हिंदी माध्यम नोट्स
संस्कारवान का अर्थ किसे कहते हैं ? संस्कारवान की परिभाषा क्या है मतलब sanskarwan in hindi
sanskarwan in hindi meaning definition संस्कारवान का अर्थ किसे कहते हैं ? संस्कारवान की परिभाषा क्या है मतलब ?
संस्कृति एवं संस्ंस्कार
हिंदी शब्द सागर में संस्कृति शब्द के जो अर्थ दिए गए हैं, वे सभी शारीरिक और मानसिक संस्कार के सूचक हैं। भाव यह है कि संस्कृति शब्द एक ओर बाह्य परिष्कार का अर्थ बोधक है तो दूसरी ओर आंतरिक परिष्कार का। संस्कृति के नैर्वचनिक अर्थ से ज्ञात होता है कि संस्कृति में परिष्कार (संस्क्रिया) का भाव सन्निविष्ट है। गौरतलब है कि परिष्कार अपनी क्रिया के साथ ही समाप्त हो जागे वाला कार्य व्यापार नहीं है, अपितु सर्जन-प्रक्रिया है। संस्कृति के निर्वचनमूलक अर्थ के पश्चात् संस्कृति शब्द प्रयोग की परम्परा और दिशा का भी विचार कर लेना प्रासंगिक होगा।
संस्कृति शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग यजुर्वेद में उपलब्ध है जहां पर इससे अभिप्राय संस्कारों की वरीयता एवं वरणीयता है। अर्थात् मनुष्य के लिए जो वरणीय है, काम्य है, वह संस्कृति का अंग है। ‘‘ऐतरेय ब्राह्मण’’ में मनुष्य की अंतःकरण की शुद्धि को ही संस्कृति कहा गया है।
संस्कृति की चरितार्थता संस्कार में है और यह संस्कार बाह्य की अपेक्षा आभ्यांतरिक अधिक है। यदि संस्कारों का संबंध मन की गहराइयों से नहीं होगा तो वे केवल बाह्याडम्बर ही होंगे और उनकी वास्तविकता शीघ्र ही लोगों पर प्रकट हो जाएगी। जब हम किसी व्यक्ति को संस्कारवान कहते हैं तो उसका अभिप्राय होता है कि वह व्यक्ति सदाशय, सद्भावपूर्ण, सच्चरित्रा और समाज के प्रति उत्तरदायी है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि संस्कार एक प्रकार से आंतरिक गुणों के आधारबीज हैं, बाह्य प्रदर्शन के वस्तु-व्यापार नहीं।
प्रकृत अवस्था में मनुष्य पशु के समान है और वह प्रकृत वृत्तियों से संचालित होता है। प्रकृति वृत्तियों से प्रेरित आचरण के परिष्कार की सतत् आवश्यकता बनी रहती है अन्यथा समाज का संगठन ही छिन्न-भिन्न हो जाए। प्रकृत वृत्तियों का यह परिष्कार ही संस्कृति की प्रक्रिया है। प्रकृत अवस्था से ऊध्र्वगति की ओर मानव का पहला प्रयास ही संस्कृति का सोपान है। प्रकृत अवस्था से ऊध्र्वगमन दो स्तरों पर घटित होता है। एक लौकिक उन्नति के रूप में वस्तु जगत पर, दूसरा विचार और भाव-भूषित साहित्य, कला, संगीत, कर्तव्य-अकर्तव्य, पाप-पुण्य-आश्रित नैतिकता तथा सत्य, प्रेम, क्षमा, दया आदि अत्यधिक गुणों के माध्यम से मानसिक जगत पर। इस प्रकार संस्कृति के स्वरूप की अवधारणा के मूल में मानव सोच के दो आयाम हैं (1) लौकिक उन्नति का आयाम (2) नैतिक और पारमार्थिक मूल्यों का आयाम।
संस्कारों का मुख्य उद्देश्य है व्यक्ति को संस्कारित कर समाज को सुखी, सभ्य और शीलवान बनाना। ऐसा समाज ही व्यक्ति की अस्मिता का रक्षक हो सकता है। मनुष्य संस्कारों के माध्यम से ही समाज और राष्ट्र के प्रति एक उत्तरदायी नागरिक बन कर अपनी भूमिका निभा सकता है। अंतरात्मा का संस्कार शासकीय दंड विधान और विधि-नियमों से अधिक बली होता है। इसलिए सभ्य समाज के निर्माण में संस्कारों की उपयोगिता और भूमिका असंदिग्ध है। संस्कार ही व्यक्ति और समाज को सुसंस्कृत बनाते हैं।
