थे, गणित में अपने सुप्रसिद्ध कार्य गणित-कौमुदी आरै बीजगणित वत्तम्सा के लिए जागे जाते है। गुजरात में गंगाधर ने लीलावती कर्मदीपिका, सु)ांत दीपिका, और लीलावती व्याख्या कृतियों की रचना की। ये प्रसिद्ध रचनाएं थीं जिन्होंने क्षेत्रमिति के नए नियम स्थापित किए। नीलकांथा सोमसुतवन ने तंत्रसमगृह का लेखन किया, जिसने भी क्षेत्रमिति कार्यरूप के नियमों का संकलन किया।
गणेश देवजना ने बुद्धिविलासिनी की रचना की जो लीलावती पुस्तक पर टिप्पणी प्रस्तुत करती है और इसमें बड़ी संख्या में उद्धरण दिए गए हैं। वलहला परिवार के कृश्ण ने नवनकुरा कृति का लेखन किया जो भास्कर-प्प् के बीजगणित का विस्तार है और प्रथम एवं द्वितीय क्रमों के अनिर्धार्य समीकरणों के नियमों का विस्तार करता है। नीलकांथा ज्योतिर्विद ने ताजिक का संकलन किया जिसमें बड़ी संख्या में फारसी तकनीकी शब्दों (VElZ) को प्रस्तुत किया गया है। अकबर के शासनकाल में फैजी ने भास्कर की बीजगणित का अनुवाद किया। अकबर ने शिक्षा तंत्र में अन्य विषयों के साथ गणित को भी अध्ययन का एक विषय बनाने का आदेश दिया। नासिरु-उद-द्दीन-ए-तुसी गणित के एक अन्य विद्वान थे।
जीव विज्ञान
मध्यकाल में जीव विज्ञान के क्षेत्र में भी उन्नति हुई थी। 13वीं शताब्दी में हम्सदेव ने मग्र-पाक्सी.सस्त्र शीर्षक से जीव विज्ञान के क्षेत्र में विशिष्ट कार्य का संकलन किया। इसने, यद्यपि हमेशा वैज्ञानिक नहीं, कुछ जागवरों एवं पक्षियों के आखेट का सामान्य वर्णन प्रस्तुत किया। मुस्लिम शासकों ने, जो योद्धा एवं शिकारी थे, घोड़ों, कुत्तों, चीता एवं बाज जैसे कुछ जागवरों के आखेट की सूची तैयार की। घरेलू एवं जंगली दोनों ही प्रकार के जागवरों का वर्णन किया गया है। बाबर और अकबर दोनों ने राजनीतिक गतिविधियों एवं युद्ध में व्यस्त होते हुए भी कार्य के अध्ययन का समय निकाला। अकबर ने हाथी एवं घोड़े जैसे घरेलू जागवरों की अच्छी नस्ल पैदा करने में विशेष रुचि प्रकट की। जहांगीर ने अपनी पुस्तक तुजुक-ए-जहांगीरी में जागवरों की नस्ल सुधार एवं वर्ण संकर के प्रयोगों एवं विश्लेषण को दर्ज किया है। उसने जागवरों की लगभग 36 जातियों का वर्णन किया है। जहांगीर के दरबारी कलाकार, विशिष्ट रूप से, मंसूर, ने जागवरों की सटीक एवं भव्य तस्वीर प्रस्तुत की है। इनमें से कुछ कृतियों को अभी भी कई संग्रहालयों एवं गिजी संग्रहों में सुरक्षित रखा गया है। प्रकृति प्रेमी होने के कारण, जहांगीर की रुचि पादपों के अध्ययन में भी थी। उनके दरबारी कलाकारों ने अपनी फूल चित्रकारी में लगभग 57 पादपों को चित्रित किया।
रसायन विज्ञान
क्या आप जागते हैं कि मध्यकाल में कागज का प्रयोग शुरू हो गया था? कागज के उत्पादन में रसायन विज्ञान का एक महत्वपूर्ण अनुप्रयोग था। कश्मीर, सियालकोट, जाफराबाद, पटना, मुर्शिदाबाद, अहमदाबाद, औरंगाबाद एवं मैसूर कागज उत्पादन के सुप्रसिद्ध केंद्र बने। पूरे देश में कागज निर्माण तकनीक पूर्णतः या आंशिक रूप से एक समान थी केवल विभिन्न प्रकार के कच्चे माल से लुगदी तैयार करने की पद्धति भिन्न-भिन्न थी।
मुगल गनपाउडर के उत्पादन की तकनीक जागते थे। शुक्राचार्य की शुक्रनीति में साल्टपीटर, सल्फर और चारकोल के विभिन्न अनुपात में प्रयोग कर गनपाउडर बनाने की विधि का वर्णन है जिसका प्रयोग विभिन्न प्रकार की बंदूकों में किया जाता था। मुख्य पटाखों में ऐसे पटाखे शामिल थे, जो हवा में फटते थे, आग की ज्वाला पैदा करते थे, विभिन्न रंगों में जलते थे और विस्फोट के साथ फटते थे। आइने-अकबरी पुस्तक ने अकबर के इत्र विभाग के विनियमन का वर्णन किया है। गुलाब का इत्र सर्वाधिक लोकप्रिय था, जिसकी खोज, समझा जाता है कि नूरजहां द्वारा की गई।
