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राल्फ डाहरेंडॉर्फ का सिद्धांत क्या है | ralf dahrendorf theory in hindi conflict theory sociology upsc
conflict theory sociology upsc ralf dahrendorf theory in hindi राल्फ डाहरेंडॉर्फ का सिद्धांत क्या है ?
एल. कोजर और राल्फ डाहरेंडॉर्फ
आइए, हम इन दोनों चिंतकों के विचारों की जांच-पड़ताल करें।
राल्फ डाहरेडार्फ
वर्गों और वर्ग द्वंद्वों के अध्ययन में जर्मन समाजशास्त्री राल्फ डाहरेंडॉर्फ का बड़ा महत्वपूर्ण योगदान है। अपने विशारद ग्रंथ क्लास ऐंड क्लास कनफ्लिक्ट इन इंडस्टियल सोसायटी में उन्होंने मार्क्स के वर्गीय सिद्धांत की एक तार्किक मीमांसा प्रस्तुत की। डाहरेंडॉफ ने इसमें यह बताया है कि मार्क्स के कौन से विचार तर्कसंगत और समर्थनीय हैं और कौन से नहीं। इसके बाद वह वर्ग, वर्ग संघर्ष और संरचनात्मक परिवर्तन का सिद्धांत देते हैं। आइए, अब उनके योगदान पर संक्षेप में चर्चा करें।
पूंजीवाद और औद्योगिक समाज
अपने अध्ययन के लिए डाहरेंडॉर्फ ने सबसे पहला जो मुद्दा लिया वह है पूंजीवाद और उसके अंदर वर्गों का स्वरूप। उनके अनुसार पूंजीवाद औद्योगिक समाज का सिर्फ एक ही रूप है। मार्क्स के अनुसार पूंजीवाद के दो मुख्य तत्व उत्पादन के साधन के रूप में निजी संपत्ति और निजी अनुबंध (या प्रबंध या पहल) के द्वारा उत्पादन प्रक्रिया पर नियंत्रण हैं। दूसरे शब्दों में यह निजी स्वामित्व और उत्पादन के साधनों पर वास्तविक नियंत्रण है। मार्क्स ने वर्ग और वर्ग का संघर्ष का विश्लेषण पूंजीवाद के इन्हीं गुणों पर किया। अगर हम यह सिद्ध कर दें कि ये गुण अब क्रियाशील नहीं रहे तो आज मार्क्स के सिद्धांत का कोई विशेष महत्व नहीं रह जाता।
पूंजी संग्रह का वियोजन
संयुक्त संग्रह (जॉइंट स्टॉक) कंपनियों के उदय और उनके बड़े पैमाने पर विस्तार के चलते औद्योगिक उद्यमों के स्वामित्व और नियंत्रण के बारे में गंभीर प्रश्न उठ खड़े हुए हैं। आपको याद होगा स्वामित्व और नियंत्रण ही मार्क्स के चिंतन का मुख्य सरोकार थे। पहले स्वामी और प्रबंधक (मैनेजर) की भूमिकाएं मूलतः पूंजीपति के स्तर में ही मिली रहती थी। पर आज दोनों भूमिकाएं पूंजीधारक (स्टॉकहोल्डर) में अलग-अलग हो गई हैं। औद्योगिक संगठन के आधिकारिक ढांचे में अब स्वामी की सुस्पष्ट भूमिका नहीं रह गई है और जिन लोगों की इस ढांचे में कोई भूमिका है जरूरी नहीं कि वे पूंजी के स्वामी हों।
प्रबंधकीय अधिकार को वैधता पूंजी के स्वामित्व से नहीं मिलती, बल्कि यह अफसरशाही के संगठन से उपजती है। इस तरह के परिवर्तन का वर्ग संघर्ष पर यह प्रभाव पड़ा है कि इससे संघर्ष या द्वंद्व में हिस्सा लेने वाले समूहों का संगठन बदल गया है। इसके साथ-साथ द्वंद्व को जन्म देने वाले मुद्दे और द्वंद्व या संघर्ष के पैटर्न भी बदल गए हैं।
