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रविदास जयंती क्या है निबन्ध रविदास जयंती कब मनाया जाता है Ravidas Jayanti in hindi when is
when is celebrated Ravidas Jayanti in hindi रविदास जयंती क्या है निबन्ध रविदास जयंती कब मनाया जाता है ?
रविदास जयंती (Ravidas Jayanti)
जनवरी-फरवरी के चंद्रमास (माघ) की पूर्णिमा के दिन चमार जाति के लोग संत रविदास या रैदास का जन्मदिन मनाते हैं । संत रविदास चमार थे और कबीर के शिष्य थे। अपने गुरू की तरह उन्होंने भी अपने वचनों और पदों में हिन्दू और इस्लाम धर्मों की रूढ़ियों पर प्रहार किया। उन्होंने परमेश्वर के शाश्वत निराकार रूप की शिक्षा दी और उसके समक्ष सबके समान होने का उपदेश दिया और निश्चल भक्ति को मुक्ति का निश्चित मार्ग बताया। उन्होंने त्याग के दर्शन को अस्वीकार करते हुए निर्मल और सादे सांसारिक जीवन के महत्व की हिमायत की जिसमें व्यक्ति अपने पारिवारिक जीवन, जातीय धंधों और उस.निराकार परमेश्वर के प्रति समर्पित रहता है जो सभी धर्मों और सभी पंथों से आगे है।
इस शताब्दी के चैथे दशक के प्रारंभिक दौर में रविदास जयंती विधिपूर्वक मनाई जानी शुरू हुई। जाति के माध्यम से सुधार और पुनर्जागरण की राजनीति के उस दौर में रविदास विरोध और संस्कृतिकरण के माध्यम से चमार जातियों की एकता और चमारों के समाज में उत्थान के प्रयासों के प्रतीक के रूप में उभरे। तुलसी रामायण और सत्य नारायण व्रत कथा का स्थान लेने के लिए रविदास रामायण और रविदास कथा की रचना की गई।
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दीपावली एक महत्वपूर्ण वार्षिक पर्व है जो पतझड़ के सावन में पूरे भारत में मनाया जाता है। दीपावली का अर्थ है दीपों की कतार । ये दीप खतरों से भरे मानसून की समाप्ति पर आने वाले नए मौसम से जगने वाली आशा का प्रतीक हैं। यह पर्व कई अर्थों में एक नए वर्ष का उत्सव है। दीपावली का पर्व तीन रात तक मनाया जाता है जिसकी अंतिम रात बढ़ते चांद की पहली रात होती है। इस पर्व पर बहुत सावधानी से घरों और दुकानों को स्वच्छ और शुद्ध किया जाता है। सभी घरों में दीपक जलाए जाते हैं और दुष्टात्माओं को भगाने तथा समृद्धि की देवी लक्ष्मी का स्वागत करने के लिए पटाखे छोड़े जाते हैं। पैसों, भोजन और वस्त्रों से लक्ष्मी की आराधना की जाती है। पड़ोसियों और नौकर-चाकरों को उपहार दिए जाते हैं।
इस पर्व पर खूब जुआ होता है। लेकिन यह एक सीमा में होता है और इसका उद्देश्य ये देखना होता है कि आने वाले वर्ष में व्यक्ति का भाग्य कैसा रहेगा।
उत्तर भारत में दीपावली का दूसरा दिन मथुरा के निकट गोवर्धन पर्वत का दिन होता है। पुराणों में लिखा है कि एक बार इन्द्र ने पूरे संसार के मवेशियों को अपने अधिकार में कर लिया, लेकिन कृष्ण ने गायों को छुड़ा लिया। इस पर क्रुद्ध होकर इन्द्र ने उन पशुओं पर वर्षा भेजी। तब कृष्ण ने गायों की रक्षा करने के लिए गोवर्धन पर्वत को उठा लिया। इस दिन गोबर के ढेर पर भेंट चढ़ाई जाती है। इस संस्कार में भोज भी शामिल है। इस दिन विशेषरूप से उन भाइयों को भोजन कराया जाता है जिनकी कलाइयों पर बहनों ने राखी बांधी थी।
