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उत्पादन किसे कहते है ? उत्पादन का परिभाषा क्या है अर्थ production in hindi meaning physical

production in hindi meaning physical उत्पादन किसे कहते है ? उत्पादन का परिभाषा क्या है अर्थ बताइये क्या उद्देश्य होता है ?

उत्पादन
मनुष्यों को जीवन निर्वाह हेतु भोजन, वस्त्र, शरण/आवास तथा अन्य जीवनोपयोगी आवश्यकताओं की जरूरत होती है। उन्हें ये सभी वस्तुएं प्रकृति से बनी बनाई दशा में नहीं मिल सकतीं। निर्वाह हेतु प्रकृति में प्राप्य वस्तुओं से वे इन भौतिक वस्तुओं का सजृन करते हैं। अथवा बनाते है उसे ही उत्पादन कहते है | मानवीय अस्तित्व का आधार सदैव भौतिक उत्पादन रहा है तथा आज भी है।

मानवीय समाज का आधारः भौतिक उत्पादन
कार्ल मार्क्स के अनुसार, मानव समाजों का इतिहास इसी बात की कहानी है कि किस प्रकार आजीविका अर्जन के प्रयासों के संदर्भ में व्यक्ति परस्पर जुड़े होते हैं। उसने कहा कि, ‘‘प्रथम ऐतिहासिक क्रिया भौतिक वस्तुओं का उत्पादन है। वस्तुतः यह एक ऐतिहासिक क्रिया है, जो सारे इतिहास की एक मूलभूत दशा है।‘‘ (देखिए बॉटोमोर 1964ः 60)। मार्क्स के अनुसार, आर्थिक उत्पादन अथवा भौतिक वस्तुओं का उत्पादन समाज का वह आरम्भ बिन्दु है, जहां से समाज एक अंतर्संबंधित समग्र के रूप में संरचित होता है। उसने आर्थिक कारकों तथा मानव के ऐतिहासिक विकास के अन्य पक्षों के मध्य परस्पर आदान-प्रदान के सम्बन्ध बताए। समाज में घटित होने वाले परिवर्तनों की व्याख्या में आर्थिक उत्पादन का कारक एक केंद्रीय अवधारणा है। उसकी यह मान्यता है कि उत्पादन की शक्तियां उत्पादन के सम्बन्धों के साथ मिलकर प्रत्येक समाज के आर्थिक व सामाजिक इतिहास का आधार बनती हैं। अपनी पुस्तक, गुंडरिज (1857-58) की प्रस्तावना में मार्क्स ने कहा कि यद्यपि उत्पादन, वितरण व उपभोग की तीन प्रक्रियाएं एक ही नहीं हैं तो भी ये एक समष्टि का प्रतिनिधित्व करती हैं। ऐसा इसलिए है कि अपने आपको पूरा करके, इन तीनों में से प्रत्येक प्रक्रिया अन्य प्रक्रिया को जन्म देती है। इस प्रकार, एक प्रक्रिया दूसरी का माध्यम बनती है। उदाहरण के लिए एक बार उत्पादन पूर्ण होने पर वही तत्व उपभोग की वस्तु बन जाता है। इस तरह ही उत्पादन एवं वितरण की प्रक्रियाएं भी परस्पर जुड़ी हुई हैं। अतः इन आर्थिक संवर्गों (बंजमहवतपमे) में परस्पर सुनिश्चित सम्बन्ध होते हैं। मार्क्स के अनुसार, एक विशिष्ट प्रकार का उत्पादन, एक विशिष्ट प्रकार के वितरण, विनिमय एवं उपभोग को सृजित करता है। इन सभी आर्थिक संवर्गों के आधार पर उत्पादन के विशिष्ट प्रकार के सम्बन्ध निर्मित हो जाते हैं। मार्क्स का तर्क था कि उत्पादन अन्य आर्थिक संवर्गों पर आधारित है तथा उत्पादन व अन्य आर्थिक प्रक्रियाओं के बीच स्पष्ट सम्बन्ध नहीं हैं। लेकिन यह स्पष्ट है कि भौतिक उत्पादन मानवीय समाज का आधार है।