श्रमशक्ति वियोजन
जिस तरह पूंजी का आज के औद्योगिक समाज में वियोजन हुआ है उसी तरह श्रमशक्ति का भी वियोजन या ह्रास हुआ है। मार्क्स का मानना था कि पूंजीवाद के विकास के साथ-साथ श्रमिकों की दशा और बिगड़ती जाएगी और उनमें समरूपता आ जाएगी जिसके बाद वे एकजुट होकर संगठित पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध मोर्चा ले सकेंगे। मगर उनके विचार के उलट मजदूरों में पहले से कहीं ज्यादा विभेदन पैदा हो गया है। आज अदक्ष और अर्धदक्ष मजदूरों के बीच भारी भेद उत्पन्न हो गया है, बल्कि अति दक्ष श्रमिकों का अनुपात भी निरंतर बढ़ रहा है। इसका परिणाम यह है कि उनकी आमदनी और कार्यों में भी बड़ा व्यापक अंतर आ गया है।
हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि आधुनिक समाज में एक नए मध्यम वर्ग का उदय हो गया है। यह मुख्यतः सफेदपोश (व्हाइट कॉलर) वेतनभोगी कर्मचारियों का वर्ग है। हालांकि वेतनभोगी कर्मचारी आमदनी और प्रतिष्ठा में मध्य क्रम में आसीन तो था लेकिन द्वंद्व या संघर्ष के सिद्धांत में मध्यम वर्ग के लिए कोई स्थान नहीं है। तो फिर यह वर्ग द्वंद्व की कसौटी में कहां फिट होता है? यह एक बड़ा ही महत्वपूर्ण प्रश्न है क्योंकि मध्यम वर्ग अपने नाम और स्वरूप में बड़ी विविधता लिये हैय डॉक्टर, इंजीनियर से लेकर क्लर्क, चपरासी तरह-तरह के लोग इस वर्ग में आते हैं। अब सवाल यह उठता है कि द्वंद्व या संघर्ष की स्थिति में इनमें से कौन ‘संपन्न‘ होगा और किसे निर्धन कहा जाएगा? डाहरेंडॉर्फ नौकरशाही की क्रम परंपरा में आसीन लोगों को शासक वर्ग तो सफेद पोश कर्मचारियों की श्रमिक वर्ग में रखते हैं।
सामाजिक गतिशीलता और समतावादी सिद्धांत
पूंजी और श्रमशक्ति के वियोजन और एक नए विघटित मध्यम वर्ग के अलावा सामाजिक गतिशीलता भी वर्गों के समांगीकरण या एकरूपता के विपरीत काम करती है। मार्क्स का मानना था कि समाज में एक व्यक्ति को जो दर्जा प्राप्त होता है उसे उसकी पारिवारिक उत्पत्ति और समाज में उसके माता-पिता का स्थान तय करते हैं। मगर पूंजीवादोत्तर समाजों में ऐसी बात नहीं है। पीढ़ियों में और पीढ़ियों के बीच भारी सामाजिक-गतिशीलता हुई है। वर्ग की रचना और उसके स्वरूप के लिए इसका यह मतलब रहा है कि वर्गों के स्वरूप में भी अस्थिरता आ गई है। इसलिए वर्ग संघर्ष की तीव्रता भी घट गई है यह स्थिति तो एक वास्तविकता हो ही सकती है मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इससे वर्ग संघर्ष की संभावना पूरी तरह से समाप्त नहीं हो जाती।
अभ्यास 2
आधुनिक समाज मार्क्स के विचारों से किस प्रकार भिन्न है? लोगों से इस पर चर्चा कीजिए और नोटबुक में अपने विचार और अनुभव लिखिए।
