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प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत का प्रतिपादन किसने किया था कब प्रस्तुत किया गया , प्रतिपादक plate tectonics theory given by

plate tectonics theory given by in hindi प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत का प्रतिपादन किसने किया था कब प्रस्तुत किया गया , प्रतिपादक what year was the theory of plate tectonics accepted first published by in 1967 ?

प्लेट विवर्तनिक
(PLATE TECTONICS)
भौतिक भूगोल के अंतर्गत भू आकृति विज्ञान में प्लेट विवर्तनिक नवीनतम विचार है, महासागरों की उत्पत्ति, भूकम्प एवं ज्वालामुखी उद्भेदन तथा मोड़दार पर्वतों के निर्माण आदि का वैज्ञानिक स्पष्टीकरण प्लेट विवर्तनिक के आधार पर किया जाता है। प्लेट विवर्तनिक उस सम्पूर्ण प्रक्रिया को कहा जाता है जिसमें पृथ्वी के भूपटल पर प्लेट्स का निर्माण, उनकी गति एवं उनके स्वरूप को सम्मिलित किया जाता है। सर्वप्रथम हेस ने 1960 में विभिन्न विभिन्न साक्ष्यों द्वारा प्रतिपादित किया कि महाद्वीप तथा महासागर विभिन्न प्लटी पर टिके हैं। प्लेट शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम एजो विल्सन ने किया, तत्पश्चात ओपडाइक, मेकज एक स्कलेटर (Mekeæie and Sclater 1965) वेलेन्टाइन एवं मूर्स, हॉलम (Hollam, 1973) तथा स्ट्रालर (strawler 1978) आदि विद्वानों के प्रयास से पृथ्वी पर प्लेटों की पहचान हुई तथा इनके स्वरूप एवं गति के बारे में विस्तृत अनुसंधान किये गये हैं। इन्हीं सूचनाओं के आधार पर प्लेट विवर्तनिक सिद्धांत के रूप में प्रतिपादित हुआ।
प्लेट का अर्थ
(Meaning of plate)
प्लेट स्थलमण्डल के कठोर एवं दृढ़ भूखण्ड है। इसमें स्थलमण्डल एवं दुर्बलतामण्डल की 100 कि.मी. की गहराई तक का भाग सम्मिलित किया जाता है। भूपटल पर सात बड़ी व चैदह छोटी प्लेट्स पायी जाती है। प्लेट्स दुर्बलतामण्डल पर रखी हुई है। कुछ प्लेटों में सिर्फ महाद्वीप (जैसे-अरब प्लेट) व कुछ में सिर्फ महासागर (जैसे पेसिफिक प्लेट) तथा कुछ में महाद्वीप व महासागर दोनों (इंडियन प्लेट) के भाग है। इसी आधार पर इन्हें तीन भागों में बाँटा जाता है-
(1) महाद्वीपीय प्लेट
(2) महासागरीय प्लेट
(3) महाद्वीपीय-महासागरीय प्लेट
प्लेट विवर्तन के आधार (Base of theory):- वस्तुतः इस सिद्धांत का आधार वेगनर का महाद्वीपीय विस्थापन ही है अन्तर यह है कि वेगनर का मत था कि सिर्फ महाद्वीप विस्थापित हुए हैं जबकि प्लेट विवर्तनिक है प्लेट्स विस्थापित होती है जिसमें महाद्वीप व महासागर दोनों सम्मिलित होते है।
इस सिद्धान्त का दूसरा आधार सागर नितल का प्रसार है। 1950 के बाद अटलांटिक महासागर की कटक व अन्य कटकों का विस्तृत अध्ययन किया गया। वैज्ञानिक अध्ययन से ज्ञात हुआ कि महासागरीय ठली के चट्टानें अपक्षोकृत नवीन हैं। मध्यवर्ती कटकों के अध्ययन के आधार पर एच.एच.हेस ने 1960 में बताया कि ये तली में उस स्थान पर स्थित हैं जहाँ मेगमा निरन्तर बाहर आकर जमता रहता है। मेण्टल में सवंहन तरंगों के साथ पदार्थ (लावा) ऊपर उठता है व दोनों ओर फैल जाता है। संवहन तरंगों के दबाव से तली में दरार पड़ जाती है व मेगमा बाहर आकर जम जाता है तथा नयी पपड़ी बनती है। इस प्रकार महासागरीय तली हमेशा नवीन बनी रहती है तथा प्रसार से पीड़ित रहती है। दूसरे शब्दों में महासागरीय तली में निरन्तर विस्तार होता रहता है। महाद्वीपों के किनारे स्थित गर्ता के क्षेत्र में पुरानी तली मेंटल में पुनः डूब जाती है। इस प्रसार के साथ महाद्वीप मौखिसकते जाते हैं। अतः महासागरीय तली के प्रसार से क्षेत्रफल में वृद्धि या कमी नहीं होती है।

