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राम मनोहर लोहिया कौन थे | जीवन इतिहास जानकारी विचार , ram manohar lohia in hindi समाजवाद

(ram manohar lohia in hindi books name socialism essay) राम मनोहर लोहिया कौन थे | जीवन इतिहास जानकारी विचार और उनका समाजवाद पुस्तकें राममनोहर लोहिया के अनुसार लोकतंत्र के स्तंभ क्या है | आर्थिक सामाजिक एवं राजनीतिक विचार सिद्धांत |

इकाई की रूपरेखा

उद्देश्य
व्यक्ति और चिंतक: एक परिचय
लोहिया का जीवन
लोहिया-एक चिन्तक
बौद्धिक संदर्भ
वर्तमान व्यवस्था का विश्लेषण
लोहिया का इतिहास का सिद्धान्त
पूंजीवाद और साम्यवाद
भविष्य के लक्ष्य
परिवर्तन लाने के लिए व्यूह-रचना
एक समीक्षात्मक-मूल्यांकन
सारांश
मूल शब्द
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर

कृपया ध्यान रखिए कि इस इकाई में हरेक भाग के अन्त में दो प्रकार के अभ्यास दिए गए हैं। बोध प्रश्न आपसे प्रश्न करते हैं जिनका आप सम्बन्धित भाग के आधार पर उत्तर दे सकते हैं। इन प्रश्नों के उत्तर इकाई के अंत में दिए गए हैं। ‘‘अपने आप कीजिए’’ भाग कुछ प्रश्नों या कार्यों के सुझाव देते हैं, जो उस भाग से सम्बन्धित होंगे और जिन्हें आप विस्तृत अध्ययन के लिए अपने आप पूरा कर सकते हैं। ध्यान रखिए कि इस इकाई में कुछ प्रश्न मोटे टाइप में दिए गए हैं। आप आगे बढ़ने से पहले इन प्रश्नों पर ठहर-कर-उनका उत्तर सोचिए और फिर अपना अध्ययन आगे जारी कीजिए।

उद्देश्य
इस इकाई में एक और समाजवादी चिन्तक-राममनोहर लोहिया के बारे में चर्चा की गई है। इसका मुख्य उद्देश्य आपको उनके विचारों से परिचित कराना है। अतः इस इकाई के अध्ययन के पश्चात् आपको इस स्थिति में होना चाहिए कि आप:
ऽ इतिहास के अनेक सिद्धान्त की रूपरेखा बता सकें,
ऽ पूंजीवाद और साम्यवाद सम्बन्धी उनके विश्लेषण पर चर्चा कर सकें,
ऽ भविष्य के लिए उनके लक्ष्यों और आदर्शों की जानकारी दे सकें, और
ऽ बता सकें कि वे परिवर्तन कैसे लाना चाहते थे।
इसके अलावा आपकोः
ऽ उनके विचार के सभी पहलुओं में सामंजस्य स्थापित करने,
ऽ भारतीय समाजवादी चिन्तन में उनके योगदान को परिभाषित करने, तथा
ऽ उनके विचारों की समीक्षा कर सकने की स्थिति में भी होना चाहिए।

व्यक्ति और चिन्तक: एक परिचय
राममनोहर लोहिया एक प्रमुख नेता और सम्भवतः भारत में समाजवादी आन्दोलन के सबसे अधिक मौलिक चिन्तक थे। लेकिन इस पाठ्यक्रम में आप जिन अन्य अधिकांश चिन्तकों के बारे में पढ़ चुके हैं, उनकी तुलना में वे कम प्रसिद्ध थे। हो सकता है कि आप में से अनेक पहली बार ही उनका नाम सुन रहे हों । तब आइए, हम उनके जीवन और कार्य के बारे में उनके संक्षिप्त परिचय से अपना अध्ययन आरम्भ करें ।

लोहिया का जीवन
राममनोहर लोहिया का जन्म उत्तर प्रदेश के अकबरपुर में 1910 में एक मध्यवर्गीय पारो परिवार में हुआ था । अपने पिता के प्रभाव के कारण राममनोहर अल्प आयु में ही राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ गए। अभी वे 15 वर्ष के ही थे कि उन्हें उच्चतर अध्ययन के लिए जर्मनी भेज दिया गया। वहां उन्होंने बर्लिन विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में पी.एच.डी. उपाधि प्राप्त की। यहां ही जर्मन समाजवादी प्रज्ञावांनों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं से उनका सम्पर्क हुआ था। डा. लोहिया 1933 में भारत लौटे और कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे राष्ट्रीय आन्दोलन से पूरी तरह जुड़ गए । कांग्रेस में वे समाजवादी समूह जिसकी चर्चा नरेन्द्रदेव से सम्बन्धित पूर्व इकाई में की जा चुकी है, के सदस्य थे। क्या आपको उस पार्टी का नाम याद है? वह थी कांग्रेस समाजवादी पार्टी । नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, अशोक मेहता और मीनू मसानी जैसे अन्य नेताओं तथा लोहिया ने 1934 में इस पार्टी का गठन किया था। इस पार्टी ने कर्मचारियों और किसानों को संगठित कर राष्ट्रीय आन्दोलन में आमूलचूल परिवर्तन करने का प्रयास किया था। लोहिया ने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लिया, भारत छोड़ो आन्दोलन के भूमिगत अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा कई बार जेल गए।

स्वाधीनता के बाद कांग्रेस समाजवादी पार्टी कांग्रेस से अलग हो गई। अब समाजवादी पार्टी (1952 के बाद प्रजा समाजवादी पार्टी) स्वातंत्रोतर भारत की प्रमुख विरोधी पार्टी बन गई । इसी चरण में लोहिया इस पार्टी के प्रथम श्रेणी के नेता बने तथा लोहिया और उनके अनुयायी 1955 में प्रजा समाजवादी पार्टी से अलग हो गए और पुनः समाजवादी पार्टी का गठन किया । 1964 के बाद यह पार्टी संयुक्त समाजवादी पार्टी हो गई । लोहिया के नेतृत्व में उनकी पार्टी ने सरकार की विभिन्न नीतियों के विरुद्ध कई विरोध प्रदर्शन तथा सविनय अवज्ञा आन्दोलन आयोजित किए। फिर भी चुनावों में पार्टी को बहुत ही कम सफलता मिली । स्वयं लोहिया भी 1963 में ही लोकसभा के सदस्य निर्वाचित हो सके। 1967 के आम चुनावों से पूर्व उन्होंने सभी विरोधी पार्टियों को कांग्रेस के विरुद्ध संगठित करने की कोशिश की थी। यह नई व्यूह रचना कुछ सफल रही, लेकिन लोहिया इस अभियान को सशक्त बनाने तक जीवित नहीं रहे। 1967 में उनका देहांत हो गया।

लोहिया-एक चिन्तक
लोहिया अनेक विचारों वाले व्यक्ति थे । यद्यपि उन्होंने काफी लेखन कार्य किया, तथापि कभी भी कोई पूरी पुस्तक नहीं लिखी । वह कोई पूरी पुस्तक क्यों नहीं लिख सके, इसकी चर्चा करते हुए उन्होंने एक बार बताया था कि उनका यह विश्वास है कि आप एक ही दृष्टिकोण या पहलू से सत्य के दर्शन कर सकते हैं । सम्पूर्णता का दावा, जोकि सामान्यता एक पुस्तक करती है, सत्य को निश्चय ही विभृत करता है । इसलिए उनका रचना कार्य लेखों या लेखों को कुछ श्रंृखलाओं तह ही सीमित रहा। इनमें से अधिकांश लेख उन भाषणों के ही परिशोधित रूप है, जो उन्होंने विभिन्न स्थानों पर दिए थे। बाद में इन लेखों को संकलित कर पुस्तकों का रूप दे दिया गया । लोहिया के लेखों के इन संकलनों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं: ‘‘मार्क्स, गांधी और समाजवादी‘‘ (1963) । उनकी ऐसी ही कुछ अन्य पुस्तके हैं– इतिहास का चक्र (1955), जाति प्रणाली (1963), और राजनीति में अन्तराल (1965) । इन पुस्तकों और अन्य लेखों से पता चलता है कि लोहिया व्यापक विषयों के एक असमान्य चिन्तक थे । राजनीति के अतिरिक्त संस्कृति, अर्थ व्यवस्था, धर्म एवं विज्ञान और प्रौद्योगिकी से सम्बन्धित प्रश्नों में भी उनकी गहरी रुचि थी। उनकी रुचि मात्र वर्तमान में ही नहीं, वरन् सुदूर अतीत और भविष्य में भी थी । भौगौलिक रूप से उनका चिन्तन केवल भारत तक ही सीमित नहीं था, बल्कि, उसकी सीमाओं से परे तह फैला हुआ था। विश्व भर की घटनाओं पर उनका ध्यान रहता था । वे एक ओर जहां अत्यन्त साधारण और ठोस प्रश्नों में रुचि लेते थे, वहां दूसरी ओर बड़े और अत्यन्त अस्पष्ट प्रश्नों पर भी ध्यान देते थे।

