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Categories: sociology

राजनीति किसे कहते हैं | राजनीति की परिभाषा क्या है बताइए अर्थ मतलब अवधारणा politics in hindi meaning

politics in hindi meaning and definition राजनीति किसे कहते हैं | राजनीति की परिभाषा क्या है बताइए अर्थ मतलब अवधारणा ?

राजनीति का अर्थ (Meaning of Politics)
राजनीति और राजनीतिक प्रक्रिया को विभिन्न समयों में अलग-अलग तरीके से परिभाषित किया गया है। प्रस्तुत विषय के संदर्भ में राजनीति के अर्थ के दो पहलुओं की चर्चा करना उपयोगी होगा।

इनमें से एक परिभाषा के अनुसार:
प) टकराव (या संघर्ष) और एकीकरण की दो विरोधी शक्तियाँ राजनीति की प्रकृति को तय करती हैं। राजनीति का संबंध ऐसे ही टकरावों से होता है। टकराव अनिवार्य तो होते हैं, लेकिन समाज में वे ध्येय या आदर्श कभी नहीं हो सकते। टकरावों का समाधान और समाज का एकीकरण और सहयोग ही तमाम समाजों का आदर्श होता है। टकराव के प्रत्येक विश्लेषण का अंत उनके समाधान सुझाने में होता है। किसी अभिन्न और एकजुट समाज के प्रति चलाया गया कोई भी अभियान उतना ही अनिवार्य होता है जितना की टकरावों या मतभेदों का उदय । स्थितियों के बदलने के साथ कुछ टकराव तो कम हो जाते हैं, कुछ बने रहते हैं, कुछ नियंत्रित हो जाते हैं और कुछ नए टकराव पैदा हो जाते हैं। विविध सामाजिक और सांस्कृतिक प्रक्रियाएँ किसी मेल-मिलाप से रहने वाले समाज के लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद करती हैं, तो राजनीतिक प्रक्रिया की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इस तरह, एकीकरण और टकराव ऐसी दो विरोधी दिखने वाली शक्तियाँ हैं जिन से राजनीति की प्रक्रिया बनती है।

सामाजिक संस्थाएँ टकराव और एकीकरण दोनों ही दृष्टियों से महत्वपूर्ण हैं, और वे राजनीति और राजनीतिक प्रक्रिया से जुड़ी हैं। ये संस्थाएँ, उनसे जुड़े विचार और मुद्दे अक्सर व्यक्तियों की पहचान के आधार का निर्माण करते हैं। और उसकी परिणति टकराव की स्थितियों में होती है। साथ ही साथ सामाजिक संस्थाएँ खुद संस्थाओं के भीतर और उनके बीच की एकता और एकीकरण की स्थिति बनाती हैं। इन प्रतिस्पर्धी स्थितियों में प्रत्येक व्यक्ति के अलग-अलग हित और उसकी पहचान शामिल है, इन स्थितियों से पैदा होने वाले टकराव का समाधान करने की प्रक्रिया में अति वांछित एकीकरण या एकता की स्थिति बनती है और, इसी से राजनीति आकार लेती है।

पप) राजनीति को समझने का दूसरा पहलू है वितरणकारी दृष्टिकोण। यह हैरल्ड डी, लासवेल के लेखन से जुड़ा है। हम सभी जानते हैं कि समाज में सत्ता और संसाधन के वितरण में अत्यधिक विषमता है। सभी समुदायों या व्यक्तियों को संसाधनों, सामानों और पदों का एक जैसा हिस्सा नहीं मिलता। उनमें से कुछ इन अधिकारों और संपदा और संसाधनों से वंचित रह जाते हैं।

राजनीतिक सत्ता अधिकार और प्राधिकार दिलाती है। सत्ता और संसाधनों के बीच इसी निकट के संबंध के चलते लसवेल (1936) ने कहा कि राजनीति का अर्थ यह है कि ‘‘किसको क्या, कब और कैसे मिलता है।‘‘

कोई समूह या समुदाय यह महसूस कर सकता है कि वह समाज में संसाधनों और पदों से वंचित है। ऐसा कोई भी समुदाय या समूह अपने आप को अलाभकारी स्थिति में पाता है और सत्ताविहीन अनुभव करता है, इसकी प्रतिक्रिया में वह अधिकार प्राप्त राजनीतिक शासन या राज्य की वैधता को चुनौती दे सकता है। इस प्रकार का सापेक्ष अभाव या यह बोध समूह या समुदाय की लाभबंदी और राजनीतिक हिंसा का भी एक महत्वपूर्ण कारक रहा है।

जैसे कि हम पहले चर्चा कर चुके हैं। धर्म केवल दैवीय क्षेत्र तक सीमित नहीं रहता। इस का और भी व्यापक सामाजिक महत्व होता है। यह नैतिक और नीतिपरक दृष्टि देता है और जनता और समुदायों का मार्गदर्शन करता है।