 उत्पादनः सामान्य तथा ऐतिहासिक संवर्ग
मार्क्स के अनुसार, उत्पादन एक सामान्य व ऐतिहासिक संवर्ग (बंजमहवतल) दोनों है। अपनी पुस्तक, कैपीटल (1861-1879) में, पूंजीवादी समाजों में उत्पादन के विशिष्ट स्वरूपों को दर्शाने के लिए मार्क्स ने उत्पादन को एक सामान्य संवर्ग के रूप में प्रयुक्त किया है। दूसरी ओर, विशिष्ट सामाजिक एवं ऐतिहासिक विशेषताओं वाले उत्पादन के बारे में चर्चा करते हुए मार्क्स ने उत्पादन प्रणाली की अवधारणा की विवेचना की है। इसके बारे में इस इकाई के अंतिम भाग में चर्चा की गई है।

यहाँ हमें यह याद रखने की आवश्यकता है कि मानव इतिहास में उत्पादन की भूमिका मार्क्स की कृतियों में ‘‘मार्गदर्शक सूत्र‘‘ बन जाती है। उसके विचारों को समझने के लिए आइए हम भी इस सूत्र का अनुसरण करें। आइए, हम उत्पादन की शक्तियों की चर्चा से प्रारंभ करें।

उत्पादन की शक्तियां
मानव जाति किस सीमा तक प्रकृति पर नियत्रंण करती है, इसकी अभिव्यक्ति उत्पादन की शक्तियां करती हैं। जितनी अधिक या कम उन्नत उत्पादन शक्तियां होंगी उतना ही अधिक या कम प्रकृति पर मानव का नियंत्रण होगा। इन उत्पादन की शक्तियों को भौतिक वस्तुओं के उत्पादन में प्रयुक्त भौतिक तरीकों के रूप में समझा जा सकता है। इसके अंतर्गत तकनीकी जानकारी, उत्पादन की प्रक्रिया में प्रयुक्त उपकरण या उत्पाद आदि आते हैं। उदाहरण के लिए, उपकरण, मशीनें, श्रम तथा प्रौद्योगिकी के स्तर आदि सभी उत्पादन की शक्तियां कहलाती हैं।

 उत्पादन शक्तियाँः उत्पादन के साधन व श्रम शक्ति
मार्क्स के अनुसार, उत्पादन की शक्तियों में उत्पादन के साधन व श्रम शक्ति शामिल हैं। उत्पादन की शक्तियों के अंतर्गत मशीनों का विकास, श्रम प्रक्रिया में परिवर्तन, ऊर्जा के नए स्रोतों की खोज तथा श्रमिकों की शिक्षा आदि आते हैं। इस अर्थ में, विज्ञान व उससे जुड़े कौशल को उत्पादक शक्तियों के अंग के रूप में देखा जा सकता है। कुछ मार्क्सवादियों ने तो भौगोलिक या पारिस्थितिक भू-भाग तक को भी उत्पादन शक्ति के रूप में शामिल कर लिया है।

प्रौद्योगिकी, जनांकिकी, पारिस्थितिकी अथवा ‘‘भौतिक जीवन‘‘ में अनचाहे परिवर्तन स्वयं उत्पादन प्रणाली को प्रभावित करते हैं और उत्पादन सम्बन्धों के सन्तुलन को भी काफी सीमा तक परिवर्तित करते हैं। परन्तु अनचाहे परिवर्तन, उत्पादन प्रणाली को अनायास ही पुनर्गठित नहीं करते। शक्ति के सम्बन्धों, प्रभुत्व के स्वरूपों और सामाजिक संगठनों के स्वरूपों का कोई भी पुनर्गठन प्रायः संघर्ष का परिणाम होता है। भौतिक जीवन में परिवर्तन से संघर्ष की दशाएं एवं प्रकृति निर्धारित होती हैं।

