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सांची के स्तूप की विशेषताएं क्या हैं ? सांची का स्तूप किस जिले में है के बारे में बताइए sanchi stupa is located in which state

sanchi stupa is located in which state in hindi सांची के स्तूप की विशेषताएं क्या हैं ? सांची का स्तूप किस जिले में है के बारे में बताइए ?

उत्तर – साँची की पहाड़ी रायसेन (म.प्र.) जिला मख्यालय से 25 कि.मी. की दूरी पर ऐतिहासिक नगर विदिशा के समीप स्थित है। यहा पर तीन स्तूपों का निर्माण हुआ है। एक विशाल तथा दो छोटे स्तूप हैं। महास्तूप में भगवान बुद्ध के, द्वितीय में अशाककालीन धर्मप्रचारकों के तथा तृतीय स्तूप में बुद्ध के दो प्रमुख शिष्यों-सारिपुत्र तथा महामोद्ग्ल्यायन-के धातु-अवशेष सुरक्षित हैं।
महास्तूप का निर्माण अशोक के समय में ईंटों की सहायता से हुआ था तथा उनके चारों ओर काष्ठ की वेदिका बनी थी। परन्तु शुंग काल में उसे पाषाण पटियाओं से जड़ा गया तथा वेदिका भी पत्थर की ही बनाई गयी। स्तूप का व्यास 126 फुट तथा उसकी ऊँचाई 54 फट कर दी गयी जिससे इसका आकार पहले से दगना हो गया। सातवाहन युग में वेदिका का चारों दिशाओं में चार तोरण लगा दिये गये। महास्तप में तीन मेधियां थी जो भूमितल, मध्य भाग तथा हर्मिका पर थी। इसका अण्ड उल्टे कटोरे की आकृति का है। मध्य की मेधि भूमि से 16 फीट ऊँची है। इस पर बीच का प्रदक्षिणापथ बना हुआ था। भूमितल पर स्तूप के चतुर्दिक पत्थर का फर्श है जिस पर गोल वेदिका है। वेदिका सादी तथा अलंकरणरहित है। इस प्रकार यह भरहुत की वेदिका से भिन्न है। इसके स्तम्भ, सूची तथा उष्णीशों पर भी किसी प्रकार का अलंकरण नहीं है। वस्तुतः यहां के तोरण अत्यन्त सुन्दर, कलापूर्ण एवं आकर्षक हैं और वे कला के इतिहास में अपनी सानी नहीं रखते। तोरण महात्मा बुद्ध के जीवन की घटनाओं तथा जातक कथाओं के चित्रों से परिपूर्ण हैं तथा उन्हें नीचे से ऊपर तक अलंकरणों से सजाया गया है। श् वे अपनी वास्तु से अधिक उत्कीर्ण अलंकरणों के लिये ही प्रसिद्ध है। लगभग 34 फुट ऊँचे इन तोरण में दो सीधे स्तम्भ लगे हैं। उन पर तीन मेहराबदार बड़ेरियाँ लगाई गयी हैं जो एक दूसरे के ऊपर समतलीय रूप से रखी हुई हैं। स्तम्भों के ऊपर चैकोर चैकियाँ हैं जिन पर बौने, हाथी, बैल या सिंह की प्रतिमायें उत्कीर्ण मिलती हैं।
स्तूप के तोरणों पर विविध प्रकार की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं, बड़ेरियों पर अलग से सिंह, हार्थी, धर्मचक्र, यक्ष तथा त्रिरत्न के चित्र खुदे हुये हैं। स्तम्भों के निचले भाग में दोनों ओर द्वारपाल यक्षों की मूर्तियाँ हैं। स्तम्भ तथा नीचे की बड़ेरी के बाहरी कोनों में सघन वृक्षों के नीचे शाखाओं का सहारा लेकर भंगिमापूर्ण मुद्रा में खड़ी हुई स्त्रियों की मूर्तियाँ हैं जिन्हें श्शालभंजिकाश् कहा गया है। ये अत्यन्त आकर्षक हैं। शालभंजिका मूर्तियाँ तीनों बड़ेरियों के चैकोर किनारों पर बनी हुई गजलक्ष्मी मूर्तियों के पार्श्व भाग में