खगोलशास्त्र
खगोलविज्ञान एक अन्य क्षेत्र था जो इस काल में फला-फूला। खगोल विज्ञान में, पहले से स्थापित खगोलकीय विचारों पर बड़ी संख्या में टीका-टिप्पणी की गई। महेन्द्र सूरी ने, जो मुस्लिम शासक फिरोज शाह के दरबारी खगोलशास्त्री थे, एक खगोलीय यंत्र ‘यंत्रजा’ विकसित किया। परमेश्वर एवं महाभास्कर्या, दोनों ही केरल में थे, खगोलशास्त्रियों एवं पंचांग या जंतरी-निर्माताओं के प्रसिद्ध परिवार थे। नीलकांथा सोमसुतवन ने आर्यभट्ट पर टिप्पणी लिखी। कमलाकर ने इस्लामी खगोलशास्त्रीय विचारों का अध्ययन किया। वह इस्लाम के ज्ञान के प्रसिद्ध विद्वान थे। जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह-प्प् खगोलविज्ञान के संरक्षक थे। उन्होंने दिल्ली, उज्जैन, वाराणसी, मथुरा एवं जयपुर के खगोलशास्त्रीय प्रेक्षणशालाओं की स्थापना की।
औषधि विज्ञान
आयुर्वेद औषधि पद्धति राजसी संरक्षण के अभाव में उतने जोरदार ढंग से विकास नहीं कर सकी जिस तरह से प्राचीन काल में इसकी प्रगति हुई। हालांकि, वांगसेन द्वारा सारंगधारा संहिता और चिकित्सासमग्र, तथा भवमिश्रा द्वारा भवप्रकाश एवं यगरात बाजरा जैसी आयुर्वेद पर कुछ महत्वपूर्ण कृतियों की रचना की गई। सारंगधारा संहिता तेरहवीं शताब्दी में लिखी गई जिसमें अफीम के औषधीय गुणों तथा नैदानिक उद्देश्य से मूत्र परीक्षण या जांच में इसके उपयोग का वर्णन किया गया है। उल्लिखित दवाओं में रसचिकित्सा पद्धति से धात्विक निर्माण और यहां तक कि आयतित दवाओं का वर्णन शामिल है।
रसचिकित्सा पद्धति, प्रधानतः खगिज औषधियों के साथ संव्यवहार करती है जिसमें पारदमय एवं गैर-पारदमय दोनों औषध शामिल हैं। चिकित्सा की सिद्धा पद्धति मुख्य रूप से तमिलनाडु में विकसित हुई जिसमें खगिज तत्वों से समृद्ध औषधियां शामिल हैं।
मध्यकाल के दौरान औषध की यूनानी तिब्ब पद्धति का विकास हुआ। अली-बिन-रब्बान ने अपनी पुस्तक फिरदौसू-हिकमत में यूनानी औषध एवं भारतीय चिकित्सा दोनों का समग्र ज्ञान संकलित किया। भारत में यूनानी औषध का पदार्पण मुस्लिमों के आगमन के साथ लगभग गयारहवीं शताब्दी में हुआ और इसे जल्द ही अपने विकास के लिए संरक्षक मिल गया। हाकिम दिया ने मजिने-ए-दिये नामक पुस्तक का संकलन किया जिसमें उन्होंने अरबी, फारसी एवं आयुर्वेदिक चिकित्सा ज्ञान को समाहित किया। फिरोजशाह तुगलक ने तिब्बे फिरोजशाही नामक पुस्तक लिखी। तिब्बी औरंगजेब पुस्तक औरंगजेब को समर्पित थी, जो आयुर्वेदिक स्रोतों पर आधारित थी। नूरूद्दीन मुहम्मद द्वारा लिखित मुसलजाति-दाराशिकोही, जो दाराशिकोह को समर्पित थी, पुस्तक में यूनानी औषध एवं समग्र आयुर्वेदिक पदार्थों के औषधीय तत्वों का वर्णन किया गया है।
कृषि विज्ञान
मध्यकालीन भारत में, कृषि कार्य की पद्धति एवं तरीका कम या अधिक प्राचीन भारत में कृषि पद्धति जैसी थी। विदेशी व्यापारियों द्वारा लाई गई नवीन फसलों, पेड़-पौधों एवं बागवानी पादपों से कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इस समय की प्रधान फसलों में गेहूं, चावल, जौ, मक्का, तिलहन, दलहन, कपास,गन्ना एवं नील शामिल थीं। पश्चिमी घाटा निरंतर अच्छी गुणवत्ता की काली मिर्च पैदा करता रहा और कश्मीर ने केसर एवं फल उत्पादन की अपनी परम्परा को बना, रखा। तमिलनाडु से अदरक एवं बड़ी इलायची, और केरल से इलायची, चंदन की लकड़ी एवं नारियल तेजी से लोकप्रिय हुए। भारत में सोलहवीं एवं सत्रहवीं शताब्दियों के दौरान प्रस्तुत तंबाकू, मिर्च, आलू, नाशपाती, सेब, काजू एवं अन्नानास महत्वपूर्ण पौधे थे। मध्यकाल में ही मालवा एवं बिहार क्षेत्र में अफीम का उत्पादन शुरू हुआ। अपनाई गई उन्नत बागवानी पद्धतियों से बेहद सफलता प्राप्त हुई। शाही मुगल बागान वे उपयुक्त स्थान थे जहां फलदार वृक्षों की व्यापक खेती होती थी।