 उत्पादन की भौतिक शक्तियों में परिवर्तन
प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था में उत्पादन की भौतिक शक्तियों में निरंतर परिवर्तन होता रहता है। कभी-कभी यह परिवर्तन कुछ प्राकृतिक तथा पारिस्थितिक प्रघटनाओं के कारण भी होता है। जैसा कि जनजातीय समाजों में देखा गया हैं। ऐसा परिवर्तन प्रायः नदियों के सूखने, निर्वनीकरण अथवा भूमि क्षरण जैसी प्रघटनाओं के कारण होता है। बहुधा यह परिवर्तन प्रायः उत्पादन के उपकरणों में विकास के फलस्वरूप होता है। मानव ने अपने जीवन को बेहतर बनाने तथा अभावों की पूर्ति के सदैव प्रयास किए है। मनुष्य ने अपने श्रम द्वारा प्रकृति पर विजय पाई है तथा इस निरंतर संघर्ष से उत्पादन की शक्तियां विकसित हुई हैं।

इस प्रक्रिया में उत्पादन की शक्तियों का विकास प्रमुख होता है और यह बहिर्जन्य (मगवहमदवने) कारक द्वारा प्रभावित होता है। इस कारक का अभिप्राय उस प्रेरक शक्ति से है जो कि उत्पादन की शक्तियों और सम्बन्धों से बाहर होती है व उत्पादन की शक्तियों पर प्रभाव डालती है। प्रेरक शक्ति मनुष्य की तर्कसंगत तथा शाश्वत मानसिक प्रेरणा है। इसके द्वारा मनुष्य उत्पादक शक्तियों का विकास करके कमियों पर काबू पाने और अपनी स्थिति को बेहतर बनाने की कोशिश करते हैं। मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो समाज में उत्पादन में रत है। अपने श्रम द्वारा प्रकृति पर विजय पाकर मनुष्य ने उत्पादन किया है।

उत्पादन शक्तियों की प्रकृति
उत्पादन शक्तियां प्रकृति को उपयोगी मूल्यों और विनिमय मूल्यों में परिवर्तित कर देती हैं। उत्पादन शक्तियां मनुष्य के मध्य उत्पादक सम्बन्धों की क्रमिक व्यवस्थाओं के विनाश और सृजन को बाध्य करती हैं। उत्पादन शक्तियों की प्रकृति विकासशील होती है और वे प्रकृति पर मनुष्य की विजय और ज्ञान में वृद्धि के साथ-साथ विकसित होती हैं। जहां-जहां ये शक्तियां विकसित होती हैं, नए उत्पादन के सम्बन्ध विकसित होते हैं और विकास के एक बिन्दु पर पहुंच कर उत्पादन शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों के मध्य संघर्ष होता है, क्योंकि उत्पादन सम्बन्ध अब नई उत्पादन शक्तियों से सामंजस्य नहीं रख पाते। ऐसी स्थिति में समाज क्रांति के युग में प्रविष्ट करता है। मनुष्य में वर्ग-संघर्ष की स्थिति को पहचानते हुए इस क्रांति के प्रति जागरूकता होती है। वर्ग-संघर्ष पुरातन व्यवस्था के संरक्षकों तथा नई आर्थिक संरचना के अगुआओं के बीच होता है।

उत्पादन के विभिन्न सामाजिक व आर्थिक संगठन समाज की उत्पादक क्षमता के विकास में योगदान देते हैं अथवा उसे हतोत्साहित करते हैं और उसी के अनुसार ये संगठन उदित अथवा नष्ट हो जाते हैं। ये संगठन मानव इतिहास की विशिष्टता रहे हैं। इस प्रकार उत्पादन शक्तियों का विकास मानवीय इतिहास की सामान्य प्रक्रिया की व्याख्या करता है। हमने पहले ही बताया है उत्पादन शक्तियों में सिर्फ उत्पादन के साधन (उपकरण, मशीनें, फैक्ट्रियां आदि) ही नहीं होते, अपितु कार्य में प्रयुक्त श्रमशक्ति, कौशल, ज्ञान, अनुभव तथा अन्य मानवीय योग्यताएं भी शामिल होती हैं। भौतिक उत्पादन की प्रक्रिया में समाज के पास जो शक्तियां होती हैं, ये उत्पादन शक्तियां उनको अभिव्यक्त करती हैं।
कोष्ठक 7.1ः श्रमशक्ति मार्क्स के अनुसार श्रमशक्ति उपयोगी कार्य करने की एक ऐसी क्षमता है जो उत्पादों के मूल्य को बढ़ा देती है। श्रमिक अपनी श्रमशक्ति अर्थात् कार्य करने की क्षमता को बेचते हैं जिससे वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि होती है। वे नकद वेतन के बदले में पूंजीपतियों को अपनी श्रमशक्ति बेचते हैं।

