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Categories: इतिहास

बक्सर युद्ध के परिणाम बताइए ? result of battle of buxar in hindi के परिणामों का वर्णन करें क्या थे

result of battle of buxar in hindi effects बक्सर युद्ध के परिणाम बताइए ? के परिणामों का वर्णन करें क्या थे ?

बक्सर युद्ध के परिणाम – बक्सर युद्ध के परिणाम प्लासी युद्ध के परिणामों से कहीं अधिक स्थायी एवं प्रभावी थे। बक्सर युद्ध ने प्लासी युद्ध के निर्णयों पर मुहर लगा दी। इस युद्ध के अंजाम स्वरूप बंगाल में अंग्रेजी सत्ता की स्थापना का कार्य पूर्ण हो गया। बंगाल में ऐसा नवाव प्रतिष्ठित हुआ जो कि अंग्रेजों की कठपुतली मात्र ही था. अवध नवाब और मुगल सम्राट की पराजय से अंग्रेज उत्तरी भारत की सर्वश्रेष्ठ शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। 1765 ई. में हुई इलाहाबाद की संधि के अनुसार शुजाउद्दौला ने शाहआलम को इलाहाबाद तथा कारा के जिले दिए और कम्पनी को हर्जाने के रूप में 50 लाख देने स्वीकार किए तथा साथ ही अंग्रेजी सेना का खर्च भी, शाहआलम ने बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा की दीवानी कम्पनी को दे दी। बक्सर के युद्ध के परिणामस्वरूप ही अंग्रेजी कम्पनी की सीमाएँ गंगा पार वनारस तथा इलाहाबाद तक पहुँच गई। इसके कारण ही वंगाल के उत्तर-पश्चिमी प्रदेशों से जो उनका सम्बन्ध हुआ उससे पहली बार वे एक नवीन, उन्नत तथा प्रभुत्वमय सम्बन्ध स्थापित कर सके. मैलिसन ने इस युद्ध के बारे में यहाँ तक लिखा है कि ‘‘बक्सर विजय से अंग्रेजों को न केवल वंगाल ही मिला, न केवल अंग्रेजों की सीमाएँ इलाहाबाद तक पहुँची, अपितु इससे अवध के शासक विजयी शक्ति के कृतज्ञतापूर्ण निर्भरता तथा विश्वास के बन्धनों से बँध गए, जिसने आने वाले 94 वर्षों तक उनको मित्रों का मित्र तथा शत्रुओं का शत्रु बनाए रखा।‘‘ यह कम्पनी की बहुत बड़ी उपलब्धि थी।
इतिहासकार ताराचंद ने बक्सर युद्ध के बारे में अपना मत देते हुए कहा है कि ‘‘प्लासी युद्ध ने सत्ता का हस्तान्तरण किया और बक्सर युद्ध ने अधिकारों का सृजन किया। कम्पनी के इतिहास में वैधानिक आर्थिक व्यापार का युग समाप्त हुआ तथा राजनीतिक सत्ता के अन्तर्गत राजकीय राजस्व के साथ व्यापार युग का आरम्भ हुआ।
अंग्रेजों ने 1763 ई. में मीरकासिम को गद्दी पर से हटाकर मीरजाफर को दोबारा नवाब बना दिया, परन्तु वह नाममात्र का शासक था। अंग्रेजों ने मीरजाफर के दीवान राजा नंदकुमार को पदच्युत कर बंगाल के प्रशासन पर भी अपनी पकड़ मजबूत कर ली थी। मीरजाफर यह सब देखता रहा, परन्तु वह अंग्रेजों के सामने निरीह था। अंग्रेजों ने उसे जी भरकर लूटा। 1765 ई. में जब मीरजाफर की मृत्यु हो गई तो उसका पुत्र नजमुद्दौला गद्दी पर बैठा। उसने भी अंग्रेजों के साथ एक संधि की जिसके आधार पर सुरक्षा, वित्त, सेना तथा बाह्य सम्बन्धों पर अंग्रेजों का एकाधिकार हो गया, राजा नंदकुमार पर आरोप लगाकर मृत्युदण्ड दिया गया, अंग्रेजों की मनमानी शुरू हो गई। चारों तरफ अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई, परिस्थिति को सुधारने के उद्देश्य से क्लाइव को गवर्नर बनाकर पुनः बंगाल भेजा गया। उसने अपनी कूटनीतियों से बंगाल पर अंग्रेजों का स्थायी प्रभुत्व कायम किया, क्लाइव के आगमन तक बंगाल के प्रशासन पर कम्पनी का पूर्ण आधिपत्य कायम हो चुका था। अगस्त, 1765 ई. में कम्पनी को स्थायी रूप से बंगाल की दीवानी भी मिल गई जिससे कम्पनी का कार्यभार बहुत बढ़ गया। यदि क्लाइव चाहता तो बंगाल के नवाब पद को खत्म कर सकता था, परन्तु उसने अपनी कूटनीति के तहत ऐसा नहीं किया तथा बंगाल की व्यवस्था नए शुरूआत के साथ की।