प्लेटों में गति व उसके कारण :
पृथ्वी पर पायी जाने वाली समस्त प्लेटस एक दसरे से सटी हईं दुर्बलता मण्डल पर स्थित है। ये स्थिर नहीं है, इनमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। प्लेटों में गति के कई कारण हैं। प्रमुख कारण पृथ्वी के आन्तरिक भाग में रेडियो एक्टिव तत्वों की सक्रियता से उत्पन्न ताप है। इसके कारण तापीय संवहन तरंगों का जन्म होता है जो केन्द्र से सतह की तरफ चलती है व ऊपरी पपड़ी पर तनाव या दबाव डालती है। संवहन तरंगे स्थलमण्डल की प्लेट्स को अपने साथ प्रवाहित करती है। महासागरीय घटकों में संवहन तरंगों के साथ तप्त मेण्टल (लावा) का पदार्थ बाहर आ जाता है। भपटल के नीचे संवहन धाराओं की संकल्पना ‘हापकिन्स‘ व होम्सश्ने प्रस्तुत की थी। ‘रेल‘ व ‘गॉस‘ ने सैद्धान्तिक रूप से इसको प्रमाणित किया है।
वैज्ञानिकों के अनुसार मेण्टल में लचीलापन आन्तरिक तापमान व दबाव पर निर्भर करता है। संकलन तरंगो के साथ तप्त पिघला मेग्मा ऊपर उठता है। भूपटल के नीचे संवहन धारायें विपरीत दिशा में अपसारित होती हैं। अपसरण से मैग्मा भी दोनों दिशाओं में फैल जाता है व ठण्डा होने लगता है। जहाँ दो विपरीत दिशाओं से संवहन तरंगें मिलती हैं वहाँ ये मुड़कर पुनः केन्द्र की ओर चल पड़ती है। अतः ठण्डा मेग्मा भी नीचे धंसता है व पुनः गर्म होने लगता है। उसके आयतन में परिवर्तन होता है। जैसे-जैसे यह केन्द्र की तरफ बढ़ता है तप्त होकर आयतन में विस्तार होता है जिससे भूपटल पर पुनः दबाव पड़ता है व प्लेटो में गति उत्पन्न होती है। जहाँ संवहन तरंगें, विपरीत दिशा में अपसरित होती है वहाँ भूपृष्ठ पर प्लेट्स एक दूसरे से दूर खिसकती हैं तथा जहाँ संवहन तरंगें मिलकर पुनः केन्द्र की तरफ संचालित होती है उस स्थान पर प्लेट्स एक दूसरे के करीब आती हैं। भूगर्भ में संवहन तरंगों की उत्पत्ति कभी लगातार (अन्तराल से) होती है।
प्लेट्स एक दूसरे के सापेक्ष में निरन्तर गतिशील रहती है। एक के गतिशील होने पर दूसरे का गतिशील होना आवश्यक हो जाता है। प्लेटों का घूर्णन (तवजंजपवद) यूलर के ज्यामितीय सिद्धान्त (म्नसमते ळमवउमजतपबंस जीमवतमउ) के अनुसार होता है। प्रत्येक प्लेट अपनी अक्ष के चारों ओर वृत्ताकार मार्ग में प्रवाहित होती है। प्लेट्स की गति व दिशा का अध्ययन उपग्रहों पर स्थापित लेसर परावर्तकों के माध्यम से किया जाता है।
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर भूपृष्ठ के अनेक भूरूपों की उत्पत्ति को प्लेट टेक्टॉनिक सिद्धान्त भली प्रकार स्पष्ट करता है। पृथ्वी पर पायी जाने वाली प्लेटस का पहला मानचित्र 1968 में प्रकाशित हुआ था। उसके बाद समय-समय पर प्लेट्स की सीमाओं व संख्याओं में संशोधन हुए है। वर्तमान में 7 प्रमुख एव। 14 छोटी भूप्लेट्स चिह्नित की गयी है।
प्रशान्त प्लेट सबसे बड़ी है। उ.अमेरिका व द.अमेरिका को पूर्व में एक प्लेट माना जाता था, परन्तु कुछ वैज्ञानिक कैरेबियन प्लेट्स से दोनों को अलग-अलग मानते हैं। एटलांटिक मध्य कटक पर इसका रचनात्मक किनारा है तथा पेरू व कैलिफोर्निया ट्रेंच पर इसका विनाशात्मक किनारा है। यूरेशिया प्लेट में यूरोप व अधिकांश (द.एशिया को छोड़कर) एशिया महाद्वीप सम्मिलित है। इसमें कई छोटी प्लेट भी संलग्न हैं जैसे पर्शियन प्लेट, चीन प्लेट। इसकी दिशा पश्चिम से पूर्व है। इंडोआस्ट्रेलिया प्लेट में महाद्वीप व महासागर दोनों हैं पर सागरीय क्षेत्र अधिक है। इसकी दिशा दक्षिण पश्चिम से उत्तर पूर्व है। दक्षिण में अन्टार्कटिका प्लेट स्थित है। अफ्रीकन प्लेट में सम्पूर्ण अफ्रीका व आन्ध्र महासागर तथा पूर्व में हिन्द महासागर का कुछ हिस्सा शामिल है। इसकी गति उत्तर पूर्व दिशा में है। प्रमुख छोटी प्लेट्स नजाका प्लेट, कोकोज प्लेट, स्कोशिया प्लेट. फिलीपीन्स प्लेट, हेलनिक प्लेट आदि है।

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