इस प्रकार, रविदास जयंती के उत्सव को एक राजनीति प्रेरित धार्मिक पर्वीय मंच के रूप में संस्थापित किया गया। पहले इसका आयोजन शहरों में किया गया और बाद में गांवों तक भी इसका प्रसार हुआ। यह उत्तर भारत के चमारों में एक सामाजिक एवं राजनीतिक आन्दोलन बन गया। रविदास के दर्शन का प्रचार करने के केन्द्रों के रूप में यहाँ/वहाँ रविदास मंदिन बन गए।
पिछले छह दशकों में रविदास जयंती का उत्सव नैत्यिक हो गया और उसने एक धार्मिक पर्व का रंग ले लिया है। रविदास जयंती पर भक्त लोग उपवास रखते हैं। सुबह एक सतरंगा झंडा फहराया जाता है। ये सात रंग रविदास की मुख्य शिक्षाओं के प्रतीक होते हैं। झंडे के नीचे रविदास के चित्र को रखा जाता है। इसे एक दैवीय मूर्ति की तरह पूजा जाता है। इसके आगे हवन किया जाता है।
उस दिन दोपहर में एक शोभा यात्रा निकाली जाती है जिसमें रविदास के जीवन के चमत्कारों के दृश्यों की झांकी रखी जाती है। उस दिन अधिकतर चमार काम नहीं करते, नए कपड़े पहनते हैं और शोभा यात्रा में शामिल होते हैं। अगले दिन इस जाति के लोग इकट्ठे होते हैं। बच्चों के लिए खेलों का आयोजन किया जाता है और जीतने वालों को इनाम दिए जाते हैं। रविदास का हवाला देते हुए राजनीतिक और धार्मिक नेता राजनीतिक भाषण देते हैं। दिवाली की तरह, रविदास जयंती पर भी रात में घरों को दीपों से सजाया जाता है।
सामाजिक महत्व रू एक विवेचन (Social Significance: A Discussion)
अब हम इन पर्र्वोें के सामाजिक महत्व पर नजर डालेंगे। यह बिलकुल स्पष्ट है कि समाज में धार्मिक पर्र्वोें को एक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है और उसकी महत्ता समेकित है। उनका समाजीकरण की दृष्टि से भी महत्व है।
मनुष्य, प्रकृति और समाज के बीच आपसी तालमेल (Adjustment Between Man, Nature and Society)
ओ, डीया (1966: पृ. 115) के अनुसार जीवन के वार्षिक सामाजिक चक्र में पवित्र और अपवित्र अवधियों की, उत्सव की अवधियों और काम की अवधियों की एक विशेष क्रम में आवृति होती हैं। एक ओर यदि हम अपने बसंत पंचमी, शिवरात्रि और होली जैसे पर्र्वोें को और दूसरी ओर सांझी, करवा चैथ, दीपावली और गोवर्धन पूजा जैसे पर्र्वोें को लें तो हम देखेंगे कि हमारे धार्मिक पर्व अधिकतर वर्षा, शीत और ग्रीष्म की नियत ऋतुओं के बीच संक्रांति की अवधियों में पड़ते हैं।
अगहन और पूस के महीनों में कोई पर्व नहीं पड़ता। इसके विपरीत गढ़वाल के जौनसार बावर, जौनपुर और खाई जैसे बहुपति प्रथा वाले क्षेत्रों में पूस के महीने के अंतिम दिनों में एक के बाद एक कई पर्व पड़ते हैं। इन पर्र्वोें में नाच-गानों, खाने-पीने और मस्ती का आलम रहता है।
यहाँ की परंपरा के अनुसार, युवा विवाहित स्त्रियाँ इस शीतकालीन पर्र्वोें में शामिल होने के लिए अपने मायके चली जाती हैं। ये पर्व आंशिक रूप से धार्मिक हैं लेकिन अधिकतर सांसारिक होते हैं और इनमें मनोरंजन और मस्ती ही हावी रहती है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि उन दिनों यहां कड़ाके की ठंड और बर्फ होने के कारण खेती बाड़ी का काम ठप्प रहता है।