भी बनाई गयी हैं। अन्तिम सिरों पर स्तूप-पूजा, वृक्ष-पूजा, चक्र-पूजा के दृश्यों के साथ ही साथ हाथी, मृग, कमलवेलि, पीपल आदि अनेक आकृतियाँ खुदी हुई हैं। बुद्ध के जीवन से संबंधित विविध दृश्यों का अंकन साँची शिल्प में भरहुत की अपेक्षा अधिक मिलता है। शिल्प ने उनके अलौकिक कर्मों, जैसे – आकाश गमन, जल संतरण, काश्यप, आश्रम में जल और अग्नि में प्रवेश आदि की उकेरी में अधिक रुचि दिखाई है। ऐतिहासिक दृश्यों में मगध नरेश अजातशत्रु अथवा कोशल नरेश प्रसेनजित का बुद्ध के दर्शन हेतु आना, शुद्धोधन का नगर के बाहर निकलकर बुद्ध का स्वागत करना, अशोक का बोधिवृक्ष के पास जाना आदि का अंकन मिलता है। बुद्ध के जीवन की घटनाओं को विविध प्रतीकों के माध्यम से दर्शाया गया है। बोधिवृक्ष, धर्मचक्र तथा स्तूप पूजा के दृश्यों को बारम्बार उत्कीर्ण किया गया है। ये क्रमशः ज्ञानप्राप्ति, प्रथमोपदेश तथा महापरिनिर्वाण के प्रतीक हैं। आसन, त्रिरत्न, पदचिह्न आदि का भी अंकन मिलता है। ये सभी अंकन अत्यन्त उत्कृष्ट एवं कलापूर्ण हैं।
साँची का द्वितीय स्तूप – साँची के द्वितीय स्तूप का वास्तु भी महास्तूप के ही समान है। इसमें कोई तोरण-द्वार नहीं है। इसकी वेदिका पर बहुसंख्यक उत्कीर्ण चित्र मिलते हैं। इसमें तीन वेदिकायें थी – एक भूमिगत पर, दूसरी मध्य में तथा तीसरी हर्मिका पर। भूमितल की वेदिका उत्कीर्ण चित्रों से भरपूर है जबकि महास्तूप के भूमितल की वेदिका पर कोई अलंकरण नहीं मिलता और वह बिल्कुल सादी है। इस पर प्रायः वे सभी दृश्य उत्कीर्ण हैं जो महास्तूप के तोरणों पर मिलते हैं। इसमें बद्ध के जीवन से संबंधित चार दृश्यों – जन्म, संबोधि, धर्मचक्रप्रवर्त्तन तथा महापरिनिर्वाण का अंकन प्रमख है जिन्हें चार प्रतीकों – पद्म, पीपल वृक्ष, चक्र तथा स्तूप के माध्यम से उत्कीर्ण किया गया है। साथ ही साथ त्रिरत्न, श्रीवत्स, सिंहध्वज, गजस्तम्भ आदि का अंकन भी मिलता है। इन अलंकरणों के कारण यह स्तूप सम्पूर्ण भारतीय कला के इतिहास में महत्वपूर्ण हो जाता है।
साँची का ततीय स्तुप – तृतीय स्तूप में केवल एक ही तोरणद्वार बना है। यह अपेक्षाकृत बाद की रचना है तथा उत्कीर्ण अलंकरणों से युक्त है। इसकी वेदिका पर भी सुन्दर उकेरी की गई है। मालाधारी यक्ष-मूर्तियों के साथ-साथ यहां स्तूप-पूजा, बोधिवृक्ष-पूजा, चक्र, स्तम्भ, गजलक्ष्मी, नाग, अश्व, हाथी आदि के दृश्यों का अंकन अत्यन्त आकर्षक एवं कलात्मक ढंग से किया गया है।
इस प्रकार साँची के तीनों स्तूप सुरक्षित अवस्था में हैं तथा भारत के बौद्ध स्मारकों में अपना सर्वोपरि स्थान रखते हैं। उन पर की गयी नक्काशी भारतीय मूर्तिकार की नवीनतम एवं महानतम रचना है। तत्कालीन समाज की बहुरंगी झांकी इनमें सुरक्षित है। प्राचीन भारतीय वेशभूषा के ज्ञान के लिये साँची की कलाकृतियाँ बड़ी उपयोगी है। ईसवी के प्रारम्भ एवं उसके पूर्ववर्ती समाज के भारतीय जन-जीवन का ये दर्पण है।

प्रश्न: सिन्धु घाटी सभ्यता की नगरीय आयोजना और संस्कृति ने किस सीमा तक वर्तमान युगीन नगरी को निवेश (इनपुट) प्रदान किए हैं? चर्चा कीजिए।
