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राजा राममोहन राय raja ram mohan roy in hindi for UPSC , RAS , द्वारा लिखित पुस्तकें , सामाजिक सुधार

(raja ram mohan roy in hindi for UPSC , RAS) राजा राममोहन राय द्वारा लिखित पुस्तकें , सामाजिक सुधार कौन थे , बचपन का नाम , सती प्रथा जीवन परिचय लिखिए |
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
धार्मिक सधारक के रूप में राय
राय पर पड़ने वाले प्रभाव
हिन्दुत्व की पुनर्विवेचना
समाज सधारक के रूप में राय
जाति व्यवस्था पर
महिलाओं के अधिकारों पर
सती प्रथा पर
राय की राजनीतिक उदारवादिता
स्वतंत्रता पर
व्यक्ति के अधिकारों पर
कानून और न्यायिक प्रशासन पर
राज्य की कार्यवाही के क्षेत्र पर
शिक्षा पर
अंतर्राष्ट्रीय सह.अस्तित्व पर
सारांश
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर
उद्देश्य
इस इकाई में राजा राममोहन राय के राजनीतिक सोच की चर्चा की गयी है। वह 19वी सदी के भारत के प्रमुख धार्मिक और समाज सुधारक थे। वह भारतीय राजनीतिक सोच की उदारवादी परम्परा के संस्थापक थे। इस इकाई का अध्ययन करने के बाद आप इस योग्य हो पायेंगे कि आपः
ऽ आधुनिक भारत के निर्माण में सामाजिक.धार्मिक सुधार आंदोलनों की भूमिका के गुण-दोषों की परख कर संकें,
ऽ राय ने क्रूर और बर्बर सामाजिक प्रथाओं के खिलाफ जो अभियान छेड़ा उसे समझ सकें, और
ऽ आधुनिक भारतीय राजनीतिक सोच को आकार देने में उदारवाद के अर्थ और महत्व को समझा सकें।

प्रस्तावना
राजा राममोहन राय (1772-1833) आधुनिक भारत के निर्माताओं में से एक थे। उन्हें आमतौर पर ‘‘आधुनिक भारत का जनक’’ कहा जाता है। उनका दृष्टिको.ा आधुनिक होते हुए भी वह हमेशा आधुनिकता को परंपरा के साथ जोड़ने की कोशिश करते थे। उनकी कोशिश यह रहती थी कि पश्चिमी और पूर्वी दर्शन की धर्मनिरपेक्षता और अध्यात्मवाद का रचनात्मक संयोजन किया जाये। धर्म के प्रति उनका दृष्टिकोण उदार था। वह दुनिया के तमाम मुख्य धर्मों की सबसे अच्छी बातों को मिलाकर एक सार्वभौमिक धर्म की अवधार.ाा पेश करना चाहते थे।

धार्मिक सुधारक के रूप में राय
धर्म की समीक्षा और पुनर्मूल्यांकन राय की चिता का सबसे प्रमुख विषय था। उनका यह मत था कि धर्म के क्षेत्र में चैद्धिकता से और आधुनिकता को लाया जाना चाहिए, और ’‘बौद्धिकता से विहीन धर्म’’ कई सामाजिक बुराइयों की जड़ था। उनके अनुसार इस देश की राजनीतिक प्रगति मुख्य तौर पर धार्मिक सोच और व्यवहार में सफल क्रांति पर निर्भर थी। उनकी दिलचस्पी न केवल हिन्दू धर्म में सुधार करने में थीए बल्कि उन्होंने दनिया के विभिन्न धर्मों में पाये जाने वाले अंतर्विरोधों को खत्म करने की भी कोशिश की। उन्होंने तुलनात्मक धर्मों का गंभीर अध्ययन किया और उन्होंने इस बात को महसूस किया कि सच्चा हिन्दुत्व, सच्चा इस्लाम और सच्ची ईसाइयत बुनियादी तौर पर एक दूसरे से अलग नहीं हैं। उनकी आशा थी कि तमाम धर्मों को सबसे अच्छी बातों को मिलाकर मानव जाति के लिए सार्वभौमिक धर्म की इस अवधारणा का अर्थ न केवल धार्मिक सहिष्णुता थीए बल्कि यह भी कि अलग-अलग धर्मों की दीवारों के पार इसे रखा जाये।

इस तरह से, राय ने एक आध्यात्मिक संश्लेषण की कोशिश कीए जिसमें उन्होंने तमाम धर्मों के अनुभव की एकता पर जोर दिया। वह एक पक्के ईश्वरवादी हो गये। 19वीं शताब्दी में उन्होंने ब्रह्मो समाज की स्थापना की। समाज ने धार्मिक और दार्शनिक चिंतन और चर्चा के मंच का काम किया। राय की धार्मिक कट्टरता और अंधविश्वास की आलोचना ने सभी सगठित धर्मों के परोहित वर्गों को उनके खिलाफ कर दिया। लेकिन समय ने निसंदेह राय के सोच और कार्यों की प्रासंगिकता को सिद्ध कर दिया है।

 राय पर पड़ने वाले प्रभाव
बंगला और संस्कृत के अलावा राय ने अरबी, फारसी, इब्रानी, यूनानी लातीनी और दनिया में बोली जाने वाली 17 और प्रमुख भाषाओं में महारत हासिल कर ली थी। ऐसी अलग-अलग किस्म की भाषाएँ जानने के कारण राय का पश्चिम के विभिन्न किस्म के सांस्कृतिकए दार्शनिक और धार्मिक अनुभवों से हुआ। उन्होंने इस्लाम का गहरा अध्ययन किया। सामान्य तौर पर अरबी साहित्य और विशेष तौर पर, मुताजिल की बौद्धिकता और तार्किक सुसंगति ने राय को बहुत प्रभावित किया। सादी और हाफिज जैसे सूफी कवियों ने उनके मन पर काफी प्रभाव डाला। कुरान की तौहीद या ईश्वर की एकता की अभधारणा ने राय को चमत्कृत किया।

इस तरह, इस संदर्भ मेंए जब राय ने हिन्दू धर्म ग्रंथों और प्रथाओं पर गौर किया तो उन्हें बहुत तकलीफ हुई। उन्हें बहु-ईश्वरवाद, मूर्ति पूजा और बौद्धिकता से विहीन अंधविश्वास बिल्कुल असहनीय लगे। उन्होंने इन सदियों पुरानी बुराइयों से जूझने का निश्चय किया।

संस्कृत के विद्धान होने के नाते, राजा राममोहन राय ने हिन्दु धर्म ग्रंथों का गहन अध्ययन किया थाए और वहीं से उन्हें रूढ़ीवादी हिन्दू धर्म को उसके पुरातनपंथी तत्वों से मुक्त करने की प्रेरणा मिली।

राय ने बौद्ध धर्म के उपदेशों का भी अध्ययन किया था कहा जाता है कि अपनी सभाओं के दौरान वह तिब्बत पहुंचे उन्हें यह देख कर तकलीफ हुई कि किस तरह से बौद्ध धर्म के सिद्धांतों का घोर उल्लंघन हो रहा था और भगवान बुद्ध के धर्म वर्जित मूर्ति पूजा को स्वीकार कर लिया गया था। उन्होंने इन प्रथाओं का जम कर विरोध किया।