लोहिया का राजनीतिक चिन्तन व्यापक विषयों से जुड़े प्रश्नों के उत्तर का एक महत्वकांक्षी प्रयास था यह प्रयास इस कारण महत्वकांक्षी था कि उन्होंने कभी भी निश्चित और स्थापित विचारधाराओं को समग्र रूप से स्वीकार नहीं किया था। उदाहरणार्थ, वे मार्क्सवाद और गांधीवाद दोनों से प्रभावित थे, फिर भी वे दोनों के आलोचक थे। किसी भी निष्कर्ष पर पहंचने का उनका प्रिय मार्ग यह था कि वे किसी भी स्थापित विचारधारा या चिन्तन में वैचारिक विरोध या द्विधातमकता खोजते थे और फिर उसे उच्चतर स्तर पर हल करते थे। इस प्रकार वे कई परस्पर विरोधी विचारों और प्रभावों में सामंजस्य या एकीकरण लाने का प्रयास करते थे। फिर भी उनका चिन्तन किसी भी विचार का एक ऐसा सामंजस्यपूर्ण रूप ग्रहण महीं कर पाता है, जिसमें उनके सभी विचार स्पष्ट रूप से एक दूसरे सम्बन्धित हों। अगर इस तथ्य को एक चित्र का उदाहरण दे कर स्पष्ट किया जाए, तो लोहिया का चिन्तन एक बड़े किन्तु अनगढ़ स्केच जैसा है, न कि एक छोटा और सम्पूर्ण चित्र। चूंकि वे अपने विचार के विवरणों में नहीं जाते थे, इसलिए उनकी चिन्तन प्रणाली में कई कमियां थीं और वह मात्र अनुमानों पर आधारित थी।

आप पूछ सकते हैं: अगर लोहिया के विचार एक अनगढ़ स्केच जैसे हैं, तो हमें उनका अध्ययन क्यों करना चाहिए। इसका उत्तर है: क्योंकि वह कई अर्थों में अत्यन्त मौलिक हैं। इससे एक और प्रश्न सामने आता है । मौलिकता का अर्थ क्या है? क्या इसका अर्थ यह है कि एक मौलिक चिन्तक जो कुछ कहता है वह पहले कभी नहीं कहा गया है?

निश्चय ही नहीं। अगर यही बात होती तो कोई मौलिक चिन्तक ही न होता । जब हम विचारों के इतिहास में मौलिकता की बात करते हैं तब हम उस क्षमता की बात करते हैं जिसके सहारे कोई व्यक्ति पराने विचारों को नए ढंग से एक सो से जोड़ता या प्रस्तुत करता है। गांधी के सत्याग्रह की तकनीक को उदाहरण के तौर पर लीजिए। अहिंसा, सत्य और अन्याय के विरुद्ध प्रतिरोध के विचारों से लोग गांधी से पहले ही परिचित थे। लेकिन गांधी ने इन विचारों को पहली बार एक सूत्र में पिरोया और राजनीति के नए क्षेत्र में उनका उपयोग किया। यहीं उनकी मौलिकता थी। इसी अर्थ में हम लोहिया की मौलिकता की बात करते हैं। उन्होंने पुराने समाजवादी विचारों के बीच पूर्वधारणाओं पर प्रश्न चिन्ह लगाया और उन्हें पुनः व्यवस्थित कर अपने ढंग से एक नया रूप दिया। वे कौन से समाजवादी विचार थे जो लोहिया को प्राप्त हए थे? इन विचारों की कौन सी पूर्व धारणाएं थीं जिन पर उन्हें संशय था? उन्होंने उन्हें किस प्रकार फिर से तरतीब दी थी और उनके स्थान पर नए विचार रखे थे? क्या इस प्रयास में वे सफल रहे थे? हो सकता है कि ये तमाम सवाल आप के मन में उठे। आगे हम एक-एक कर इन प्रश्नों पर विचार करेंगे।

बोध प्रश्न 1
टिप्पणी: क) नीचे दिए गए रिक्त स्थान में अपना उत्तर लिखिए।
ख) इकाई के अन्त में दिए गए उत्तरों से अपने उत्तर मिलाइए।
1) उन राजनीतिक पार्टियों के नाम क्रमशः बताइए जिनके लोहिया सदस्य रहे थे?
2) लोहिया के चिन्तन के दो विशिष्ट गुणों की चर्चा कीजिए।
अपने आप हल कीजिए
1) राजनीतिक नेता और एक राजनीतिक चिन्तक के रूप में लोहिया की सफलताओं की तुलना कीजिए। इनमें से उनका कौन सा रूप अधिक प्रभावशाली है? सम्पूर्ण इकाई पूरी करने के बाद आप इस प्रश्न पर लौट सकते हैं।

बोध प्रश्न 1 के उत्तर 
1) कांग्रेस, कांग्रेस समाजवादी पार्टी, समाजवादी पार्टी, प्रजा समाजवादी पार्टी, समाजवादी पार्टी, संयुक्त समाजवादी पार्टी ।
2) निम्नलिखित में से कोई भी दो बातें उत्तर में कही जा सकती हैं: व्यापक रुचियां, मौलिकता, किसी भी विचारधारा को समग्र रूप से अस्वीकार, वैचारिक द्विधा का सामंजस्य, सम्पूर्ण सम्बद्धता की कमी ।

 बौद्धिक संदर्भ
आइए, इस प्रश्न के साथ हम अपनी बात आरम्भ करें, लोहिया का बौद्धिक सन्दर्भ क्या था? आपके लिए इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन नहीं होना चाहिए । सम्भवतः आपमें से अनेक को इस पाठ्यक्रम के स्वरूप से ही कुछ संकेत मिल जाएं। लोहिया सम्बन्धी यह इकाई ‘‘भारतीय समाजवादी-विचार’’ नाम खंड का ही एक भाग है । यही लोहिया का सीधा-सादा बौद्धिक संदर्भ है। अगर इस प्रश्न का आपका उत्तर यह है कि आधुनिक राजनीतिक विचार ही लोहिया का बौद्धिक संदर्भ है, तब भी आपका उत्तर गलत नहीं होगा। यह बृहत्तर बौद्धिक पृष्ठभूमि ही है। जिसमें लोहिया के विचार स्थित हैं। अन्य किसी चिन्तक की तरह इस संदर्भ में लोहिया के भी अपने कुछ केन्द्रीय विषय और प्रश्न थे। उनके विचार इन प्रश्नों और विषयों के ही उत्तर थे। हमें इस सन्दर्भ के इन विषयों के विवरण में यहां जाने की आवश्यकता नहीं है। इतनी अब आपको जानकारी हो ही गई है। हम आपको इनके पहलुओं में से केवल एक ही यहां याद दिलाना चाहेंगे जो लोहिया को, समझने के लिए आवश्यक हैं।

आधुनिक भारतीय विचारों का विकास काफी हद तह योरोप के साथ भारत के सम्पर्क का परिणाम था । अतः आधुनिक भारत में राजनीतिक चिन्तकों का एक प्रमुख कार्य पश्चिम को समझना और उसका मूल्यांकन करना रहा है। जहां सभी राष्ट्रीय चिन्तक औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध थे, वहां इनमें से अधिकांश पश्चिम को एक ऐसा आदर्श मानते थे जिसको पाने के लिए भारत को आगे बढ़ना चाहिए। परिणामस्वरूप एक ऐसा तनाव पैदा हुआ जिसने आधुनिक भारत। में पश्चिम विषय को विवाद का एक मुख्य विषय बना दिया। भारतीय समाजवाद को अपने पूर्व की बौद्धिक परम्पराओं से यह विवाद उत्तराधिकार में मिला था। कम से कम दो, अर्थों में समाजवाद मूलतः योरोपीय सिद्धान्त था। योरोप ही इसका उक्त था और यह मुख्यतया: योरोप के लिए ही था। बाद में यह भारत सहित अनेक गैर योरोपीय समाजों में फैल गया। सभी भारतीय समाजवादी चिन्तकों को अपने सिद्धांतों में इस योरोपीय तत्व को महत्व देना पड़ा। इस प्रकार भारतीय राजनीतिक चिन्तन में पश्चिम का प्रश्न भारतीय समाजवादी विचारों में भी महत्वपूर्ण रहा। मूल पश्चिमी सिद्धान्त को चाहे वह साम्यवादी हो या लोकतंत्रीय समाजवादी, उसे उसके स्थापित एकरूप में ही भारतीय समाजवादियों ने समग्र रूप से स्वीकार कर लिया। परिणामस्वरूप उनमें से अधिकांश योरोपीय सभ्यता की श्रेष्ठता से प्रभावित थे और उन्होंने इस समाजवादी सिद्धान्त को बिना किसी संशय के स्वीकार कर लिया था। पहली तीन इकाइयों ने निश्चय ही आपको इन विषयों की जानकारी दे दी होगी।