समूचे समाज को अपनी जद में लेने वाले जिस वर्ग संघर्ष की कल्पना मार्क्स ने की थी, उसके विपरीत एक और महत्वपूर्ण कारक काम करता है। यह है राजनीति के क्षेत्र में समतावादी सिद्धांत । संगठन बनाने की स्वतंत्रता के चलते मजदूर संघ और राजनीतिक दल द्वंद्व को हिंसक वर्ग संघर्ष से अलग दिशा में मोड़ने में सफल रहे हैं। कम से कम संगठित क्षेत्र में कार्यरत श्रमिक वर्ग अपने लिए लाभ जुटाने में सफल रहा है।
मार्क्स ने वर्गों के समांगीकरण और श्रमिक वर्ग की कंगाली के फलस्वरूप जिस तीव्र और हिंसक वर्ग संघर्ष की कल्पना की थी, इतिहास की कसौटी में वह खरी नहीं उतरी है। डाहरेंडॉर्फ ने मार्क्स की जो मीमांसा की है उसके अनुसार तीन बातें विशेष महत्व रखती हैं। पहला, पूंजी और श्रम दोनों का वियोजन हुआ है और एक नया मध्यम वर्ग उभरा है। दूसरा सामाजिक गतिशीलता ने एक वर्ग से दूसरे वर्ग में व्यक्तियों का गमन संभव बना दिया है। तीसरा राजनीतिक क्षेत्र में मिल रही समानता के चलते संस्थागत ढांचे के भीतर ही वर्ग संघर्ष करना संभव हो गया है और इसके लिए वर्ग युद्ध का रास्ता अपनाना जरूरी नहीं रह गया है। निजी संपत्ति और नियंत्रण अलग-अलग हो गए हैं और इसके साथ सर्वहारा वर्ग का स्वरूप भी बिखर गया है, इसलिए हम यह नहीं कह सकते कि पूरा समाज दो बड़े विरोधी गुटों में विभाजित हो रहा है। वर्ग और वर्ग संघर्ष गरीब पूंजीवादी समाजों में विद्यमान रहेंगे मगर उनका स्वरूप मार्क्स की कल्पना से बिल्कुल भिन्न रहेगा।
एक प्रकार से विवाह में भी सामाजिक गतिशीलता व्याप्त है
‘‘साभार: टी. कपूर
वर्ग संघर्ष का डाहरेंडॉर्फ सिद्धांत
डाहरेंडॉर्फ ने यह सिद्ध कर दिखाया है कि बदली हुई परिस्थितियों में आधुनिक औद्योगिक समाज में मार्क्स का वर्ग संघर्ष का सिद्धांत उपयोगी नहीं रह गया है। इसके बाद वह इस विषय में अपना नया सिद्धांत रखते हैं। समाजशास्त्र के सैद्धांतिक निधि में मूलतः दो भिन्न रुझान देखने को मिलते हैं। पहला है समाज का समेकन सिद्धांत और दूसरा है समाज का बाध्यता का सिद्धांत ।
समेकन और बाध्यता सिद्धांत की बुनियादी मान्यताएं
समाज का समेकन सिद्धांत मूलतः चार मान्यताओं पर आधारित है, जो इस प्रकार हैंः
प) हर समाज घटकों का अपेक्षतया एक अटल, स्थिर ढांचा है।
पप) हर समाज घटकों का एक समेकित ढांचा है।
पप) समाज के प्रत्येक घटक का अपना विशेष कार्य है, अपनी विशिष्ट भूमिका है। वह एक पद्धति या प्रणाली के रूप में उसे बनाए रखने में सहायक होता है।
पअ) प्रत्येक कार्यशील सामाजिक ढांचा उसके सदस्यों के बीच मूल्य मतैक्य या सहमति पर टिका होता है।
बाध्यता का सिद्धांत भी इन चार मान्यताओं को लेकर चलता हैः
प) प्रत्येक समाज प्रत्येक बिंदु पर प्रक्रियाओं के परिवर्तन से गुजरता हैय सामाजिक बदलाव हर समाज में होता है।
पप) प्रत्येक समाज प्रत्येक बिंदु पर असंतोष और द्वंद्व दर्शाता है। सामाजिक द्वंद्व हर समाज में होता है।