हमें श्रमशक्ति और श्रम में अंतर को समझना चाहिए। श्रम अपनी शक्ति लगाने की वह प्रक्रिया है जिससे वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि होती है। जबकि श्रमशक्ति किसी भी वस्तु में अतिरिक्त मूल्य (ेनतचसने अंसनम) बढ़ाने का साधन है। पूंजीपति कच्चे माल को खरीदने के लिए पूंजी निवेश करते हैं तथा बाद में उत्पादित वस्तुओं को अधिक कीमत पर बेच देते हैं। यह तभी संभव है जब वस्तु के मूल्य में वृद्धि हो। मार्क्स के अनुसार, श्रमशक्ति वह क्षमता है जिसके जड़ने से वस्तुओं का मूल्य बढ़ जाता है। पूंजीपति श्रमशक्ति को खरीदने व उपयोग करके श्रमिक से श्रम हथियाने में सफल होता है। वस्तु के अतिरिक्त मूल्य का स्रोत है यही श्रम।

मार्क्स के अनुसार पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था में अतिरिक्त उत्पादन मूल्य का स्रोत एक विशिष्ट प्रक्रिया है। यह ऐसी प्रक्रिया है जिसमें श्रमिक अपने श्रम द्वारा वस्तुओं के मूल्य में अधिक वृद्धि करता है। लेकिन वृद्धि की तुलना में पूंजीपति श्रमशक्ति का कम मूल्य देते हैं।

बोध प्रश्न 1
प) निम्न में से किसको उत्पादन की शक्ति नहीं माना जा सकता ?
अ) ट्रैक्टर ब) श्रमशक्ति
स) भाप का इंजन द) पवन चक्की
इ) कंप्यूटर फ) मिसाइल
पप) सही उत्तर पर निशान लगाइए।
उत्पादन शक्तियों की वृद्धि के साथ-साथ
अ) प्रकृति पर मनुष्य की विजय बढ़ती है।
ब) मानवजाति प्रकृति का दास बन जाती है।
स) मानवजाति प्रकृति के प्रति अधिक जागरूक हो जाती है।
द) मानवजाति प्रकृति का संरक्षक बन जाती है।
पस) सही उत्तर पर निशान लगाइए।
उत्पादन की भौतिक शक्तियां
अ) कुछ हद तक स्थिर हैं।
ब) निरंतर प्रगतिशील हैं।
स) अभाव की ओर जा रही हैं।
द) विनाश की संभावना रखती हैं।

बोध प्रश्न 1 उत्तर
प) फ
पप) अ
पपप) ब

उत्पादन के संबंध
भौतिक उत्पादन में उत्पादन की शक्तियां ही एकमात्र कारक नहीं होतीं। समाज में लोगों के लिए एक साथ संगठित होकर ही उत्पादन करना संभव है। इस अर्थ में श्रम सदैव सामाजिक होता है। मार्क्स के अनुसार, समाज के सदस्यों में उत्पादन करने के उद्देश्य से परस्पर सुनिश्चित सम्बन्ध पैदा हो जाते हैं। इन सामाजिक सम्बन्धों के अंतर्गत ही उत्पादन किया जाता है। यह आसानी से कहा जा सकता है कि उत्पादन के सम्बन्ध उत्पादन की प्रक्रिया में जुटे लोगों के मध्य सामाजिक सम्बन्ध हैं। ये सामाजिक सम्बन्ध उत्पादन शक्तियों के विकास के स्तर एवं प्रकृति द्वारा निर्धारित होते हैं।

