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आर्य समाज के नियम क्या है | आर्य समाज के नियमों की व्याख्या कितने है किसने बनाये rules of arya samaj in hindi
rules of arya samaj in hindi आर्य समाज के नियम क्या है | आर्य समाज के नियमों की व्याख्या कितने है किसने बनाये ?
आर्य समाज के नियम (Rules of the Arya Samaj)
बम्बई की आर्य समाज की शाखा ने 28 नियम बनाकर शुरुआत की थी, जो धार्मिक, सामाजिक एवं संगठन संबंधी व्यवस्थाओं से संबद्ध थे। इनमें से कुछ नियम इस प्रकार के थे रू जनसाधारण के हित के लिए आर्य समाज आवश्यक है। प्रत्येक प्रान्त में एक मुख्य समाज होगा एवं यथासंभव स्थानों पर उसकी शाखाएं स्थापित की जाएंगी। सप्ताह में एक बार समाज की गोष्ठी का आयोजन किया जाएगा, जिसमें सामवेद के मंत्रों का उच्चारण होगा। ईश्वर की महिमा का बखान करने के लिए भाषण एवं गीतों का आयोजन किया जा सकता है, जिसमें वाद्य संगीत सम्मिलित किया जाएगा। समाज में हिन्दी एवं संस्कृत भाषा की पुस्तकों का एक पुस्तकालय होगा, आमदनी एवं खर्चे का हिसाब रखा जाएगा। (सदस्यों द्वारा अपनी आमदनी का 9 प्रतिशत भाग शुल्क के रूप में दिया जाएगा) एक समाचारपत्र का प्रकाशन किया जाएगा, लड़कों एवं लड़कियों के लिए अलग-अलग स्कूल चलाए जाएंगे (लड़कियों के स्कूल में केवल महिला कर्मचारियों की नियुक्ति की जाएगी) सत्यता का प्रवचन करने हेतु विद्वान/व्यक्तियों को अन्य स्थानों पर भेजा जाएगा। सदस्यों को अपने सदस्यों के साथ सदभाव से स्नेह प्रदान करना चाहिए। विवाह एवं मृत्यु के सारे समारोह वेदों के अनुसार आयोजित किये जाएंगे। किसी बेईमान एवं दुष्ट व्यक्ति को समाज से निष्कासित किया जा सकता है, परन्तु किसी व्यक्ति को पूर्वाग्रह या पक्षपात पूर्ण ढंग से समाज से निष्कासित नहीं किया जा सकता है। समाज में अध्यक्ष एवं सचिव के अलावा एक अधिकारी भी होगा। उत्कृष्ट कार्य के लिए व्यक्ति को पुरस्कृत किया जाएगा एवं उसके कार्यों की सराहना की जाएगी। समाज देश के सुधार के लिए कार्य करेगा-आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों रूपों में। आर्य समाज की किसी संस्था में किसी भी पद कि लिए आर्य समाजी को वरीयता प्रदान की जाएगी। विवाह के समय जो भी दान किया जाएगा वह आर्य समाज को दिया जाना चाहिए। मुख्य धार्मिक नियम यह था कि वेद सर्वोच्च हैं एवं उनकी महत्ता सर्व उजागर है, ऋषियों द्वारा लिखी गई अन्य पुस्तकों की महत्ता वेदों के समक्ष दूसरे दर्जे की है। निराकार ब्रह्म की वंदना की जानी चाहिए।
रामस्व 28 नियम काफी संपूर्ण एवं विस्तृत हैं। इसके अलावा ये याद रखने के लिए काफी संख्या में थे। इसलिए लाहौर में इनकी संख्या घटा कर 10 कर दी गई थी । आर्य समाज के इतिहास में 24 जून 1877 एक चिरस्मरणीय दिवस था, क्योंकि इस दिन लाहौर में आर्य समाज को स्थापित किया गया था। यह बम्बई के आर्य समाज से संबद्ध नहीं था। लाहौर का समाज, आर्य समाज के इतिहास का एक नया अध्याय था, इसने पुराने समाज का प्रायः नवीनीकरण कर दिया था। जैसे बम्बई में स्वीकृत किये गए 28 नियमों में ध्यानपूर्वक संशोधन किया गया था, उनको दोबारा लिखित रूप दिया गया था और उनकी संख्या घटा कर 10 नियम कर दी गई थी। ऐसा प्रतीत होता था, जैसे आर्य समाज का नया विधान बनाया गया हो। लाहौर में समाज के संस्थापक सदस्यों की संख्या 100 थी। जुलाई के अन्त तक यह संख्या बढ़ कर 500 हो गई थी।
24 जुलाई, 1877 को इन दस नियमों को पारित कर दिया गया। इनको आर्य समाज के मूलभूत सिद्धांतों के रूप में माना जाता है एवं समस्त आर्य समाजियों के लिए इनका पालन करना अनिवार्य माना जाता है। पहले दो नियम ईश्वर से संबंधित हैं एवं तीसरा नियम वेदों से संबंधित हैं। ईश्वर एवं वेद आर्य समाज के आधार हैं। शेष नियम सामान्य व्यक्ति के आचार-विचार के लिए मार्गदर्शक के रूप में हैं। ये दस नियम निम्नलिखित हैं:
