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पुराण किसे कहते हैं what are Puranas in hindi हिंदू पुराणों की संख्या कितनी है सबसे प्राचीन पुराण कौन सा है

पुराणों की संख्या कितनी है सबसे प्राचीन पुराण कौन सा है पुराण किसे कहते हैं what are Puranas in hindi ?

पुराण
पुराण शब्द का अर्थ है – किसी पुराने का नवीनीकरण करना। लगभग सदैव इसका उल्लेख इतिहास के साथ किया जाता है। वेदों की सत्यता को स्पष्ट करने और इनकी व्याख्या करने के लिए पुराण लिखे गए थे। गूढ, दार्शनिक और धार्मिक सचाइयों की व्याख्या लोकप्रिय दन्तकथाओं या पौराणिक कहानियों के माध्यम से की जाती है। मनुष्य के मन में कुछ भी तब तक अधिक विश्वास नहीं जगा सकता जब तक कि इसे एक घटित घटना के रूप में समझाया न जाए। अतः इतिहास का वृत्तान्त के साथ मिश्रण करने पर कहानी पर विश्वास कर पाना संभव हो जाता है। दो महाकाव्यों- ‘रामायण‘ और ‘महाभारत‘ के साथ-साथ, ये भी भारत के सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक इतिहास की कई कहानियों एवं किस्सों के उद्गम हैं।
मुख्य पुराण दंतकथा और पौराणिक कथा के 18 विश्वकोशों के संगह हैं। जबकि शैली का पुरातन रूप चैथी या पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व में ही अस्तित्व में आ गया होगा, 18 महापुराणों के प्रसिद्ध नामों की खोज तृतीय शताब्दी ईसवी के पूर्व नहीं हई होगी। इन महापुराणों की अपूर्व लोकप्रियता में उपपुराणों या लघुपुराणों ने एक अन्य उप-शैली को जन्म दिया। इनकी संख्या भी 19 है।
महापुराणों के पांच विषय हैं। ये हैः सर्ग, सृष्टि का मूल सृजन (2) प्रतिसर्ग, विनाश और पुनः सृजन की आवधिक प्रक्रिया (3) मन्वंतर, अलग-अलग युगों का अंतरिक्षीय चक्र (4) सूर्य वंश और चंद्र वंश, ईश्वर और मनीषियों के सौर तथा चन्द्र वंशों का इतिहास (5) वंशानुचरित्र, राजाओं की वंशावलियां। इन पांच विषयों की इस आंतरिक अभिव्यक्ति के आसपास ही कोई भी पुराण अन्य विविध सामग्री की वृद्धि करता है, यथा धार्मिक प्रथाओं, समारोहों बलिदानों से कर विषय, विभिन्न जातियों के कर्तव्य, विभिन्न प्रकार के दान, मन्दिरों और प्रतिभाओं के निर्माण के ब्योरे और ती का विवरण आदि। ये पुराण विभिन्न धर्मों और सामाजिक विश्वासों के लिए मिलन स्थल है, व्यक्तियों की महत्त्वपर्ण आत्मिक तथा सामाजिक आवश्यकताओं एवं आग्रहों की एक कड़ी है, और वैदिक आर्यों तथा गैर-आयों के समूहों के बीच एक समझ पर आधारित रहते हुए सदा चलते रहने वाले संश्लेषणों का एक अद्वितीय संग्रह हैं।
शास्त्रीय संस्कृत साहित्य
संस्कृत भाषा वैदिक और शास्त्रीय रूपों में विभाजित है। महान महाकाव्य रामायण, महाभारत और पुराण शास्त्रीय यग का एक भाग है लेकिन इनकी विशालता तथा महत्व के कारण इन पर अलग-अलग चर्चा की जाती है. और निस्संदेदो काव्य (महाकाव्य), नाटक, गीतात्मक काव्य, प्रेमाख्यान, लोकप्रिय कहानियां, शिक्षात्मक किस्से कहानियों, सक्तिबदी व्याकरण के बारे में वैज्ञानिक साहित्य, चिकित्सा विधि, खगोल-विज्ञान, गणित आदि शामिल हैं। शास्त्रीय संस्कत साहि समग्र रूप से पंथनिरपेक्ष रूप में है। शास्त्रीय युग के दौरान, संस्कृत के महानतम व्याकरणों में से एक पाणिनि नियमों द्वारा भाषा विनियमित होती है।
महाकाव्य के क्षेत्र में महानतम विभूति कालिदास (380 ईसवी से 415 ईसवी तक) थे। इन्होंने दो महान महाकाली रचना की, जो ‘कुमार संभव‘(कुमार का जन्म) और ‘रघुवंश‘ (रघु का वंश) हैं। काव्य परम्परा में शैली, एक के बाद आने वाले सर जो मिल कर एक ही सुर उत्पन्न करते है, अहंकार, विवरण, आदि जैसे रूप पर अधिक ध्यान दिया है और कहानी के विषय को पीछे धकेल दिया जाता है। एक ऐसी कविता का समग्र प्रयोजन जातीय मानदण्डों
अपमान किये बिना ही जीवन की धार्मिक और सांस्कृतिक शैली की क्षमता को प्रकट करना है। अन्य विशिष्ट कवियों यथा भारवि (550 ईसवी सन) ने ‘शिशुपाल वध‘ की रचना की। श्रीहर्ष और भट्टी जैसे अनेक अन्य कवि है, जिन्होंने उत्तम रचनाओं की रचना की।