उत्पादन शक्तियों एवं संबंध में जुड़ाव
उत्पादन की ‘शक्तियां‘ एवं ‘सम्बन्ध‘ सशक्त रूप से परस्पर जुड़े होते हैं। इनमें से किसी भी एक का विकास दूसरे में विरोधाभास अथवा असामंजस्य पैदा कर देता है। वस्तुतः उत्पादन के इन दोनों पक्षों के मध्य विरोधाभास ‘इतिहास का संचालक तत्व‘ होता है (बॉटोमोर 1983ः 178)। ऐतिहासिक विकास में प्रभावों की श्रृंखला इसी प्रकार चलती है। उत्पादन की शक्तियां उत्पादन के सम्बन्धों को निर्धारित करती हैं। तथापि इस बात को लेकर काफी विवाद है कि उत्पादन की शक्तियों का उत्पादन के सम्बन्धों पर प्रभुत्व होता है। जैसा कि हमने पहले बताया है कि यहां मार्क्स के विचारों की इन विभिन्न व्याख्याओं की चर्चा विस्तार से नहीं की जाएगी। मार्क्स की स्वयं की कृतियों में इस मुद्दे पर अस्पष्टता है। कहीं वह उत्पादन के सम्बन्धों को प्राथमिक बताता है तो कहीं पर वह उत्पादन की शक्तियों को सामाजिक परिवर्तन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताता है।

उत्पादन संबंधों के प्रकार
उत्पादन के सम्बन्ध किसी भी समाज के उत्पादन के स्तर के साथ-साथ चलते हैं और उत्पादन की प्रक्रिया में उत्पादक शक्तियों तथा मनुष्य को जोड़ते हैं। ये सम्बन्ध दो प्रकार के होते हैं। पहले सम्बन्ध तकनीकी सम्बन्ध होते हैं, जो कि वास्तविक उत्पादन प्रक्रिया के लिए आवश्यक होते हैं। दूसरे सम्बन्ध, आर्थिक नियंत्रण के सम्बन्ध होते हैं जो कि सम्पत्ति के स्वामित्व में वैधानिक रूप से अभिव्यक्त होते हैं। ये उत्पादन की शक्ति और उत्पादों तक मनुष्य की पहुंच को नियंत्रित करते हैं।

 उत्पादन संबंधों की प्रकृति
उत्पादन के सम्बन्ध सामाजिक सम्बन्ध होते हैं। इस प्रकार इनके अंतर्गत कामगारों अथवा प्रत्यक्ष उत्पादकों और उनके नियोक्ताओं (मउचसवलमते) अथवा श्रम के नियंत्रकों के परस्पर सम्बन्ध तथा प्रत्यक्ष उत्पादकों के परस्पर सम्बन्ध शामिल हैं।

उत्पादन के सम्बन्ध उत्पादन के साधनों का स्वामित्व मात्र नहीं होते। नियोक्ता का कामगार से सम्बन्ध प्रभुत्व का होता है। जबकि कामगार का अपने सहयोगी कामगार के साथ सम्बन्ध सहकारिता का होता है। उत्पादन के सम्बन्ध व्यक्तियों के मध्य संबंध होते हैं। जबकि उत्पादन के साधन (उमंदे व िचतवकनबजपवद) व्यक्तियों और वस्तुओं के मध्य सम्बन्ध होते हैं। उत्पादन के सम्बन्ध उत्पादक शक्तियों के विकास की दिशा और गति को प्रभावित कर सकते हैं।

उत्पादन के सम्बन्ध उत्पादक शक्तियों के आर्थिक स्वामित्व में प्रतिबिम्बित होते हैं। उदाहरण के लिए, पूंजीवाद के अंतर्गत इन सम्बन्धों में सबसे अधिक मूलभूत बात उत्पादन के साधनों का पूंजीपतियों द्वारा स्वामित्व है, जबकि सर्वहारा वर्ग सिर्फ श्रमशक्ति का मालिक होता है।