व्यक्ति की भावनात्मक सामाजिक सुरक्षा (Emotional Social Security of the Individual)
करवा चैथ जैसे कुछ पर्र्वोें का उद्देश्य व्यक्ति को भावनात्मक सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना है। करवा चैथ के बारे में कहा जा सकता है कि उसका कोई विशिष्ट सामूहिक चरित्र नहीं होता क्योंकि इसे केवल विवाहित स्त्रियां या किसी एक परिवार या पड़ोस की स्त्रियाँ ही मनाती हैं। इसका उद्देश्य विधवा को सामाजिक अभिशाप से मुक्ति दिलाना है। भावनात्मक सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने वाले पर्र्वोें में जादू या तंत्र-मंत्र का भी पुट रहता है। उनका चरित्र सामूहिक हो भी सकता है और नहीं भी।
उर्वरता प्राप्त करने वाले, कृषि संबंधी और अन्य प्रकार की समृद्धि दिलाने वाले, पति, भाई और पुत्र की लंबी आयु सुनिश्चित करने वाले और चेचक और हैजा जैसी बीमारियों और विपदाओं से मुक्ति के लिए देवताओं या देवियों की वार्षिक सामूहिक साधना इसी श्रेणी में आती हैं।
अस्मिता, एकात्मकता, विभेदन और संघर्ष (Identity, Solidarity, ffDierentiation and Conflict)
सामाजिक दृष्टि से धार्मिक पर्व सामूहिक अस्मिता या पहचान और एकात्मकता और अंतः सामूहिक और अंतर सामूहिक विभेदन और संघर्ष से भी संबंध रखते है। इससे विभिन्न किस्स के समूहों को अस्मिता और एकात्मकता भी प्राप्त होती है जैसे, कोई पंथ, कोई जाति, कोई स्थानिक समूह (गांव, क्षेत्र/राष्ट्र) और कोई जातीय समूह (जैसे पारसी)।
उदाहरण के लिएः मुहर्रम से मुसलमानों की अस्मिता बनती है और गद्दी (ळंकप) पंचमी से शिवनारायणी पंथ के अनुयायियों की। करवा चैथ और सांझी अखिल भारतीय नहीं बल्कि क्षेत्रीय पर्व हैं। इसी प्रकार दलचाता (क्ंसं ब्ीींजीं) मुख्य रूप से भोजपुरी क्षेत्र का पर्व है। इस पर्व में स्त्रियों की जनन शक्ति, पुत्र प्राप्ति और पुत्र की लंबी आयु की कामना की जाती है।
मुहर्रम का उत्सव शिया और सुन्नी मुसलमानों में पंथीय विभेदन से भी संबंध रखता है, क्योंकि लखनऊ में इस पर्व पर अक्सर इन दोनों पंथों में संघर्ष हो जाता है। कभी-कभी यह संघर्ष हिंसक रूप भी ले लेता है। जब मुहर्रम और होली या दशहरा एक ही समय पड़ जाते हैं तो हिन्दू-मुस्लिम तनाव की संभावना रहती है और इसमें हिंसक संघर्ष भी हो जाता है।
रविदास जयंती ने अपने अनुयायियों के सगोत्र विवाह वाले समूहों को सामाजिक रूप से एक ठोस समूह में एकताबद्ध नहीं किया है। देहरादून में रैदासी और जातीय चमार शोभा यात्रा में तो भाग लेते हैं लेकिन अन्य उत्सव अपने-अपने मोहल्लों में ही करते हैं (भट्ट, 1961)। अब तो रैदासी भी अपना उत्सव दो स्थानों पर करते हैं, भले ही वे एक ही मोहल्ले में और एक ही बस्ती में रहते हों। अब रविदास जयंती का उत्सव करने के लिए अलग-अलग संगठन होते हैं।
कार्यकलाप 2
ऐसे पाँच धार्मिक पर्र्वोें के नाम बताइए जिनका उल्लेख यहाँ नहीं किया गया है। इन्हें अध्ययन केन्द्र में ई.एस.ओ.- 15 के अन्य विद्यार्थियों की सूची में दिए पर्र्वोें से मिला कर देखिए। इनमें से कितने पर्र्वोें के नाम सभी सूचियों में मिलते हैं ?