राजस्व विभाग में दीवान की हैसियत से जब राजा राममोहन राय को रंगपुर जाने का संयोग प्राप्त हुआ तो, उन्हें तांत्रिक साहित्य और जैनियों के कल्प पढ़ने का मौका मिला। उन्होंने अंग्रेजी भाषा में भी महारत हासिल कर ली, और इंग्लैंड और यूरोप के बुद्धिवाद और विमोचन जैसे विचारों एवं राजनीतिक घटनाओं से अपने आपको परिचित कराया। अंग्रेजी के ज्ञान से राय को न केवल अंग्रेजों से सम्पर्क बनाने में सुविधा हुई, बल्कि उनके लिये एक परी नयी दनिया के द्वार खुल गए। राय के ही शब्दों मेंए उन्होंने अब अंग्रेजों के प्रति अपने शुरुआती पूर्वाग्रहों को छोड़ दिया और यह महसूस किया कि अज्ञानी और अंधविश्वासी जन साधारण की दशा सुधारने के लिये इन प्रबुद्ध शासकों की मदद लेना कहीं अच्छा होगा। वह अंग्रेजी शिक्षा और अंग्रेजी राज के जबरदस्त हिमायती हो गये।

राय के मन में वेदांत और कुरान की तरह बाइबिल के लिए भी प्रशंसा का भाव था। उनके अनेक आलोचकों का सोचना था कि राय के ब्रह्मो समाज के दो प्रमुख सिद्धांत, मूर्ति पूजा का विरोध और सामूहिक प्रार्थना की रीति, ईसाई धर्म से ही लिये गये थे। राय पर यह आरोप लगाया गया कि वह परोक्ष रूप में हिंदुस्तान का ईसाईकरण कर रहे थे। यह सही है कि राय ने भारतीयों को ईसा के उपदेशों का पालन करने का सुझाव दिया। राय ने खद स्वीकार किया किए ‘‘मेरी जानकारी में जितने धर्म सिद्धांत हैं, उनमें से ईसा के सिद्धांतों को मैंने नैतिकता में कहीं अनुरूप और बौद्धिक जन के लिये अधिक अनुकल पाया है।’’ उन्होंने ईसा के सिद्धांतों को एकत्र कर के यह भी प्रमाणित करने की कोशिश की कि ईसा के उपदेशों को बौद्धिक जन के उपयोग के लिये किस तरह बेहतर ढंग से अपनाया जा सकता है। साथ ही, यह भी बात ध्यान देने योग्य है कि वह ईसाई धर्म के अंध भक्त नहीं थे। उन्होंने ईसा के दिव्यता के सिद्धांत को इस तर्क के साथ अस्वीकार कर दिया कि अगर ईसा दिव्य हैं तोए राम भी दिव्य हैं। उन्होंने मिशनरियों द्वारा प्रचारित ‘‘पिता-पुत्र पवित्रता’’ के सिद्धांत को भी अस्वीकार कर दिया।

ऊपर जो कुछ कहा गया है, उससे यह स्पष्ट हो जाना चाहिये कि राय पर हिन्दू धर्म के ईसाईकरण का आरोप लगाना गलत है। बल्कि राय की उत्कंठ इच्छा तो हिन्दू धर्म के पवित्र और सार्वभौम स्वरूप को फिर से उभारने की थी। उन्होंने जाति, मूर्ति पूजा और अंधविश्वासी रीतियों और कर्मकांडों को खारिज करने वाले अद्वैत दर्शन की हिमायत की। इस तरहए राय एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने धर्मों के संकीर्ण विभाजनों को पीछे छोड़ दिया। उन्होंने हिन्दत्व, ईसाई धर्म और इस्लाम के सबसे महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक तत्वों को गले लगाया।

हिन्दुत्व की पुनर्विवेचना
राय ने अपनी तमाम हिन्दू समाज में व्याप्त अनेकीश्वरवाद मूर्ति पूजा और अंधविश्वासों जैसी मध्य युगीन प्रवृत्तियों से जूझने में लगा दी। उनका अटूट विश्वास अद्वैतदर्शन में था, जिसमें इस तरह की प्रवृत्तियों के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी। राय को पूरा विश्वास था कि जब तक हिन्दू समाज में धार्मिक और सामाजिक बदलाव नहीं होता, वह राजनीतिक प्रगति के काबिल नहीं होगा। उनके अनुसारए उस समय हिन्दुओं में जो धर्म-व्यवस्था व्याप्त थी, उसके रहते हिन्दुओं के राजनीतिक हितों को आगे बढ़ाना मुश्किल था। राय का तर्क था कि हिन्दुओं में जो ढेरों धार्मिक रीतियों और अनुष्ठान थे और जाति के अस्वाभाविक भेदभाव और शुद्धीकरण के नियम थे, उनके कारण हिन्दू किसी भी किस्म की समान राजनीतिक भावना से वंचित रह गये थे। हिन्दुओं के लिए वह जरूरी था कि वे कम से कम अपने राजनीतिक लाभ और सामाजिक सुविधा के लिए ही अपने धर्म में कुछ बदलावों को स्वीकार कर लें। इस तरहए राय के लिये हिन्दुत्व की पूर्ण विवेचना सामाजिक-राजनीतिक सुधार के कार्यक्रम का प्रस्थान बिंदु था। राय की कोशिश आध्यात्मिक जीवन के गहन अनुभवों को सामाजिक जनवाद के बुनियादी सिद्धांत से मिलाने की थी। वह तमाम अंधविश्वासों और उन पर आधारित कुरीतियों की भर्त्सना करते थे, क्योंकि उनका मानना था कि अर्से से चली आ रही ये पारम्परिक प्रथाएँ वास्तव में उनके धर्म का आधार बिंदु नहीं थी। उनके लिये, इस शद्धता की सच्चाई तो यह थी कि हिन्दु धर्म ग्रंथों में इनके लिये कोई स्थान या समर्थन नहीं था। राय अपने देशवासियों का ध्यान उनके धर्म की प्राचीन शुद्धता की ओर आकृष्ट करना चाहते थे। उनके लिये, इस शुद्धता का बिम्ब वेदों और उपनिषदों में मिलता है।

शुद्ध हिन्दु धर्म में अंधविश्वास और अंधविश्वासी मान्यताओं और प्रथाओं की शुद्ध हिन्दू धर्म में कोई बुनियाद नहीं थी, यह सिद्ध करने के लिए राय ने उपनिषदों के बंगाली और अंग्रेजी में अनुवाद का कठिन काम हाथ में लिया। उन्होंने इन अनुवादों के साथ विस्तार से टिप्पणियाँ भी दीं और उन्हें लोगों में मुफ्त बाँटा।