प) सच्चे ज्ञान एवं ज्ञान द्वारा जानी जाने वाली समस्त वस्तुओं का मुख्य स्रोत परमात्मा होता है।
पप) परमेश्वर ही परम सत्य है, परम ज्ञान है एवं परमानन्द है। वह निराकार है, सर्वशक्तिमान है, यथार्थ है, दयाल है, अजन्मा है, अनंत है, अपरिवर्तनीय है, अनादि है, अद्वितीय है, सबका सहायक एवं स्वामी है, सर्वव्यापी है, सबकी अन्तरात्मा में निवास करता है एवं उसका नियंत्रण करता है, प्रत्यक्ष है, चिरस्मरणीय एवं निःशक है, अनन्त है, अन्यात्मा है एवं सारे विश्व का सृष्टिकर्ता है। केवल वही पूजने योग्य है।
पपप) वेद समस्त ज्ञान के भंडार की पुस्तकें हैं। समस्त आर्य समाजियों के लिए वेदों का अध्ययन एवं प्रचार करना, वेदों को सुनना एवं उनका प्रवचन देना, उनका प्रमुख कर्तव्य है।
स्वामी दयानन्द के सिद्धान्तवाद में, परमेश्वर के पश्चात वेदों का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। ‘वेदों का पुनः अध्ययन‘ के नारे से उसका आशय यह है कि हमको धर्म ग्रंथों में लिखी हुई उन सब बातों को अमान्य करना चाहिए जो वेदों के उपदेशों से भिन्न हैं वेद परमेश्वर द्वारा उच्चरित शब्द/वाक्य हैं जिन्हें ऋषियों द्वारा समस्त मनुष्य जाति को प्रवचन कराया गया है। इस प्रकार वेदों की रचना किसी मानव द्वारा नहीं की गई।
पअ) सच्चाई को हमें सदैव स्वीकार करना चाहिए एवं असत्य को सदैव ठुकराना चाहिए। यह एक महत्वपूर्ण अभियुक्ति है। समय के अनुसार हमको किसी विचारधारा को मान्यता प्रदान नहीं कर देनी चाहिए। यदि वह असत्य है तो उसका बहिष्कार करने में हमें किसी प्रकार का संकोच नहीं होना चाहिए।
अ) मनुष्य के समस्त कर्म, सही एवं गलत, की विवेचना करने के पश्चात धर्म के अनुसार करने चाहिए। नियम यह है कि सही कार्य को कीजिए एवं गलत कार्य से दूर रहिये।
अप) भौतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक रूप से समस्त विश्व की भलाई करना ही आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य है। इसका तात्पर्य यह है कि अन्य कुछ समाजों की तरह, आर्य समाज एक कट्टरपंथी या साम्प्रदायिक संस्था नहीं है, जो केवल अपने सदस्यों की भलाई हेतु कार्यों में कार्यरत हों । इस समाज को सारे विश्व की भलाई के लिए बनाया गया है। पुराने चरम सीमा के वैयक्तिक रूप के हिन्दू दृष्टिकोण से यह काफी भिन्न है, जिसमें प्रत्येक आकांक्षी केवल अपनी ही मुक्ति की कामना करता था। स्वामी दयानन्द का भी युवा अवस्था में यही उद्देश्य था जिसको बाद में स्वामी बिरजानन्द ने और अधिक विस्तृत रूप प्रदान करके उससे यह प्रतिज्ञा कराई कि वह समस्त एवं विश्व की भलाई में कार्यरत रहेगा।
अपप) हमें समस्त व्यक्तियों के साथ उनके गुणों के अनुरूप स्नेह, धर्मपरायणता एवं सद्भावनाओं के साथ व्यवहार करना चाहिए। समस्त व्यक्तियों के साथ हमारे आचरण का आधार प्रेम एवं सद्भावना का होना चाहिए। न कि दुर्भावना, घृणा या असहनशीलता का। सर्वजगत के लिए प्रेम एवं सद्भावना पर आधारित बनने से पृथ्वी पर स्वर्ग की अनुभूति होगी। इससे अधिक गुणवान व्यक्ति को अधिक सम्मान भी प्राप्त होगा।
मनुष्य मात्र की गरिमा की यही विशेषता होती है, परन्तु इसमें व्यक्ति के गुणों एवं अवगुणों, प्रतिमा या सामान्यता एवं अच्छाई एवं बुराई पर ध्यान न देते हुए समानता करने का उपदेश नहीं दिया जाता है। इसको वैदिक समाजवाद कहते हैं।
अपपप) हमको अज्ञानता को समाप्त करने एवं ज्ञान की बढ़ोत्तरी के लिए कार्य करना चाहिए। निरक्षरता, अज्ञानता एवं अंधविश्वास समस्त बुराइयों की जड़ होती है, जबकि ज्ञान द्वारा सर्वव्यापी कल्याण एवं आनंद की प्राप्ति होती है। बड़ी संख्या में आर्य समाज के मंचों पर दिये जाने वाले उपदेशों, डी.ए.वी. की शाखाओं एवं गुरुकुल की संस्थाओं द्वारा इस नियम को प्रचलित करके उसका रूपान्तर किया जा रहा है।
