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Categories: sociology

पियरे वैन डेन बर्घ का महान संश्लेषण सिद्धांत Pierre L. van den Berghe theory in hindi

Pierre L. van den Berghe theory in hindi पियरे एल वैन डेन बर्ग सिद्धांत अथवा पियरे वैन डेन बर्घ का महान संश्लेषण सिद्धांत क्या होता है ?

पियरे वैन डेन बर्घ का महान संश्लेषण सिद्धांत
अपने एक शोध लेख, ‘‘डायलेक्टिक ऐंड फंक्शनलिज्मः टुवार्ड ए थ्योरेटिकल सिंथेसिस‘‘ (द्वंद्वात्मकवाद और प्रकार्यवादः सैद्धांतिक संश्लेषण) में पियरे वैन डेन बर्घ ने समाजशास्त्रीय सिद्धांत स्थापना की दो मुख्य परंपराओं में विद्यमान समान तत्वों को पहचानने का प्रत्यत्न किया था, जिसके लिए उन्होंने हेगेल के संश्लेषण सिद्धांत का प्रयोग किया। उनका यह लेख अमेरिकन सोश्योलॉजिकल रिव्यू में 1963 में छपा था।

बर्घ इस लेख में तर्क देते हैं कि प्रकार्यवाद और मार्क्सवादी, दोनों द्वंद्व सिद्धांत में हर एक सामाजिक यथार्थ के दो में से एक अनिवार्य पहलू को महत्व देते हैं। ‘‘इनमें से हर सिद्धांत सिर्फ सामाजिक यथार्थ के दोनों पहलुओं में एक को ही विशेष महत्व नहीं देता जो कि एक दूसरे के पूरक तो हैं ही, एक दूसरे में अभिन्न रूप से गुंथे हुए भी हैं । बल्कि कुछ विश्लेषणात्मक सिद्धांत दोनों दृष्टिकोणों पर समान रूप से लागू होते हैं।‘‘ लेकिन सिर्फ यह कह देना ही काफी नहीं होगा कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। हमें यह भी सिद्ध करना होगा कि दोनों को मिलाया जा सकता है। बर्घ के अनुसार दोनों दृष्टिकोणों के घटकों को बनाए रख कर और उनमें परिवर्तन करके हम समाज के एक ही ऐसे एकीकृत सिद्धांत की रचना कर सकते हैं। बर्घ बताते हैं कि ये दोनों सिद्धांत चार महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर मिलते हैं।
पहला, दोनों दृष्टिकोण स्वभाव में साकल्यवादी हैं क्योंकि दोनों समाज को एक तंत्र के रूप में देखते हैं, जिसके परस्पर संबंद्ध और परस्पर निर्भर अंग होते हैं। मगर इसके विभिन्न अंगों के परस्पर संबंध को लेकर दोनों का अलग-अलग नजरिया है। प्रकार्यवाद अंगों की आपसी परस्पर निर्भरता को ही महत्व देता है तो वहीं द्वंद्वात्मक सिद्धांत व्यवस्था के विभिन्न अंगों के बीच द्वंद्वपूर्ण संबंधों की ही बात करता है। इसलिए एक पहलू की कीमत पर दूसरे पहलू को अत्यधिक महत्व देने के लिए दोनों सिद्धांतों की आलोचना की गई है। बल्कि व्यवस्था या तंत्र की अवधारणा को परस्पर निर्भरता और द्वंद्व के दोनों तत्वों को साथ लेकर चलने की जरूरत है।

अभ्यास 2
स्तरीकरण सिद्धांत के महान संश्लेषण का क्या औचित्य है? अध्ययन केन्द्र के अन्य छात्रों के साथ इस प्रश्न पर चर्चा कीजिए और अपनी नोटबुक में एक संक्षिप्त नोट लिखिए।

दूसरा, द्वंद्व और मतैक्य के प्रति इनका सरोकार एक-दूसरे पर हावी रहता है। प्रकार्यवादी तो मतैक्य को समाज की स्थिरता और उसके एकीकरण का मुख्य आधार मान कर चलता है। मगर द्वंद्वात्मक सिद्धांत संघर्ष या द्वंद्व को समाज के विखंडन और क्रांति का स्रोत मानता है। लेकिन बर्घ का कहना है कि इन दोनों का एक संयोजित सिद्धांत में मिलन किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, कोजर ने द्वंद्व के एकीकरणात्मक और स्थिरतकारी पहलू की ओर हमारा ध्यान खींचा है। विखंडन की ओर ले जाने की बजाए द्वंद्व सामाजिक व्यवस्था में एक परिवर्तनकारी और गतिशील साम्य या संतुलन बनाए रखने में सहायक हो सकता। फिर कई समाज ऐसे भी हैं जिनमें द्वंद्व को इस तरह से संस्थागत और औपचारिक रूप दे दिया गया है कि वह उनके एकीकरण में सहायक दिखाई देता है। उदाहरण के लिए, औद्योगिक समाजों के मजदूर संघों यूनियनों की उपस्थिति औद्योगिक संबंधों के नियमन में सहायक है। मजदूरों के ये संगठन विखंडनकारी किस्म के वर्ग संघर्ष की संभावना को रोकने के लिए ‘सेफ्टी वाल्व‘ की तरह काम करते हैं। ठीक इसी तरह विभिन्न समूहों में अत्यधिक एकता एक बहुविध समाज में अंतःसमूह द्वंद्वों को जन्म दे । सकता है, जिसमें विविध सांस्कृतिक समूह एक साथ रह रहे हों।