जब राय 16 साल के थेए तो उन्होंने मूर्ति पूजा की वैधता को चुनौती देते हुए एक किताब लिखी। उनके अनुसार, मूर्ति पूजा कई और सामाजिक बुराइयों का मूल कारण थी। इससे अनेक देवी-देवताओं और पूजा के अनेक तरीकों को जन्म मिलता था। इसके कारण समाज ऐसी असंख्य जातियों और समूहों में बँट गया था, जो एक दूसरे से भिन्न-भिन्न मूर्तियों की पूजा में लगे थे। विभाजन और उप-विभाजन की इस प्रक्रिया का कोई अंत नहीं था। राय मर्ति पूजा को तार्किकता और सामान्य बोध के खिलाफ मानते थे। इसके अलावा, इसे प्राचीन धर्म ग्रंथों में कोई समर्थन प्राप्त नहीं था। राय ने ब्रह्म समाज के मंच से एकेश्वरवाद और सामूहिक प्रार्थना का प्रचार किया। राय ने इन अंधविश्वासों के खिलाफ संघर्ष कियाए जो हिन्दू समाज में कई अमानवीय और कर प्रथाओं और परंपराओं को जन्म देने का कारण बने। उन्होंने लोगों में यह विश्वास दिलाने की कोशिश की कि अंधविश्वासों का बुनियादी हिन्दू धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है। राय ने केवल उपदेश ही नहीं दियाए बल्कि अपने उपदेशों का खद पालन भी किया। परातनपंथ हिन्दू समुद्र की यात्रा को पाप मानते थे। राय इस अंधविश्वास को तोड़ने वाले पहले हिन्दू थे। उन्होंने खुद समुद्र यात्रा की। उनकी इस साहसिकता ने उनकी कोशिशों को और प्रभावशाली बना दिया।
बोध प्रश्न 1
टिप्पणीः 1) अपने उत्तर के लिये नीचे दिये स्थान का इस्तेमाल करें।
2) अपने उत्तरों का मिलान इकाई के अंत में दिये गए उत्तरों से कर लें।
1) एक सुधारक के रूप में राय को किन बातों ने प्रभावित किया?
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राय ने किन आधारों पर मूर्ति पूजा का विरोध किया?
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बोध प्रश्न 1 उत्तर :-
1) राय पर अरबी, फारसी, संस्कृत, अंग्रेजी और लगभग 17 अन्य भाषाओं का प्रभाव पड़ा। इस्लाम ने उनके मन पर गहरा प्रभाव छोड़ा।
इस प्रभाव में आकर वह बहुईश्वरवाद और मूर्ति पूजा के विरोधी हो गये और उन्होंने प्राचीन भारतीय साहित्य की गहन अध्ययन किया और कुछ उपनिषदों का अंग्रेजी और बंगला में अनुवाद किया। वह ईसाई धर्म, विशेष तौर पर इसके नैतिक संदेश से भी प्रभावित हुए। उन्होंने अंग्रेज उदारवादों के लोखों से उदारवादिता सीखी।
2) राय के लिये मूर्ति पूजा कई सामाजिक बुराइयों की जड़ थी। इससे अनेकानेक देवताओं को जन्म मिलता है, पूजा के अनेकानेक तरीके निकल पड़ते हैं जिससे समाज बंट जाता है। मूर्ति पूजा विवेक और सामान्य बोध के खिलाफ है। इसे प्राचीन धर्म । ग्रंथों में कोई समर्थन नहीं प्राप्त है।

समाज सुधारक के रूप में राय
राय धार्मिक पिछड़ेपन के बाद भारत के सामाजिक पतन को उसके राजनीतिक ह्रास का कारण मानते थे। उन्हें इस बारे में कोई शक नहीं था कि यहां सामाजिक सुधार राजनीतिक मुक्ति की एक जरूरी शर्त थी। उन्होंने सामाजिक सुधार के क्षेत्र में अग्रणी काम किया।

राय ने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत आत्मीय सभा की स्थापना के साथ की। इस सभा ने कुलीन परम्परा के नाम पर कुछ विशेष हितों के कार.ाए कमसित लड़कियों को धनी पतियों के हाथों बेचे जाने की प्रथा का जम कर विरोध किया। इसने बहुविवाह प्रथा का भी विरोध किया और जातिगत अयोग्यताओं को खत्म करने के लिये काम किया।

राय भारत में अंग्रेजी राज की प्रगतिशील भूमिका में विश्वास करते थे और उन्होंने, विशेषतौर पर सामाजिक दृष्टि से प्रगतिशील विधानों के रूप में, सामाजिक सुधारों के मामले में सरकारी मदद की मांग की। राय का यह विश्वास था कि सरकार के सक्रिय समर्थन के बिना अमानवीय सती प्रथा को खत्म करना असंभव होगा।

राय का लक्ष्य एक ऐसे नये समाज का निर्माण करना था जो सहिष्णुताए सहानुभूति और तार्किकता के सिद्धांतों पर आधारित हो और जिसमें स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के सिद्धांत सभी को स्वीकार होंए और जिसमें मनुष्य उन पारंपरिक बेड़ियों से मुक्त हो जायेए जिनका वह युगों से गुलाम है। वह एक ऐसे नये समाज की कामना करते थेए जो तमाम संकीर्ण सीमाओं से परे और आधुनिक हो।

19वीं शताबी भारत में सामाजिक.राजनीतिक सुधार
राय के समाज सुधार के तरीके बहुबिध थे। उन्होंने सभी संभव साधनों को मिला दियाए उन्हें भी जिन्हें आमतौर पर एक दूसरे का विरोधी समझा जाता था। उन्होंने अपने देशवासियों की बौद्धिकता को संबोधित किया और वह अक्सर प्रस्तावित सुधारों के समर्थन में धर्मग्रंथों की पंक्तियों और पदों का उद्धरण देते थे।

राय संस्कृत के विद्धान होने के नाते, यथा स्थिति की हिमायत करने वालों की आपत्तियों का जवाब देने के लिये मल संस्कृत पाठों से उद्धरण देते थे और उन्हें निरुत्तर कर देते थे। मिसाल के तौर पर, बहुविवाह प्रथा की निंदा करने के निये उन्होंने यज्ञ की मिसाल दी जिन्होंने दूसरी पत्नी की अनुमति केवल आठ विशिष्ट आधारों पर दी थीए जैसे अगर पत्नी शराब पीने की आदी हो, उसे कोई लाइलाज बीमारी होए उसे कोई आदि। फिर भी उनका श्मत था कि कोई भी ग्रंथ परमेश्वर का लिखा हुआ नहीं था इसलिये उसमें किसी गलती का होना असंभव भी नहीं था। राय ने समाज सुधार के विषयों पर विद्वतापूर्ण लेख लिखे और अहम धार्मिक ग्रंथों का अनुवाद और पुनर्विवेचना भी की। उन्होंने शासकों को स्मरण पत्र और अपीलें भेज कर सामाजिक बुराइयों की ओर उनका ध्यान भी खीचा। संगठित मोर्चों के मंचों से उन्होंने लोगों के आगे धार्मिक और सामाजिक व्यवहार के आदर्श रखे। उन्होंने मानव मुक्ति का लक्ष्य ले कर दुनिया में कहीं भी चलने वाले आंदोलनों में गहरी दिलचस्पी ली और उनका समर्थन किया। उनमें यह ऐलान करने का भी साहस था कि अगर संसद में पड़े किसी विशेष सधार विधेयक को पारित नहीं किया गया तो वह अंग्रेजों से अपना नाता तोड़ लेंगे। उन्होंने बेसहारा विधवाओं और गरीब छात्रों की जरूरतों को पूरा करने वाले कई सामाजिक संगठनों की स्थापना की या उनमें कई तरह से मदद की।