भारतीय समाजवादी चिन्तन में लोहिया के योगदान को इसी संदर्भ में समझा जा सकता है। वह भारत के पहले ऐसे चिन्तक थे जिसने पश्चिम पर समाजवादी सिद्धान्त की निर्भरता को चुनौती दी थी। उनके चिन्तन की सम्पूर्ण प्रणाली सही अर्थों में एक सार्वजनीन समाजवादी सिद्धान्त के निर्माण का प्रयास था जिसकी परिधि में गैर योरोपीय विश्व भी समाहित था। इस सम्बन्ध में लोहिया के मूल तर्क को इन शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है: समाजवाद एक मुक्तिदायी और क्रान्तिकारी विचारधारा है । बहरहाल, विविध ऐतिहासिक कारणों से यह विचारधारा अभी तक योरोप तक ही सीमित रही है। रूढ़िवादी मार्क्सवाद या साम्यवाद इस निर्भरता को व्यक्त करता है । वे समाजवादी भी जो साम्यवाद को स्वीकार नहीं करते, साम्यवाद और पूंजीवाद के कुछ स्वरूपों को एक दूसरे से मिला देते हैं । ये दोनों विचार भी योरोप की ही देन हैं। यही कारण है कि समाजवाद गैर योरोपीय परिवेश में अपनी क्रान्तिकारी भूमिका अदा करने में असफल रहा है। इस रूप में यह योरोपीय श्रेष्ठता स्थापित करने का एक माध्यम बना रहा। इस स्थिति से बाहर निकलने का समाजवाद की नई विचारधारा या सिद्धान्त ही एक रास्ता था। अतः हमारा काम इस नए सिद्धान्त की सैद्धान्तिक आधारशिला तलाश करना है। इसके लिए आवश्यक है कि नए सिरे से ऐतिहासिक विश्लेषण किया जाए, नए लक्ष्य निर्धारित किए जाएं और गैर पश्चिमी अनुभव को सामने रखकर अधिक उपयुक्त व्यूह रचना तय की जाय । यही वह काम है जिसे लोहिया ने अपने लिए तय किया और जिसे जीवन पर पूरा करने का प्रयास किया।

आइए, इस तिहरे काम पर गहराई से विचार करें। प्रत्येक राजनीतिक अभिनेता और चिन्तक को निम्नलिखित तीन प्रश्नों का सामना करना होता हैः
1) वर्तमान स्थिति क्या है? इसमें यह आवश्यक है कि वर्तमान और अगर आवश्यक हो, तो अतीत और भावी प्रवृत्तियों का वास्तविक विश्लेषण भी किया जाए।
2) आपेक्षित व्यवस्था कैसी होनी चाहिए? इसके लिए आवश्यक है कि भविष्य के लिए लक्ष्य निर्धारित किए जाएं।
3) हम वर्तमान से आपेक्षित लक्ष्य की ओर कैसे जाएं? इसका उत्तर पहले दो प्रश्नों के उत्तरों पर निर्भर करता है तथा यह आवश्यक हैं कि आपेक्षित परिवर्तन लाने के लिए निर्धारित तरीके या व्यूह रचना पर विचार किया जाए। वे तीनों काम एक दूसरे से अलग नहीं है। कोई भी विश्लेषण तथ्यगत नहीं होता। वह हमेशा अच्छे या बुरे के विचार से प्रभावित होता है। लक्ष्य मात्र आदर्श नहीं होते। वे वर्तमान स्थिति की सम्भावनाओं से जुड़े होते हैं। इनको पाने का तरीका स्पष्ट ही इस बात पर निर्भर करता है कि हम कहां हैं, क्या हैं और हमारे स्थापित लक्ष्य किस प्रकार के हैं। उपरिलिखित विभाजन मात्र विचारों के प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से किया गया है। आगामी तीन भागों में हम ऊपर दिए गए तीनों प्रश्नों की प्रति लोहिया की प्रतिक्रिया पर एक-एक कर के विचार करेंगे। आपको याद होगा कि इन सभी के बारे में लोहिया का प्रमुख कार्य योरोप केन्द्रित पूर्व धारणाओं को अर्थात् योरोप के आधारभूत विचारों को वर्तमान समाजवादी सिद्धान्त से पृथक कर उसके स्थान पर एक वैकल्पिक सिद्धान्त का निर्माण करना था।

बोध प्रश्न 2
टिप्पणी: क) अपने उत्तर के लिए निम्न रिक्त स्थान कर उपयोग कीजिए।
ख) इकाई के अन्त में दिए गए उत्तरों से अपने उत्तरों को मिलाइए।
1) आधुनिक भारत के अन्य समाजवादी चिन्तकों में लोहिया की क्या विशिष्टताएं हैं? केवल प्रमुख बातें ही लिखिए।
2) रिक्त स्थानों को भरिएः
प्राप्त समाजवादी सिद्धान्त के बारे में लोहिया की मुख्य आलोचना यह थी कि वह …………………….. निर्भर करता है। इसलिए उनका काम था कि सही माने में ………………. समाजवादी सिद्धान्त स्थापित किया जाए जो ………………..अनुभव को ध्यान में रख कर बनाया गया हो। इसके लिए आवश्यक था कि वर्तमान के लिए नया ………………………….तथा वर्तमान से आपेक्षित भविष्य की ओर जाने के लिए……………………… तय किया जाए।

बोध प्रश्न 2 के उत्तर 
1) अन्य समाजवादियों ने पश्चिमी सिद्धान्त को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया कर, लोहिया ने इस निर्भरता को चुनौती दी तथा एक ऐसा वैकल्पिक सिद्धान्त विकसित किया जिसमें गैर-योरोपीय अनुभव को भी सम्मिलित किया गया।
2) योरोप / पश्चिमी, सार्वजनिक, गैर-योरोपीय / गैर-पश्चिमी विश्लेषण, लक्ष्य, व्यूह रचना।
अपने आप हल कीजिए
1) अन्य चिन्तकों, विशेषकर अन्य समाजवादी चिन्तकों की, जिनके बारे में आपने इस पाठ्यक्रम में अध्ययन किया है, पश्चिम के प्रति क्या प्रतिक्रिया थी? क्या आप भारतीय राजनीतिक चिन्तन में पश्चिम के प्रति प्रतिक्रिया पर एक नोट लिख सकते हैं?
2) ऊपर लिखित राजनीतिक सिद्धान्त के तिहरे वर्गीकरण को क्या व्यापक तंौर पर प्रयुक्त किया जा सकता है? हर उस राजनीतिक चिन्तक के बारे में जिनका आपने अध्ययन किया है, इसका उपयोग करने का प्रयास कीजिए । शेष इकाई को बेहतर रूप में समझने की दृष्टि से आप इन प्रश्नों के अपने उत्तर भी सोचिए ।

वर्तमान व्यवस्था का विश्लेषण
किसी समाज को समझना नक्शा खींचने जैसा है। एक अच्छे नक्शे में सभी विवरणं नहीं होते या होने चाहिए। दूसरी प्रकार समाज के विश्लेषण का अर्थ यह नहीं है कि उसकी असंख्य घटनाओं या उनके विवरणों का वर्णन करने का प्रयास किया जाए। नक्शे की तरह समाज के अच्छे विश्लेषण के लिए यह आवश्यक है कि कुछ महत्वपूर्ण तथ्य चुने जाएं और उनका परस्पर सम्बन्ध दिखाया जाए। यह काम कई तरीकों से किया जा सकता है। इनमें से एक है ऐतिहासिक विश्लेषण का तरीका। इस तरीके से हम महत्वपूर्ण तथ्यों और उनके परस्पर आन्तरिक सम्बन्धों को पहचान करते हैं। यह काम एक निश्चित समय तक समाज का निरीक्षण कर तथा वर्तमान को अतीत के साथ जोड़ कर ही किया जा सकता है। क्योंकि लोहिया का विश्लेषण इसी तरीके पर आधारित था । इसलिए आइए उसका गहराई से अध्ययन करें।

हम सभी मानते है कि ऐतिहासिक घटनाओं के कुछ कारण अवश्य होते हैं। लेकिन अगर आप से कोई यह पूछे समग्र रूप से इतिहास की प्रेरक शक्ति क्या है? तो हो सकता है कि यह आपको एक अनोखा प्रश्न लगे। इस प्रकार की जांच, जो ऐसा प्रश्न खड़ी करती है और उसका उत्तर देने का प्रयास करती है को इतिहास या दर्शन कहा जाता है । जो ऐतिहसिक तरीके को स्वीकार करते हैं उनके लिए यह आवश्यक नहीं हैं कि वे इतिहास के दर्शन को भी स्वीकार करें। इस प्रकार की जांच की प्रणाली ही गेल और मार्क्स जैसे 19वीं शताब्दी के योरोपीय चिन्तकों तथा टोयन्बी और स्पेंगलर जैसे 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध के कुछ इतिहास वेत्ताओं के बीच लोकप्रिय थी। इतिहास के दर्शन की मूलभूत धारणा यह है कि किसी भी अस्त-व्यस्त स्थिति के पीछे इतिहास की कुछ ऐसी घटनाएं होती हैं, जिनसे पता चलता है कुछ बुनियादी व्यवस्थित सिद्धांत भी काम कर रहे हैं जिनको खोजना चाहिए। उदाहरणार्थ-इतिहास के मार्क्स के सिद्धान्त के अनुसार मानवता का इतिहास व्यक्ति की उर्वर क्षमता और उसी के अनुसार ऐसे परिवर्तन लाने की सामर्थ्य जिसमें मनुष्य अपने सामाजिक जीवन को व्यवस्थित करता है, की निरन्तर प्रगति का इतिहास है। उन्होंने इतिहास के मूलभूत सामाजिक परिवर्तनों के इस क्रम को भी खोजा था-प्रौगैतिहासिक साम्यवाद, गुलामी जमींदारी, पूंजीवाद । उनका सिद्धान्त इतिहास की प्रगति में आगामी कदम के रूप में समाजवाद की भी चर्चा करता है।

