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निजी क्षेत्र किसे कहते हैं | निजी क्षेत्र का अर्थ परिभाषा क्या है मतलब के उदाहरण private sector in hindi
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निजी क्षेत्र
कोई भी संगठन, जो सार्वजनिक क्षेत्र का नहीं है, को निजी क्षेत्र का हिस्सा माना जा सकता है। परिभाषा के तौर पर कोई भी फर्म जो अनन्य रूप से निजी पार्टियों (जो व्यक्तिगत अथवा सामूहिक हो सकता है) के स्वामित्व और प्रबन्धन में हैं निजी क्षेत्र की इकाइयों के रूप में जानी जाती है। निजी क्षेत्र को दो और भागों में विभाजित किया जा सकता है (क) निजी कारपोरेट क्षेत्र जिसमें (प) मिश्रित पूँजी कंपनियाँ एवं (पप) सहकारी क्षेत्र सम्मिलित हैं; और (ख) घरेलू क्षेत्र। भारत में, वर्षों से, वस्तुएँ तथा सेवाएँ जिनमें निजी क्षेत्र ने पहल की है और मुख्य भूमिका भी निभा रही है का काफी विस्तार हुआ है। इन दिनों, प्रायः कल्पना योग्य सभी वस्तुओं का निर्माण निजी क्षेत्र में किया जा रहा है। सम्मिलित स्वामियों की संख्या की दृष्टि से निजी क्षेत्र का उप-विभाजन दो वर्गों में किया जा सकता है, अर्थात् ‘‘एकल स्वामित्व‘‘ और ‘‘सामूहिक स्वामित्व‘‘ वाली। एकल स्वामित्व वाली फर्मों का प्रबंधन नियंत्रण एक व्यक्ति के हाथ में होता है और इनका मुख्य उद्देश्य लाभ को अधिकतम करना होता है। सामूहिक स्वामित्व वाली निजी फर्मों को पुनः तीन भागों में बाँटा जा सकता हैः (प) साझेदारी, (पप) मिश्रित पूँजी कंपनी और (पपप) सहकारिता (भाग 14.5 में चर्चा की गई है)। साझेदारी प्रकार में, फर्म संयुक्त स्वामित्व में होता है और इनका प्रबन्धन नियंत्रण एक से अधिक व्यक्तियों के हाथ में होता है। चूंकि साझेदारी लाभ के बँटवारा पर आधारित होता है इसलिए साझेदारी फर्म का मुख्य उद्देश्य एकल स्वामित्व वाली फर्मों की तरह ही लाभ को अधिकतम करना होता है।
निजी क्षेत्र देश के औद्योगीकरण और विकास की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। विकसित देशों में निजी क्षेत्र की भागीदारी का लम्बा इतिहास रहा है। विशेष रूप से पश्चिम में विकास को गति देने में निजी क्षेत्र का प्रमुख स्थान रहा है। लाभ अर्जित करने के उद्देश्य से उत्पादन और प्रक्रियाओं के प्रति
दृष्टिकोण में निजी क्षेत्र नई राह निकालने में अधिक प्रवृत्त होती हैं। लाभ का उद्देश्य इसे न सिर्फ उपलब्ध संसाधनों के कुशल प्रयोग के लिए प्रेरित करता है अपितु इसे सदैव नए-नए उत्पादों को भी प्रस्तुत करने के लिए बाध्य करता है। इस प्रकार यह प्रतिस्पर्धी मूल्यों पर नाना प्रकार की वस्तुएँ तथा सेवाएँ उपलब्ध करा कर राष्ट्र के कल्याण में योगदान करती है। इसकी सकारात्मक भूमिका के कारण ही विकास की प्रक्रिया में योगदान करने के लिए सर्वत्र निजी क्षेत्र को फिर से महत्त्व दिया जा रहा है। नियोजन युग के तीन दशकों, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र की बढ़ी हुई भूमिका पर बल दिया गया था, के पश्चात् अस्सी के दशक के मध्य में भारत ने निजी क्षेत्र की संभावनाओं को स्वीकार करना शुरू किया। अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध में निजीकरण की ओर बढ़ने का प्रयास तदर्थ प्रकृति का था। तथापि, 1991 के पश्चात् निजी क्षेत्र को देश के औद्योगिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका दी गई थी। यहाँ तक कि पहले जो उद्योग सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित थे, भी निजी क्षेत्र के लिए खोले जा रहे हैं। लघु और अत्यन्त लघु उद्योग जो निजी क्षेत्र में हैं भी एक देश की विकास प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण योगदान करते हैं। लघु उद्योग रोजगार के अवसर पैदा करते हैं, स्थानीय संसाधनों का कुशलतापूर्वक उपयोग करते हैं, स्थानीय उद्यमिता योग्यताओं के उपयोग का अवसर प्रदान करते हैं, आय के सृजन में सहायता करते हैं, व्यक्तियों के बीच आय की असमानता को कम करते हैं इत्यादि-इत्यादि।