जाति व्यवस्था पर
राजा राममोहन राय की जाति व्यवस्था पर सबसे बड़ी आपत्ति इन आधारों पर थी कि इससे समाज का विभाजन और उपविभाजन होता है। जाति विभाजनों से सामाजिक एकरूपता और समाज के अखंडित स्वरूप का नाश होता है और समाज राजनीतिक दृष्टि से कमजोर हो जाता है। जाति विभाजन के कारण लोग पूरी तौर पर राजनीतिक भावना, यानि समानता की भावना, एकजुटता की भावना, से वंचित रह जाते हैं। इस तरह से विभाजित कौम कोई बड़ा जोखिम उठा सकने के काबिल नहीं रह जाती। जाति व्यवस्था की विभाजनकारी भमिका के अलावा राय इसके भेदभाव वाले स्वरूप की भी आलोचना करते थे। वह जाति की पारम्परिक श्रेणीबद्धता में निहीत असमानताओं के खिलाफ थे। वह जाति की पारम्परिक इस बात को तर्क के विरुद्ध मानते थे कि किसी व्यक्ति की योग्यता को उसके गुणों के आधार पर न आंक कर उसके जन्म के आधार पर आंका जाये। वह अंतरजातीय और अन्तरप्रजातीय विवाह के पक्ष में थे, उनका सोचना था कि इससे जाति विभाजनों की दीवारों को असरकारी ढंग से तोड़ा जा सकता है।

महिलाओं के अधिकारों पर
राजा राममोहन राय भारत में महिलाओं के अधिकारों के समर्थक थे। उन्होंने इस देश में महिलाओं की स्वतंत्रता के आंदोलन की नींव रखी। उन्होंने महिलाओं की दासता के खिलाफ विद्रोह किया और उन्हें उनके अधिकार दिये जाने की वकालत की। उन दिनों हिन्दु महिलाओं की हालत बहुत दयनीय थी। वे तमाम किस्म के अन्याय और अभावों की शिकार थीं। राय के अनुसार हिन्दू महिलाओं की दुर्दशा का मूल कारण था उन्हें सम्पत्ति का बिल्कुल भी अधिकार न दिया जाना। हिन्दू कन्या को उसके मृत पिता की सम्पत्ति में उसके भाईयों के साथ साझा करने का पारम्परिक अधिकार नहीं था। विवाहित महिला को उसके मृत पति की सम्पत्ति में उसके पुत्र के साथ साझा करने का अधिकार नहीं था।

सन 1822 में राय ने ‘‘ब्रीफ रिमम्कर्स रिगाडिंग मॉडर्न एन को चमेंत्स आन दि रणशिएंट राइट ऑफ वीमेनष् शीर्षक से एक किताब लिखी। उन्होंने यह बताया कि प्राचीन हिन्दू विधिदाताओं ने मां को उसके मत पति की सम्पत्ति में उसके पत्रों के साथ साझा करने का अधिकार दिया थाए और पुत्री को पिता द्वारा छोड़ी गयी सम्पत्ति में पुत्र को मिलने वाले अंश का एक चैथाई पाने का अधिकार था। राय ने बताया कि किस तरह धीर-धीरे ये अधिकार आधुनिक विधिदाताओं ने महिलाओं से छीन लिये। उन्होंने यह सिद्ध करने की कोशिश की कि अधिकारों का यह हनन याज्ञवल्क्य, नारद, कात्यायन, बृहस्पति और अन्य विभतियों द्वारा लिखे गये प्राचीन ग्रंथों में दिये गये प्रावधानों का खला उल्लंघन था। हिन्दू विधवा की असहायता और अपमान की स्थिति अमानवीय सती प्रथा के पनपने का एक प्रमुख कारण थी।

अपने सम्पत्ति के अधिकारों से पूरी तौर पर वंचित महिलाएं जैसा कि बिल्कल स्वाभाविक था, अपनी स्वाधीनता खो बैठती थीं और परिवार के पुरुष सदस्यों की दासी हो जाती थीं। यह सोचा जाता था कि उनमें पुरुषों से कम बौद्धिक क्षमताएं होती हैं। उन्हें केवल शारीरिक स्तर पर जीवित रहने की अनुमति थी। पुरुष अपनी वासना की तुष्टि के लिये जितनी महिलाओं से चाहे विवाह कर सकते थे। लेकिन महिलाओं को दोबारा विवाह की अनुमति नहीं थी। राय के लिये पुरुष-महिला समानता विश्वास का मामला था, इसलिये यह बात उनके गले नहीं उतरती थी कि महिलाएं किसी मामले में तो पुरुषों से कम थीं। उनका तो सोचना यह था कि महिलाएं कुछ मामलों में तो पुरुषों से श्रेष्ठ ही थीं। राय का तर्क था कि आज महिलाओं में जो भी कमी दिखायी देती है उसका कारण यह है कि उन्हें पीढ़ियों से ज्ञान के स्रोतों से दर रखा गया और जिंदगी की विभिन्न जिम्मेदारियां उठाने का मौका नहीं दिया गया।

राय ने बहुविवाह प्रथा का जम कर विरोध किया और पूरे जोश-खरोश के साथ इसका लज्जाजनक दृष्ट उपस्थिति का आभास कराया। उन्होंने एक से कानन का आग्रह किया जिसमें हिन्दू पुरुष न्यायाधीश की अनुमति हासिल करने के बाद ही दसरी पत्नी कर सकें। राय कछ परिस्थितियों में महिलाओं के पुनर्विवाह के पक्ष में थे। उनके द्वारा स्थापित ब्रह्मो समाज महिलाओं की शिक्षा की ओर विशेष ध्यान देता था।

सती प्रथा पर
क्रूर सती प्रथा का उन्मूलन शायद समाज सुधार का वह सबसे महान काम है जिसके साथ राजा राममोहन राय का नाम हमेशा के लिये जुड़ा रहेगा। राय ने अपने बस में सारे साधनों का इस्तेमाल इस अमानवीय प्रथा को समाप्त करने में कर दिया, जिसमें असहाय विधवा को अपने पति की चिता पर जिंदा जल जाने को मजबूर होना पड़ता था।

