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सीमांत सिद्धांत क्या है | मूल्य निर्धारण सिद्धान्त की परिभाषा किसे कहते है अर्थ सीमांत उपयोगिता के शून्य होने पर कुल उपयोगिता अधिकतम क्यों होती है

सीमांत उपयोगिता के शून्य होने पर कुल उपयोगिता अधिकतम क्यों होती है सीमांत सिद्धांत क्या है | मूल्य निर्धारण सिद्धान्त की परिभाषा किसे कहते है अर्थ ? pricing strategies theory in hindi ?

मूल्य निर्धारण सिद्धान्त और तकनीक
जैसा कि पहले बताया जा चुका है, विभिन्न प्रकार के बाजार में मूल्य निर्धारण निर्णयों की व्याख्या के लिए अर्थशास्त्रियों द्वारा सैद्धान्तिक मॉडल विकसित किए गए हैं। इन मॉडलों में सिद्धान्त जिसे सीमान्त सिद्धान्त अथवा विश्लेषण के रूप में जाना जाता है, अधिकतम लाभ अर्जित करने वाली फर्म के मूल्य निर्धारण व्यवहार की व्याख्या करता है। लाभ अधिकतम करना व्यावसायिक फर्म का प्रमुख उद्देश्य होता है हालाँकि यह आवश्यक नहीं कि यही एक मात्र उद्देश्य हो।

तथापि, फर्म के मूल्य निर्धारण व्यवहार के संबंध में अनुभव सिद्ध अध्ययनों से स्पष्ट रूप से पता चलता है कि अधिकतम लाभ अर्जित करने वाली फर्म का दिशा निर्धारण भी सदैव सीमान्त विश्लेषण से नहीं होता है। वे अलग-अलग मूल्य निर्धारण तकनीकों का प्रयोग करती हैं तथा ये तकनीक एक ही बाजार अथवा उद्योग में अलग-अलग फर्मों में अलग-अलग होती हैं।

हम पहले मूल्य निर्धारण व्यवहार के सीमान्त दृष्टिकोण का विश्लेषण करेंगे तथा उसके बाद व्यवहार में मूल्य निर्धारण तकनीकों पर उसका प्रभाव देखेंगे।

 सीमान्त सिद्धान्त
सीमान्त सिद्धान्त लाभ अधिकतम करने वाले उपभोक्ता की मान्यता के साथ आगे बढ़ता है। एक बार इस मान्यता को स्वीकार कर लेने के बाद इस सिद्धान्त के अनुसार सिर्फ निर्गत के स्तर और निर्गत की प्रति इकाई मूल्य, जिस पर एक फर्म अधिकतम लाभ अर्जित करने की स्थिति में होगी, का पता करना होता है।

सीमान्त सिद्धान्त में जो कुछ कहा गया है वह यह है कि कोई भी निर्गत निर्णय, जिससे कुल लागत की तुलना में कुल राजस्व में अधिक वृद्धि होती है, से लाभ में वृद्धि होगी। कुल राजस्व वह राशि है जो निर्गत की बिक्री से फर्म को प्राप्त होती है, जबकि कुल लागत निर्गत के उत्पादन पर आया खर्च है। इसलिए यह फर्म द्वारा लिए गए निर्णय के वृद्धिशील/सीमान्त प्रभावों पर केन्द्रित है।

अब, एक वस्तु की अतिरिक्त इकाई की बिक्री के कारण कुल राजस्व में वृद्धि को सीमान्त राजस्व कहा जाता है। मान लीजिए,

जिसमें डत् सीमान्त राजस्व है, ∆ज्त् कुल राजस्व में परिवर्तन है ∆फ बेची गई मात्रा में परिवर्तन है
इसी प्रकार, एक वस्तु की अतिरिक्त इकाई के उत्पादन के कारण कुल लागत में वृद्धि सीमान्त लागत कहा जाता है। मान लीजिए,

जिसमें, डब् सीमान्त लागत और ∆ज्ब् कुल लागत है।

यह निर्धारित करने के लिए कि क्या लाभ अधिकतम करने वाली फर्म को उत्पादन के वर्तमान दर का विस्तार करना चाहिए, यथा स्थिति बनाए रखना चाहिए अथवा कम करना चाहिए, सिर्फ डत् और डब् वक्रों की तुलना करनी चाहिए। अर्थात् लाभ अधिकतम करने वाले फर्म को:

यथास्थिति के अनुरूप निर्गत में करना चाहिए।
इस प्रकार, यह देखेंगे कि जब तक डत्झ डब् (डत् डब् से अधिक है), फर्म अपने निर्गत के स्तर में वृद्धि करके अपना लाभ बढ़ाएगी, तद्नुरूप यदि निर्गत के दिए गए स्तर पर डत् ढडब् (डत् डब् से कम है) फर्म अपने निर्गत स्तर में कमी करके लाभ बढ़ाएगी। एक फर्म के लिए निर्गत का संतुलन स्तर (अर्थात् निर्गत का लाभ अधिकतम करने वाला स्तर) वह होगा जिस पर इसका सीमान्त राजस्व सीमान्त लागत के बराबर है। निर्गत के अन्य सभी स्तरों पर, लाभ की मात्रा कम होगी।

हम लाभ अधिकतम करने की दशा को गणितीय रूप में निम्नवत् प्रस्तुत कर सकते हैं हम TT = TR – TC से शुरू करते हैं,
जिसमें
TT = कुल लाभ
TR = कुल राजस्व
TC = कुल लागत
इनमें से सभी निर्गत फलन (Q) हैं ।

लाभ अधिकतम करने का पहला चरण इस प्रकार है रू
फ के संबंध में ज्ज् के पहले व्युत्पन्न को लेने और इसे शून्य के बराबर मानने से यह समीकरण आएगा,

इसी प्रकार

और
MR = MC
और लाभ अधिकतम करने के लिए दूसरे चरण में सम्मिलित है: जब हम फ के संबंध में ज्ज् के पहले व्युत्पन्न की व्युत्पत्ति को लेते हैं और शून्य के बराबर मानते हैं।
अब हम संख्यात्मक उदाहरण देखते हैं।
फर्म के लिए माँग फलन
P = 20 – 0.5Q होने पर (1)
और कुल लागत फलन
C= 15 ़ 4 Q 0.5 Q2 होने पर (2)
फर्म के लिए कुल राजस्व (TR) होगा
TR = P-Q = (20 – 0.5 Q)Q
= 20 Q-0.5Q2 (3)
मान लीजिए कि फर्म अपना लाभ अधिकतम करती है, अर्थात्
Max TT = TR – TC
= (20Q-0.5Q)- (15 ़4Q 0.5 Q)
अथवा
Max TT = 16Q-1.0 Q2 – 15 (4)
लाभ अधिकतम करने के लिए पहले चरण में शून्य के बराबर फ के संबंध में ज्ज् के पहले व्युत्पन्न को बराबर करने पर, हमें
= 16-2Q=0 (5)
प्राप्त होगा,
और Q के संबंध में ज्ज् के दूसरे चरण के व्युत्पन्न को लेने पर और इसे शून्य के बराबर रखने पर, हमें लाभ अधिकतम करने का दूसरा चरण प्राप्त होता है।
= -2<0 (6)
(5) से हमें फ प्राप्त होता है जो 8 के बराबर है, यह फर्म के लिए निर्गत के संतुलन स्तर के बराबर है।
समीकरण (1) में Q = 8 प्रतिस्थापित करने पर मूल्य (P) 16 प्रति इकाई आता है।
और समीकरण (4) से हमें TT= 49 प्राप्त होता है।

इसलिए, यह फर्म अपना निर्गत 16 रु. प्रति इकाई बेचेगी और कुल लाभ 49 रु. अर्जित करती है।

इस प्रकार एक फर्म उस निर्गत स्तर पर उत्पादन और बिक्री करेगा जहाँ डत्, डब् के बराबर (MR = MC) है। MR के तद्नुरूप मूल्य (अर्थात् निर्गत के संतुलन स्तर पर AR (औसत राजस्व = मूल्य) फर्म के मूल्य निर्धारण निर्णय को दर्शाएगा।

एक पूर्ण प्रतियोगी बाजार में एक फर्म मूल्य स्वीकार करने वाली होती है। यह उत्पाद के मूल्य को प्रभावित नहीं कर सकती है, यह उद्योग की माँग और पूर्ति वक्र के मिलन बिन्दु द्वारा निर्धारित मूल्य को स्वीकार करती है। फलतः P = MR है। एक पूर्ण प्रतियोगी फर्म को सिर्फ यह करना है कि बह निर्गत के स्तर की पहचान करे जिस पर

