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भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका क्या है वर्णन कीजिये pdf | role of caste in indian politics in hindi
role of caste in indian politics in hindi भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका क्या है वर्णन कीजिये pdf ?
भारतीय राजनीति में जाति :
० वर्तमान में भारत की राजनीति जाति आधारित होने लगी है , जिससे भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका का महत्वपूर्ण स्थान हो गया है , सर्वप्रथम हम जाति की परिभाषा देख लेते है |
जाति की परिभाषा : जाति से आशय एक ऐसे समूह से है, जिसकी सदस्यता जन्माधारित (जन्म के समय से ही व्यक्ति की जाति निर्धारित हो जाती है) होती है, और जाति की कुछ विशिष्ट ‘सामाजिक-आर्थिक’ विशेषताएँ होती है जैसे- रोटी-बेटी संबंध, स्तरीकरण (ऊँच-नीच), व्यावसायिक प्राथमिकताएँ आदि। जाति एक सामाजिक व्यवस्था है जो जन्म आधारित होती है , यह समाज में व्यक्ति को एक पहचान प्रदान करती है जिससे वह अन्य सामाजिक व्यक्तियों से परस्पर सक्रीय व्यवहार आदि स्थापित करता है |
* जातियों का राजनीतिकरण ०
इसका आशय है राजनेताओं द्वारा सत्ता प्राप्ति हेतु ‘जातिगत पहचान’ को उभारकर अधिकाधिक वोट बटोरने का प्रयास करना। अर्थात जब राजनेता या किसी पार्टी द्वारा जाति के आधार पर वोट देने के लिए आग्रह करना जातियों का राजनीतिकरण कहलाता है |
भारत में चुनावों के संबंध में ‘फर्स्ट पास्ट दी पोस्ट’ व्यवस्था लागू की गई जिसके तहत सर्वाधिक वोट पाने वाला उम्मीदवार विजयी माना जाता था, अतः अधिक जनसंख्या वाली एक या दो प्रमुख जातियों के वोट पाकर चुनाव जीतना आसान था , अतः (जातियों का राजनीतिकरण मजबूत हुआ। इसके अलावा चूंकि भारतीय समाज की मूल संरचना जाति आधारित थी, और लोग अपनी जातिगत पहचान को अत्यधिक महत्त्वा देते थे अतः जाति का एक वोटबैंक के रूप में इस्तेमाल किया जाना भी आसान था। दलित वर्ग के ऐतिहासिक रूप से हुए जाति आधारित शोषण के कारण भी जातियों के राजनीतिकरण की, पर्याप्त संभावना थी। जिस क्षेत्र में किसी विशेष जाति के लोग रहते है और उस विशेष जाति के उम्मीदवार उस क्षेत्र से खड़ा होता है और उस विशेष जाति के लोग अपनी जाति की वजह से उसे वोट देते है तो इस प्रकार हम कह सकते है कि जाति का राजनीतिकरण हो जाता है |
० इन सभी कारणों से धीरे-धीरे सत्ता पर जाति का निर्णायक प्रभाव स्थापित हुआ |
* भारत में राजनीति – जाति संबंधों का इतिहास
भारत के कई नेता मानते थे कि चूंकि समाज के एक बहुत बड़े वर्ग का शोषण जाति आधार पर ही किया गया है, अतः इन जातियों द्वारा संगठित होकर राजनीति में भाग लेने से ही इनकी समस्याओं का समाधान हो सकता है। इनमें अंबेडकर, लोहिया, जगजीवन राम आदि प्रमुख थे। अर्थात समाज में पायी जाने वाली असमानता का मुख्य आधार जाति ही माना जाता है , उच्च जाति के लोगों द्वारा , निम्न जाति के लोगों पर विभिन्न प्रकार के शोषण किये जाते है |
यद्यपि कुछ लोग मानते हैं कि भारत में जाति आधारित राजनीति अगड़ी जातियों ने पहले शुरू की। (रड्डी – आंध्र प्रदेश)
1957 में (भारतीय रिपब्लिके पार्टी) (RPI) की स्थापना हुई, जिसकी उत्पत्ति 1942 में डॉ. अंबेडकर द्वारा स्थापित ‘ऑल इंडिया शेड्यूल्ड फेडरेशन’ से मानी जाती है। RPI दलित हितों को केंद्र में रखेती थी।
1972 में नामदेव ढसाल व जे वी पवार ने ‘दलित पेथर्स’ गठित किया जो एक आक्रमण जाति-विरोधी राजनीतिक दबाव समूह के रूप में उभरा। वहीं दूसरी ओर प्रभुत्वशाली जोतियों को संगठित करने हेतु AJGAR (अहीर, जाट, गूजर, राजपूत) शब्द अस्तित्व में आयो। कालांतर में डी एस- 4 (दलित शोषित समाज संघर्ष समिति –1981) व बी एएम सी ई ऐफ (बैकवर्ड एंड माइनोरिटी कम्यूनिटीज एम्पालॉईज फेडरेशन) 1978 स्थापित हुए।
