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पुरोहित किसे कहते हैं | पुरोहित की परिभाषा अर्थ मतलब पुरोहितगिरी क्या है Priests and Priesthood in hindi
Priests and Priesthood in hindi पुरोहित किसे कहते हैं | पुरोहित की परिभाषा अर्थ मतलब पुरोहितगिरी क्या है ?
हिंदू पुरोहित वर्ग: एक उदाहरण (The Hindu Priesthood : An Example)
अब हम पुरोहित वर्ग की प्रस्तुत रूपरेखा के संबंध में एक उदाहरण की चर्चा करेंगे। हम यहाँ हिन्दू पुरोहित का उदाहरण लेते हैं तथा देखते हैं कि एक लंबे संवाद के अंदर में विभिन्न संदर्भो व ग्रंथों में उसके बारे में क्या कहा गया है ? पारम्परिक भारत में पुरोहित घर अथवा ‘मंदिर में उपासना व अनुष्ठानों में मदद प्रदान करता है। हिन्दू धर्म में पुरोहित एक वर्ग विशेष में जन्म लेता है तथा अपने जन्म के कारण इन कार्यों को करने की योग्यता प्राप्त करता है। यहाँ हम ग्रंथों में उपलब्ध विकास की प्रक्रिया की चर्चा करेंगे।
वेद (Vedas)
वेदों में हम इस बात का उल्लेख पाते हैं कि ब्राहमण नामक सामाजिक समूह पुरोहित वर्ग के रूप में मान्यता प्राप्त था। ऋग्वेद में वैदिक जनजातियों के परिवारों की पुरोहित क्रियाओं का उल्लेख है। ‘समहिता‘ (ैंउीपजं) में ‘ब्राहमण‘ का नाम उस पुरोहित वर्ग को दिया गया है जो राजाओं तथा धनी गणमान्य लोगों के लिए कार्य करता था। ये पुरोहित पूरी तरह से अपने पेशे से जुड़े थे तथा यह भी माना जाता था कि उन्हें चिकित्सा का भी ज्ञान था। ऋग्वेद में पुरोहित वर्ग के उपखंडों का भी वर्णन है जिसका आधार उनके द्वारा किए जाने वाले कार्य तथा अनुष्ठान आदि हैं जैसे कि ‘सोम‘ (Soma) त्याग। जिन दो महत्वपूर्ण पुजारियों का उल्लेख मिलता है वे हैं:
अ) होत्र (hotr): जो ईश्वर के सम्मान में मंत्रों का उच्चारण करता है तथा उन्हें भेंट चढ़ाता है।
ब) प्रशस्त्र (Prashastr): जो होत्र को मंत्रोच्चार के लिए कहता है।
ऋग्वेद एक और पद का भी उल्लेख करता है: पुरोहित, जो किसी गणमान्य व्यक्ति अथवा राजा का घरेलू पुजारी था। वह बहुधा राजा की अन्य कार्यों में भी मदद करता था। उदाहरण के लिए हमें भारतीय पौराणिक कथाओं से पता चलता है कि किस प्रकार युद्ध के समय में विश्वामित्र तथा वशिष्ठ ने अपने राजाओं की सेवाएं की।
ब्राहमण (Brahmanas)
ब्राहमण साहित्य, जिसमें ईसा पूर्व छठी शताब्दी तक का समय वर्णित है, में पुजारी एक अलग व वंशगत वर्ग माना गया है जिससे इसके द्वारा अन्यों से पृथकता तथा पवित्रता बनाए रखने जाने की अपेक्षा की जाती है। इसी साहित्य में हम यह भी पाते हैं कि पुजारी त्याग करते हैं तथा उनके कार्यों व क्रियाओं के आधार पर पुजारी वर्ग में अनेक उपखंड पैदा होते हैं। इस काल में पुरोहित के कार्य व भूमिका की बढ़ी हुई महत्ता का भी वर्णन मिलता है। तथापि यहाँ ब्राह्मण को अधिक महत्व दिया गया है तथा सर्वोत्तम भेट राजा को न जाकर उसे दिये जाने का वर्णन है व उसे राजा से अधिक अधिकार प्राप्त हैं।