प) P = MC, और
पप) MC में वृद्धि हो रही है।

यह सीमान्त सन्तुलन के द्वैध चरण के रूप में जाना जाता है।

इसी प्रकार, सभी अन्य बाजार संरचनाओं में, एक फर्म निर्गत के उस स्तर पर बिक्री करेगा तथा मूल्य निर्धारित करेगा जहाँ इसका सीमान्त राजस्व सीमान्त लागत के बराबर हो जाता है।

सीमान्त सिद्धान्त की सीमाएँ
सीमान्त उपागम की अनेक सीमाएँ हैं। ये सीमाएँ इस तथ्य की व्याख्या करती है कि व्यवहार में इस उपागम का अत्यन्त ही सीमित प्रयोग है। इस दृष्टिकोण की कुछ महत्त्वपूर्ण सीमाओं को निम्नवत् चिह्नित किया जा सकता है।

प) इस सिद्धान्त की मान्यता है कि व्यावसायिक फर्म का सिर्फ एक ही लक्ष्य होता है- अधिकतम लाभ का लक्ष्य। यह यथार्थवादी मान्यता प्रतीत नहीं होता है।

एक फर्म एक से अधिक उद्देश्यों जैसे बिक्री अधिकतम करना या राजस्व अधिकतम करना, बाजार पर कब्जा करना, शीघ्र नकदी वसूली, उत्पाद श्रृंखला विकास अथवा गैर-आर्थिक उद्देश्य जैसे व्यवसाय में शक्ति या प्रतिष्ठा अर्जित करना से संचालित हो सकती है।

पप) इस सिद्धान्त की एकल-उत्पाद फर्म की भी मान्यता है। संयुक्त उत्पादों और अनेक उत्पादों के मूल्य निर्धारण के लिए इसका प्रयोग यदि असंभव नहीं तो अत्यन्त कठिन अवश्य है। .

पपप) इस सिद्धान्त में जिस मूल्य पर विचार किया जाता है वह अंतिम मूल्य है अर्थात् वह मूल्य जो उपभोक्ता द्वारा चुकाया जाता है। थोक विक्रय मूल्य और खुदरा विक्रय मूल्य एक साथ नियत करने का कोई प्रावधान नहीं है। वास्तव में, यह मध्यवर्ती उपभोक्ताओं की पूरी तरह से उपेक्षा करता है।
पअ) विशेषकर द्वयाधिकार और अल्पाधिकारी बाजारों में सैद्धान्तिक दृष्टिकोण के माध्यम से मूल्य निर्धारित करते समय प्रतिस्पर्धी की प्रतिक्रियाओं पर पूरी तरह से विचार नहीं किया जाता है।
अ) फर्म के अंदर विभिन्न विभागों के उद्देश्यों में विरोध की इस सिद्धान्त में उपेक्षा की गई है।
अप) सीमान्त सिद्धान्त में एक फर्म की मूल्य निर्धारण और विपणन रणनीतियों में कोई संबंध नहीं है जबकि व्यवहार में हम उन्हें एक-दूसरे से जुड़ा हुआ पाते हैं।
अपप) यह मान लिया जाता है कि फर्म को लागत और माँग-वक्र ज्ञात है। व्यवहार में, इन फर्मों के लिए इन वक्रों का आकलन करना कठिन है। क्योंकि इसके लिए उनके पास आवश्यक दक्षता का अभाव होता है।
अपपप)सैद्धान्तिक दृष्टिकोण न्यूनाधिक स्थिर है। यह निश्चितता को निश्चित मानकर चलता है। किंतु व्यवहार में, मूल्य निर्धारण के लिए गतिशील दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है जिसमें जोखिमों और अनिश्चितताओं की पूरी तरह से गणना की जाती है।
उपरोक्त सीमाओं के कारण व्यवहार में सैद्धान्तिक दृष्टिकोण की प्रयोज्यता नहीं के बराबर रह जाती है।

बोध प्रश्न 3
1) आप (प) सीमान्त राजस्व और (पप) सीमान्त लागत से क्या समझते हैं?
2) यह दर्शाएँ कि डत् और डब् की समानता फर्म के लिए अधिकतम लाभ सुनिश्चित करती
है।
3) सीमान्त दृष्टिकोण की चार महत्त्वपूर्ण सीमाओं का उल्लेख कीजिए।

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