 लोहिया का इतिहास का सिद्धान्त
लोहिया मार्क्स के इतिहास के सिद्धान्त के आलोचक थे। उन्होंने इतिहास के अपने सिद्धान्त में इसकी आलोचना अपनी पुस्तक ‘‘इतिहास का चक्र’’ (हील ऑफ हिस्ट्री) में की है। मार्क्स के सिद्धान्त के विरुद्ध उनका प्रमुख तर्क यह था कि मार्क्स का सिद्धान्त योरोपीय इतिहास को ही मानवता का इतिहास मानता है। इसके स्थान पर उन्होंने इतिहास के दर्शन का अपना ही वैकल्पिक सिद्धान्त विकसित किया । इस सिद्धान्त के अनुसार दो प्रमुख सिद्धान्त इतिहास की गति का संचालन करते हैं। पहले सिद्धान्त का सम्बन्ध शक्ति और समृद्धि में एक दूसरे की तुलना में श्रेष्ठता पाने के लिए विभिन्न समाजों के बीच सम्पर्क से है । तथापि लोहिया के अनुसार इस क्षेत्र में इतिहास चक्र के रूप में घूमता हैय अर्थात् कोई भी समाज सदा एक ही बिंदु पर नहीं रह सकता । समूचे इतिहास में आप पाएंगे कि शक्ति और समृद्धि पर केन्द्र विश्व के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में बदलता रहा है। दूसरा सिद्धान्त किसी भी समाज के आन्तरिक सामाजिक गठन पर प्रकाश डालता है। प्रत्येक समाज में दो प्रकार के सामाजिक विभाजन बराबर बदलते रहते हैं–एक प्रकार सामाजिक गतिशीलता की इजाजत देता है, जबकि दूसरा नहीं देता। लोगों को उच्चतर या निम्नतर स्थिति में ले जाने वाला प्रकार है, ‘‘वर्ग‘‘ दूसरा है ‘‘जाति‘‘ जो व्यक्ति को उसी अवस्था में रखता है, जिसमें वह पैदा होता है। इसलिए हर समाज वर्ग और जाति के बीच घूमता रहता है। आपने देखा होगा कि लोहिया के लिए इन दोनों शब्दों का अर्थ उन अर्थों से भिन्न था जिनमें इनका इस्तेमाल होता रहा है। इतिहास के लोहिया के सिद्धान्त का केन्द्र बिन्दु यह है कि ऊपर दिए गए दोनों सिद्धान्त एक दूसरे से जुड़े हुए हैं: बाह्य और आन्तरिक परिवर्तन एक साथ होते हैं। जो समाज विश्व के केन्द्र में है, उसमें वर्गगत विभाजन अवश्य आता है और जो समाज बाह्य संघर्ष में हार जाता है उसमें जाति प्रणाली पनपने लगती है। क्या आप बता सकते हैं कि इन दोनों सिद्धान्तों को एक दूसरे से क्या जोड़ सकता है? यह मात्र एक संयोग ही नहीं है । लोहिया के अनुसार इन दोनों को जोड़ने का सूत्र है । हर समाज द्वारा टैक्नोलोजीकल क्षमता की खोज । जब एक समाज अपनी क्षमता का उत्तरोतर बढ़ता स्तर प्राप्त करने में सफल हो जाता है, तो इस सफलता के आन्तरिकं और बाह्य दोनों परिणाम डोते हैं-बाह्य रूप में अन्य समाजों के बीच उसे समाज की शक्ति बंटती है, और आन्तरिक रूप में वह समाज अपनी गतिशीलता के सामाजिक संघर्ष को अपना लेता है। लेकिन यह विकास एक या दो आयामों में ही हो सकता है और वह भी अन्य सभी आयामों को हानि पहुंचा कर । परिणामस्वरूप कुछ समय बाद यह प्रक्रिया अपने अन्तिम पड़ाव पर पहंच जाती है, जहां से फिर समाज का पतन आरम्भ हो जाता है। आन्तरिक तौर पर इस प्रक्रिया को कठोर जातिगत विभाजन को स्वीकार करना पड़ता है, क्योंकि समाज में वितरण के लिए पर्याप्त वस्तुएं नहीं होती। इस प्रकार अन्य समाजों की तुलना में यह समाज शक्ति का केन्द्र नहीं रह जाता । यह केन्द्र बदल कर किसी अन्य राष्ट्र में पहुंच जाता है। इतिहास का चक्र इसी प्रकार घूमता रहता है।

क्या इतिहास का चक्र इसी प्रकार अन्तहीन घूमता रहेगा? सौभाग्य से नहीं, लोहिया का कहना है । एक तीसरा भी सिद्धान्त है जो इतिहास की गति को प्रभावित करता है। पहले दो सिद्धान्तों से अलग यह सिद्धान्त मानव एकता या लोहिया के शब्दों में ‘‘मानवता की निकटता’’ के लिए काम करता है। आप पूरे इतिहास में पाएंगे कि कई शक्तियों ने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में, जैसे उत्पादन की टैक्नोलोजी, भाषा, विचार, धर्म आदि ने मानवता को परस्पर निकट लाने का काम किया है । यह सिद्धान्त विभिन्न राष्ट्रों और एक राष्ट्र के भीतर दोनों क्षेत्रों में काम करता है। अभी तक मानवता की यह निकटता बाह्य शक्तियों, मानव की स्वतंत्र इच्छा शक्ति के परिणामस्वरूप हुई है। लेकिन लोहिया के अनुसार आज हम ‘‘मानवजाति की सजग निकटता’’ के चरण में पहुंच गए हैं, जहां मानवता सजग प्रयासों के सहने एक हो सकती है। और यह मानवीय प्रगति का अगला चरण होना चाहिए। ऐसा चरण ही इतिहास के चक्र की गति को रोकने के लिए हमें समर्थ बना सकता है।

 पूंजीवाद और साम्यवाद
लोहिया के इतिहास के सिद्धान्तों में नियम सामान्य सम्मिलित हैं। लेकिन प्रश्न यह है कि इन्हें समसामयिक स्थिति में कैसे लागू किया जाए? इसका उत्तर लोहिया ने आधुनिक सभ्यता के दो रूपों-पूंजीवाद और साम्यवाद के अपने विश्लेषण में दिया है। गत तीनं से लेकर चार सौ वर्षों तक योरोप (अमरीका सहित) विश्व भर का केन्द्र रहा है। आधुनिक योरोपीय सभ्यता के विशिष्ठ स्वरूप हैं: उत्पादन के क्षेत्र में क्रांतिकारी टैक्नोलोजी का निरन्तर प्रयोग, रहन सहन का स्तर ऊंचा करने का प्रयास और अधिक से अधिक सामाजिक समानता पाने का ‘‘प्रयास’’। “माक्र्योत्तर अर्थव्यवस्था’’ नामक अपने लेख में लोहिया ने पूंजीवाद के उत्सर्ग की मार्क्सवादी सिद्धान्त की आलोचना करते हुए इस प्रणाली के ऐतिहासिक मूल को समझने का प्रयत्न किया है। मार्क्सवादी/सिद्धान्त की आलोचना में उनका मुख्य तर्क यह है कि यह सिद्धान्त पूंजीवाद के विकास का वर्णन केवल योरोपीय समाजों के विकास के संदर्भ में करता है । लोहिया का तर्क है कि वस्तुतः अपने आरम्भ से ही पूंजीवाद बाहरी साधनों पर निर्भर रहा है । यह बाहरी साधन उसे उपनिवेशों से प्राप्त हुए हैं। मार्क्स का यह कहना सही है कि पूंजीवाद का आधार पूंजीपत्तियों द्वारा कर्मचारियों का शोषण रहा है। लेकिन उसने इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया कि ये दोनों ही उपनिवेशों के अधिक शोषण के साझेदार रहे हैं । इस रूप में पूंजीवाद और उपनिवेशवाद, दोनों का जन्म एक साथ हुआ था। ‘‘पूंजीवाद और उपनिवेशवाद का जुड़वा जन्म’’ लोहिया के सिद्धान्त का मुख्य विषय है।