उत्तर: सिंधु घाटी सभ्यता जीवन के नियोजित स्वरूप के संबंध में अपने समय से कहीं आगे थी, जो इसके नगरीकरण इसकी संस्कृति के माध्यम से स्पष्ट रूप से प्रदर्शित हो जाता है। इसी कारण आधुनिक नगर निर्माता सिंधु घाटी ष् को एक प्रेरणास्रोत एवं सहायक स्रोत के रूप में अपनाते हैं। जहां तक नगरीय व्यवस्था के वास्तुशिल्प का संबंध वर्तमान जल निकासी व्यवस्था तथा सड़क व्यवस्था पर सिंधु घाटी सभ्यता के विशाल जल निकास व्यवस्था और समय पर काटती सड़कों का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। शहरी क्षेत्र का ग्रामीण क्षेत्र से वियोजन सिंधु घाटी सपना से ही प्रभावित है। प्राचीन समय में नगर, शासक वर्ग के संरक्षित क्षेत्रों, सामान्य जनों के आवासीय क्षेत्रों, विज स्नानागारों तथा अन्य भागों में विभाजित थे। वर्तमान नगरों का शहरी क्षेत्रों, आवासीय क्षेत्रों, सार्वजनिक इमारतों और और क्षेत्रों में विभाजन इसके समरूप है। तत्कालीन व्यापारिक क्षेत्र, अन्न भण्डार, गोदी क्षेत्र आदि के योजानाबद्ध स्वरूप में समकालीन व्यावसायिक केन्द्रों, खाद्यान्न के गोदामों, बन्दरगाहों तथा विभिन्न अन्य स्थलों के निर्माण को प्रेरणा दी।
तत्कालीन कला एवं शिल्प, मोहरे, मृद्भाण्ड, धर्म, आभूषण आदि वर्तमान में फैशन डिजाइनिंग, मुद्रा, मृत्तिका शिल्प सम्प्रदाय, आधुनिक आभूषणों के रूप में परिवर्तित हो गए हैं, जो उसी प्राचीन सभ्यता सातत्य के रूप में भूमका निभा रहे हैं। सिंधु घाटी सभ्यता से प्राप्त मृद्भाण्डों से इनके आकार, स्वरूप, रंगों आदि में वर्तमान समय तक आए विकासात्मक परिवर्तन को प्रदर्शित करता है। दशमलव पद्धति पर आधारित माप-तौल प्रणाली, बहुदेववाद, प्रकृति, पूजा, योग का प्रचलन, पशुओं का धार्मिक महत्व, खान-पान, वेशभूषा, बहुफसली कृषि व्यवस्था, आंतरिक एवं बाह्य व्यापार आदि ने भी वर्तमान व्यवस्था पर प्रभाव डाला है।
प्रश्न: शुंग कालीन स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूने के रूप में भरहूत स्तूप के स्थापत्य का वर्णन कीजिए।
उत्तर: भरहुत स्तूप – शुंग कला के सर्वोत्तम स्मारक स्तूप हैं। भरहुत (सतना के समीप) में इस समय एक विशाल स्तूप का निर्माण हुआ था। इसके
अवशेष अपने मूल स्थान पर आज नहीं हैं, परन्तु उसकी वेष्टिनी का एक भाग तथा एक तोरण भारतीय संग्रहालय कलकत्ता तथा प्रयाग संग्रहालय में सुरक्षित हैं। इसके कुछ अवशेष. भारतीय कला भवन वाराणसी तथा सतना जिले के रामवन संग्रहालय में भी रखे गये हैं। स्तूप के दो खण्ड प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय बम्बई में भी विद्यमान हैं। 1873 ई. में कनिंघम महोदय ने इस स्तूप को खोज निकाला था। उस समय यह पूर्णतया नष्ट हो चुका था तथा केवल इसका एक भाग (10 फुट लम्बा तथा 6 फुट ऊँचा) ही अवशिष्ट रह गया था।
