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पंजाबी सूबा आंदोलन क्या है | Punjabi Suba movement in hindi upsc सूबा आन्दोलन कब और कहा हुआ ?

Punjabi Suba movement in hindi upsc पंजाबी सूबा आंदोलन क्या है सूबा आन्दोलन कब और कहा हुआ ?

पंजाबी सूबा आंदोलन
उत्तर भारत में सबसे महत्वपूर्ण भाषायी आंदोलन के सूत्र हमें 1919 में मिलते हैं जब इस वर्ष दिसंबर में केन्द्रीय सिख लीग गठित की गई थी। इसके बाद 1920 में शिरोमणी अकाली दल का गठन हुआ जिसका उद्देश्य सिखों के धार्मिक स्थलों गुरद्वारों की रक्षा करना था। लेकिन शीघ्र ही यह सिख समुदाय के हितों के लिए लड़ने वाला एक जुझारु धार्मिक-राजनीतिक संगठन बन गया। मगर 1946 तक इसकी राजनीति में सांप्रदायिक रुख बिल्कुल स्पष्ट हो चला था। रैडक्लिफ एवार्ड की तर्ज पर 18 अगस्त 1947 को पंजाब को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित कर दिया गया। इसके फलस्वरूप संयुक्त पंजाब में जिन हिन्दुओं की संख्या सिर्फ 30 प्रतिशत थी वे अब बहुसंख्यक हो गए और कुल जनसंख्या में उनका प्रतिशत 70 पहुंच गया। इसी प्रकार अविभाजित पंजाब में सिखों की संख्या 15 प्रतिशत थी। लेकिन अब उनकी संख्या भी 30 प्रतिशत हो गई थी और विभाजित पंजाब में वे सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समूह बन गए। मुसलमानों की संख्या घटकर बहुत कम हो गई। नवगठित. पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों के कारण दक्षिण-पूर्वी जिलों में हिंदुओं का और मध्य जिलों में सिखों का जमाव बढ़ गया। इसके फलस्वरूप शरणार्थियों के बीच होने वाले छोटे-मोटे साधारण से झगड़े और तनावों ने साम्प्रदायिकता का रंग ले लिया। बसे हुए सिखों और आप्रवासी आबादी के बीच शहरी और ग्रामीण विभाजन भी उत्पन्न हो गया। स्थानीय हिंदुओं को ऐसा महसूस होने लगा कि पहले के पंजाब-से आए लोग उनका शोषण कर रहे हैं।

पाकिस्तान से आए सिख और अधिकांश स्थानीय सिख अपनी जमीन से जुड़े थे। वे असल में ग्रामीण उद्यमी थे, अपनी मिट्टी से प्रेम करने के लिए प्रसिद्ध थे। सिख शरणार्थियों को विभाजन की मार सबसे ज्यादा झेलनी पड़ी थी। आसान पहचान होने के कारण उन्हें जान-माल का नुकसान सबसे ज्यादा उहाना पड़ा था। उनके अनेक गुरद्वारे और सांस्कृतिक केन्द्र पाकिस्तान में ही छूट गए। हिन्दू लोगों में शरणार्थी और मूल निवासी दोनों अमूमन व्यापारी थे, जिन्होंने कुछ परिश्रम करके अपने को फिर से बसा लिया। उनकी सांस्कृतिक जड़ें अक्षत थीं और वे एक अखिल हिंदू संस्कृति में आसानी से मुलमिल हो गए। विभाजन के शुरुआती दिनों में राजनीति उथल-पुथल भरी थी। जोतदार किसानों और शाहरी सिखों ने कांग्रेस से नाता जोड़ लिया। अकाली दल के सिखों में राजनीतिक एकता लाने के तमाम प्रयास 18 मार्च 1948 को विफल हो गए जब सभी निर्वाचित सिख विधानसभा सदस्य कांग्रेस में शामिल हो गए । मबार अकाली नेतृत्व ने विधानसभा से बाहर सिख पहचान की रक्षा के लिए संघर्ष करना नहीं छोड़ा। भारत के सांविधान को जब आखिरी रूप दिया जा रहा था तो अकाली दल ने गुरुमुखी लिपि में पंजाबी भाषा को मान्यता देने और सिखों के हितों की रक्षा के लिए संवैधानिक उपाय करने की मांग रखी।

बॉक्स 12.05
मास्टर तारा सिंह के कहने पर 15 नवंबर 1948 को 23 अकाली विधायकों ने कहा कि अगर उनकी मांगों में पांच संवैधानिक उपायों को स्वीकार नहीं किया गया तो उन्हें सात जिलों को मिलाकर अलग प्रांत बनाने की अनुमति दी जाए जिसमें लुधियाना, फिरोजपुर, अमृतसर, गुरुदासापुर, जालंधर और होशियरपुर ये सात जिले शामिल हों। उन्होंने पंजाब सूबे का वैकल्पिक नारा दिया। अप्रैल 1949 में हुए एक सिख सम्मेलन ने पंजाब सूबे को अपना परम लक्ष्य बना दिया । संविधानसभा ने सिखों के लिए अगल निर्वाचक-मंडल और सीटों को आरक्षित करने की मांग को ठुकरा दिया। पंजाबी भाषा को स्वीकार करने के लिए पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री भीम सिंह सच्चर ने एक फार्मूला निकाला, जिसके अनुसार प्रांत को दो मंडलों में बांटा गया-हिंदी भाषी और पंजाबी भाषी।