इस मान्यता से लोहिया इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि गैर योरोपीय समाज पूंजीवाद का विकास नहीं कर सकते । क्या आप जानते हैं कि इसका कारण क्या है? इसका कारण बहुत सरल और साधारण है । अगर पूंजीवाद उपनिवेशवाद । की मदद से ही पनप सकता है, और अगर भारत जैसे देश अब अपने लिए उपनिवेश नहीं पैदा कर सकते, तो इसका अर्थ यह हुआ कि भारत योरोप के पूंजीवादी विकास की भी नकल नहीं कर सकता। लोहिया गैर योरोपीय विश्व में ही पंूजीवाद के पनपने की सम्भावना से इन्कार नहीं करते, बल्कि योरोप और अमरीका भी इस प्रणाली के भविष्य पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं । उनका तर्क है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उपनिवेशों की संख्या कम होती जा रही है और इस स्थिति ने पूंजीवादी प्रणाली के अस्तित्व के लिए गम्भीर चुनौतियां खड़ी कर दी हैं।

पूंजीवाद का विकल्प क्या है? क्या साम्यवाद इसका उत्तर है? लोहिया की राय में साम्यवाद ही इसका उत्तर दिखाई देता है। वस्तुतः यह पूंजीवाद से भिन्न नहीं है। ये दोनों ही आधुनिक सभ्यता के दो चेहरे हैं। दोनों ही भारी पूंजीकरण, केन्द्रीकृत अर्थव्यवस्था और बृहत् टैक्नोलोजी पर निर्भर करते हैं। साम्यवाद टैक्नोलोजी को स्वीकार करते हुए स्वामित्व के स्वरूप में ही परिवर्तन करता है । अतः पूंजीवाद और साम्यवाद, दोनों ही भारत जैसे गैर-पश्चिमी देशों के लिए समान रूप से असंगत हैं।

साम्यवाद और पूंजीवाद, दोनों ही आधुनिक सभ्यता के संकट से नहीं बच सकते । लोहिया के अनुसार यह संकट उभर चुका है, क्योंकि इसकी टैक्नोलोजी अब अपने अन्न पर पहुंच गई है। यह सभ्यता अब और अधिक क्रान्तिकारी टैक्नोलोजी पैदा नहीं कर सकती। परिणामस्वरूप भौगोलिक रूप से यह और अधिक नहीं फैल सकती। धीरे-धीरे यह विश्व में अपनी प्रमुखता खोती जाएगी। आधुनिक सभ्यता के संकट को इन समाजों में आए नैतिक और आत्मिक पतन में भी देखा जा सकता है। आज व्यक्ति एक यंत्र का पूर्जा मात्र बन कर रह गया है । दूसरा, इस स्थिति में स्वभावतः लोहिया को लगता था कि इतिहास के चक्र के लिए एक और मोड़ का मार्ग प्रशस्त हो गया है।

बोध प्रश्न 3
टिप्पणी: क) अपने उत्तर के लिए दिए गए रिक्त स्थान का उपयोग करें।
ख) अपने उत्तर को इस इकाई के अन्त में दिए गए उत्तरों से मिलाइए।
1) लोहिया के इतिहास के सिद्धान्त के तीन मुख्य नियम लिखिए:
2) निम्नलिखित वक्तव्यों में से कौन-सा वक्तव्य लोहिया के सिद्धान्त का प्रतिनिधित्व करते हैं?
1) वर्ग गतिशीलता के अभाव का प्रतिनिधित्व करता है। (सही/गलत)
2) बाहरी शक्ति के कारण आन्तरिक वर्ग विभाजन होता है। (सही/गलत)
3) टैक्नोलोजीकल क्षमता में पतन के कारण जाति प्रणाली पनपती है। (सही/गलत)
4) पूंजीवाद के उत्थान के बहुत बाद उपनिवेशवाद विकसित हुआ। (सही/गलत)
3) लोहिया के अनुसार पूंजीवाद और साम्यवाद के सामान्य स्वरूप क्या है?

बोध प्रश्न 3 के उत्तर 
1) क) एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में शक्ति के केन्द्र का आना-जाना,
ख) वर्ग और जाति के बीच आन्तरिक घुमाव,
ग) मानवता की उत्तरोत्तर कटता।
2) क) गलत
ख) सही
ग) सही
घ) गलत
3) भारी पूंजीकरण, केन्द्रीकृत आर्थिक यंत्र, बृहत् स्तरीय टैक्नोलोजी।
अपने आप हल कीजिए
1) लोहिया ने ऐतिहासिक पद्धति क्यों अपनाई थी? क्या आप मानते हैं कि वर्तमान को समझने के लिए इतिहास को समझना आवश्यक है?
2) इतिहास के दर्शन तथा पाठ्यक्रम में वर्जित अन्य चिन्तकों के बारे में और अधिक अध्ययन कीजिए। उन्होंने कैसे लोहिया को प्रभावित किया था? क्या इस प्रकार की जांच आज भी लोकप्रिय है?

 भविष्य के लक्ष्य
समाजवादियों का लक्ष्य जैसा कि आप जानते हैं, अन्याय मुक्त विश्व की रचना करना है। वे मानते हैं कि विश्व में विभिन्न प्रकार के अन्याय विद्यमान हैं । लेकिन अधिकांश समाजवादियों की मान्यता है कि सभी प्रकार के अन्यायों का मूल एक प्रकार का अन्याय है और वह है–आर्थिक विषमता । इसलिए समाजवादी क्रान्ति का लक्ष्य आर्थिक असमानता को मिटाना है। जैसा कि अब आप अनुमान कर सकते हैं कि लोहिया का इस परम्परागत समाजवादी दृष्टिकोण से मतभेद था। उनकी दृष्टि में यह अत्यन्त संकीर्ण लक्ष्य है। इनके सामने ऐसे सात पहलू थे जिनमें से हरेक के लिए स्वतंत्र क्रान्ति आवश्यक थी, अर्थात् एक पहलू की सफलता से शेष सभी में खतः सफलता नहीं मिल सकती थी। ये ‘‘सात क्रान्ति हैं’’
1) आर्थिक अन्याय के विरुद्ध क्रान्ति
2) जाति प्रथा के विरुद्ध क्रान्ति
3) लिंग भेद के विरुद्ध क्रान्ति
4) साम्राज्यवाद के विरुद्ध राष्ट्रवादी क्रान्ति
5) रंगभेद के विरुद्ध क्रान्ति
6) समूहबद्धता के विरुद्ध व्यक्तिगत अधिकारों की क्रांति
7) अहिंसक अवज्ञा की कार्यविधि क्रान्ति,

पहली क्रान्ति के बारे में हम चर्चा कर चुके हैं। इसके लिए जरूरी है कि गरीबी का खात्मा हो और गरीब और धनवान के बीच की खाई को मिटा कर आर्थिक समानता लाई जाए। अगली दो क्रान्तियों का सम्बन्ध सामाजिक विषमता के दो और पहलुओं – जाति और लिंग भेद से है । जैसा कि हम जान चुके हैं कि लोहिया के लिए जाति का अर्थ है, किसी भी प्रकार की स्थिर श्रेणीबद्धता । इस अर्थ में भारत में जाति कोई अनोखी चीज नहीं है। भारत की जाति-प्रथा इसका सब से अधिक वीभत्स स्वरूप है। जाति प्रथा एक भीषण प्रकार का दुराचक्र है: जाति का अर्थ है, अनेक लोगों के लिए अवसरों की सीमितता जिस से उनकी क्षमता भी सीमित हो जाती है और इसी के कारण उनके लिए अवसर और अधिक सीमित हो जाते हैं। यह प्रक्रिया किसी भी सभ्यता के प्रबद्ध जीवन को नष्ट कर सकती है। यही कारण है कि लोहिया भारतीय जाति प्रथा के कट्टर विरोधी थे और इसे मिटाना चाहते थे। वे उन भारतीय राजनीतिक चिन्तकों में एक थे जो नारियों के प्रति अन्याय और उनके साथ असमान व्यवहार का खुलकर विरोध करते थे। उनका कहना था कि लिंग भेद और सभी प्रकार के अन्यायों का आधार है । यह प्रश्न नारियों को मात्र आर्थिक और रोजगार के अवसर प्रदान करने तक ही सीमित नहीं है । यह प्रश्न मूलतः सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों का प्रश्न है, जिसकी जड़ें हमारी सभ्यता में काफी गहरी जमी हुई हैं। ये मूल्य इस मान्यता को उचित ठहराते हैं कि नारियाँ नैसर्गिक रूप से पुरुषों की अपेक्षा हीन हैं और उनका क्षेत्र मात्र घरेलू कामकाज तक ही सीमित है। यहां तक कि हम एक ओर नारियों के आदर्शों को परिभाषित करते हैं और दूसरी ओर उन्हें विनम्रता और निर्भरता की सीख देते हैं। लोहिया नारियों के प्रति ऐसी सभी मान्यताओं और दृष्टिकोणों में आमूलचूक परिवर्तन लाना चाहते थे। उनका मत था कि इन दोनों क्षेत्रों में जाति और लिंग। भेद समाप्त कर उन्हें समान अवसर देना ही पर्याप्त नहीं होगा। इन भेदों के कारण जो अन्याय के शिकार हो रहे हैं, उन्हें कुछ समय तक अवसरों में प्रथमिकता देनी होगी ताकि वे समान स्तर पर आ सकें।