भरहुत स्तूप का निर्माण पक्की ईंटों से हुआ था तथा नींव पत्थर की सुदृढ़ बनी थी। स्तूप को चारों ओर से घेरने वाली गोलाकार वेदिका पूर्णतया पाषाण-निर्मित थी जिसमें संभवतः चार तोरणद्वार लगे थे। इस वेदिका में लगभग 80 स्तम्भ थे जिनके ऊपर उष्णीश बैठाये गये थे। दो स्तम्भों के बीच में तीन-तीन पड़े पत्थर लगे हुए थे जिन्हें श्सूचीश् कहा गया है। वेदिका का सम्पूर्ण गोल घेरा 330 फुट के आकार में बना था। स्तूप तथा वेदिका के बीच की भूमि में प्रदक्षिणापथ बना हुआ था स्तम्भों के बीच में चक्र तथा ऊपर-नीचे अर्धचक्र बनाये गये थे। इन्हें विविध फूलपत्तियों विशेषकर कमलदल से सुसज्जित किया गया था। भरहुत स्तूप मूलतः ईंट-गारे की सहायता से अशोक के समय में बनवाया गया लेकिन इसकी पाषाण वेदिका तथा तोरणों का निर्माण शुंगों के काल (दूसरी शती के पूर्वार्ध) में हुआ। स्तूप के पूर्वी तोरण पर उत्कीर्ण लेख में शुंग शासक धनभूति का उल्लेख मिलता है। भरहुत स्तूप की वेदिका, स्तम्भ तथा तोरणपट्टों पर उत्कीर्ण मूर्तियाँ एवं चित्र महात्मा बुद्ध के जीवन की. घटनाओं, जातक कथाओं तथा मनोरंजक दृश्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं। एक चित्र मायादेवी के स्वप्न से संबंधित है जिसमें शेवत हाथी आकाश मार्ग से उतर कर उनके गर्भ में प्रवेश करते हुए दिखाया गया है। इसे अवक्रांति कहा गया है। साथ ही साथ इन पर यक्ष, नाग, लक्ष्मी, राजा, सामान्य पुरुष, सैनिक, वृक्ष, बेल आदि अलंकारिक प्रतीक भी उत्कीर्ण मिलते हैं। इन चित्रों के नीचे लेख खुदे हुये हैं जिनसे उनका समीकरण स्थापित करने में पर्याप्त मदद मिलती हैं। यक्ष-यक्षिणियों में कुपिरो (कुबरे), वरुढक, सुपवश, सुचिलोम, अजकालक, सुदर्शनायक्षी, चूलकाका यक्षी, चन्द्रा यक्षी, सिरिमा (श्री माँ) देवता आदि की आकृतियाँ खुदी हुई हैं। एक चित्र में जल से निकलते हुए एरापत नागराज को परिवार सहित बोधिवृक्ष की पूजा करते हुए दिखाया गया है। इसी प्रकार अलम्बुसा, मिश्रकेशी, सुदर्शना तथा सुभद्रा, इन चार अप्सराओं की प्रतिमायें उनके नाम सहित उत्कीर्ण हैं। भरहत के तोरणों की एक विशेषता यह है कि उनकी बड़ेरियों के दोनों गोल सिरों पर मगरमच्छ की आकृतियाँ बनी हुई हैं जिनके मुँह खुले हुये हैं तथा पूंछ गोलाकार है। सबसे ऊपर की बड़ेरी के बीच में एक बड़ा धर्मचक्र स्थापित था तथा उनके दोनों ओर दो त्रिरत्न चिह्न लगाय।। थे। तोरण वेदिका के ऊपर कुछ ऐतिहासिक चित्र भी अंकित हैं। जैसे एक दृश्य में कोशलनरेश प्रसेनजित को रथ मेंबर हुए तथा दूसरे दृश्य में मगधनरेश अजातशत्रु को भगवान बुद्ध की वन्दना करते हुये दिखाया गया है। इसमें बुद्ध मूति कर नहीं मिलती, अपितु उनका अंकन स्तूप, धर्मचक्र, बोधिवृक्ष, चरणपादुका, त्रिरत्न आदि प्रतीक चिह्नों के रूप में मिलता समग्र रूप से ये विविध चित्र धार्मिक विचारों एवं विश्वासों, वेष-भूषा, आचार-व्यवहार आदि का प्रतिनिधित्व करत तथा उनका अंकन अत्यन्त सरल एवं प्रभावपूर्ण है। इन सभी दृश्यों में मानव जीवन की प्रफुल्लता एवं खुशहाली के होते हैं।

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