सन् 1818 में राय ने सती पर अपना पहला लेख लिखा जिसमें उन्होंने यह तर्क दिया कि महिला की उसके पति से अलग भी जिंदगी होती है और इसलिये इस बात का कोई कारण नहीं बनता कि पति की मौत के बाद वह अपनी जिदगी भी खत्म कर लें। पुरुषों और महिलाओं दोनों का जिदगी का अधिकार समान रूप से अहम है। सती प्रथा को सदियों पुराना होने का तर्क देकर इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता। यह जरूरी नहीं है कि जो कुछ सदियों से होता चला आ रहा है वह हमेशा सही ही हो। अगर प्रथाओं को जिंदा रहना है तो उन्हें बदलती परिस्थितियों के साथ सामंजस्य करना होगा। राय के अनुसार सती प्रथा हत्या के बराबर है और इसलिये कानूनी दंडनीय अपराध है।

राय ने तीन मोर्चों पर सती प्रथा के खिलाफ संघर्ष किया-सबसे पहला और सबसे अहम मोर्चा था जनमत राय। ने लेख लिख करए भाषण देकर, आंदोलन चलाकर और विचार-विमर्श करके लोगों को मानसिक रूप से सती प्रथा के उन्मूलन के लिये तैयार किया और उन्हें यह समझाया कि इस प्रथा को किसी भी धर्म ग्रंथ का समर्थन प्राप्त नहीं है और इसलिये इस मामले में सरकारी कार्रवाई को धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं कहा जा सकता। दूसरा, उन्होंने शासकों की हैसियत से यह उनकी जिम्मेदारी बनती थी कि वे इस क्रूर प्रथा को खत्म करें। तीसरा, मोर्चा था उन कारणों की पड़ताल करना जिनके कारण किसी हिन्दू विधवा को सती होता पड़ता था, और उन कारणों को खत्म करने के प्रबंध करना। राय ने पाया कि अपने वैध अधिकारों के बारे में महिलाओं की अज्ञान अनपढ़ होना, विधवा को सम्पत्ति के अधिकारों से परम्परा के आधार पर वंचित रखनाए और उसके कारण उनकी असहायता, निर्भरता, दःख और अपमान इस प्रथा के कुछ कारण थे। राय ने महिलाओं को सम्पत्ति का अधिकार देने और उनकी शिक्षा की सुविधाएँ जुटाने की जोरदार वकालत भी की।

बोध प्रश्न 2
टिप्पणीः 1) अपने उत्तरों के लिये नीचे दिये गये स्थान का इस्तेमाल करें।
2) अपने उत्तरों का मिलान इकाई के अंत में दिये उत्तरों से कर लें।
1) राजा राममोहन राय ने 1815 में जिस आत्मीय सभा की स्थापना की उसकी चिंता के प्रमुख विषय क्या थे?
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2) राजा राममोहन राय को सती प्रथा के उन्मूलन के लिये जिन तीन मोर्चों पर संघर्ष करना पड़ा उनके बारे में बताइये।
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बोध प्रश्न 2 के उत्तर :
1) राजा राममोहन राय द्वारा 1815.ा् में गठित आत्मीय सभा की चिंता के प्रमुख विषय थे संपन्न पतियों के हाथों कमसित लड़कियों का बेचा जानाए और बहु विवाह की प्रथा।
2) पहला मोर्चा था जनमत। राय ने हर संभव साधनों का इस्तेमाल कर जनमत को शिक्षित करने की कोशिश की। दूसरे, उन्होंने इस मामले में शासकों को आश्वत करने की कोशिश की और उन्हें इस सिलसिले में उनकी जिम्मेदारी की याद दिलायी। तीसरा मोर्चा था हिन्दू महिलाओं की सती होने के लिये बाध्य करने वाले कारणों की जांच और उनका उन्मूलन।

राय की राजनीतिक उदारवादिता
राय को उदारवाद का सबसे शुरूआती हिमायती और भारत में उदारवादी आंदोलन का प्रवर्तक कहा जा सकता है। उदारवाद यूरोप में पुनर्जागरण और सुधार का सबसे मूल्यवान देन के रूप में उभरा था। इसकी तरफ 19वीं सदी के यूरोप और अमेरिका के कुछ सर्वोत्कृष्ट बद्धिजीवी आकृष्ट हए। यह भारत में धार्मिक और सामाजिक सुधार के पहले दौर की सबसे प्रभावशाली विचारधारा बन गई। संक्षेप में, उदारवाद का अर्थ होता है व्यक्तिगत व्यक्तित्व का मूल्य और गौरद, ऐतिहासिक विकास में मनुष्य की केन्द्रीय स्थिति, और यह आस्था कि तमाम शक्ति का स्रोत जन होते हैं। स्वाभाविक ही है कि उदारवाद व्यक्ति के कुछ अधिकारों का हनन न होने देने पर जोर देता है जिनके बिना किसी भी मानवीय विकास के बारे में सोचा नहीं जा सकता, उदारवाद मानवीय समानता पर जोर देता है और इस सिद्धांत पर भी कि व्यक्ति का समाज के लिये बलिदान नहीं किया जाना चाहिये। उदारवाद में धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक या आर्थिक किसी भी क्षेत्र में अधिकार के मनमाने इस्तेमाल के लिये कोई गुंजाइश नहीं होती।

राय जीवन के सभी क्षेत्रों में उदारवादी सिद्धांतों की वकालत करते थे। धर्म के मामले में राय सहिष्णुता, समस्याओं के गैर-संप्रदायवादी समाधान और धर्म निरपेक्षता के कायल थे। वह व्यक्ति की इस स्वतंत्रता की कद्र करते थे जिसके रहते वह अपने विवेक की बात माने और पुरोहित वर्ग के आदेशों को न मानने की हिम्मत भी रखे। राजनीति के मामले में, राय विधान की अवैयक्तिक सत्ता के समर्थक थे और सत्ता के किसी भी मनमाने इस्तेमाल की खिलाफत करते थे। उनका विश्वास था कि संवैधानिक सरकार का होना मानवीय स्वतंत्रता की सबसे अच्छी गारंटी है। यह अधिकार की रक्षा करने के लिये आवश्यक संवैधानिक साधनों के इस्तेमाल पर जोर देते थे क्योंकि, उनके लिये, इस तरह के सुधार कहीं अधिक स्थायी और गहन थे।

आर्थिक क्षेत्र में उदारवादी सिद्धांतों के अनुरूप, राय जायदाद के अधिकार की पवित्रता में विश्वास रखते थे। इसी तरह, उनका विश्वास था कि एक मजबूत मध्यम वर्ग सामाजिक, राजनीतिक गतिविधियों में एक अहम भूमिका निभा सकता था। वह जमींदारों के शोषण के शिकार गरीब किसानों की मुक्ति के हिमायती थे। वह चाहते थे कि सरकार जमींदारों से अपनी मांगों में कटौती करें। वह रैयतवाड़ी प्रथा और भारतीय सभ्यता के देहाती आधार को बनाये रखना चाहते थे और आधुनिक वैज्ञानिक उद्योग की स्थापना करना चाहते थे लेकिन वह एक अहम मामले में दूसरे पश्चिमी उदारवादी चिताओं से भिन्न थे, अर्थात् राज्य भमिका और राज्य की गतिविधियों के क्षेत्र में उनकी परिकल्पना में सामाजिक सधार और जमींदारों से जोतदारों के अधिकारों की रक्षा करने के मामलों में पहल करने में राज्य से एक सकारात्मक भूमिका अदा करने की अपेक्षा की जानी चाहिये।