1 जनवरी, 1979 को जनता पार्टी सरकार ने मंडल आयोग का निर्माण किया जिसका मूल कार्य भारत में सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान करना था। इस आयोग ने 1931 की जनसंख्या के आधार पर पिछड़ी जातियों की जनसंख्या 52 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला किया गया। इसके बाद से भारतीय राजनीति में जाति का महत्त्व और बढ़ा जिसे कुछ राजनीतिक विश्लेषक ‘कमंडल V/S मंडल’ की राजनीति भी कहते हैं।
उत्तर मंडल दौर (वर्तमान दौर) :
० वर्तमान दौर में भी भारतीय लोकतंत्र में जातियों का महत्व बना हुआ है। यद्यपि पिछले कुछ समय से चुनावों में विकासवादी मुद्दों का महत्व बढ़ा है, इसके अतिरिक्त पिछड़ी * जातियों में भी विभाजन की प्रवृत्ति देखने को मिली है (अन्त्यज/ गैर अन्त्यज), परंतु निकट भविष्य में जाति के भारत के राजनीतिक पटल से पूर्णतः समाप्त होने की संभावना कम है।
जाति व जातिवाद में अंतर :
० रजनी कोठारी के अनुसार भारत में जाति कमजोर हो रही है, लेकिन जातिवाद मजबूत हो रहा है। उल्लेखनीय है कि जाति एक सामाजिक अवधारणा है जिसके तहत अपने जातिगत पेशे को अपनाना, छुआछूत में विश्वास, सजातीय विवाह आदि आते हैं, वहीं जातिवाद एक आर्थिक-राजनीतिक अवधारणा है जिसके तहत कोई व्यक्ति यह चाहता है कि संसाधनों व सत्ता में उसकी जाति के लोगों की भागीदारी बढ़े। धीरे धीरे लोग अपनी जाति से तो बाहर आने लगे है लेकिन जातिवाद से बाहर आने में समाज के एक विशेष वर्ग को समय लग सकता है क्योंकि संसाधनों पर नियंत्रण अभी भी एक विशेष या उच्च जाति के लोगों का ही रह रहा है लेकिन सरकार इसके लिए भी विशेष प्रयास कर रही है कि सभी जातियों का समान या आनुपातिक रूप से आर्थिक और राजनितिक संसाधनों पर नियंत्रण स्थापित हो सके |
जातिगत राजनीतिक के प्रभाव
नकारात्मक
a. राजनीति प्रदूषित होती है। सार्थक मद्दे हाशिए पर चले जाते हैं।
b. समाज में आंतरिक संघर्ष की स्थिति।
c. भडकाऊ जातिगत राजनीति से जातीय हिंसा की घटनाएं सामने आती है।
d. जातिवादी राजनीति संविधान के आधारभूत मूल्यों के विपरीत हैं।
e. वाक्पटु लोग, जनता की जातिगत भावनाओं को उभारकर राजनीति में सफल हो जाते हैं व योग्य पंरतु अवाक्पटु लोग पीछे रह जाते हैं।
f. अल्पसंख्यक जातियों के हित प्रभावित होते है।
सकारात्मक ०
रुडॉल्फ, रजनी कोठारी आदि विश्लेषकों के अनुसार जातिवादी राजनीति ने भारत में लोकतंत्र को मजबूत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। विशेषकर पिछड़ी जातियों के राजनीतिकरण ने क्योंकि पिछड़ी जातियाँ सांगठनिक रूप में सरकारों पर दबाव बनाती है व अपने शोषण की संभावनाओं को समाप्त करने का प्रयास करती है। इस प्रकार सत्ता का स्थानांतरण पिछड़े वर्गों की ओर होता है और यही असली लोकतंत्र की पहचान है।
राजनीति में जाति के दुरुपयोग को रोकने के उपाय
a. जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 123 (3) का प्रभावी क्रियान्वयन।
b. इस संदर्भ में उच्चतम न्यायालय द्वारा हाल ही में दिया गया निर्णय प्रासंगिक है कि इसे धारों में लिखित उसकी’ (His) शब्द से आशय उम्मीदवार, उसके ऐजेंट, मतदाता आदि सभी की जाति से है।
c.न्यायिक सक्रियता इस मामले में भी दिखनी चाहिए।
d. आरक्षण जैसे संवैधानिक प्रावधानों को जातिगत राजनीति का मुद्दा बनने से रोका जाए। ४. सरकारों द्वारा जातीय तुष्टिकरण नहीं अपनाना चाहिए।
f. राजनीतिक पार्टियाँ जातिवादी उम्मीदवारों को टिकट देने से बचें।
g. पिछड़ी जातियों को मुख्य धारा में लाने के गंभीर प्रयास, ताकि उसकी पिछडी दशा के नाम पर उनके वोट बटोरने के प्रयास न किए जाए।
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