तीसरा, प्रकार्यवादी और द्वंद्ववादीध्द्वंद्वात्मक सिद्धांत दोनों सामाजिक परिवर्तन की क्रमिक विकास की धारणा को लेकर चलते हैं। हालांकि ऐतिहासिक परिवर्तन की धारा में निहित चरणों और प्रक्रियाओं से जुड़ी ये धारणाएं एक दूसरे से अलग हैं, लेकिन इसके बावजूद वे उन्नति या विकास में समान रूप से विश्वास करते हैं। मार्क्सवादी द्वंद्वात्मक सिद्धांत वर्ग संघर्ष के जरिए होने वाले परिवर्तन की प्रक्रिया का दर्शन देता है। मगर वहीं प्रकार्यवादी इस परिवर्तन की सामाजिक विभेदन की सतत प्रक्रिया का परिणाम मानते हैं । मगर जैसा कि बर्घ तर्क देते हैं, परिवर्तन के दोनों सिद्धांतों में कम से कम एक महत्वपूर्ण बात तो समान रूप से पाई जाती है। दोनों सिद्धांत यह मानकर चलते हैं कि सामाजिक व्यवस्था को एक निश्चत सोपान तक पहुंचने के लिए सभी पूर्ववर्ती चरणों से गुजरना जरूरी है। इसलिए वह उन सबको अपने में समाए रखता है भले ही वह अवशेष मात्र या परिवर्तित रूप में हो। चैथा, बर्घ दावा करते हैं कि प्रकार्यवादी और द्वंद्वात्मक या द्वंद्ववादी सिद्धांत दोनों ‘‘एक संतुलन मॉडल‘‘ पर आधारित हैं। प्रकार्यवादी सिद्धांत में तो यह साफ जाहिर हो जाता है मगर प्रस्थापना-(‘‘थीसिस‘‘)-प्रतिस्थापना- (‘‘एंटीथीसिस‘‘) संश्लेषण (सिंथेसिस) के द्वंद्वात्मक क्रम में भी साम्य या संतुलन का विचार निहित है। द्वंद्वात्मकता का सिद्धांत समाज को इस दृष्टि से देखता है कि वह संतुलन और असंतुलन के बदलते चरणों से गुजरता है। द्वंद्वात्मक सिद्धांत में संतुलन की अवधारणा गतिशील संतुलन की शास्त्रीय अवधारणा से भिन्न है, मगर दोनों दृष्टिकोणों को परस्पर विरोधी नहीं कहा जा सकता और न ही ये एकीकरण के दूर-व्यापी रुझान के अभ्युगम के असंगत हैं।

सारांश
सामाजिक असमानता या सामाजिक स्तरीकरण मानव इतिहास में बहस का सबसे बड़ा मुद्दा रहा है। सिर्फ समाजशास्त्रियों ने ही इसकी परस्पर विरोधी सैद्धांतिक व्याख्याएं नहीं दी हैं बल्कि साधारण चिंतकों, दार्शनिकों और धार्मिक नेताओं में भी यह बड़े ही विवाद का मुद्दा रहा है। हालांकि कई समाजशास्त्रियों ने इन परस्पर विरोधी सिद्धांतों की अलग-अलग कड़ियों को जोड़कर उन्हें संश्लेषित रूप देने का प्रयास भी किया है। बर्घ, लहमान और स्की ऐसे ही तीन समाजशास्त्री हैं जिनके बारे में हमने आपको पीछे विस्तार से बताया है। लेकिन इस मुद्दे का अभी तक कोई संतोषप्रद समाधान नहीं निकल पाया है। बर्ष, लहमान और लेंस्की ने जो संश्लेषित या संयोजित सिद्धांत रखे हैं उन्हें सभी समाजशास्त्रियों ने स्वीकार नहीं किया है। पेशे से समाजशास्त्री और साधारण चिंतकों में स्तरीकरण के कारणों और परिणामों को लेकर मतभेद अभी भी जारी हैं।