 स्वतंत्रता पर
राय की संपूर्ण धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक सोच स्वतंत्रता की धुरी पर घूमती थी। मूर्ति पूजा की खिलाफत, सती प्रथा के खिलाफ उनका आंदोलन आधुनिक पश्चिमी शिक्षा की उनकी मांग और समाचार पत्रों की स्वतंत्रता पर उनका जोर, महिलाओं के अधिकारों पर उनका जोर, और ‘‘अधिकारों के अलगाव की उनकी मांग, सभी स्वतंत्रता के प्रति उनके गहन प्रेम की अभिव्यक्ति थे। उनके लिये स्वतंत्रता मनुष्य समाज की अमूल्य निधि थी। भारत को राजनीतिक आजादी का संदेश देने वाले वह सबसे पहले व्यक्ति थे। यह मानते हए भी कि अंग्रेजी राज से भारत को सकारात्मक लाभ मिलेंगे, राय ने भारत में अंतहीन विदेशी राज की कभी हिमायत नहीं की। वह ब्रितानी संपर्क को भारत की सामाजिक मुक्ति के लिये आवश्यक मानते थे। उसके बाद राजनीतिक आजादी का आना लाजमी था।

लेकिन, स्वतंत्रता के प्रति उनका प्रेम किसी एक राष्ट्र या संप्रदाय तक सीमित नहीं था। यह सार्वभौम था। वह मानव स्वतंत्रता का लक्ष्य लेकर चलने वालों के किसी भी संघर्ष के हिमायती थे। उनके लिये स्वतंत्रता एक न बांटी जा सकने वाली (अविभाज्य) चीज थी। उन्हें जहां स्पेन और पुर्तगाल में संवैधानिक सरकारों के गठन पर प्रसन्नता हुई वहीं 1821 में नेपल्स में ऐसी ही एक सरकार के गिर जाने पर दुःख भी हुआ।

स्वतंत्रता राय का सबसे गहरा मानसिक जुनून था। वह शरीर और मन की स्वतंत्रता में भी समान रूप से विश्वास रखते थेए और कर्म और सोच की स्वतंत्रता में भी वह मानवीय स्वतंत्रता पर नस्लए धर्म और रीतियों के बंधन से दूर रहते थे।

व्यक्ति के अधिकारों पर
भारतीयों में नागरिक अधिकारों के प्रति जागरूकता बनाने वाले राय पहले व्यक्ति थे। वह अंग्रेजों का इसलिये एहसान मानते थे क्योंकि उन्होंने भारतीयों के लिये वे सारे अधिकार उपलब्ध कराये जो इंग्लैंड में महारानी की प्रजा को प्राप्त थे। राय ने नागरिक अधिकारों की कोई फेहरिस्त तो नहीं बनायी, लेकिन शायद उनकी परिकल्पना के नागरिक अधिकारों में ये नागरिक अधिकार शामिल थे। जीवन और स्वतंत्रता का अधिकारए मत रखने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार, जायदाद का अधिकार, धर्म (अपनी पसंद का) धर्म मानने का अधिकार, इत्यादि।

राय मत और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सबसे अधिक अहमियत देते थे। उनकी दृष्टि मे मन और बुद्धि की रचनात्मकता की स्वतंत्रता, और विभिन्न माध्यमों से अपने मत और सोचों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इसमें शामिल थी। राय के अनुसार अभिव्यक्ति की। स्वतंत्रता शासक और शासित दोनों वर्गों के लिये समान रूप से उपयोगी थी। अज्ञानी लोगों से इस बात का कहीं अधिक डर रहता है कि वे शासकों के हरेक काम के प्रति बगावत कर दें, वे अधिकारियों के खिलाफ भी हो सकते हैं। इसके विपरीत प्रबुद्ध जनता केवल अधिकारियों द्वारा सत्ता के दुरुपयोग का ही विरोध करेगी, अधिकारियों का नहीं। राय का तर्क था कि स्वतंत्र समाचार पत्र दनिया के किसी भी हिस्से में कभी क्रांति का कारण न बने। लेकिन ऐसे कई उदाहरण दिये जा सकते हैं जहां समाचार पत्रों की स्वतंत्रता न होने के कारण लोगों की शिकायतों को अधिकारियों तक नहीं पहुँचाया जा सका, नहीं दूर किया जा सका, जिससे स्थिति एक हिंसक, क्रांतिकारी बदलाव के लिये बन गयी। केवल स्वतंत्र और स्वाधीन समाचार पत्र ही सरकार और जनता की अच्छाइयों को उजागर कर सकते हैं।

लेकिन, राय समाचार पत्रों की स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंधों के खिलाफ नहीं थे। वह तो भारतीय समाचार पत्रों पर कुछ अलावा प्रतिबंधों को भी स्वीकार करते थे, जिन्हें इंग्लैंड के समाचार पत्रों पर नहीं लगाया गया था। उनका विश्वास था कि इस तरह के प्रतिबंध यहां इसलिये आवश्यक हैं कि क्योंकि यहां कुछ भारतीयों की तरफ से यह आशंका थी कि वे यहां के लोगों के मन में अंग्रेज शासकों के लिये घृणा पैदा कर सकते हैं। राय पड़ोसी दोस्त राज्यों के साथ शत्रुता पैदा करने वाली राजद्रोही किस्म की कोशिशों पर रोक लगाने की दृष्टि से लगाये गये प्रतिबंधों पर सख्त आपत्ति करते थे। उनकी राय में ये प्रतिबंध मनमाने और इस देश की परिस्थितियों में आवश्यक हैं।

कानून और न्यायिक प्रशासन पर
राय का दावा था कि कानून तर्क की सृष्टि है और उसमें भावना के लिये कोई स्थान नहीं। यह शासक का आदेश होता है। इसलिये ईष्ट इंडिया कंपनी के बड़े से बड़े अधिकारी में भारत के लिये कानूनों को लागू करने की क्षमता नहीं थी। यह अधिकार केवल संसद में सभ्राट को हो सकता था। यही नहीं, राय का यह भी तर्क था कि इंग्लैंड की संसद को भारत से संबंधित किसी भी विधान को अंतिम रूप देने से पहले इस देश के आर्थिक और बुद्धिजीवी कलीनों के विचारों को भी ध्यान में रखना चाहिये।

राय ने कानन के संदर्भ में एक और अहम विचार दिया। वह था कानून को संहिताबद्ध करना शासक और शासितों दोनों के हित में था। उनका सुझाव था कि कानून को। संहिताबद्ध करने का काम उन सिद्धांतों को आधार मान कर किया जाये जो समाज के सभी तबकों और गटों में समान रूप से हों और सभी उन पर सहमत हों। कानून को संहिताबद्ध करने की प्रक्रिया में इस देश की प्राचीन समय से चला आ रही प्रथाओं को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिये। बेशक, केवल ऐसी प्रथाओं को लिया जाना चाहिये जो तर्कसंगत हैं और जन साधार.ा की भलाई के लिये है। इस तरह से संहिताबद्ध किया हुआ कानून सरल, स्पष्ट और सही होना चहिये। संहिताबद्ध कर देने से कानून की विवेचना और भी अवैयक्तिक हो जायेगी और इसे और भी समान रूप से लाग किया जा सकेगा।