उपनिषद (Upanishads)
उपनिषद की रचना के समय तक पुजारी वर्ग के कार्यों का अधिक विभाजन हो चुका था। इस समय में पुजारी त्यागमय कार्यों को करने के अतिरिक्त दार्शनिक ज्ञान बांटने लगे थे तथा शिष्य व छात्र बनाने लगे थे। उपनिषद, जीवन की चार अवस्थाओं अथवा आश्रमों‘ के बारे में भी बताता है जिसका एक हिंदू को पालन करना होता है। ये हैं– ब्राह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास। ये मनुष्य के जीवन के चार चरण हैं।
कार्यकलाप 1
आपके विचार में पुजारी के कार्य क्या हैं? अपने दैनिक जीवन में किसी पुजारी को देखते हुए इनमें से कुछ कार्यों का उल्लेख करें।
ऊपर वर्णित गुरु-शिष्य परंपरा ने इतिहास के इस काल में हिंदू धर्म के विकल्प के रूप में दो महत्वपूर्ण धार्मिक आंदोलनों को जन्म दिया। ये थे- बौद्ध धर्म व जैन धर्म। इन दोनों, धर्मों में पुजारी वर्ग की भूमिका तथा भिक्षुओं की व्यवस्था को महत्वपूर्ण माना गया।
प्रारम्भिक हिंदू धर्म (Early Hinduism)
प्रारंभिक हिंदू धर्म में पुजारी वर्ग की दैवीय शक्ति तथा राजा पर पूर्ण नियंत्रण की स्थिति दिखाई देती है। वास्तव में इतिहास में ऐसे अनेक पुजारी मिलते हैं जिन्होंने न केवल उपासना व अनुष्ठानों का वरन प्रशासन का भी ज्ञान प्राप्त किया। इस संबंध में एक लोकप्रिय उदाहरण है- चाणक्य। पर इस काल में पुजारी नक्षत्रशास्त्र, ईश्वरीय ज्ञान तथा चमत्कारों में प्रशिक्षित दिखाई देता है। ऐसे पुजारियों के बारे में ‘जातक कथाओं‘ में कहानियां मिलती हैं।
मध्ययुगीन और आधुनिक हिंदू धर्म (Medieval and Modern Hinduism)
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार इस काल की विशेषताएं भी लगभग समान हैं। तथापि हम पुजारी वर्ग को परस्पर गुंथे जातिगत समूह व वंशगत उपइकाइयों में विभाजित पाते हैं। जैसे-जैसे इन उपइकाइयों का विकास हुआ कार्य-आधारित वर्गीकरण भी उभरने लगा। पुरोहित अपने पुजारी के कार्यों के अतिरिक्त नक्षत्र ज्ञान संबंधी राशिफल बनाने, भविष्य के बारे में पूर्वानुमान लगाने तथा चमत्कारी कृत्यों को करने का कार्य भी करने लगा।
मंदिर के पुजारी का महत्व बढ़ा तथा वह गांव के मंदिर में इष्ट देवता की आराधना/सेवा करने लगा। पुजारियों का एक अन्य समूह भी उभर कर सामने आया जिसे गुरू के रूप में पहचाना गया तथा जो ज्ञान व शिक्षा बांटने का कार्य करने लगा।