उत्पादन संबंधों से उत्पादन शक्ति में बदलाव
उत्पादन के सम्बन्धों से उत्पादन की शक्तियों में परिवर्तन लाए जा सकते हैं तथा ये सम्बन्ध शक्तियों पर प्रभुत्व भी स्थापित कर सकते हैं। उदाहरण के तौर पर, पूंजीवादी उत्पादन के सम्बन्ध प्रायरू श्रम प्रक्रिया तथा उत्पादन के उपकरणों में क्रांति सी ला देते हैं।
सोचिए और करिए 1
भारत में औद्योगीकरण की प्रक्रिया के संदर्भ में उत्पादन के सम्बन्धों तथा उत्पादन की शक्तियों की संक्षेप में व्याख्या कीजिए। इसे लिखने से पहले अपने केन्द्र में सलाहकार तथा अन्य विद्यार्थियों से इस विषय पर चर्चा कीजिए।

विकास की एक निश्चित अवस्था पर समाज की उत्पादक शक्तियां विद्यमान उत्पादन सम्बन्धों के साथ टकराव की स्थिति में आती हैं। उत्पादन की शक्ति और सम्बन्धों के मध्य विरोधाभास के कारण ही इतिहास उत्पादन के तरीकों का एक क्रमिक स्वरूप होता है। इस विरोधाभास के कारण ही उत्पादन प्रणाली का आवश्यक ह्रास होता है तथा इसका स्थान दूसरी प्रणाली ले लेती है। किसी भी उत्पादन प्रणाली में उत्पादन की शक्तियां और सम्बन्ध न केवल आर्थिक प्रगति निर्धारित करते हैं अपितु सम्पूर्ण समाज को एक अवस्था से दूसरी अवस्था की ओर ले जाते हैं। आइए हम भाग 7.5 में मार्क्स द्वारा दी गई उत्पादन प्रणाली की अवधारणा पर चर्चा करें। परंतु अगले भाग पर जाने से पहले बोध प्रश्न 2 पूरा करें।

बोध प्रश्न 2
प) सही उत्तर पर निशान लगाइए।
उत्पादन के सम्बन्ध प्राथमिक रूप से निम्न से किस आधार पर बने होते हैं?
अ) समाज में अर्जन के लिए वैयक्तिक प्रेरणा शक्ति
ब) बाजार में वस्तुओं के असंतुलित विनिमय
स) इतिहास में मनुष्यों की आदर्श भौतिक आवश्यकता
द) समाज में वर्गों की विभेदीकृत आवश्यकताओं
इ) उत्पादन में प्रक्रिया से उभरने वाले सामाजिक सम्बन्ध
पप) सही उत्तर पर निशान लगाइए।
उत्पादन के सम्बन्ध निम्न से किसके के मध्य सम्बन्ध होते हैं?
अ) वस्तुओं के मध्य
ब) मनुष्यों व वस्तुओं के मध्य
स) मनुष्यों के मध्य
द) उपरोक्त में से किसी के भी नहीं
पपप) निम्न में से कौन-सा कथन सही है ?
अ) उत्पादन के सम्बन्ध उत्पादन के साधनों के स्वामित्व के सम्बन्ध मात्र नहीं है।
ब) उत्पादन के सम्बन्ध मानवीय संबंध हैं ही नहीं।
स) उत्पादन के सम्बन्ध व्यक्तियों के मध्य सहकारी सम्बन्ध नहीं हैं।
द) उत्पादन के सम्बन्ध अनिवार्यतरू उत्पादकों के मध्य एक शोषक सम्बन्ध हैं।
पअ) निम्न में से कौन-सा कथन गलत है ?
अ) उत्पादन के सम्बन्ध प्रभुत्व स्थापित कर सकते हैं तथा उत्पादन की शक्तियों में परिवर्तन भी ला सकते हैं।
ब) उत्पादन के सम्बन्ध अनिवार्यतः उत्पादन की शक्तियों से सम्बन्धित नहीं होते।
स) उत्पादन के सम्बन्ध उत्पादन की शक्तियों के साथ संघर्षरत हो सकते हैं।
द) उत्पादन के सम्बन्ध उत्पादन की शक्तियों में परिवर्तन ला सकते हैं।

बोध प्रश्न 2 उत्तर
प) इ
पप) स
पपप) अ
पअ) ब

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