पग) किसी भी व्यक्ति को स्वयं अपनी उन्नति से संतुष्ट नहीं होना चाहिए, बल्कि समस्त मानव जाति की भलाई में स्वयं की भलाई की अनुभूति करनी चाहिए। इसका मतलब है कि समस्त मानव जाति का परमात्मा का स्वरूप होने के कारण एक ही अस्तित्व है या समाज के मानव स्वरूप की विभिन्न सीमाएं हैं और जैसे कि शरीर में से टांग को काट देने से बांह को सुख नहीं मिल सकता है। स्वार्थ की अपेक्षा परोपकार ही इसका सम्पूर्ण महत्व है। किसी समाज में यदि चारों तरफ भुखमरी या दुःख व्याप्त है, तो कोई भी व्यक्ति खुश नहीं रह सकता क्योंकि दुःख एवं भुखमरी सारी समाज की व्यवस्था को समाप्त कर देंगे। अन्य व्यक्तियों की भलाई करने से किसी का उपकार करना नहीं बल्कि स्वयं पर उद्धीत्व स्वार्थ उजागर होता है।
ग) समस्त मानव जाति की भलाई के लिए निर्धारित किये गए सामाजिक नियमों का पालन करना, सब व्यक्तियों के लिए अनिवार्य होता है, परन्तु प्रत्येक व्यक्ति को अपने कल्याण के लिए कार्य करने की स्वतंत्रता होती है। मिसाल के तौर पर, कोई भी व्यक्ति यातायात के नियमों को तोड़ने या किसी की हत्या एवं चोरी करने के लिए स्वतंत्र नहीं होता क्योंकि ऐसे सब कानून सबकी भलाई के लिए बनाए गए हैं। परन्तु व्यक्ति की भलाई से संबंधित व्यक्तिगत मामलों में, प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्रता प्राप्त होती है। इसका आशय यह है, कि यदि अन्य व्यक्तियों का कोई अहित न हो तो किसी भी व्यक्ति को अपने ढंग से कार्य करने की स्वतंत्रता प्राप्त होती है।
बोध प्रश्न 1
1) स्वामी दयानन्द ने आर्य समाज में, अपने लिए किस प्रकार की भूमिका की धारणा की थी ? दो या तीन पंक्तियों में अपना उत्तर दीजिए।
2) लाहौर के आर्य समाज ने अपने सदस्यों के लिए कितने नियमों को निर्धारित किया था ? इनमें से किन्हीं पांच का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
क) …………………………………………………………………………………………………………………………………………………………..
ख) …………………………………………………………………………………………………………………………………………………………..
ग) …………………………………………………………………………………………………………………………………………………………..
घ) …………………………………………………………………………………………………………………………………………………………..
च) …………………………………………………………………………………………………………………………………………………………..
निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि ये दस नियम, उस सुखी एवं सभ्य समाज के महान अधिकार पत्र के रूप में हैं, जिसकी धारणा स्वामी दयानन्द ने की थी। वेदों को प्रधानता प्रदान करने वाले तीन नम्बर के नियम को छोड़ कर बाकी के सब नियम समस्त देशों एवं समस्त युगों में व्यक्तियों पर लागू होंगे।
कार्यकलाप 1
लाहौर (1877) में आर्य समाज के दस नियमों की एक सूची बनाइये। किसी भी आर्य समाजी, जिसे आप जानते हों, उससे पूछिये कि क्या वह उसका सारांश आपको बता सकता है। उनकी टिप्पणियों को अपनी नोट बुक में लिख लीजिए तथा यदि संभव हो तो अध्ययन केंद्र पर अन्य छात्रों के साथ उन पर चर्चा कीजिए।
बोध प्रश्न 1 उत्तर
1) दयानन्द ने स्वयं को आर्य समाज की एक मार्गदर्शक ज्योति के रूप में प्रस्तुत किया। वह स्वयं को कोई नेता अथवा गुरू नहीं मानते थे, जिसका लोग अनुसरण करें।
2) लाहौर में आर्य समाज ने मूल 28 नियमों को सरल बनाकर केवल 10 नियमों में बदल दिया। सदस्यता के इन नियमों में से पांच निम्नलिखित थे:
प) हर सच्चे ज्ञान का स्रोत ईश्वर है,
पप) ईश्वर सत्य है, ईश्वर ज्ञान है व ईश्वर परमानन्द है,
पपप) वेद सच्चे ज्ञान की पुस्तकें हैं,
पअ) सत्य को अपनाओ, असत्य को छोड़ो,
अ) प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करना चाहिए।
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