बहुधा मंदिर-पुजारी तथा गुरू के कार्यों को जादुई व चामत्कारी क्रियाओं के करने के सत्य से जोड़ा गया जैसा कि बाएँ हाथ के तांत्रिकों के उदाहरण में मिलता है। इन व्यक्तियों को अत्यधिक सम्मान भी मिला तथा इनसे लोग भयभीत भी रहते थे। तांत्रिकों के ही समान थेतपस्वी जो कष्टपूर्ण तपस्या कर तपस्वी स्थितियों तथा मोक्ष को प्राप्त करते थे।
निकट समय के संदर्भ में हम पाते हैं कि वैदिक काल की त्याग- तपस्या ने अपनी महत्ता खो दी है तथा इसका स्थान मंदिर-अनुष्ठानों व लोकप्रिय उत्सवों तथा होली, दिवाली, महासंक्राति आदि ने ले लिया है। इसी काल की एक अन्य विशिष्टता है धार्मिक आंदोलनों में वृद्धि जैसे कि ‘भक्ति‘ परंपरा जहां पुजारी एक घुमंत्/बंजारा, संगीतकार तथा शिक्षक के रूप में हिंदू रूढ़िवाद को चुनौती देता है। पुजारी वर्ग के रूप में ब्राह्मण समाज को इसके अंतर्गत आलोचना का सामना करना पड़ा।
19वीं शताब्दी के बाद से पुजारी वर्ग की पद्धतियों तथा धार्मिक शिक्षाओं में एकीकरण की दिशा में और परिवर्तन आए। हम मंदिर-पुजारी तथा पारिवारिक-पुजारी की मौजूदगी भारत के अधिकतर भागों में पाते हैं तथा पारिवारिक-पुजारी, जीवन चक्र से संबंधित अनेक घटनाओं तथा जन्म, विवाह तथा मृत्यु के समय परिवार के हित की सुरक्षा के लिए हमेशा मौजूद रहता है। हमें यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए कि यहाँ ‘पुरोहित‘ शब्द का प्रयोग खाली शब्द के रूप में किया जा रहा है। असल में पुरोहितगिरी करने वाले विभिन्न पुरोहितों का सामर्थ्य और उन्हें प्राप्त अधिकारों के स्तर भी अलग अलग हैं।
जनजातीय संदर्भ (The Tribal Context)
भारतीय संदर्भ में पुजारी वर्ग की प्रकृति की चर्चा करते समय हम जनजाति संदर्भ में पुजारी की भूमिका को नजर अंदाज नहीं कर सकते। वहाँ वह चिकित्सक, कष्ट-निवारक, तथा ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जाता है जिसके पास न केवल दैवीय शक्तियां हैं वरन जादू व टोने-टोटके आदि की भी शक्तियां हैं। हमें ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जहाँ जनजातियों द्वारा निर्मित मंदिरों में गैर-ब्राहमण जाति के पुजारियों द्वारा सेवा-अर्चना की जाती है। जैसे मालाबार की तियान जाति में। जादू-टोना कष्ट निवारण से संबंधित होने के कारण उन्हें पुजारी की अपेक्षा चामत्कारिक जादूगर के रूप में देखा जाता है तथा ‘ओझा‘ कह कर बुलाया जाता है। अगले भाग में हम इनके बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे।
बोध प्रश्न 1
प) संक्षेप में वर्णन करें कि धार्मिक विशेषज्ञ कौन हैं?