काव्य और यहां तक कि नाटक का मुख्य प्रयोजन पाठक या दर्शक को मनबहलाव या मनोरंजन (लोकरंजन) की पेशकश करना है और साथ ही उसकी भावनाओं को प्रेरित करना व अन्ततः उसे अपने जीवन के दर्शन को स्पष्ट करना है। अतः नाटक को रूढ शैली के अनुसार अंकित किया जाता है और यह काव्य तथा वर्णनात्मक गद्य से परिपूर्ण है। यह सांसारिकता के स्तर पर तथा साथ ही साथ गैर-सांसारिकता के एक अन्य स्तर पर चलता है। अतः संस्कृत नाटक की प्रतीकात्मकता यह बताती है कि मनुष्य की यात्रा तब पूरी होती है जब वह आसक्ति से गैर-आसक्ति की ओर, अस्थायाीत्व के शास्त्रत्व की ओर अथवा प्रवाह से कालातीतत्व की ओर बढ़ता है। इसे संस्कृत नाटक में दर्शकों के मन में रस (नाटकीय अनुभव या सौन्दर्यपरक मनोभाव) जागृत करके हासिल किया जाता है। भरत (प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व से प्रथम शताब्दी ईसवी सन्) द्वारारचित नाट्यशास्त्र की प्रथम पुस्तक में अभिनय, नाट्यशाला, मद्राओं मंच संचालन के बारे में सभी नियम और प्रदर्शन दिए गए हैं। कालिदास सबसे अधिक प्रतिष्ठित नाटककर हैं और इनके तीन नाटकों, यथा ‘मालविकाग्निमित्र‘ (मालविका और अग्निमित्र), ‘विक्रमोर्वशीयम्‘ (विक्रम और उर्वशी) तथा ‘अभिज्ञान शाकुंतलम‘ (शंकुतला की पहचान) में प्रेम रस की, इसकी सभी संभव अभिव्यक्तियों के भीतर रहते हुए, अभिक्रिया अद्वितीय है। ये प्यार और सौन्दर्य के कवि हैं तथा इनका जीवन के अभिकथन में विश्वास है जिसकी प्रसन्नता शुद्ध, पवित्र तथा सदा विस्तारित होने वाले प्रेम में निहित है।
शुद्रक द्वारा रचित ‘मृच्छकटिकम‘ (चिकनी मिट्टी का ठेला) एक असाधारण नाटक प्रस्तुत करता है। जिसमें निष्ठुर सत्यता के पुट देखने को मिलते हैं। पात्र समाज के सभी स्तरों से लिए गए हैं जिनमें चोर और जुआरी, दुर्जन तथा आलसी व्यक्ति, वेश्याएं और उनके सहयोगी, पुलिस के सिपाही, भिक्षुक एवं राजनीतिज्ञ शामिल है। अंक-3 में डकैती का एक रुचिकर वर्णन किया गया है जिसमें चोरी को एक नियमित कला माना जाता है। एक राजनैतिक क्रान्ति को दो प्रेमियों के निजी प्रेमसंबंध को परस्पर जोड़ने से नाटक में एक नवीन आकर्षण आ जाता है। भाषा (चैथी शताब्दी ईसा पूर्व से दूसरी शताब्दी ईसवी सन) के तेरह नाटक, जिनके बारे में बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में पता चला था, संस्कृत रंगमंच के सर्वाधिक मंचनीय नाटकों के रूप में स्वीकार किए जाते हैं। सबसे अधिक लोकप्रिय नाटक स्वप्न- वासवदत्ता (वासवदत्ता का स्वप्न है, जिसमें नाटककार ने चरित्र-चित्रण में अपनी कुशलता और षडयंत्र की उत्तम दलयोजना को प्रदर्शित किया है। एक अन्य महान नाटककार भवभूति (700 ईसवी सन) अपने नाटक उत्तररामचरित (राम के जीवन का उत्तरार्ध) के लिए भली-भांति जाने जाते है। इसमें अति सुकुमारता के प्यार के अन्तिम अंक में एक नाटक शामिल है। ये अपने आलोचकों को यह कह कर प्रत्यक्ष रूप से फटकारने के लिए भी जाने जाते हैं कि मेरी कृति आपके लिए नहीं है और यह कि एक सदृश आत्मा निश्चय ही जन्म लेगी, समय की कोई सीमा नहीं है और धरती व्यापक है। ये उस अवधि के दौरान लिखे गए छह सौ से भी अधिक नाटकों में से सर्वोत्तम नाटक हैं।
संस्कृत साहित्य अति गुणवत्तापूर्ण गीतात्मक काव्य से परिपूर्ण है। काव्य से परिपूर्ण है। काव्य में रचनात्मकता का संयोजन शामिल है, वास्तव में, भारतीय संस्कृति में कला और धर्म के बीच विभाजन यूरोप तथा चीन की तुलना में कम पैना प्रतीत होता है। ‘मेघदूत‘ (बादल रूपी दूत) में कवि ऐसे दो प्रेमियों की कहानी सुनाने के लिए बादल को दूत बना देता है जो पृथक हो गए हैं। यह काफी कुछ प्यार की उच्च संकल्पना के अनुसार है जो अलग होने पर काले बादलों के बीच बिजली चमकने की भांति अंधकारमय दिखाई देती है। जयदेव (बारहवीं शताब्दी ईसवी सन) संस्कृत काव्य का अन्तिम महान नाम है। जिसमें कृष्ण और राधा के बीच के प्यार के प्रत्येक चरण, अर्थात उत्कंठा, ईर्षया, आशा, निराशा, क्रोध, समाधान और उपभोग का नयनाभिराम गीतात्मक भाषा में वर्णन करने के लिए गीतात्मक काव्य ‘गीतगोविन्द‘ (गोविन्द का प्रशंसा में गीत) की रचना की। ये गीत प्रकृति के सौन्दर्य का वर्णन करते हैं जो मानव के प्यार का वर्णन करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं।

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