शब्दावली
द्वंद्व सिद्धांत: इसमें स्तरीकरण को दो विरोधी वर्गों के परिणाम के रूप में लिया जाता है। इसके अनुसार जिस वर्ग के स्वामित्व में उत्पादन के साधन हैं वह मजदूर वर्ग का शोषण करता है।
प्रकार्यवादी सिद्धांत: इसमें समाज में प्रचलित प्रत्येक पद-स्थान और दर्जे को समाज को बनाए रखने और उसकी एकता के लिए सहायक माना जाता है।
संश्लेषण: यह सामाजिक स्तरीकरण से जुड़ी भिन्न दृष्टिकोणों को एक सरल सिद्धांत में जोड़ने का प्रयत्न है जिसके सूत्र अन्य सिद्धांतों में हैं।

 कुछ उपयोगी पुस्तकें
बर्घ, पियरे वैन डेन (1963) “डायलेक्टिक ऐंड फंक्शनलिज्मः टुवार्ड ए थ्योरेटिकल सिंथेसिस” अमेरिकन सोशयोलाजिकल रिव्यू 28, पृ. 695-705
लेंस्की, (1966) पॉवर ऐंड प्रिविलेजः ए थ्योरी ऑफ स्ट्रैटिफिकेशन, न्यू यार्क, मैकग्रा हिल बुक कंपनी लहमान, एन. (1995), सोशल सिस्टम्स, स्टैनफर्ड यूनि. प्रेस।

स्तरीकरण के सिद्धांत और संश्लेषणः लेस्की, लहमान, बर्घ
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
सामाजिक स्तरीकरण की अलग-अलग व्याख्याएं
सामाजिक स्तरीकरण का समकालीन समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य
प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य
द्वंद्व सिद्धांत
संश्लेषण की दिशा में
प्रारंभिक प्रयास
पियरे वैन डेन बर्घ का महान संश्लेषण सिद्धांत
एन. लहमान का सामाजिक व्यवस्था सिद्धांत
गेरहार्ड लेंस्की का सत्ताधिकार और विशेषाधिकार सिद्धांत
सारांश
शब्दावली
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर

उद्देश्य
इस इकाई को पढ़ने के बाद आपः
ऽ सामाजिक स्तरीकरण का समकालीन परिप्रेक्ष्य दे सकेंगे,
ऽ बर्घ के महान संश्लेषण सिद्धांत की रूपरेखा बता सकेंगे,
ऽ लहमान के व्यवस्था सिद्धांत के बारे में बता सकेंगे, और
ऽ लेंस्की के सत्ताधिकार और विशेषाधिकार सिद्धांत पर चर्चा कर सकेंगे।

 प्रस्तावना
इस इकाई में हमने सामाजिक स्तरीकरण के विषय पर रचे साहित्य की प्रगति को समझने के लिए द्वंद्वात्मकता की विधि का प्रयोग करने का प्रयास किया है। इसमें हमने इन तीन समाजशास्त्रियों, पियरे वैन डेल बर्घ, एन. लहमान और गेरहार्ड लेंस्की की रचनाओं पर विशेष ध्यान दिया है, जिन्होंने सामाजिक स्तरीकरण के सिद्धांतों में मौजूदा धुविताओं के दायरे से बाहर निकल कर इन्हें एक संयोजित सिद्धांत के रूप में संश्लेषित करने का प्रयास किया है।

आइए, पहले हम सामाजिक असमानता को लेकर प्रचलित दो परस्पर विरोधी मतों के बारे में जानें । इनमें से एक है रूढ़िवादी मत रखने वाले विद्वान जिनकी दृष्टि में सामाजिक असमानताएं स्वाभाविक, प्रकृतिसम्मत और न्यायोचित हैं। दूसरा खेमा आमूल परिवर्तनवादी विद्वानों का है जिनके मतानुसार सभी मानवों से सिद्धांततः समतावादी व्यवहार होना चाहिए और इसे वे एक ऐसे सामाजिक-राजनीतिक लक्ष्य के रूप में लेते हैं जिसे प्राप्त किया जा सकता है। सामाजिक स्तरीकरण पर लिखे गए समाजशास्त्रीय साहित्य में भी हमें इसी तरह दो समानांतार धाराएं देखने को मिलती हैं। इसमें एक धारा है संरचनात्मक प्रकार्यवाद, जो रूढ़िवादी मत की प्रतिनिधि है। दूसरी धारा द्वंद्वात्मक या मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य है जो आमूल परिवर्तनवादीधारा का प्रतिनिधित्व करती है। अब हम यहां यह जानेंगे कि इन दो विरोधी सिद्धांतों का तीनों समाजशास्त्रियों ने किस तरह संश्लेषण करने का प्रयत्न किया है।

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