चैथी क्रान्ति के विषय से हम सभी भली भांति परिचित हैं: विदेशी शासन के विरुद्ध राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष। आप समझते होंगे कि भारत तथा तीसरे विश्व के अन्य देशों में यह क्रान्ति पहले ही हो गई है। लेकिन लोहिया का कहना था कि आज भी आर्थिक साम्राज्यवाद सक्रिय है तथा उसके विरुद्ध संघर्ष आवश्यक है। पांचवी क्रान्ति रंगभेद पर आधारित अन्याय को मिटाना चाहती है और श्वेत और अश्वेत जातियों के बीच समता लाना चाहती है। यह एक सौन्दर्य बोध सम्बन्धी क्रान्ति भी है, क्योंकि रंगभेद सौन्दर्य के समसामायिक मानदंडों में अश्वत लोगों के विरुद्ध पूर्वाग्रह पैदा करता है।

छठी क्रान्ति का भी वही लक्ष्य है जो जे.एस. मिल जैसे उदारवादियों का लक्ष्य था: प्रत्येक व्यक्ति को अपने कुछ क्षेत्रों में गोपनीयता पाने का अधिकार है। राज्य, समाज या अन्य कोई समूह इन क्षेत्रों का उल्लंघन नहीं कर सकते । अन्तिम क्रान्ति अन्य सभी क्रान्तियों से इस मायने में भिन्न हैं कि किसी भी नए क्षेत्र के बारे में कोई नया लक्ष्य निर्धारित नहीं करती। यह इस बारे में लक्ष्य प्रस्तुत करती है कि शेष सभी अन्य लक्ष्यों को किस तरह प्राप्त किया जाए । अहिंसक अवज्ञा की इस पद्धति की चर्चा हम अगले भाग में करेंगे।

लेकिन सात क्रान्तियों का वक्तव्य इस बात पर प्रकाश नहीं डालता कि लोहिया के वैकल्पिक आदर्श का स्वरूप कैसा होगा। लोहिया ने इस विश्व का चित्र पूरा नहीं खींचा, बल्कि लोहिया ने इस बारे में कई विचार खड़े किए हैं। लेकिन हम उन विचारों को जोड़ कर इस चित्र को पूरा कर सकते हैं। आपको याद होगा कि पहले भाग में लोहिया का कहना था कि पंूजीवाद और साम्यवाद दोनों ही गैर योरोपीय विश्व के लिए समान रूप से असंगत हैं। अतः वैकल्पिक सभ्यता को इन प्रणालियों के मूल स्वरूप अर्थात् भारी पूंजीकरण केन्द्रीकृत अर्थव्यवस्था, बृहत् स्तरीय टैक्नोलोजी, रहन-सहन का उत्तरोतर बढ़ता स्तर और सामाजिक समानता की खोज से भिन्न होना होगा। गैर योरोपीय विश्व के सामने केवल यही विकल्प है कि वह कम पूंजी विनियोजन और श्रम शक्ति के अधिक से अधिक उपयोग का मार्ग अपनाए। इस मार्ग की आवश्यकता की पूर्ति के लिए एक ही टैक्नोलोजी उपयोगी होगी और वह है, लघु स्तरीय क्षेत्र । इस सम्भावित व्यूह रचना के अलावा इस विश्व के पास अर्थव्यवस्था के विकेन्द्रीकरण को विकसित करने का भी अवसर है, जो एक लोकतंत्र के लिए जरूरी है। स्वामित्व के स्वरूप सम्बन्धी लोहिया के दृष्टिकोण से इस विकल्प का मेल खाता है। वे उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व को स्वीकार करते हैं, लेकिन उसी सीमा तक जहां तक कि उत्पादन मालिक के अपने श्रम से पैदा हो । और सभी प्रकार का उत्पादन जिसके लिए वेतनभोगी श्रमिकों की आवश्यकता सहकारी समिति, प्रान्त और केन्द्र के हाथ में हो।

यह अर्थव्यवस्था समानता के आदर्श से संचालित होनी चाहिए, लेकिन इस आदर्श का यह संकीर्ण अर्थ नहीं होना चाहिए कि यह सामाजिक समानता केवल समाज के भीतर ही हो । इस आदर्श की विस्तृत परिधि में विभिन्न समाजों के बीच समानता के लक्ष्य को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए। सामाजिक समानता के अलावा, आत्मिक समानता को भी इस अर्थ में विकसित करना होगा कि मानवता के बीच भाईचारे की भावना पैदा हो । स्वभावतः ऐसे समाज का लक्ष्य रहन-सहन के स्तर को उठाना नहीं हो सकता । उसका लक्ष्य हरेक के लिए रहन-सहन का एक शालीन स्तर प्रदान करना ही हो सकता है।

राजनीतिक क्षेत्र में भी विकेन्द्रीकरण का सिद्धान्त उपयुक्त है। किसी भी राज्य में राजनीतिक शक्ति का चार स्तरों पर विभाजन होना चाहिए गांव, जिला, प्रान्त और केन्द्र । कोशिश यह होनी चाहिए कि निम्नतर इकाइयों को उनसे सम्बन्धित क्षेत्रों में अधिक से अधिक शक्ति सौंपी जाए । लोहिया के चार स्तरीय राज्य का अर्थ यही था। लेकिन उनकी राजनीतिक दृष्टि राष्ट्रीय राज्य तक ही सीमित न थी। उनका अन्तिम आदर्श एक विश्व शासन की स्थापना थी, जो मानवता की एकता का प्रतीक हो। इस आदर्श की प्रगति की दिशा में वे निशस्त्रीकरण, एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र में आने-जाने पर कम से कम प्रतिबन्ध तथा आर्थिक साधनों के अन्तर्राष्ट्रीय कोष की हिमायत करते थे। जिसमें हर राष्ट्र अपनी सामर्थ्य के अनुसार योगदान करेगा और अपनी आवश्यकता के अनुसार धन लेगा।

बोध प्रश्न 4
टिप्पणीः क) नीचे दिए गए रिक्त स्थान को अपने उत्तर के लिए प्रयुक्त कीजिए।
ख) इस इकाई के अन्त में दिए गए उत्तरों से अपने उत्तर मिलाइए।
1) नीचे कुछ ऐसे स्वरूप दिए गए हैं जो पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों में समान रूप से पाए जाते हैं । इन स्वरूपों के सामने दिए गए रिक्त स्थान में हरेक के सामने लोहिया के आदर्शों से मेल खाते आदर्श लिखें।
भारी पूंजीकरण …………………………………………………………………………………………………….
केन्द्रीकृत अर्थव्यवस्था …………………………………………………………………………………………………….
बृहत् स्तरीय टैक्नोलोजी …………………………………………………………………………………………………….
आन्तरिक समाजिक समानता …………………………………………………………………………………………………….
रहन-सहन का उठता स्तर …………………………………………………………………………………………………….
2) उन समस्त अन्यायों की सूची दीजिए जिनके विरुद्ध लोहिया के अनुसार, क्रान्ति की आवश्यकता है।
………………………………………………………………………………………………………………………………………………………….
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बोधं प्रश्न 4 प्रश्नों के उत्तर
1) पूंजी विनियोजन, विकेन्द्रीकृत अर्थव्यवस्था, लघुस्तरीय टैक्नोलोजी, आन्तरिक और बाह्य, सामाजिक और आत्मिक समानता, रहन-सहन के शालीन स्तर।

स्वयं हल कीजिए
1) पूर्व इकाइयों को फिर से याद कीजिए और लोहिया के आदर्शों की उनके आदर्शों से तुलना कीजिएः नारियों के बारे में राममनोहर रॉय, जाति सम्बन्धी डॉ. अम्बेडकर, टैक्नोलोजी पर गांधी, आर्थिक वृद्धि के मॉडल पर नेहरू, विकेन्द्रित शासनतंत्र के सम्बन्ध में जयप्रकाश नारायण, सम्पत्ति पर भारतीय साम्यवादियों के । इनके आदर्शों में जो समानता या अन्तर पाते हैं, उनकी भी चर्चा कीजिए।