सामाजिक स्तरीकरण (Social Stratification)
भारतीय स्थितियों में, किसी धार्मिक पर्व को मनाने और सामाजिक स्तरित व्यवस्था के बीच गहरा संबंध होता है। भारत में सामाजिक स्तरीकरण में श्रेणीबद्ध जातियां आती हैं। प्रत्येक जाति की एक परंपरागत व्यावसायिक भूमिका है। परंपरा के अनुसार जाति पर आधारित व्यावसायिक भूमिकाएं कृषि-अर्थव्यवस्था और खेतिहरों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के अधीन रही हैं। शहरी औद्योगीकरण के बढ़ते प्रभाव के कारण, जाति और व्यवसाय के बीच का पारंपरिक तालमेल तेजी से बदल रहा है, फिर भी ग्रामीण परिवेश में यह अभी भी देखने को मिलता है लेकिन वहां भी उसका वह मजबूत रूप नहीं रहा है। वैसे सामान्य स्थिति यह है कि ब्राह्मण पुरोहित की भूमिका निभाता है, कारीगर जातियों के लोग अपनी-अपनी जातियों में दस्तकारी संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं, और निम्न जातियों के लोग निम्न प्रकार के काम करते हैं। रामलीला के समय कई जगहों पर रावण का पुतला बनाने का काम मुसलमान कारीगर करते हैं।
सांस्कारिक कला (Ritual Art)
सांस्कारिक कला का संबंध समाज में धर्म के व्यंजनात्मक पक्ष से होता है। जैसा की सांझी और करवा चैथ के उपर्युक्त विवरण से संकेत मिलता है, किसी धार्मिक पर्व के उत्सव में कला की एक अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसे आलेखन, चित्रकला, नमूने बनाना, मूर्तिकला और फूलों आदि से भी सजावट जैसी कला के विभिन्न रूप में जुड़ा हुआ देखा जा सकता है।
जैसा कि पहले बताया जा चुका है, करवा चैथ के साथ आलेखन और चित्रकला की कला जुड़ी है और सांझी के साथ मिट्टी के नमूने बनाने या एक प्रकार की भित्ति चित्र बनाने की कला जुड़ी है। बृजमंडल की मथुरा नगरी में सांझी की सजावट में फूलों को भी शामिल कर लिया जाता हैं। वहां सांझी के प्रतीक के रूप में राधा और कृष्ण को लिया जाता है। सावन (अगस्त) के महीने में राधा और कृष्ण की आकृतियों को मंदिर के अंदर फर्श पर ताजी पत्तियों और फूलों से सजाया जाता है।
ये कलाकार विशेषज्ञ भी हो सकते हैं और गैर विशेषज्ञ भी। जहां संस्कार या अनुष्ठान किसी विशेषज्ञ के हाथों निर्देशित होते हैं और पर्व का उत्सव स्तरित ढांचे में रखा जाता है वहां प्रासंगिक कलात्मक वस्तुओं को रचाना एक या एक से अधिक विशेषज्ञों का काम हो सकता है। गढ़वाल के बहुपति प्रथा वाले क्षेत्र के एक गाँव में हनुमान, भालू और भेड़ की लकड़ी की आकृतियाँ बनाने का काम गाँव का बढ़ई करता है। अन्यथा जैसा कि सांझी और करवा चैथ के उत्सव में होता है यह काम गैर विशेषज्ञ भी कर सकता है।
बोध प्रश्न 2
प) अस्मिता, एकात्मकता, विभेदन और संघर्ष और धार्मिक पर्र्वोें के बारे में 5-7 पंक्तियों में लिखें।
पप) सांस्कारिक कला के बारे में आप क्या जानते हैं ? क्या आप इसके कुछ उदाहरण दे सकते हैं ? अपना उत्तर 5-7 पंक्तियों में दें।
बोध प्रश्न 2 उत्तर
प) धार्मिक पर्र्वोें का संबंध सामूहिक अस्मिता और एकात्मकता और सामूहिक विभेदन और संषर्घ से होता है। उदाहरण के लिए, मुहर्रम मुसलमानों को अस्मिता देता है और बसंत पंचमी का गद्दी पर्व शिवनारायणी पंथ के अनुयायियों की अस्मिता का प्रतीक है। मुहर्रम का उत्सव शिया और सुन्नी मुसलमानों में विभेदन से जुड़ा है।
पप) सांस्कारिक कला वह होती है जिसका अभ्यास धर्म और समाज के संदर्भ में किया गया है। इसके उदाहरण हैं, देवी सांझी की मिट्टी की प्रतिमा, मुहर्रम पर ताजिया निकालना और करवा चैथ के दिन करवा बनाना।
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