पप) पुजारी के बारे में वेबरं के विचार को कुछ शब्दों में व्यक्त कीजिए।
पपप) निम्नलिखित का मिलान कीजिए।
1) जो परमानंद का अनुभव करता है क) प्रशास्त्र
2) मत्रों का उच्चारण करने वाला ख) पुरोहित
3) मंत्रों की उच्चारण-क्रिया को करवाने वाला ग) ब्राह्मण
4) घरेलू पुजारी घ) दरवेश
5) पुजारी वर्ग च) गुरू
6) शिक्षा देने वाले पुजारी छ) होत्र
बोध प्रश्न 1 उत्तर
1) धर्म-विशेषज्ञ ऐसे लोग हैं जो कुछ निश्चित विशिष्ट गुणों को संजोए होने के कारण मानव-संसार तथा पारलौकिक संसार के बीच मध्यस्थ का कार्य करने की योग्यता रखते हैं। जादूगर, ओझा आदि धर्म-विशेषज्ञों के उदाहरण हैं।
2) वेबर के अनुसार, पुजारी वह है जो पारलौकिक तथा दैवीय शक्तियों की ओर निर्देशित मध्यस्थ के कार्यों को करता है। पुजारी किसी संगठन से संबंध रखता है अथवा किसी संस्थान से। वह किसी वंश से संबंधित भी हो सकता है। वह संस्थागत शिक्षा प्राप्त करता है। उसे निर्धारित आचार-संहिताओं का पालन करना होता है। उसका यह भी कार्य होता है कि वह समय-समय पर दैवीय शक्ति अथवा देवी-देवताओं की उपासना आदि, उनका अनुग्रह प्राप्त करने के लिए प्रयास करता रहे।
3) प) घ)
पप) छ)
पपप) क)
पअ) ख)
अ) ग)
अप) च)
पादरी/पुरोहित (The Priest)
सर्वप्रथम यहाँ वेबर के अनुसार पुरोहित की व्याख्या की गई है। उसके बाद हम इस वर्ग का सामान्य रूप से विश्लेषण करेंगे।
पुरोहित के बारे में वेबर के विचार (Weber’s Understanding of the Priest)
वेबर के अनुसार पुरोहित पारलौकिक शक्ति से संबंधित निरंतर, स्थायी तथा संगठित क्रियाओं को करने वाला कार्यकर्ता है। वह अपना कार्य किसी एक व्यक्ति की ओर से अथवा पूरे समाज की ओर से करता है।
पुरोहित सामाजिक संगठन से जुड़ा होता है तथा उसका पद आनुवांशिक होता है। उससे पुस्तकों तथा सिद्धांतों के बारे में अधिक ज्ञान रखने की अपेक्षा की जाती है। वेबर के अनुसार, पुरोहित, महत्वपूर्ण सामाजिक व धार्मिक पद कड़े प्रशिक्षण तथा विशिष्ट सामाजिक समूह में जन्म लेने के आधार पर प्राप्त करता है। पुरोहितगिरी आचरण संबंधी संहिता तथा आदर्शोंध्नियमों पर आधारित है। पुरोहित अपना जीवन दैवीय शक्ति से संप्रेषण करके समर्पित करते हैं तथा वे पूजा के स्थल तथा अनुयायियों के एक समूह से संबंधित होते हैं। ‘सिद्धांत‘ का विकास जो कि धार्मिक धारणा तथा आदर्शों की प्रक्रिया से जुड़ा है, उनसे भी संबंधित है।
पुरोहित व पुरोहितगिरी: एक सर्वेक्षण (Priests and Priesthood : An Overview)
पुरोहित व संबंधित संगठन सरल व आधुनिक दोनों प्रकार के समाजों में पाए जाते हैं। प्रारम्भिक मानव द्वारा अलौकिक जगत से तालमेल स्थापित करने के लिए पुरोहित की आवश्यकता की भावना से ही पुरोहित वर्ग की उन्नति जुड़ी है।
एक सरल समाज में हम पाते हैं कि केवल पुरोहित ही नहीं वरन जादूगर भी पारलौकिक जगत से संवाद की योग्यता रखता है। यह विश्वास किया जाता है कि पुरोहितगिरी भी उतनी ही पुरानी है धर्म जितना पुराना है।