राय कानुन, प्रथा और नैतिकता में स्पष्ट भेद करते थे। वह इस बात को स्वीकार करते थे कि विकसित होती प्रथाएं कानून की एक अहम स्रोत होती है, लेकिन इन दोनों को एक नहीं माना जा सकता। वह कानून और नैतिकता में भी भेद करते थे। राय के अनुसार, यह भी हो सकता है कि कुछ कानून कानूनन तौर पर वैध हों, लेकिन नैतिकता की दृष्टि से अक्षम्य। इसी तरह, कुछ प्रथाएं नैतिक दृष्टि से स्वस्थ हो सकती है, लेकिन उन्हें कानून का समर्थन नहीं दिया जा सकता। नैतिकता के सिद्धांत सामाजिक यथार्थों के सापेक्ष होते हैं और कोई कानून असरकारी हो इसके लिये यह आवश्यक है कि इस कानून में उस समाज विशेष में प्रचलित नैतिक सिद्धांतों को ध्यान में रखा जाये।

अपनी किताब ‘‘ऐन ऐक्सपोजीशन ऑफ रिवेन्यू ऐंड जुडीशियल सिस्टम इन इंडिया’’ में राय ने प्रशासनिक और न्यायिक मामलों में अत्यावश्यक सुधारों पर एक गहन चर्चा प्रस्तुत की। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि प्रशासन को तब तक सक्षम और असरकारी नहीं बनाया जा सकता जब तक उसमें जन-साधारण की भाषा बोलने वाले अधिकारी न हों। प्रशासन और जनता के बीच संपर्क के कई रास्ते भी होने चाहिये।

न्यायिक क्षेत्र में सधार के संबंध में राय के सुझाव कहीं अधिक हैं क्योंकि उनके लिये एक सक्षम, विष्पक्ष और स्वाधीन न्यायतंत्र स्वतंत्रता की सबसे बड़ी गारंटी होता है। राय का विश्वास था कि न्यायिक प्रक्रिया में भारतीयों की संगत को न्यायिक प्रशासन का एक आवश्यक अंग होना चाहिये। उन्होंने जिन और उपायों की वकालत की उनमें शामिल है-न्यायिक प्रक्रिया पर जागरूक जनमत की लगातार नजर रहे, कानुनी अदालतों में अंग्रेजी की जगह फारसी का इस्तेमाल, दीवानी मुकदमों में भारतीय निर्धारकों की नियुक्ति, जूरी मुकदमें की कार्यवाही सुने, न्यायिक कामों को अधिशासी कामों से अलग किया जाये, भारतीयों के बारे में कोई भी कानून लागू करने से पहले उनके हितों को लगातार ध्यान में रखा जाय। उन्होंने फैसला किया कि सदियों पुरानी पंचायत व्यवस्था को फिर से चालू करने का भी सुझाव दिया। इस तरह, राय ने राजनीतिक उदारवाद के अनुसार भारतीय न्यायिक व्यवस्था में कई सुधारों और संशोधनों का आग्रह किया।

 राज्य की कार्यवाही के क्षेत्र पर
उदारवादी चिंतक होते हुए भी राय का विश्वास अहस्तक्षेप (दखलंदाजी न करने) में नहीं था। वह इस बात को कभी स्वीकार नहीं कर सके कि राज्य की कार्यवाही का क्षेत्र केवल राजनीतिक क्षेत्र तक ही सीमित था। अपने लेखों में उन्होंने राज्य के अधिकारियों से बार-बार यह आग्रह किया था कि वे ऐसी कई सामाजिक, नैतिक और सांस्कतिक जिम्मेदारियों को अपने ऊपर लें जो ‘‘राजनीति’’ की श्रेणी में नहीं आती। वह चाहते थे कि राज्य जमींदारों से किरायेदारों की रक्षा करें। उपयोगी और उदार शिक्षा की व्यवस्था करें, सती जैसी कुप्रथाओं को समाप्त करें और सभी पुरुष दोनों के जीवन रक्षा समान रूप से करें और स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों पर आधारित एक नयी सामाजिक व्यवस्था बनायें। राय के अनुसार किसी सरकार का होना केवल तभी सार्थक होता है जब वह अपने मूल कामों के अलावा इन सारे कामों को भी अंजाम दे।

शिक्षा पर
राय का विश्वास था कि जब तक इस देश की शिक्षा व्यवस्था को बिल्कुल बदल नहीं डाला जाता, तब तक इस बात की संभावना नहीं बन सकती कि लोग इतनी सदियों की नींद से जाग उठेगे। उनकी महत्वाकांक्षा शिक्षा व्यवस्था को बिल्कुल बदल डालने की थी। उनका विश्वास था कि केवल आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा ही भारतीय जनता में नयी । जागरूकता और नयी क्षमताएं भर सकती हैं। इस तरह, की शिक्षा के बिना भारत में समाज सुधार का काम बहुत कमजोर होगा और देश हमेशा पिछड़ा रहेगा। खुद संस्कृत के प्रकांड विद्वान होते हुए भी राय का हमेशा यह सोचना रहा कि संस्कृत आधुनिक भारत के लिये प्रासंगिक नहीं है और इसलिये वह इसका सख्त विरोध करते रहे। उन्होंने शासकों से यह आग्रह किया कि अप्रासंगिक संस्कृत को आगे बढ़ाने के घंजाय उन्हें चाहिये कि वे नयी भारतीय पीढ़ियों को उपयोगी आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान से समृद्ध करें। राय चाहते थे कि यवाओं को रसायन शास्त्र, गणित, शरीर विज्ञान, प्राकृतिक दर्शन जैसे उपयोगी आधनिक विज्ञानों की शिक्षा दी जाये, उन पर व्याकरण की पेचीदगियों, और काल्पनिक ज्ञान को न लादा जाये। राय के विचारों और उनकी गतिविधियों ने भारत में शिक्षा व्यवस्था को एक नयी दिशा देने में सचमुच नेतृत्वकारी काम किया। वह नारी शिक्षा के पहले हिमायती थे।

अंतर्राष्ट्रीय सह-अस्तित्व पर
इस विषय पर राजा राममोहन राय के विचारों और उनकी भविष्य उन्मख कल्पना और अंतदृष्टि की अभिव्यक्ति है उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय सह-अस्तित्व की एक संदर तस्वीर है, वह 18वीं सदी के शायद पहले चिंतक थे जिनके पास अंतर्राष्ट्रीयता की सही परिकल्पना थी। यह परिकल्पना (दृष्टि) सार्वभौम धर्म की तलाश करते समय उन्हें मिली होगी। सार्वभौमिकता के भविष्यवक्ता, राय का यह तर्क था कि दुनिया के सभी राष्ट्रों को एक धरातल पर रखा जाना चाहिये जिससे विश्व एकता और व्यापक बंधुत्व के बांध की स्थिति बनायी जा सके। केवल उसी स्थिति में राष्ट्रीयता (या, राष्ट्रवाद) और अंतर्राष्ट्रवाद) के बीच के अंतर्विरोध को समाप्त किया जा सकता है।