परिवर्तन लाने के लिए व्यूह-रचना
इसके साथ ही हम लोहिया के चिन्तन के अन्तिम पहलू पर आते है- वर्तमान अवस्था से ऊपर लिखित अपेक्षित व्यवस्था की ओर कैसे आया जाए? इस प्रश्न का उत्तर यह हो सकता है- इन आदर्शों को मूर्त रूप दिए जाने का तरीका इतिहास के इस तर्क में है कि समय के साथ-साथ ये आदर्श व्यावहारिक रूप में परिवर्तित हो जाएंगे। लोहिया इस दृष्टिकोण के कट्टर विरोधी थे, जिसे वे ‘‘स्वचालित दर्शन’’ कहते थे। क्योंकि इस दृष्टिकोण का अर्थ है कि जो कुछ वर्तमान में है, वह उस समय का आदर्श है। यह वर्तमान यथार्थ के नकारात्मक पहलुओं की अपेक्षा करता है। इससे सम्बन्धित एक अन्य खतरा यह है कि इसमें किसी भी राजनीतिक कार्यवाही को उस आशा के साथ न्यायोचित बताने की प्रवृति हो सकती है कि इसके अन्ततः अच्छे परिणाम होंगे। हिंसक और तानाशाही कार्यवाहियों को अक्सर यह कह कर न्यायोचित ठहराया जाता है कि अन्त में शान्ति और लोकतंत्र लाने के लिए यह कार्यवाही आवश्यक है। इस तर्क का एक खतरा यह है कि इसे किसी भी तरह की कार्यवाही को उचित ठहराने के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है, चाहे उसके प्रत्याशित परिणाम सामने आएं या नहीं। इसके विरुद्ध लोहिया ‘‘तात्कालिकता’’ के सिद्धान्त का सुझाव देते हैं: हरेक कार्यवाही तत्काल न्यायोचित सिद्ध होनी चाहिए अर्थात् इसके तत्काल क्या परिणाम सामने आते हैं। उदाहरणार्थ, अगर कार्यवाही का अन्त शान्ति है, तो हरेक कार्य का परिणाम और अधिक शान्ति होना चाहिए। इस सिद्धान्त से यह निश्चित होगा कि व्यक्त लक्ष्य को पाने के लिए सतत् प्रयास किया जाएगा।

हो सकता है कि आप कहें कि ये अत्यन्त सामान्य और नकारात्मक वक्तव्य हैं। वास्तविक प्रश्न यह उठता है कि राजनीतिक कार्यवाही का उपयुक्त स्वरूप क्या है? कुछ वर्तमान विचारधाराएं इस प्रश्न का उत्तर कार्यवाही के एक ही रूप पर ध्यान केन्द्रित करके देती हैं, जैसे साम्यवादी संघर्ष पर, गांधीवादी रचनात्मक कार्य पर, लोकतंत्रीय समाजवादी संसदीय गतिविधियों पर । लोहिया का कहना है कि ये स्वरूप एक दूसरे के विरुद्ध नहीं है। समाजवादियों को इन सभी स्वरूपों को अपने कार्यक्रम में सम्मिलित करना चाहिए। उनका नारा ‘‘वोट, जेल और फावड़ा’’ इस सामंजस्य का ही प्रतीक है । संघर्ष समाजवादियों की सदैव प्रमुख व्यूह रचना रही है । लेकिन प्रश्न यह है: किस प्रकार का संघर्ष? इस सम्बन्ध में लोहिया सत्याग्रह की गांधीवादी प्रक्रिया के औचित्य का तर्क देते हैं। अन्याय के विरुद्ध लोगों के पास अत्यन्त प्रभावशाली और नैतिक अस्त्र है, अहिंसक सविनय अवज्ञा अर्थात् शान्तिपूर्ण ढंग से आज्ञा पालन को अस्वीकार करना। यहां अहिंसा का अर्थ है, फलन को अस्वीकार करना। जहाँ अहिंसा का अर्थ है, हिंसा की हिमायत और आयोजन न करना, अहिंसक आन्दोलन में कभी-कभी हिंसक कार्यवाही की भी सम्भावना रहती है, अहिंसा एक तर्कसंगत सिद्धान्त है, हिंसा इस कारण गलत है कि इससे हमेशा हिंसा का ही जन्म होता है और यह अच्छे परिणाम की ओर ले जाने में असफल रहती है । संघर्ष के अतिरिक्त, ऊपर वर्णित, समाजवादी कार्यक्रम में लोहिया इन दो प्रकार की कार्यवाइयाँ करने का समर्थन करते हैं। चुनाव महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे लोगों की इच्छा का प्रदर्शन करते हैं। चुनावों और उनके परिणामों के द्वारा ही पार्टी लोगों को कुछ सिखा सकती है और उनसे कुछ सीख सकती है। रचनात्मक कार्य लोगों को संगठित और शिक्षित करने का प्रमुख माध्यम है जिसकी समाजवादियों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।

बोध प्रश्न 5
टिप्पणी: क) नीचे दिए गए रिक्त स्थान में अपने उत्तर लिखिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से अपने उत्तर मिलाइए।
1) तात्कालिकता के लोहिया के सिद्धान्त को अपने शब्दों में लिखिए।
2) निम्नलिखित प्रतीकों का क्या अर्थ है?
वोट ………………………………………………………………………………………………………………………………………..
जेल ………………………………………………………………………………………………………………………………………..
फावड़ा ………………………………………………………………………………………………………………………………………..

स्वयं हल कीजिए
निम्नलिखित कथनों के समर्थन या विरोध में एक लेख लिखिएः
1) राजनीतिक हिंसा हमेशा हिंसा को जन्म देती है।
2) एक लोकतंत्रीय सरकार के विरुद्ध सविनय अवज्ञा न्यायोचित है । लेख के स्थान पर आप इन विषयों पर समूहगत विचार-विमर्श करने बारे में भी सोच सकते हैं।

 एक समीक्षात्मक-मूल्यांकन
पहले भाग में हमने मोटे तौर पर किन्तु मौलिक ढंग से लोहिया के चिन्तन की तुलना की है। यह तुलना भी एक प्रकार से लोहिया के चिन्तन का हमारा मूल्यांकन है । यह मूल्यांकन इस कारण दिलचस्प है, क्योंकि यह कुछ नए विचार हमारे सामने लाता है। लेकिन नए विचार सदैव न तो सजगतापूर्वक सोचे गए होते हैं और न ही उसका पूरा विवरण सोचा जाता है। बहरहाल, अब हम इस स्थिति में हैं कि इस मूल्यांकन की पुष्टि कर सकें।

आइए, हम पहले इसके सकारात्मक पहलू पर विचार करें। क्या आप लोहिया के उन कुछ विचारों के बारे में बता सकते हैं जो आपको नए लगे हैं? ऐसे कई विचार है जिन्हें आप सोच सकते हैं- इतिहास के चक्र के सिद्धान्त में तीन नियम, पूंजीवाद और साम्यवाद के जुड़वां जन्म का सिद्धान्त, यह विचार कि पूंजीवाद और साम्यवाद मूलतः एक ही हैं, परम्परागत समाजवादी लक्ष्यों का विस्तार, लघु उद्योग तंत्र और कम पूंजी विनियोजन का सिद्धान्त, तात्कालिकता का नियम, राजनीतिक कार्यवाही के क्रान्तिकारी पहलुओं के साथ संसदीय और रचनात्मक कार्यों तथा अहिंसा के साथ – संघर्ष का मिश्रण । आप इनमें से हरेक का विस्तार के साथ वर्णन कर सकते हैं और इन्हें इस सूची में जोड़ सकते हैं।
क्या आप लोहिया के इन सभी नए विचारों के बीच एक समान तथा तत्व खोज सकते हैं?
ये सभी नए विचार एक न एक अर्थों में उनकी इस अन्तर्दष्टि पर आधारित हैं कि वर्तमान समाजवादी सिद्धान्त योरोप के संदर्भ में ही संगत हैं और यह आवश्यक है कि इस सिद्धान्त की इस कमजोरी से उबरने के लिए दूसरी मूल बातों पर फिर से विचार किया जाए। भारतीय समाजवादी चिन्तन में लोहिया का प्रमुख योगदान यही था कि उन्होंने ऐसे सैद्धांतिक कार्यक्रम पर विचार किया। उन्होंने केवल इस कार्यक्रम के बारे में सोचा ही नहीं, बल्कि इसे क्रियान्वित करने की भी कोशिश की । उन्होंने यह काम विभिन्न साधनों से विचार एकत्र कर तथा बंधे कसे सिद्धान्तों को तिलांजलि देकर किया। इसमें उन्होंने समकालीन परस्पर विरोधी विचारधाराओं और सबसे अधिक मार्क्सवादी और गांधीवादी को परस्पर जोड़ने की आवश्यकता पर सफलतापूर्वक बल दिया।

जहां तक उनके विचारों के नकारात्मक पहलुओं का प्रश्न है, आपने देखा होगा कि लोहिया के चिन्तन में कई कमजोरियां हैं। आपको याद होगा कि उनकी सब से बड़ी और पहली कमजोरी यह है कि उन्होंने अपने चिन्तन का मात्र एक उन्माद स्वरूप या स्केच ही प्रस्तुत किया था। उन्होंने अपने अधिकांश विचारों के विवरणों में जाने की आवश्यकता अनुभव नहीं की थी। क्या आप इस सम्बन्ध में कुछ उदाहरण दे सकते हैं?