प्रारम्भिक तथा आधुनिक दोनों समाजों में पुरोहित तथा जादूगर ऐसे कार्यकर्ता हैं जो अपने विशिष्ट ज्ञान तथा शक्तियों के द्वारा अहितकारी तथा हितकारी दैवीय शक्तियों से संबंद्ध हैं। दोहरे गुण को इसलिए आवश्यक माना गया ताकि अपरिचित दैवीय शक्तियां मानवजाति के प्रति अहितकारी न हो सकें, इसके स्थान पर वे मानवजाति के लिए वैभव तथा सुख प्रदान करें। इन प्रारम्भिक धार्मिक तथा जादुई कार्यकर्ताओं को, जो इस प्रकार के मामलों में अपनी सेवाएं तथा मार्गदर्शन प्रदान करते रहे, संगठित पुरोहितवाद के प्रवर्तक माने जाते हैं। हम पाते हैं कि धार्मिक विकास की प्रारम्भिक अवस्थाओं में पुरोहितवाद मौजूद नहीं है तथा व्यक्ति स्वयं अनुष्ठान करते हैं अथवा स्वयं ही ईश्वर से कृपा के लिए संबंध स्थापित करते हैं। आस्ट्रेलिया तथा मेलानेशिया (डमसंदमेपं) की जनजातियों की भांति कुछ ऐसे लोग हैं जो आज भी धार्मिक व जादुई अनुष्ठान की क्रियाएं किसी विशेषज्ञ अथवा मध्यस्थ की मदद के बिना स्वयं ही करते हैं।
बहुधा हम पाते हैं कि प्रारम्भिक अवस्थाओं में एक संकलित जनसमूह में एक व्यक्ति दैवीय शक्ति से संबंध स्थापित करने की अपनी योग्यता अथवा कुछ निश्चित घटनाओं की पूर्व घोषणा अथवा कुछ निश्चित अनुष्ठानों को करने के लिए विशिष्ट ज्ञान अर्जित करने की अपनी योग्यता के कारण निश्चित महत्व की प्राप्ति करता था। ऐसे व्यक्ति को शीघ्र ही एक मध्यस्थ के रूप में मान लिया जाता था तथा वह पुरोहित संबंधी कार्य करने लगता था । उदाहरण के लिए हम पाते हैं कि कुछ विशेष द्रविड़ जनजातियों में घर का मुखिया किसी भी पारिवारिक उत्सव व रीति-रिवाज में पुरोहित बनाया जाता है। एक नियमित पुरोहितवाद के विकास के पूर्व, हम पाते हैं कि पुरोहितों के अलावा अन्य व्यक्ति भी विशेषज्ञों वाले कार्य करते थे। इस वर्ग में निम्नलिखित भी सम्मिलित थेः
प) वे जो समाधिलीन होकर परमानन्द को अनुभव करते तथा तत्पश्चात भविष्य संबंधी पूर्व घोषणाएं करते थे। जैसे दरवेश।
पप) वे जो उन स्थलों की देखभाल करते थे जिन्हें किसी कारणवश पवित्र स्थान माना जाने लंगा था।
पपप) वे लोग अथवा धार्मिक व्यक्ति जो बीमारी का उपचार अथवा अन्य चामत्कारिक कृत्यों के कारण धार्मिक पद प्राप्त कर लेते हैं।
ऊपर वर्णित कार्यकर्ताओं के अतिरिक्त, जादूगर भी लोगों के जीवन में अच्छी खासी भूमिका निभाता था। वह उन्हें लोगों के हित पहुंचाने वाले कार्य करने तथा अहितकारी शक्तियों का नाश करने के कार्यों के लिए कार्य करता था। ये व्यक्ति जो अधिक धार्मिक दबदबा बना पाते थे, समय के साथ सम्मान तथा महत्वपूर्ण स्थिति प्राप्त कर लेते थे। धीरे धीरे वे विशेषज्ञों के एक वर्ग के रूप में पहचान बना पाते थे और व्यक्तियों अथवा समूहों के लिए पूजा-उपासना आदि का कार्य करते थे तथा जिनके लिए लोगों के मन में सम्मान तथा भय दोनों भावनाएं होती थीं।
पुरोहित तथा राजवर्ग (Priests and Royalty)