पपप) समाज का प्रत्येक घटक उसके विखंडन और परिवर्तन में हाथ बंटाता है।
पअ) प्रत्येक समाज के मूल में उसके कुछ सदस्यों की बाध्यता होती है, जिसे दूसरे लोग उन पर थोपते हैं।
डाहरेडार्फ दोनों मॉडलों को प्रतिद्वंद्वी के बजाए एक दूसरे का पूरक मानते हैं । द्वंद्व समूहों की रचना की व्याख्या के लिए दूसरा मॉडल उपयुक्त है। इन मान्यताओं के आधार पर डाहरेंडॉर्फ प्रस्थापनाओं के रूप में कुछ विचार रखते हैं। इन प्रस्थापनाओं का विश्लेषण और उनकी अनुभवजन्य पुष्टि जरूरी है।
डाहरेंडॉर्फ का सिद्धांत
आइए, अब उनके ग्रंथ थ्योरी ऑफ सोशल क्लासेज ऐंड क्लास कनफ्ल्क्टि में प्रस्तुत विचारों के बारे में जानते हैं। यहां हमारा ध्येय सामूहिक द्वंद्व के रूप में होने वाले संरचनात्मक बदलावों का अध्ययन और उनकी व्याख्या करना है। चूंकि यहां हमारी रुचि का विषय मुख्यतःद्वंद्व और उसके परिणाम हैं, इसलिए बाध्यता मॉडल के अनुसार हम इसे समूचे सामाजिक ढांचे में विद्यमान यानी सर्वव्यापी मानकर चलेंगे। सामाजिक ढांचे के सभी घटक यानी भूमिकाएं, संस्थाएं, आदर्श का अस्थिरता और परिवर्तन से कोई न कोई सरोकार है। (प्रत्युत्तर में कोई यह सवाल कर सकता है कि यह एकता और संबद्धता आखिर कैसे? तो इसका उत्तर होगारू ‘बाध्यता और अंकुश‘ ।
बोध प्रश्न 2
1) डाहरेंडॉर्फ का सिद्धांत मार्क्स से किस तरह भिन्न है? पांच पंक्तियों में उत्तर दीजिए।
2) सही या गलत बताइए
प) मार्क्स ने पूंजी के वियोजन की बात कही थी।
पप) डाहरेंडॉर्फ का मानना है कि वर्ग संघर्ष क्रांति की ओर ले जाता है।
पपप) मार्क्स कहते हैं कि पूंजी आदेशक समन्वित साहचर्य को जन्म देती है।
पअ) वर्ग संघर्ष सामाजिक संरचना के लिए परिणाम लेकर आता है।
बोध प्रश्नों के उत्तर
बोध प्रश्न 2
1) मार्क्स का सिद्धांत पूंजीवादी व्यवस्था में वर्गों के धुवीकरण के जरिए क्रांतिकारी परिवर्तन की कल्पना करता है। मगर डाहरेंडॉर्फ का कहना है कि श्रम और पूंजी के क्षरण और सामाजिक गतिशीलता के कारण इस तरह की क्रांति और वर्गों का धुवीकरण कभी नहीं होगा। औद्योगिक समाज नाना प्रकार की प्रक्रियाओं के जरिए वर्गों के बीच होने वाले तनावों को दूर कर देता है।
2) प) गलत
पप) गलत
पपप) गलत
पअ) सही
प्रत्येक सिद्धांत, चाहे वह कितना ही आरंभिक क्यों न हो, वह कुछ निश्चित धारणाएं लेकर चलता है। इन धारणाओं को अच्छी तरह से स्पष्ट होना चाहिए ताकि इनके अंतर्संबंध को दर्शाने वाले कथनों को स्पष्ट तरीके से समझा जा सके। डाहरेंडॉर्फ ऐसे विरले चिंतकों में हैं जिन्होंने बड़ी सूझ-बूझ के साथ वही किया जो पद्धतिकार तो खूब सुझाते हैं पर कभी-कभार अमल में ही लाते हैं।