बंगाल की व्यवस्था -हालांकि कम्पनी ने मीरजाफर के पुत्र को बंगाल की गद्दी पर तो बैठाया, परन्तु उसके साथ यह शर्ते लगा दी कि वह निजामत सम्बन्धी कार्य अर्थात् विदेशी मामले तथा सैनिक संरक्षण और फौजदारी के मामले कम्पनी के हाथों में सौंप दे, नजमुद्दौला ने कम्पनी की शर्तों के अनुसार दीवानी सम्बन्धी मामलों को एक डिप्टी सूबेदार के हाथों सौंप दिया जोकि कम्पनी द्वारा बहाल किया गया था। क्लाइव ने जो अपनी नई कूटनीति चलाई उनसे वहाँ का शासक मात्र एक नाम का ही शासक रह गया था। सारी शक्ति कम्पनी के हाथों में आ गई थी।
बंगाल में द्वैध शासन-द्वैध शासन का अर्थ है दोहरी नीति अथवा दोहरा शासन बंगाल में द्वैध शासन का संस्थापक क्लाइव ही था। उसने द्वैध व्यवस्था के अनुसार, यह योजना बनाई कि विदेश व्यापार-नीति और विदेशी व्यापार का प्रबन्ध तो कम्पनी अपने हाथ में ले ले तथा लगान वसूलने एवं न्याय के लिए भारतीय अधिकारियों को नियुक्त कर दिया जाए। इस चालाकी भरे कदम से यह हुआ कि दीवानी सम्वन्धी कामों का जिम्मा कम्पनी के नियन्त्रण में चला गया, लगान वसूल करने के लिए मुहम्मद रजा खां को वंगाल का तथा सिताव राय को बिहार का नाजिम बनाया गया। इनके केन्द्रीय दफ्तर क्रमशः मुर्शिदावाद और पटना में मुगल सम्राट् को तथा 53 लाख रुपए नवाब को मिलने थे। नवाब को नियन्त्रण में रखने के लिहाज से मुहम्मद रजा खाँ को ही दीवान नियुक्त किया गया जोकि अंग्रेजों का विश्वासपात्र था। इस प्रकार, बंगाल में दोहरी व्यवस्था लागू की गई कम्पनी एवं नवाब की। इस व्यवस्था का परिणाम यह रहा कि कम्पनी का धन पर पूरा अधिकार हो गया और प्रजा के प्रति उसका कोई कत्र्तव्य नहीं रहा। दूसरी तरफ, प्रजा का उत्तरदायित्व नवाव पर डाला गया, परन्तु उसके पास न तो धन ही था और न ही सेना, इसी तरह इस व्यवस्था का प्रक्रम 1772 ई. तक वारेन हस्टिंग्स के आने तक चलता रहा।
द्वैध शासन से लाभ तथा हानि- क्लाइव द्वारा लागू की गई द्वैध शासन प्रणाली से अंग्रेजों के लिए लाभ ज्यादा रहा। इसके द्वारा वास्तविक शक्ति की मालिक कम्पनी ही बन गई। अंग्रेज लोग अब व्यापारी नहीं, बल्कि यहाँ के शासक बन चुके थे। जो विदेशी कम्पनियों भारत में व्यापार करती थीं उनसे भी उन्हें आय होने लगी थी, चूँकि कम्पनी के पास योग्य पदाधिकारियों की कमी थी। अतः उसने बंगाल की लगान व्यवस्था सँभालने के लिए भारतीय पदाधिकारियों की सेवा लेनी शुरू कर दी। इस व्यवस्था से कम्पनी के खर्च में कमी आई तथा उसे पर्याप्त मात्रा में आर्थिक लाभ हुआ।
हालांकि इस दोहरी व्यवस्था से जहाँ कम्पनी शुरूआत में लाभ में रही और वहीं अंत में यह व्यवस्था कम्पनी के लिए दुष्कर सिद्ध हुई। 1767 ई. में जब क्लाइव लौटा तो इस व्यवस्था के दोष पूरी तरह उजागर हुए. कम्पनियों के कर्मचारियों की मनमानियाँ बढ़ गई, उद्योग-धन्धे नष्ट हो गए, प्रशासनिक ढाँचा लड़खड़ा गया तथा कम्पनी को व्यापार में भी काफी घाटा उठाना पड़ा. मुख्य रूप से निम्नलिखित दुष्परिणाम सामने आए।
प्रशासनिक अव्यवस्था – सम्पूर्ण बंगाल में सरकार नाममात्र के लिए रह गई। सर्वत्र अराजकता, भ्रष्टाचार तथा अव्यवस्था का आलम हो गया। कम्पनी तथा नवाब दोनों के कर्मचारी पथभ्रष्ट होकर प्रजा पर अत्याचार करने लगे। अनुशासनहीनता का बोलवाला था।