स्पष्ट होता है कि संस्कृति शब्द का व्यवहार-क्षेत्र दो अर्थों में घटित होता है। एक सीमित अर्थ में और दूसरा व्यापक अर्थ में। नितांत मूर्त और भौतिक कृतियों के स्तर पर घटित संस्कृति का व्यवहार क्षेत्र सीमित है, कारण संस्कृति का यह रूप देश-काल बाधित है। मनस्तत्व, बुद्ध और आत्मा के स्तर पर घटित संस्कृति का व्यवहार-क्षेत्र व्यापक है। संस्कृति का यह रूप कालातिक्रामी है।
सप्राणता, ऊर्जात्मकता, सातत्य, सृजनात्मकता, प्रसरणशीलता, सौंदर्यमूलकता, स्वस्तिकता और अभिव्यंजकता संस्कृति के संघटक तत्व हैं तो साहित्य, सभ्यतामूलक तत्व पौराणिकता, दर्शन, नैतिक चेतना, सौंदर्य चेतना व भाषा संस्कृति की व्यंजना की चारू अभिव्यक्तियां हैं।
संस्कृति और सभ्यता के अंतर और साम्य को समझना भी आवश्यक है। मानवीय मेधा और प्राणशक्ति का विकास दो स्तरों पर घटित होता है। (क) भौतिक स्तर पर और (ख) मानसिक स्तर पर। सभ्यता मनुष्य के भौतिक स्तर (बाह्य जीवन) का विकास है तो संस्कृति मनुष्य के आंतरिक विकास का। सभ्यता और संस्कृति के अंतर को स्पष्ट करने के लिए लोक जीवन का एक छोटा-सा उदाहरण पर्याप्त होगा। यदि कोई व्यक्ति अपने सामथ्र्य और औचित्य की सीमा में व्यवस्था और सुचारूता से अपनी क्षुधा-निवृत्ति के लिए भोजन करने का उपक्रम कर रहा है तो वह सभ्यता है किंतु यदि वह अपने भोजनांश में से कुछ निकाल कर अथवा पृथक् से किसी अन्य व्यक्ति की क्षुधा-निवृत्ति के लिए भोजन जुटाकर मानसिक संतोष प्राप्त करता है, तो वह संस्कृति है।
संस्कृति एक प्रेरक शक्ति के रूप में मनुष्य के आचरण को गढ़ती है जिससे उसके सामाजिक व्यवहारों में शिष्टता एवं शालीनता झलकती है। शुद्ध सामाजिक सेवा की दृष्टि से क्रियाशील सामाजिक संस्थाओं की प्रेरक शक्ति भी संस्कृति ही है। संस्कृति मनुष्य के सामाजिक शील की संरक्षिका है। संस्कृति इस बात की कसौटी है कि हम अपनी चित्त-वृत्तियों का संस्कार कितना कर पाए हैं।
Recent Posts
सती रासो किसकी रचना है , sati raso ke rachnakar kaun hai in hindi , सती रासो के लेखक कौन है
सती रासो के लेखक कौन है सती रासो किसकी रचना है , sati raso ke…
मारवाड़ रा परगना री विगत किसकी रचना है , marwar ra pargana ri vigat ke lekhak kaun the
marwar ra pargana ri vigat ke lekhak kaun the मारवाड़ रा परगना री विगत किसकी…
राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्रोतों की विवेचना कीजिए sources of rajasthan history in hindi
sources of rajasthan history in hindi राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्रोतों की विवेचना कीजिए…
गुर्जरात्रा प्रदेश राजस्थान कौनसा है , किसे कहते है ? gurjaratra pradesh in rajasthan in hindi
gurjaratra pradesh in rajasthan in hindi गुर्जरात्रा प्रदेश राजस्थान कौनसा है , किसे कहते है…
Weston Standard Cell in hindi वेस्टन मानक सेल क्या है इससे सेल विभव (वि.वा.बल) का मापन
वेस्टन मानक सेल क्या है इससे सेल विभव (वि.वा.बल) का मापन Weston Standard Cell in…
polity notes pdf in hindi for upsc prelims and mains exam , SSC , RAS political science hindi medium handwritten
get all types and chapters polity notes pdf in hindi for upsc , SSC ,…