चूंकि यह सिद्धांत मुख्यतः द्वंद्व के बारे में है, इसलिए शक्ति (सत्ताधिकार), सत्ता जैसी धारणाओं का भी इसमें अपना स्थान है। मैक्स वेबर के अनुसार चलें तो प्रभुसत्ता (वैध सत्ताधिकार) का अर्थ इसकी संभावना है कि एक निश्चित विषय-वस्तु वाले आदेश का व्यक्तियों के एक समूह विशेष द्वारा पालन किया जाएगा। यहां इस बात पर जोर देना जरूरी है कि प्रभुसत्ता एक निश्चित संगठन या समूह तक सीमित होती है। ‘क‘ फैक्टरी के मैनेजर की प्रभुसत्ता ‘ख‘ फैक्टरी के मजदूरों पर नहीं हो सकती। उसकी प्रभुसत्ता उसकी फैक्टरी की हद तक सीमित होती है।
बॉक्स 7.01
जिन लोगों के पास प्रभुसत्ता होती है उनका अन्य लोगों पर प्रभुत्व रहता है। यह प्रभुसत्ता का स्वामित्व ही है। प्रभुसत्ता से वंचित रहने का मतलब पराधीनता है। प्रभुसत्ता, प्रभुत्व और पराधीनता के संयोजन से ही आदेशक समन्वित साहचर्य की व्याख्या स्पष्ट होती है। ऐसा कोई भी संगठन जिसके सजीव सदस्य प्रभुसत्ता संबंधों के पराधीन हों, उसे हम आदेशक समन्वित साहचर्य कहेंगे। यह प्रभुत्व और पराधीनता के रूप में हमें संबंधों की विसंगतियों के बारे में बताता है।
चेतना, वर्ग चेतना और झूठी वर्ग चेतना (‘अपने-आप में वर्ग‘ और ‘वर्ग अपने लिए‘) के अस्तित्वात्मक आधार पर मार्क्स के विचारों से आगे डाहरोंडॉर्फ अव्यक्त और प्रकट हितों के बीच अंतर बताते हैं।
अव्यक्त हित ऐसे हित हैं जिनके बारे में प्रभुत्व और पराधीनता का अवलंबन करने वाले दोनों पद स्थानों पर आसीन लोग अनजान होते हैं। इसके विपरीत प्रकट हित के बारे में व्यक्ति सचेत रहता है ये हित व्यक्ति को दूसरों के विरोध में खड़ा करते हैं। समूहों को इन दोनों हितों के अनुसार बांटा जा सकता है। व्यक्तियों के जिस समूह के साझे अव्यक्त हित होते हैं उसे हम कल्प समूह कहते हैं। दूसरी ओर जिस समूह के साझे प्रकट हित होते हैं उन्हें हित समूह कहा जाता है।
कल्प समूह→ हित समूह
अव्यक्त हित→प्रकट हित
(यहां गौर करने की बात यह है कि विरोधी की संरचनात्मक गतिशीलता के कारण अव्यक्त हित अगर प्रकट रूप धारण कर लें तो कल्प समूह भी हित समूह बन जाते हैं।)
सामाजिक वर्ग और डाहरेंडॉर्फ का नजरिया
इस प्रकार सामाजिक वर्ग संगठित या असंगठित समूह हैं जिनके साझे अव्यक्त या प्रकट हित होते हैं जो आदेशक समन्वित साहचर्य के प्रभुसत्ता के ढांचे से उत्पन्न होते हैं।
इस बारे में गौर करने वाली कुछ महत्वपूर्ण बातें इस प्रकार हैंः
प) सामाजिक वर्ग सभी या समग्रता में समाज के अधिकांश सदस्यों को समेट कर नहीं चलता। यह सिर्फ आदेशक समन्वित साहचर्य के लिए प्रासंगिक होता है।
पप) प्रभुत्व और पराधीनता के आदेशक समन्वित साहचर्य वाले प्रभुसत्ता ढांचे में सिर्फ दो वर्ग ही उभरते हैं।
पपप) सामाजिक वर्ग हमेशा द्वंद्व समूह होते हैं।