अधिकारों व उत्तरदायित्वों का पृथक्करण-क्लाइव के द्वारा चलाई गई इस द्वैध शासन प्रणाली से नवाब के अधिकार कुछ भी नहीं रहे। सारे कार्यों के लिए उसे कम्पनी पर ही आश्रित होना पड़ता था। नवाब के हाथ में न धन रहा, न शक्ति, नवाब साधनों के अभाव में, चाहते हुए भी जनता को राहत नहीं पहुंचा सकता था. परिणामस्वरूप उसने शासन में दिलचस्पी लेना छोड़ दिया। जनता की तरफ कोई खास ध्यान नहीं दिया गया।
आर्थिक व्यवस्था – अस्त-व्यवस्था-वैध शासन प्रणाली से कम्पनी के भू-राजस्व में वृद्धि हुई. जहाँ बंगाल में दीवानी होता था, वहीं 1766-67 ई. में यह रकम 22 लाख रुपए हो गई। लगान व्यवस्था जनता के लिए कष्टप्रद हो गई थी। अब लगान वसूली का कार्य उन लोगों को दिया जाने लगा जो अधिक-से-अधिक कर वसूल कर सकें, उपज बढ़ाने के प्रयास प्रायः नष्ट ही हो गए थे. परिणामस्वरूप बहुत से किसानों ने खेती करना छोड़ दिया। लगान इतनी कड़ाई से वसूला जाता था कि अनेक किसानों ने अपने बच्चों को वेचकर लगान चुकाया, खेती कम होने से कम्पनी की आय भी गिरने लगी थी।
उद्योग-धन्धे नष्ट – द्वैध शासन प्रणाली लागू होने से पूर्व रेशमी तथा सूती वस्त्र, चीनी, नील, नमक तथा शोरे का बड़े पैमाने पर उत्पादन होता था। 1765 ई. के बाद इनके उत्पादन में अत्यधिक गिरावट आई। इंग्लैण्ड के वस्त्र व्यापार को भारत में अच्छा बाजार मिल सके, इसलिए भारतीय वस्त्र उद्योग को कम्पनी ने जानबूझकर नष्ट कर दिया। कम्पनी का उत्पीड़न इतना बढ़ गया कि अनेक जुलाहों ने अपने अंगूठे तक कटवा दिये, ताकि उन्हें कम्पनी के लिए वस्त्र तैयार नहीं करना पड़े। यह स्थिति इसलिए आई, क्योंकि जो काम वे कम्पनी के लिए करते थे, उससे उनकी आजीविका भी नहीं चल पाती थी।
वाणिज्य व्यापार का ग्राफ कम-पैदावार कम होने, कृषि की व्यवस्था चैपट होने तथा किसानों का खेती के प्रति रुझान कम होने से व्यापार-वाणिज्य भी बुरी तरह प्रभावित हुआ. सन् 1717 ई. के शाही फरमान द्वारा प्राप्त आज्ञा के अनुसार कम्पनी बंगाल में बिना किसी प्रतिबन्ध के व्यापार करने के लिए अनुबन्धित थी। व्यापार पर कम्पनी का ही एकाधिकार था. इसे बनाए रखने के लिए कम्पनी कर्मचारी कम मूल्य पर सामान बेचते थे, जिससे देशी व्यापारियों को भारी आर्थिक घाटा उठाना पड़ा. साथ ही साथ कम्पनी की स्थिति भी डांवाडोल हो गई और उसे भी आर्थिक रूप से हानि उठानी पड़ी।
मैसूर राज्य और अंग्रेजी शासन विस्तार का विरोध- जैसे – जैसे अंग्रेजी सत्ता का क्षेत्र बढ़ता गया वैसे-वैसे अंग्रेजों का रुझान भारतीय राजनीति में और बढ़ता गया. परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजों ने बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में अपना साम्राज्य स्थापित करने के बाद बम्बई, कलकत्ता तथा मद्रास की ओर अपना रुख बनाया। दक्षिण में अंग्रेजों को मैसूर के शासकों, हैदराबाद के निजाम तथा मराठों की शक्ति को देखकर अपने कदम रखने पड़ते थे। फ्रांसीसियों के साथ इनका तालमेल अंग्रेजों के लिए कष्टकारी सिद्ध हुआ। मराठा अपनी शक्ति बढ़ाकर मुगल सम्राट् को भी अपने कब्जे में करना चाहते थे। मुख्य रूप से हैदरअली तथा टीपू सुल्तान अंग्रेजों की शक्ति कम करने को प्रयासरत थे। मौके के अनुसार रोहिला सरदार, अवध का नवाब, जाट तथा सिख भी अंग्रेजों के विरुद्ध षड़यंत्र रचने लगे थे. अंग्रेजों को दक्षिण में अपने पैर मजबूत करने के लिए यह आवश्यक हो गया कि वे इन समस्त शक्तियों से लोहा लें। यह कार्य इतना आसान नहीं था, परन्तु अंग्रेजों ने साम-दाम-दण्ड-भेद की नीति का सहारा लेकर अपने साम्राज्य को बढ़ाने में सफलता प्राप्त कर ही ली। 1857 ई. तक अंग्रेज सम्पूर्ण भारत में अपना वर्चस्व कायम रखने में सफल हो गए।

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