पंजाबी मंडल की भाषा गुरुमुखी लिपि वाली पंजाबी और देवनागरी लिपि वाली हिंदी भाषा हिंदी मंडल के लिए तय की गई। मगर राज्य को द्विभाषी बनाने के लिए जरूरी था कि लोग दोनों भाषाएं सीखें । यहां पर यह फार्मूला गड़बड़ा गया। आर्य समाज द्वारा चलाए जाने वाले स्कूलों ने इस फार्मूले को मानने से मना कर दिया। शीघ्र ही सच्चर ने समर्थन खो दिया और राज्य से अकालियों का मोहभंग और गहरा हो गया।

मास्टर तारा सिंह ने 10 अक्तूबर 1949 को घोषणा की कि सिखों की संस्कृति हिन्दुओं से भिन्न है। सिखों की भाषा, उनकी परंपराएं और उनका इतिहास भिन्न हैं, उनके नायक अलग हैं, उनकी सामाजिक व्यवस्था भिन्न हैं। तो भला वे अपने लिए आत्मनिर्णय का अधिकार क्यों न मांगे। (अकाली पत्रिका 11 अक्तूबर 1949)।

एक पृथक भाषा भाषी राज्य
अकाली नेता मास्टर तारा सिंह ने जुलाई 1950 से पंजाबी बोलने वाले और गुरुमुखी लिपि में लिखने वाले लोगों के लिए पृथक भाषा भाषी राज्य बनाने की मांग करना शुरू कर दिया था। वह कश्मीर की तर्ज पर ही इस राज्य के लिए आंतरिक स्वायत्तता भी चाहते थे। अकाली दल कार्य समिति के सदस्य हरचरण सिंह बाजवा द्वारा दर्ज ऐतिहासिक प्रमाणों से पता चलता है कि 1931 से 1960 के बीच एक भाषायी राज्य की मांग के पीछे दरअसल डॉ. अम्बेडकर की सलाह थी। कुछ अकाली नेताओं के अनुसार डॉ. अम्बेडकर ने उन्हें निम्न सुझाव दिया था:

अगर आप पाकिस्तान में रहते तो आप वहां अल्पसंख्यक बन जाते । संयुक्त पंजाब में आप सिर्फ दो तहसीलों को छोड़कर अल्पसंख्यक थे। ये तहसील भी एक दूसरे से जुड़े नहीं थे। उधर, पूर्वी पंजाब में भी आप अल्पसंख्यक हैं। अगर आप एक सिख राज्य की मांग करते हैं तो यह नक्कारखाने में तूती की आवाज होगी। आप पंजाबी भाषी राज्य की मांग क्यों नहीं करते? कांग्रेस तो भाषा के आधार पर राज्यों के पुर्नगठन के लिए प्रतिबद्ध है। इस मांग की पूर्ति को वह टाल तो सकते हैं लेकिन उसका लंबे समय विरोध नहीं कर सकते। आप ‘पंजाबी सूबा‘ के नाम पर एक सिख राज्य पा सकते हैं।
चेन्नई में हिन्दी विरोधी प्रदर्शन
साभार: सुन्दर्म

बाजवा के अनुसार, इस सुझाव ने एक वास्तविक सिख राज्य का मार्ग प्रशस्त कर दिया। इस आंदोलन को हिंदुओं के विरोध ने और हवा दी। इसका परिणाम यह रहा कि 1951 की जनगणना में पंजाबी बोलने वाले अधिकांश हिंदुओं ने हिन्दी को ही अपनी भाषा बताया। शहरी हिन्दू पंजाबी ने सिखों की “पंजाबी सूबे” की मांग के बदले में पंजाब, पेप्सु, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली और उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों को मिलाकर एक महा पंजाब बनाने की मांग रखी। मगर पंजाब के दक्षिण-पूर्वी भाग में रहने वाले हिन्दू इस विचार से सहमत नहीं थे। वे अपना एक अलग राज्य चाहते थे।

अकाली दल ने पंजाबी सूबे के सीमांकन के लिए राज्य पुनर्गठन आयोग को 18 पन्ने का एक ज्ञापन दिया। उसने ग्रामीण सिखों का समर्थन भी जुटाया जिसके लिए उन्होंने सिख राजनीतिक भागीदारी के लिए धर्माज्ञा का आह्वान किया। राज्य पुनर्गठन आयोग ने अकाली दल की मांग को ठुकरा दिया। इसके बजाए पंजाब, पेप्सु और हिमाचल प्रदेश को एक प्रशासनिक इकाई में जोड़ने का फार्मूला रखा गया। मगर पंडित जवाहर लाल नेहरू के निजी हस्तक्षेप पर फरवरी 1956 को एक और क्षेत्रीय फार्मूला रखा गया:

प) इस फार्मूले के अनुसार, राज्य पुनर्गठन आयोग के विपरीत, हिमाचल प्रदेश को पंजाब से बाहर रखा जाना था। और पेप्सु को पंजाब में मिलाया जाना था।
पप) नए पंजाब राज्य की सीमाएं पंजाबी और हिंदी भाषी क्षेत्रों को मिलाकर बनाई जानी थीं और पंजाबी व हिंदी दोनों को राज्य की क्षेत्रीय भाषाओं का दर्जा दिया जाना था ।
पपप) पंजाब को एक द्विभाषी राज्य रहना था और पंजाबी (गुरुमुखी लिपि में) और हिंदी दिवनागरी लिपि में) राज्य की सरकारी भाषाएं बनने वाली थीं।
पअ) प्रशासनिक और विकास के उद्देश्य से दोनों क्षेत्रों के लिए दो क्षेत्रीय समितियों का गठन किया जाना था जिसके सदस्य दोनों क्षेत्रों के विधानसभा सदस्य और मंत्री होंगे। मगर प्रत्येक के मामले में अंतिम निर्णय राज्य मंत्रीमंडल के हाथों में होना था। क्षेत्रीय समितियों में मतभेद होने की स्थिति में अंतिम निर्णय लेने का अधिकार राज्यपाल को था।

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