इस दौरान सिंचाई के लिए कुएं, तालाब, गहर, राहत, चरस एवं धेंकली चरस का इस्तेमाल होता था। आगरा क्षेत्र में फारसी पहिए का उपयोग होता था। मध्यकाल में, कृषि की मजबूत नींव रखी गई। राज्य द्वारा भूमि नपाई एवं भूमि वर्गीकरण की एक वैज्ञानिक पद्धति चालू की गई, जो शासकों ,वं जोतदारों दोनों के लिए लाभदायी थी।
तकनीकी शिक्षा
मध्यकालीन भारत के विनिर्मित वस्तुओं की उत्कृष्टता में सूती एवं सिल्क के मगधेहक परिधान, कढ़ाई युक्त टोपी, चित्रित बर्तन, कप एवं कटोरे, इस्पात की बंदूकें, चाकू, कैंची, सफेद कागज, सोने एवं चांदी के आभूषण इत्यादि सुप्रसिद्ध हैं। यह उत्कृष्टता तकनीकी शिक्षा पर निर्भर तंत्र के अभाव में सदियों तक प्राप्त एवं सुव्यवस्थित नहीं रखी जा सकती है। घरेलू एवं गिजी शिक्षा पद्धति में उस्ताद एक महत्वपूर्ण धुरी होता था और अपनी प्रसिद्धि एवं विशेषज्ञता के आधार पर पास एवं दूर से प्रशिक्षुओं को आकर्षित करता था। अधिकतर मामलों में प्रशिक्षु को एक घर के सदस्य के रूप में उस्ताद के घर में रहना पड़ता था, और यह व्यवस्था बिल्कुल प्राचीन काल में पाई गई व्यवस्था के कम या अधिक तौर पर समान थी। पुस्तैनी हुनर की स्थिति में पिता स्वयं अपने पुत्र का उस्ताद और शिक्षक होता था, जबकि माता अपनी पुत्री को इस प्रकार का हुनर सिखाने की जिम्मेदारी उठाती थी। पिता और पुत्र के बीच में रक्त संबंधों का प्राकृतिक लाभ था कि पिता अपने पुत्र को व्यापार के सभी रहस्यों में प्रशिक्षित करता था और उसका पुत्र भी निःसंदेह उसके जैसा निपुण उस्ताद बनता था लेकिन इसका नुकसान भी हुआ। नवाचार की शैली का हृास हुआ और प्रतिस्पर्धात्मकता का निरंतर पतन हुआ। उपकरणों के उच्च रूप से विशिष्टीकृत व्यापार में, हमने लाहौर में एस्ट्रोलेबल बनाने वाले परिवार के बारे में सुना है। शेख अल्लाह-दाद, उनके बेटे मुल्ला इसा, उनके बेटे कैम मुहम्मद, और उनके बेटे जियाउद्दीन मुहम्मद चार पीढ़ियों से निरंतर भारत एवं विदेश दोनों में खगोलशास्त्रीय क्षेत्र में उत्कृष्ट एस्ट्रोलेबल्स की भारी मांग को पूरा कर रहे थे।
प्राचीन शिक्षक-प्रशिक्षु तंत्र के साथ-साथ, विनिर्माण अवस्थापनाएं, जिन्हें कारखाना कहा जाता था, ने धीरे-धीरे अपने विशिष्ट क्षेत्र में तकनीकी शिक्षा प्रदान करने की जिम्मेदारी संभाल ली। मुस्लिम शासकों ने सामान्य तौर पर एक लोक निर्माण विभाग या सूरत-ए-अम का प्रबंधन किया और इसका एक कार्य ऐसी कार्यशालाओं की निगरानी और मदद करना था जो औद्योगिक प्रशिक्षण गतिविधियों में लिप्त थीं। प्रत्येक कर्मशाला में कई विभाग थे जिनमें बड़ी संख्या में मैकेनिक्स और कलाकार थे।
बर्नियर ने बड़ी संख्या में कर्मशालाओं को देखा और इनके कार्य के क्रम में इनका विविध वर्णन प्रस्तुत किया। प्रशिक्षुओं को ऐसे स्थानों पर एक व्यापक पसंद मिलती थी। वे अपना प्रशक्षिण छोटी आयु से शुरू कर सकते थे। सल्तनत काल एवं महान मुगलों ने जोशीले तरीके से कारखानों एवं उनकी सम्बद्ध तकनीकी शिक्षा पद्धति का समर्थन किया। फिरोज ने उद्योग का एक नियमित विभाग बनाया और अपने गुलामों की तकनीकी शिक्षा में विशेष व्यक्तिगत रुचि दिखाई।
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