आपको याद होगा लोहिया ने इतिहास के अपने सिद्धान्त के विभिन्न चरणों की चर्चा नहीं की, उन्होंने यह नहीं बताया कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूंजीवाद और साम्यवाद का पतन क्यों नहीं हुआ, उन्होंने सतर्कतापूर्वक इस पर विचार नहीं किया कि आयोजन को विकेन्द्रीयकरण के साथ कैसे जोड़ा जाए, लघु उद्योग यंत्र को अपने समय में कैसे लाग किया जाए, इसका वर्णन नहीं किया, आय की अन्तर्राष्ट्रीय-व्यवस्था में विश्व सरकार के विचार की व्यावहारिकता पर कोई प्रकाश नहीं डाला, वे अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अहिंसा की संगतता को स्पष्ट करने में भी असफल रहे हैं। इस विषय की कुछ और कमजोरियों को भी आप आय की सूची में शामिल कर सकते हैं।

आइए इस पर विचार करते हैं कि उनके सिद्धान्त में इतनी अधिक कमजोरियों और कमियों का क्या कारण था। यह प्रश्न हमें इनके चिन्तन की एक और अधिक-मूल समस्या की ओर ले जाता है और वह है तर्क देने का उनका अनुमानगतः या अहकामकाजी भरा तरीका। अपने इस तरीके के कारण उन्होंने अपने विचारों के अनुभव मूलक-आधार की अपेक्षा की। उदाहरण के लिए, इतिहास के उनके सिद्धान्त को लीजिए, यह सिद्धान्त यह नहीं बताता कि एक विशेष समय पर विश्व में शक्ति का एक ही केन्द्र क्यों रहना चाहिए? क्या वर्ग और जाति हमेशा एक दूसरे में अदलते-बदलते रहते हैं? उनका तीसरा सिद्धान्त सबसे अधिक कमजोर लगता है। क्या यह उनके इच्छामूलक चिन्तन से अधिक कुछ और है? इन सभी प्रश्नों के लिए आवश्यक था कि वे ऐतिहासिक तथ्य प्रस्तुत करते। लेकिन उन्होंने कभी यह आवश्यक नहीं समझा । दूसरे, उन्होंने इतिहास के सारभूत दर्शन को इस संशयपूर्ण धारणा को पूरी तरह स्वीकार कर लिया था कि समूचे इतिहास की घटनाओं के पीछे कोई ‘‘तर्क’’ या ‘‘सिद्धान्त’’ होता है। आज इतिहास के छात्र इस धारणा को सही नहीं मानते हैं। उनके सिद्धान्तों के और थोड़े गहरे अध्ययन से कुछ और बातें भी आपके सामने उजागर हो सकती हैं। उनके सिद्धान्त और धारणाएं, जो उनकी प्रभावशाली उपलब्धियां दिखाई पड़ती हैं, अधिकाशतः वर्तमान युरौसेन्ट्रिक विचारों के साधारण उत्क्रमण मात्र हैय जैसे, बड़ी मशीनों के स्थान पर छोटी मशीनों, केन्द्रीकरण के स्थान पर विकेन्द्रीकरण आदि के विचार । ऐसा सिद्धान्त अक्सर दर्पण की परछाई जैसा लगता है। अगर यह सही है तो क्या लोहिया का चिन्तन अभी भी बौद्धिकता का बन्दी नहीं लगता?

लोहिया के चिन्तन के अपने मूल्यांकन की बात को हम दो सैद्धान्तिक गतिविधियों को पृथक कर समाप्त कर सकते हैं। यह गतिविधियां हैं, प्रश्न को पैदा कर उसका उत्तर देना । यह सम्भव है कि एक व्यक्ति एक मामले में अच्छा हो, लेकिन दूसरे में नहीं। यही स्थिति लोहिया की लगती है। उनका मूल्यवान योगदान वर्तमान समाजवादी सिद्धान्त के विरुद्ध नए। प्रश्न खडे करने में अधिक हैं। लेकिन इन प्रश्नों के उनके उत्तर कमजोर हैं। इस अर्थ में लोहिया की सैद्धान्तिक विचारधारा सम्पूर्ण नहीं है।

स्वयं हल कीजिए
1) क्या आप लोहिया के इस मूल्यांकन से सहमत हैं? हमारी आलोचना के विरुद्ध लोहिया के समर्थ में कुछ तर्क सोच कर लिखिए।
2) पहले हम आप से पूछ चुके हैं कि आप राजनीतिक सिद्धान्त के तीन प्रश्नों के अपने उत्तर सोचिए । अब आप लोहिया के उत्तरों से उनकी तुलना कीजिए। क्या इस इकाई के अध्ययन से. आपने कुछ सीखा है?

सारांश
लोहिया भारतीय समाजवादी चिन्तकों में सम्भवतः सबसे अधिक मौलिक थे। उनकी मौलिकता वर्तमान समाजवादी सिद्धान्त की यूरोसेन्ट्रिक धारणाओं को चुनौती और उनके स्थापन पर वैकल्पिक सिद्धान्त के निर्माण के प्रयास में झलकती है। यह नया सिद्धान्त उनके नए ऐतिहासिक विश्लेषण, भविष्य के लिए नए लक्ष्यों और व्यूह रचना के प्रश्न पर उनके नए चिन्तन में देखा जा सकता है। उनके अनुसार इतिहास चक्र के रूप में घूमता है, जो समाजों के बाह्य और आन्तरिक दोनों पहलुओं को छूता है। इस चक्र ने आज पूंजीवाद और साम्यवाद को मूलतः एक ही सभ्यता के दो चेहरों को विश्व के शिखर पर पहुंचा दिया है। लेकिन इस सभ्यता का गैर योरोपीय विश्व तक विस्तार न तो सम्भव है और न ही अपेक्षित । इन देशों को विकेन्द्रीकरण पर आधारित नई आर्थिक और राजनीतिक संस्थाओं का अवश्य निर्माण करवाना चाहिए। आज विश्व में कई आयामों में क्रान्ति की आवश्यकता है। यह क्रान्ति लाने के लिए राजनीतिक कार्यवाहियों को अहिंसक सविनय अवज्ञा के माध्यम से अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने में निर्वाचित संसदीय गतिविधियों और रचनात्मक कार्यों के साथ प्रभावशाली ढंग से जोड़ना होगा। इन सभी क्षेत्रों में लोहिया को नए विचार देने में तो सफलता मिली लेकिन स्वयं उन्हें असली रूप देने में नहीं।

मूल शब्द
सौन्दर्य बोध: सुन्दरता को सराहने का ज्ञान ।
द्विभाजन: दो विरोधी भागों में विभाजन ।
सिद्धान्त: विश्वास पर आधारत नियम, आस्था की प्रणाली।
बंधक से सिद्धान्त: निश्चित विश्वास या नियम को बिना सोचे समझे स्वीकार कर लेना।
श्रेणीबद्ध संगठन: ऐसा गठन जिसमें उच्चतर और निम्नतर स्तरों का अपना निश्चित स्थान हो।
घुमाव: दो घेरों के बीच घूमते रहना।

 कुछ उपयोगी पुस्तकें
लोहिया पर लिखी उपलब्ध सामग्री से अधिक उपयोगी उनके अपनी लेख या रचनाएं हैं, जो उनके विचार और चिन्तन को अधिक स्पष्ट रूप से पेश करती है। उनमें सबसे अधिक उपयोगी और पठनीय रचना है– ‘मार्क्स, गांधी और समाज‘ (मार्क्स, गांधी एण्ड सोसाइटीज) (हैदराबाद नवहिन्दी, 1963),: इस रचना में आपको सिद्धान्तों का वक्तव्य (स्टेटमेंट ऑफ प्रिंसिपल्स), ‘समाजवाद की सैद्धान्तिक आधारशिला‘ (दि डोक्ट्रीनल फाउण्डेशन ऑफ सोशलिज्म), और ‘‘भूमिका‘‘ (प्रिफेस) लेख पढ़ने को मिलेंगे। उनके आर्थिक विचारों के बारे में भी इसी पुस्तक में सामग्री मिलेगी। मार्स के बाद अर्थव्यवस्था (इकानोमिक्स आफ्टर मार्क्स): और इतिहास के उनके सिद्धान्त के लिए उनकी ‘‘इतिहास का चक्र’’ (व्हील ऑफ हिस्ट्री) (बम्बई, सिन्धु पब्लिकेशन्स, 1985) पढ़ी जा सकती है।

विभिन्न पहलुओं पर लोहिया के विचार जानने के लिए पढ़िए -एन.सी. मल्होत्रा लोहिया: ए स्टडी (दिल्ली, आत्म राम 1978), एम, अरूमुगम, सोशिलस्ट थॉट इन इण्डिया: दि कन्ट्रीब्यूशन ऑ राम मनोहर लोहिया (न्यू दिल्ली, स्टरीलिंग, 1978), उन्दुभति कलवर, लोहिया सिद्धान्त और कर्म (हैदराबाद, नवहिन्द, 1963), बी.के. अरोड़ा, राममनोहर लोहिया एण्ड सोशलिज्म इन इण्डिया (न्यू दिल्ली, चीप एण्ड दीप, 1984) उनके व्यापक बौद्धिक संदर्भ को समझने के लिए पढ़िए थोमस पैंथम और कैनथ डयूश, सम्पादन पोलिटिकल थॉट इन माडर्न इण्डिया (नई दिल्ली, सेज, 1986) और पार्था चटर्जी, नेशनलिस्ट थॉट एण्ड दि कोलोनियल वार्ड (दिल्ली, ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी प्रेस, 1986)।

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