समूह द्वंद्व संगठित समूहों के बीच एक वैमनष्यपूर्ण संबंध होता है क्योंकि सामाजिक संरचना के स्वरूप, उसके पैटर्न पर आधारित होता है। (यह न तो औचक होता है और न ही मनौवैज्ञानिक कारकों पर आधारित होता है)। एक निश्चित आदेशक समन्वित साहचर्य में प्रभुसत्ता के ढांचे से उत्पन्न होने वाला वर्ग संघर्ष स्थानिक और सर्वव्यापी होता है। वर्ग संघर्ष की उपस्थिति और उसके फलस्वरूप समूह द्वारा की जाने वाली कार्रवाई सामाजिक ढांचे में परिवर्तन लेकर आता है। यह परिवर्तन सामाजिक संस्थाओं और उसके नियमों, आदर्शों और मूल्यों में हो सकता है। यह बदलाव आकस्मिक या आमूलचूल दोनों तरह से हो सकता है। (यहां पर डाहरेंडॉर्फ मार्क्स के इस विचार से अलग हट कर बात करते हैं कि सामाजिक ढांचे में बदलाव हमेशा क्रांतिकारी यानी आकस्मिक, आमूलचूल और हिंसक होते हैं ।)
द्वंद्व समूह रचना का मॉडल प्रस्तुत करते हुए डाहरेंडॉर्फ कहते हैं कि प्रत्येक आदेशक समन्वित साहचर्य में हम दो कल्प समूहों को अलग-अलग पहचान सकते हैं जो साझे अव्यक्त हितों के द्वारा एकता में बंध गए हों। हितों के प्रति उनका रुझान प्रभुसत्ता पर उनके स्वामित्व या उससे उनके बहिष्कार से तय होता है। इन्हीं कल्प समूहों से हित समूहों को लिया जाता है, जिसके सुस्पष्ट कार्यक्रम प्रभुसत्ता के मौजूदा ढांचे की वैधता को परिभाषित करते हैं या उस पर आक्रमण करते हैं। डाहरेंडॉर्फ कहते हैं कि किसी भी स्थिति में इस प्रकार के दोनों समूह द्वंद्व या संघर्षरत रहते हैं।
सामाजिक ढांचे के लिए द्वंद्व के परिणाम
जब एक आदेशक समन्वित साहचर्य में दो परस्पर विरोधी समूहों के रूप में जब द्वंद्व समूहों के वर्गीय प्रारूप बन जाते हैं तो द्वंद्व की परस्पर क्रिया किस तरह से आगे बढ़ती है? जिस सामाजिक ढांचे में समूह द्वंद्व चल रहा हो उसके लिए इसके क्या परिणाम निकलेंगे? द्वंद्व के किसी भी सिद्धांत को ऐसे प्रश्नों का समाधान करना होता है और डाहरेंडॉर्फ ने भी यही प्रयत्न किया है।
द्वंद्व की तीव्रता को लेकर (जिसमें पराजय होने पर ‘कीमत‘ चुकानी पड़ती है) हम यह प्रश्न कर सकते हैं कि कौन से कारक इस पर सकारात्मक और कौन से नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। डाहरेंडॉर्फ की धारणा है कि वर्ग संघर्ष की तीव्रता इस हद तक घट जाती है जिस हद तक वर्गीय संगठन की स्थितियां मौजूद हैं, उसके अनुसार वह घटती बढ़ती है। उदाहरण के लिए अगर मजदूरों को अपना संगठन बनाने और प्रबंधन (मैनेजमेंट) के साथ सुलह-समझौते करने के अवसर मिलते हैं तो मजदूरों और प्रबंधन के बीच होने वाले द्वंद्व या संघर्ष कम तीव्र होंगे। ठीक इसी प्रकार जिन देशों में लोगों को राजनीतिक दल और नागरिक संगठन बनाने की पूरी स्वतंत्रता है वहां संघर्षों की तीव्रता बहुत कम होगी। इसी तरह भिन्न साहचर्यों में जहां वर्गों को अध्यारोपित नहीं किया जाता, सामूहिक द्वंद्व या संघर्ष की तीव्रता वहां भी कुंद हो जाती है। उदाहरण के लिए, किसी कारखाने के सभी मजदूर एक जातीय अल्संख्यक समुदाय या निम्न जाति के ही नहीं होते और आर उसमें दोनों का अध्यारोपण हो जाए यानी वर्ग पर जातीयता या जाति हावी हो जाए तो वहां होने वाला संघर्ष अधिक तीव्र होगा।