हम पाते हैं कि अधिकतर समाजों में पुरोहित वर्ग व राजवर्ग के बीच एक दिलचस्प संबंध कायम हुआ। इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जहाँ राजा पुरोहित भी थे जैसे पोलिनेशिया तथा मेलानेशिया की जनजातियां तथा भारत भी जहाँ पूर्वजों की पूजा पद्धति के कारण अथवा राजा अथवा परिवार-मुखिया के लिए पुरोहित के रूप में कर्त्तव्य निभाना आवश्यक हो गया। हमें ऐसे भी अनेक उदाहरण मिलते हैं जहाँ राजा को दैवीय शक्ति के बराबर माना गया है जिनमें अपनी जाति के जीवन अथवा मूल तत्वों को समाहित माना गया। अतः जब कभी राजा बीमार पड़ता था तो इसे पूरे समूह के लिए अशुभकारी संकेत माना जाता था। इसी कारण हम पाते हैं कि अनेक समाजों में राजा को समय से पहले ही मार कर तुरंत उसके उत्तराधिकारी का चयन कर लिया जाता था ताकि समाज टूटने से बचा रहे।
हम इतिहास में पुरोहित वर्ग तथा राजवर्ग के बीच निकट संबंध के ऐसे अनेक उदाहरण पाते हैं जहाँ दोनों एक दूसरे पर निर्भर थे। यहाँ हमारा संदर्भ अनेक समाजों में पुरोहित की उस पवित्र भूमिका से है जिसके अन्तर्गत उसके द्वारा राजा पर राज करने के अधिकार प्रदान किए जाते थे। यह यूरोप में राजा के राज्याभिषेक के संबंध में देखा जा सकता है। जिसमें चर्च की एक महत्वपूर्ण भूमिका होती थी अथवा भारत में राजाओं का राज्याभिषेक जिसे ब्राह्मण पुरोहित सम्पन्न करते थे। साथ ही जहाँ पहले संदर्भ में राजा का कर्तव्य होता था कि वह राजधर्म की रक्षा करे वहीं भारत में ब्राह्मण/पुरोहित राजा द्वारा सुरक्षा पाते थे।
पुरोहितगिरी की योग्यताएं (Priestly Qualifications)
पुरोहित बनने के लिए निश्चित योग्यताओं का निर्धारण किया गया था, जिनके बारे में हम यहाँ संक्षेप में उल्लेख करेंगे।
प) पुरोहित का प्राथमिक कार्य मानव तथा दैवीय शक्ति के बीच मध्यस्थता करना है।
पप) पुरोहितगिरी सामान्य रूप से एक वंशगत संस्था है।
पपप) पुरोहित दैवीय शक्ति के साथ प्रार्थना, पूजा, अनुष्ठानों आदि के द्वारा संप्रेषण स्थापित करते हैं।
पअ) पुरोहित के पेशे में आने के लिए दीक्षा की आवश्यकता है। एक निश्चित स्वाध्याय आवश्यक माना जाता है।
अ) पुरोहित अपनी स्थिति प्राकृतिक घटनाओं तथा तत्वों संबंधी ज्ञान तथा विशिष्ट रूप द्वारा बनाए रखते हैं। उनसे चामत्कारिक कृत्यों को करने की भी अपेक्षा की जाती है।
अप) रहस्य का एक निश्चित घेरा उनके चारों ओर बना रहता है।
अपप) उनसे उनके व्यक्तिगत जीवन में कुछ निश्चित बंधनों का पालन करने की अपेक्षा की जाती है विशेषकर यौन संबंध, खान-पान तथा भाषा व्यवहार को लेकर ।
अंततः यह ध्यान देने योग्य है कि धार्मिक तथा जादुई कार्यकर्ता दोनों ही पुरोहित वर्ग के माने जाते हैं। जहाँ जादुई कृत्यों के करने वाले परिचित दैवीय शक्तियों को जादुई शक्तियों का प्रयोग कर अपेक्षित फल अथवा कार्य के लिए बाध्य करते हैं, वहीं पुरोहित अनजानी दैवीय शक्ति का धार्मिक अनुष्ठानों व उपासना/तप आदि द्वारा अपेक्षित फल की प्राप्ति के लिए उनका आशीर्वाद प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।
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