निजी क्षेत्र का विकास और योगदान
प्रचालन के सीमित क्षेत्र के बावजूद, भारत में सार्वजनिक क्षेत्र का आकार और कारोबार बढ़ा है। निजी क्षेत्र का सकल घरेलू पूँजी निर्माण में सकल घरेलू उत्पाद का करीब 15 प्रतिशत योगदान है जो सार्वजनिक क्षेत्र के योगदान से दो गुणा से अधिक है। निजी क्षेत्र का देश की सकल घरेलू बचत में सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 22 प्रतिशत योगदान है। रोजगार की दृष्टि से, निजी क्षेत्र का योगदान सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में काफी कम है। निजी क्षेत्र में कुल रोजगार की संख्या लगभग 87 लाख है जबकि सार्वजनिक क्षेत्र में यह 194 लाख से भी अधिक है। तथापि, उपलब्ध सांख्यिकीय आँकड़ों से पता चलता है कि पिछले दशक में सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार सृजन में अधिक वृद्धि नहीं हो रही है। अपितु, 1997 के बाद से रोजगार में नकारात्मक वृद्धि हुई है। किंतु निजी क्षेत्र में 1998 से 1999 तक नकारात्मक वृद्धि को छोड़ कर इसमें निरंतर वृद्धि हो रही है।
सीमाएँ और हानियाँ
निजी क्षेत्र का मुख्य उद्देश्य अधिकतम लाभ अर्जित करना है। इस प्रकार वह क्षेत्रों/उद्योगों में, जहाँ पूँजी पर अधिक प्रतिलाभ होता है, निर्माण अवधि अपेक्षाकृत कम होती है, और अपेक्षित निवेश बहुत ज्यादा नहीं होता है उनके लिए सबसे अधिक अनुकूल होते हैं। रोजगार सृजन में उनके योगदान और विविध औद्योगिक आधार के बावजूद यह पर्याप्त नहीं रहा है। तुरन्त लाभ अर्जित करने के लिए (निजी क्षेत्र द्वारा) उपभोक्ता वस्तु उद्योगों में अधिक रुचि से उत्पादन के एक असंतुलित प्रकार की प्रवृत्ति का सृजन होता है जो कि यदि एक देश के पास उपयुक्त आधारभूत संरचना के अभाव में धारणीय नहीं हो सकता है। भारत में, निजी क्षेत्र की आधारभूत संरचना और बुनियादी उद्योगों जिन्हें राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ माना जाता है, में शायद ही योगदान रहा है। तथापि, हाल ही में दूरसंचार, सड़क और परिवहन, ऊर्जा, पेट्रोरसायन, इत्यादि में निजी क्षेत्र के निवेश में वृद्धि हुई है।
निजी क्षेत्र की अत्यधिक भागीदारी विशेषकर यदि इसे विनियमित नहीं किया जाए तो यह न सिर्फ एकाधिकार को जन्म देती है अपितु यह कुछ हाथों में एकाधिकारवादी ताकतों तथा सम्पत्ति के केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति को भी मजबूत बनाती है। यदि समान अवसर नहीं दिए जाते हैं तो जिनके पास पहले से ही संसाधन हैं उनको निजी क्षेत्र की अधिक भागीदारी से अधिक लाभ प्राप्त होने की संभावना होती है और इस प्रकार अंततः आय का असमान वितरण होता है।
निजी क्षेत्र में सदैव ही केवल उन उद्यमियों का वर्चस्व नहीं होता है जिनके पास पर्याप्त संसाधन होते हैं। विशेषकर भारत जैसे देश में, जहाँ पूँजी की कमी है निजी क्षेत्र की भागीदारी उद्यम पुँजी की अनपलब्धता के कारण शिथिल रहती है। यदि पूँजी बाजार का विकास नहीं हुआ है और वित्तीय संस्थाओं से पर्याप्त संसाधन जुटाना कठिन है तो निजी क्षेत्र वांछित गति से प्रगति में योगदान नहीं कर सकता है।
बोध प्रश्न 3
1) निजी क्षेत्र की परिभाषा कीजिए?
2) निजी क्षेत्र के दो लाभों और दो हानियों का उल्लेख कीजिए?
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