जनता से सत्ता प्राप्त करने वाला कोई भी राज्यतंत्र इसलिए धार्मिक पहलू को मान्यता और स्थान देता है। यह पहलू व्यक्ति और समुदायों दोनों के लिए महत्वपूर्ण है।

सरल शब्दों में कहें तो, राजनीति एक महत्वपूर्ण सामाजिक संस्था है जिसमें समाज में सत्ता का संगठन निहित होता है। राजनीतिक तंत्र यह प्रभाव छोड़ने का प्रयास करते हैं कि उनकी सत्ता वैध है और उस का कारण उत्पीड़न नहीं है। आप को वेबर की बात याद हो तो आप को स्मरण हो जाएगा कि जो प्राधिकार या अधिकार वैध होता है और उस का स्रोत होती हैं (1) परंपरा, (2) तर्कसंगत ढंग से लागू किए गए नियम और विनियम और (3) करिश्मा ।

आज के समाज में राजनीतिक प्राधिकरण अपने प्राधिकार, समाज के व्यापक वर्ग से प्राप्त करता है। इसलिए जनता के हित और उसकी माँगे राजनीतिक प्राधिकरण को प्रभावित करती हैं। धर्म सामुदायिक जीवन का एक पक्ष है जो राजनीति को प्रभावित करता है।

राजनीति की प्रकृति (The Nature of Politics)
समाज और राज्यतंत्र में हमेशा एक अंतःक्रियात्मक संबंध रहा है, लेकिन लोकतांत्रिक ढाँचे में राजनीति ने इस प्रकार के संबंध को और भी अधिक एक-दूसरे पर निर्भर कर दिया है। जब हम 20वीं शताब्दी के अंत में लोकतंत्र की बात करते हैं तो हमारा मतलब केवल एक और किस्म की सरकार से नहीं होता: यह तो राजनीति और शासन की एक व्यवस्था है जिसे संसार के लगभग सभी देश स्वीकार करते और अपनाते हैं।

बॉक्स 11.01
जीवन की एक शैली और शासन की एक किस्म के रूप में, लोकतंत्र समानता और खुलेपन का आश्य देता है जिसमें व्यक्ति और समूह सत्ता के लिए होड़ करते हैं। इस व्यवस्था के कार्य करने के लिए निश्चित प्रतिमान और नियम स्वस्थ प्रतियोगिता के मूल्यों को आरोपित करते है। लोकतंत्र के लिए स्वाभाविक रूप से महत्वपूर्ण व्यक्तिगत प्राथमिकताओं को अनेक शक्तियों और कारक प्रभावित करते हैं। जिस तरह से ये एक दूसरे में मिश्रित होती और अंततः मानव व्यवहार को प्रभावित करती हैं वह बेहद जटिल प्रक्रिया है जिसमें किसी निश्चित महत्व के क्रम में कारकों को व्यवस्थित करना एकदम आसान नहीं है। एक और स्तर पर सामाजिक समूह लोकतांत्रिक राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

समाज उन व्यक्तियों का समूह नहीं होता जो एक दूसरे से कटे होते हैं। व्यक्ति हमेशा सामाजिक समूहों के सदस्य होते हैंय और वे केवल एकल समूहों के नहीं, बल्कि ऐसे कई समूहों के एक साथ सदस्य होते हैं। प्रत्येक समाज मौजूदा मूल्यों के संदर्भ में कुछ समूहों में बँटा होता है और इस प्रकार के समूहों की संख्या मूल्यों की संख्या पर निर्भर करती है। जाति, वर्ग, धर्म, प्रजातीयता, समान व्यवसाय, और अंततः सत्ता, सभी समूहों के निर्माण का आधार बन सकते हैं, और बनते भी हैं। व्यक्ति एक साथ एक से अधिक समूहों के सदस्य हो सकते हैं। लोकतांत्रिक राजनीति के लिए ऐसे समूहों का महत्व यह है कि ये समूह अक्सर राजनीति की प्रक्रिया के संगठनकारी खंडों का निर्माण करते हैं।

धर्म सामूहिक पहचान का एक केन्द्रीय कारक रहा है। इस प्रकार के समूहों के निर्माण का सामाजिक आधार अन्य समूहों और व्यक्तिगत व्यवहार को भी प्रभावित करता है। समूह गतिशीलता के संदर्भ में भी धर्म एक प्रेरक कारक रहा है। लोकतांत्रिक राजनीति क्योंकि व्यक्तिगत और सामूहिक व्यवहार से संबंधित और प्रभावित होती है। इसलिए धर्म उसे घनिष्ठ रूप से प्रभावित करता है। ये प्रभाव, स्वरूप और गहनता दोनों दृष्टियों से अलग-अलग समाज में अलग-अलग होते हैं। इस विषय पर हम आगे अनुभाग 11.6 में चर्चा करेंगे।