वर्ग संघर्ष की तीव्रता इस बात से भी प्रभावित होती है कि एक ही समाज में होने वाले विभिन्न सामूहिक द्वंद्व साहचर्यहीन हैं या नहीं। उदाहरण के लिए हम यह मान लेते हैं कि समाज में मुख्य रूप से तीन प्रकार के संघर्ष होते हैंः वर्ग संघर्ष, जातीय संघर्ष और क्षेत्रीय संघर्ष । जैसे उत्तर-दक्षिण को बीच संघर्ष । प्रभुत्व के स्थान पर आसीन लोग अगर उत्तर के प्रभावी जातीय समूह से संबंध रखते हैं और पराधीनता के स्थान में रहने वाले लोग किसी विशेष छोटे जातीय समूह के हैं और दक्षिण से संबंध रखते हैं तो दोनों के बीच होने वाले द्वंद्व की तीव्रता निश्चय ही ज्यादा होगी।
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गौर करने की बात है कि अगर पारितोषिकों और प्रभुसत्ता का वितरण असंबद्ध (साहचर्यहीन) हो तो भी वर्ग संघर्ष की तीव्रता खत्म हो जाएगी। हालांकि प्रभुसत्ता का प्रयोग और संपत्ति दोनों साथ-साथ चलते हैं, लेकिन ऐसा होना जरूरी नहीं है। यह जरूरी नहीं कि जिन लोगों के पास प्रभुसत्ता हो वे उत्पादन के साधनों के स्वामी भी हों। इसी प्रकार जो मजदूर जिस कंपनी में काम कर रहे हों, हो सकता है कि उस कंपनी के शेयर उनके पास हों । इस प्रकार वे उत्पादन के साधनों के स्वामी भी हो सकते हैं। सामाजिक गतिशीलता भी वर्ग संघर्ष की तीव्रता को प्रभावित करती है। वर्ग जिस हद तक खुले होंगे और संवृत नहीं होंगे यह उसी के अनुसार घटती है। इस प्रकार जाति व्यवस्था वाले समाज में, जहां ऊर्ध्वगामी गतिशीलता के अवसर हमेशा के लिए बंद रहते हैं, संघर्ष या द्वंद्व की तीव्रता विवत (खुले) वर्गीय समाज से अधिक होने की संभावना रहेगी। बिहार में होने वाले जाति संघर्ष इसका उत्तम उदाहरण हैं।
वर्ग संघर्ष की तीव्रता को प्रभावित करने वाले कारकों का विवेचन कर लेने के बाद डाहरेंडॉर्फ संघर्ष की हिंसा को प्रभावित करने वाले परिवर्तियों का विश्लेषण करते हैं। हमने पीछे देखा है कि वे मार्क्स की इस मान्यता को खारिज करते हैं कि सभी वर्ग संघर्ष हिंसक होते हैं। मगर इसका यह मतलब नहीं कि उसमें हिंसा कदापि नहीं होती। उनका मानना है कि हिंसा कदापि नहीं होगी। उनका मानना है कि हिंसा की सीमा शांतिपूर्ण से लेकर खूनी क्रांतिकारी संघर्ष तक अलग-अलग रूपों में होती है।