राय का मानना था कि विभिन्न जन-जातियों और राष्ट्र केवल एक ही परिवार की शाखाएं हैं और इसलिये दुनिया के प्रबुद्ध राष्ट्रों के बीच बारम्बार विचारों का आदान-प्रदान और सभी मामलों में विनिमय होना चाहिये। राय के अनुसार मानव जाति को सुखी और संतुष्ट बनाने का केवल यही एक रास्ता है। राजनीतिक मतभेदों को हरेक संबद्ध समान संख्या के प्रतिनिधियों वाले एक सामान्य मंच पर आकर सुलझाया जा सकता है। इस तरह का सामान्य मंच सभी अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों को सुलझाने के लिये भी उपयोगी हो सकता है, जिससे मानव जाति पीढ़ियों तक शांति के वातावरण में रह सकेगी।

इस सिलसिले में राय के विचार भविष्यवादी साबित हुए। राष्ट्र संघ (लीग ऑफ नेशन्स) और संयुक्त राष्ट्रसंघ (यू.एन.ओ.) एक तरह से इन विचारों की अंतर्राष्ट्रीय अभिव्यक्ति है।
बोध प्रश्न 3
टिप्पणीः 1) अपने उत्तर के लिये नीचे दिये गये स्थान का इस्तेमाल करें।
2) अपने उत्तर का मिलान इकाई के अंत में द्रिये उत्तर से कर लें।
1) राय ने उदारवाद के सिद्धांतों को जीवन के तमाम क्षेत्रों में कैसे लाग किया?
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2) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर राय के विचारों को संक्षेप में बतायें।
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बोध प्रश्नों के उत्तर
बोध प्रश्न 3
1) धर्म के क्षेत्र में राय ने सहिष्णुता, सभी समस्याओं गैर-संप्रदायिक निराकरण और धर्मनिरपेक्षता पर जोर दिया। वह पुरोहित वर्ग द्वारा निधारित नियमों और निषेधों की तुलना में मनुष्य के विवेक की आवाज को अधिक महत्वपूर्ण मानते थे। राजनीतिक क्षेत्र मेंए राय कानून के अवैयक्तिक अधिकार के समर्थक और तमाम किस्म के मनमाने अधिकार के खिलाफ थे। उनका सोचना था कि संवैधानिक सरकार और संवैधानिक साधन मानव-अधिकारों की सबसे अच्छी गारंटी देते हैं। राय संपत्ति के अधिकार के हिमायती थे। लेकिन वह अस्तक्षेप की नीति से सहमत नहीं थे।
2) राय के लियेए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मनष्य का सबसे अहम अधिकार था। यह शासकों और शासितों दोनों के लिये समान रूप से उपयोगी होता है। सत्ता के दुरुपयोग का समय से भंडाफोड़ करके, स्वतंत्र समाचार पत्र शासकों को उनकी भूलें सुधारने में मदद करते हैं और जनता की शिकायतों को दूर करने की संभावना बनाते हैं।

सारांश
राजा राममोहन राय को ‘‘आधुनिक भारत का जनक’’ कहा जाता है। उन्होंने पश्चिमी और पूर्वी दर्शन को मिलाने की कोशिश की। उनके लेख और विचार प्राचीन भारतीय विचारों के आधुनिक पश्चिमी राजनीतिक सिद्धांतों के साथ संश्लेषण का उदाहरण है।

धर्म की समीक्षा और पनर्मल्यांकन राय की चिंता का प्रमुख विषय था, जिसके लिये उन्होंने 1828 में ब्रह्म समाज की स्थापना की। इस समाज ने धार्मिक और दार्शनिक चिंतन और चर्चा के लिये एक मंच का काम किया।

राय विभिन्न भाषाओं, संस्कृतियों और दर्शनों के जानकार थे और इन सबका उनके लेखकों और विचारों पर प्रभाव पड़ा। उन्होंने हिंदू धर्म का गहन अध्ययन और विश्लेषण किया और इस तरह धर्म के बनियादी सिद्धांतों की पनर्विवेचना की। इस तरह से राय यह साबित करना चाहते थे कि अंधविश्वासी प्रथाओं का मूल हिन्दू धर्म में कोई आधार नहीं था।

राय के अनुसार, बिगड़ते राजनीतिक और सामाजिक परिवेश का एक और कारण था कि भारतीय समाज का सामाजिक पतन। वह एक नये भारतीय समाज की रचना करना चाहते थे जहां सहिष्णुता, सहानुभूति, विवके, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के सिद्धांतों का सम्मान हो। इस तमाम सिलसिले में उनका विश्वास था कि ब्रितानी सरकार का समर्थन आवश्यक था।

राय जाति प्रथा और सती प्रथा के खिलाफ थे। वह महिला अधिकारों के महानतम समर्थकों में थे। उनका विश्वास एक स्पष्ट रूप से सीमित संविधान की क्षमता में था जो राज्य पर नियंत्रण रख सके और व्यक्तियों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा कर सके। वह अंतरराष्ट्रवाद के विचार को स्वीकार करने और लोकप्रिय बनाने वाले पहले भारतीयों में थे।

बहुमुखी व्यक्तित्व के स्वामी राय ने तमाम किस्म के अन्यायोंए शोषक प्रथाओं और अंधविश्वासों के खिलाफ अदम्य आंदोलन चलाया।

कुछ उपयोगी पुस्तकें
चटर्जी, रामानंद: राम मोहन राय ए.ड मॉर्डन इंडिया
कम्लिट, सोफिया डाबिसनः लाइफ ए.ड लैटर्स ऑफ राजा राममोहन राय, कलकत्ताए 1913
जोशी, वीएसी. (संपा): राम मोहन ए.ड प्रासेस ऑफ मॉर्डनाइजेशन इन इंडिया, मुम्बई, विकास, 1975
मजुमदार, बी.बी.: 1967 हिस्ट्री ऑफ इंडियन सोशल ए.ड पॉलिटिकल आइडियाज फ्राम राममोहन राय टु दयानंद, इलाहाबाद, बुकलैंड
मूर, आर. जे.: 1966 लिबरलिज्म ए.ड इंडियन पॉलिटिक्स 1922, लंदन एडविन
नटराजन, एस.: 1954 सेंचुरी ऑफ सोशल रिफॉर्म इन इंडिया, बम्बई
नटेशन, जी.ए.: राजा राममोहन राय.राइटिंगज ए.डए स्पचेज, नटेशन ए.ड कं. मद्रास
राममोहन राय 1935 शतवार्षिकी खंड 1 और 2, कलकत्ता

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