कुछ सामाजिक सिद्धांतों ने यह संकेत दिया है कि व्यक्तियों की धर्म जैसी ‘‘आदिम‘‘ पहचानो का स्थान आधुनिकीकरण और औद्योगीकरण जैसी और अधिक/सामाजिक गतियाँ ले लेंगी और अंत में इनके स्थान पर भी तकनीकी व्यावसायिक समूह, वर्ग आदि जैसी और भी अधिक ‘आधुनिक‘ या ‘स्थायी‘ पहचानें आ जाएंगी।

आधुनिकीकरण के विशेषकर प्रारंभिक चरण के आधुनिकीकरण के सिद्धांत में यह निश्चित संकेत था कि ‘आधुनिकीकरण‘ की प्रक्रियाएँ, समय और बढ़ते संभावना क्षेत्र के साथ व्यक्तिगत और सामूहिक पहचान के ‘आदिम‘ या ‘पारंपरिक‘ आधार को अगर गायब या समाप्त नहीं कर देंगी तो कम से कम उनका स्थानापन्न तो कर ही देंगी। ‘धार्मिक‘ पहचान उनमें से एक है।

इसी तरह श्वर्गश् का सिद्धांत सामाजिक संगठन के आर्थिक आधार को अत्यधिक महत्व देता है और आर्थिक वर्ग को ‘वास्तविक‘ सामाजिक समूह मानता है और अन्य समूहों को ‘झूठा‘ और ‘भ्रामक‘ मानता है। इस सिद्धांत के अनुसार समूह अंततः अपने आप को वर्ग के आधार पर संगठित कर लेंगे। धर्म और प्रजातीयता या अक्सर कथित ‘‘सांस्कृतिक अंतः प्रदेशों” के आधार पर टिकी संस्थाओं को अस्थायी और ‘विघटनकारी‘ कारक माना जाता है, व्यवस्था के अभिन्न तत्व नहीं।

उपर्युक्त सिद्धांतों में सामाजिक परिवर्तन को एक ही दिशा में चलने वाला माना गया है, जबकि विभिन्न समाजों के अनुभवों से हमें परिवर्तन के विभिन्न मार्गों का संकेत मिलता है, जिनकी अपनी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विशेषताएं रही हैं। कुछ समाजों में परिवर्तन की गति किसी विशेष चरण में कम हुई या रूकी भी है। समूह निर्माण की वास्तविक प्रक्रिया और उनकी अन्योन्यक्रिया इतनी अधिक गतिशील रही है जितना कि उपर्युक्त सिद्धांतों से भी संकेत नहीं मिलता।

लोकतांत्रिक राजनीति में ऐसे अनेक समूह आते हैं जिन्हें ‘आदिम‘ माना जाता हैं। वास्तव में ऐसे समूहों की संख्या और शक्ति दोनों में वृद्धि हुई है। इसका कारण लोकतांत्रिक राजनीति में शक्तियों की अन्योन्यक्रिया है।

स्थिति समाजवादी देशों में भी भिन्न नहीं रही है, जहाँ धार्मिक समूहों की अवहेलना के लिए सचेत और कठोर कदम उठाए गए थे। वहाँ धार्मिक पहचानों के बार-बार सिर उठाने के कारण सैद्धांतिक, वैचारिक और राजनीतिक किस्म की समस्याएँ भी उठ खड़ी हुई हैं। तीसरी दुनिया के देशों के सामने धार्मिक पहचानों और समूहों की समस्याएं और भी गंभीर रूप में पेश आई हैं। अब इसकी व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं रह गई है कि धर्म सामान्यतया राजनीति में और विशेषतया लोकतांत्रिक राजनीति का एक महत्वपूर्ण कारक है।

इस चरण पर तो हमें इस पर चर्चा करने की आवश्यकता है कि राजनीति में धार्मिक शक्तियों को प्रभावित करने वाले कारक कौन से हैं। हम यह पहले भी पढ़ चुके है कि किसी भी देश की राजनीति में धर्म अमहत्वपूर्ण तो हुआ ही नहीं है, बल्कि कुछ देशों की अपेक्षा अन्य में इसका प्रभाव कहीं अधिक है। इसके लिए अनेक कारक जिम्मेदार हैं। हम अगले अनुभाग में समाज की प्रकृति और सामाजिक संरचनाओं और समूहों के संदर्भ में इन विभिन्न कारकों पर विचार करेंगे।

कार्यकलाप 2
क्या आप किसी राजनीतिक दल के सदस्य हैं? अगर नहीं हैं तो भी, क्या आप सोचते हैं कि धर्म और राजनीति को मिलाया जाना चाहिए ? इस विषय में अपने विचार लिखिए और उन्हें अध्ययन केंद्र के अपने अन्य साथियों के विचारों से मिलाइए।

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