एक आदेशक समन्वित साहचर्य में विद्यमान वर्गीय संगठन की स्थितियों का वर्ग संघर्ष की हिंसा से नकारात्मक संबंध होता है (उदाहरण के लिए, एक कारखाने में मजदूर संघ का बनना और उसके जरिए मजदूरों का उसके प्रबंधन से शांतिपूर्ण ढंग से सामूहिक सौदेबाजी करना)। डाहरेंडॉर्फ यह भी कहते हैं कि अगर पराधीन वर्ग में विद्यमान पूर्ण वंचना या शोषण की जगह सापेक्षिक वंचना ले लेती है तो इससे वर्ग संघर्ष हिंसा कम हो जाती है। वर्ग संघर्ष की हिंसा की सीमा, उसकी तीव्रता को एक और कारक प्रभावित करता है। यह है-संघर्ष या द्वंद्व का नियमन । द्वंद्व के नियमन का तात्पर्य उन युक्तियों और प्रक्रियाओं से है जो संघर्ष की अभिव्यक्ति से निबटती हैं न कि उनके समाधान या दमन से। इसका यह अर्थ है कि इसके लिए यह जरूरी है कि दोनों पक्ष यह मान कर चलें कि द्वंद्व यथार्थ और अनिवार्य है। दूसरे वादी के दावे को ‘अवास्तविक‘ कह कर खारिज कर देना द्वंद्व का नियमन नहीं है। यह समझ लिया जाना चाहिार कि उक्त पक्ष का अपना एक मामला है। द्वंद्व नियम की संभावना उस स्थिति में अधिक होती है, जब विरोधी गुट हित समूहों के रूप में संगठित हों। असंगठित समूहों स्थिति में यह नियमन कठिन हो जाता है। उदाहरण के लिए अगर किसी कारखाने में मजदूरों का सिर्फ एक ही संगठन है तो प्रबंधन और मजदूर दोनों संघर्ष के मूल में निहित मुद्दों के निपटारे के लिए कारगर उपाय निकाल सकते हैं।
अंततः दोनों पक्ष कुछ निश्चित औपचारिक ‘खेल नियमों‘ पर सहमत हो जाते हैं तो द्वंद्व अच्छे ढंग से नियमित हो सकत दुनिया के अन्य लोकतांत्रिक देशों की तरह भारत ने भी औद्योगिक द्वंद्व नियमन के लिए पूरी व्यवस्था स्थापित की है जिसमें सौदेबाजी, मध्यस्थता, पंचाट, अदालती निर्णय शामिल हैं। द्वंद्व को सुलझाने का आखिरी हथियार हड़ताल है।
वर्ग संघर्ष साहचर्य में होता है। इसकी बदलती तीव्रता और हिंसा के कारण यह सामाजिक ढांचे के लिए परिणाम लेकर आता है। डाहरेंडॉर्फ के अनुसार इससे सामाजिक ढांचे में दो प्रकार के परिवर्तन आते हैंः आकस्मिक और आमूलचूल । ढांचागत परिवर्तन ऐसे परिवर्तनों के लिए प्रयुक्त होता है जो आदेशक समन्वित साहचर्य में प्रभुत्व और पराधीनता के पद-स्थानों पर लोगों के बदल जाने से आते हैं। इसका उदाहरण यह है कि प्रभुसत्ता के सभी पदस्थानों पर पहले पराधीन वर्ग के सदस्य रहे लोग अधिकार कर लें जैसा कि किसी क्रांति में होता है। मगर ऐसा अक्सर आंशिक रूप से ही हो पाता है।
सामाजिक ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन का अभिप्राय इस तरह के परिवर्तन के परिणामों की सार्थकता और उनके फलितार्थो से है। ध्यान देने की बात यहां यह है कि कई आकस्मिक बदलाव अनिवार्यतः आमूल नहीं होते। उदाहरण के लिए एक जनरल दूसरे जनरल के खिलाफ हिंसक विद्रोह करके उसका तख्ता पलट दे तो इससे कार्मिक में भारी परिवर्तन आएगा लेकिन यह राज्य में विद्यमान संस्थागत या आदर्श व्यवस्था में कोई भारी बदलाव नहीं लाएगा।
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