दर्शन की परिभाषा क्या है ? Philosophy definition in hindi दर्शन किसे कहते हैं आधुनिक जीवन में दर्शन की उपयोगिता
आधुनिक जीवन में दर्शन की उपयोगिता दर्शन की परिभाषा क्या है ? Philosophy definition in hindi दर्शन किसे कहते हैं ?
भारत तथा विश्व के नैतिक विचारों
तथा दार्शनिकों का योगदान
दर्शन (Philosophy)
दर्शन मनुष्य का बौद्धिक प्रयास है जो तर्क संगत और निष्पक्ष तरीके से किया जाता है। यह जीवन की कला है। इसके द्वारा जीवन के अर्थ और आधारभूत मूल्यों व मान्यताओं को समझने का प्रयास किया जाता है। दर्शन परम सत्य की खोज अथवा अनुसंधान करता है। यह हमारे सभी प्रकार के अनुभवों से संबंधित मूल तत्वों अथवा आधारभूत मान्यताओं की तर्कसंगत एवं निष्पक्ष परीक्षा करता है और उसके संबंध में केवल तर्क के आधार पर अपना मत निश्चित करता है। इसमें चिंतन, तर्क और विश्लेषण का सर्वप्रमुख स्थान होता है। यह जीवन और जगत (ब्रह्माण्ड) के वास्तविक स्वरूप को समझने का प्रयास करता है। दर्शन ने मुख्यतः मनुष्य के इसी उद्देश्य की पूर्ति में सहायता की है। दर्शन शब्द की व्युत्पत्ति यूनानी भाषा के ‘फिलॉसफीस‘ तथा ‘सोकिया‘ इन दो शब्दों से हुई है जिनका अर्थ क्रमशः ‘प्रेम‘ और ‘ज्ञान‘ अथवा विद्या है। इस प्रकार शब्दार्थ की दृष्टि से ‘फिलॉसफी‘ का अर्थ है ‘विद्यानुराग‘ या ‘ज्ञान के प्रति प्रेम‘। इस अर्थ से भी यही ध्वनित होता है कि फिलॉसफी जीवन के शाश्वत मूल सत्यों के ज्ञान के प्रति अनुराग है।
भारतीय संदर्भ में ‘दर्शन‘ संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है ‘देखना‘ या ‘खोजना‘। इस प्रकार शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से ‘दर्शन‘ का अर्थ है ‘सत्य का अनुसंधान‘ अथवा ‘सत्य की खोज‘। जो निष्पक्ष विचार एवं तर्क के आधार पर जीवन के मूल सत्यों का अनुसंधान करता है वही दर्शन है। भारत में दर्शन की उत्पत्ति जगत और जीवन को जानने की प्रबल एवं स्वाभाविक प्रवृत्ति के फलस्वरूप हुआ है। भारतीय दर्शन के बीज हमें उपनिषदों में मिलते हैं जो हिन्दुओं का प्रसिद्ध धर्मग्रंथ है।
आधुनिक नैतिक दर्शन (Modern Moral Philosophy)
20वीं शताब्दी में नैतिक सिद्धान्त व मान्यताएं पहले से अधिक जटिल हो गयी हैं क्योंकि इसकी विषय वस्तु अब किसी कार्य या व्यवहार के औचित्य या अनौचित्य के परीक्षण तक सीमित नहीं रह गई है। अब तो नैतिक प्रतिमानों व मूल्यों के कई स्तर उभर कर आए हैं और आधुनिक नैतिक दर्शन अब इन नये प्रतिमानों की मीमांसा में अधिक रुचि लेने लगा है। डब्ल्यू.डी. रॉस के विचार में तो पारम्परिक नैतिक
सिद्धान्तों के आधार पर अब किसी कार्य या व्यवहार को सीधे तौर पर सही या गलत नहीं ठहराया जा सकता। पारम्परिक नैतिक मान्यताओं के आधार पर उपकार, ईमानदारी अथवा न्याय जैसे मूल्यों के विचार से किसी कार्य के बारे में सिर्फ यह बताया जा सकता है कि उनके सही या गलत की संभावनाएं क्या है? कुछ दार्शनिकों का तो यह मानना है कि अब नैतिक सिद्धान्तों को विभिन्न सदंर्भों में स्पष्ट रूप से परिभाषित करना भी संभव नहीं रह गया है। तात्पर्य यह है कि वर्तमान संदर्भ में ये सिद्धान्त अब बहुत स्पष्ट नहीं रह गए बल्कि इनसे दुविधा की स्थिति उत्पन्न होने लगती है। कुछ अन्य दार्शनिक तो मानकीय नीतिशास्त्र और इससे जुड़े सिद्धान्तों की अब बात ही नहीं करते बल्कि वे वर्णनात्मक तथा व्यावहारिक नीतिशास्त्र पर ही ज्यादा जोर देते हैं क्योंकि वर्तमान में अब ये ही प्रासंगिक रह गए हैं। लेकिन दार्शनिकों का एक ऐसा वर्ग भी है जो अभी भी नैतिक सिद्धान्तों की महत्ता पर जोर देते हैं और अपने पक्ष को मजबूत करने के लिए इनका तर्क यह है कि किसी व्यक्ति की नैतिक मनोवृत्ति को समझने के लिए नैतिक सिद्धान्तों व मान्यताओं को आदर्श मानकर चलने की आवश्यकता ही नहीं है।
आधुनिक नैतिक दर्शन का केन्द्रीय विषय कुछ और नहीं बल्कि ‘अधिकारों पर आधारित नीतिशास्त्र‘ बन चुका है। यह नीतिशास्त्र मुख्य रूप से मानवाधिकारों तथा मानव से जुड़े अन्य अधिकारों एवं मौलिक सिद्धान्तों की मीमांसा करता है। अधिकार पर आधारित मौलिक सिद्धान्त इस तर्क पर आधारित है कि कुछ ऐसे अधिकार व उन्मुक्तियां हैं जिन पर लोगों का दावा स्वाभाविक है, जैसे उदारवादी सिद्धान्तों के अन्तर्गत लोगों के बोलने, समुदाय बनाने तथा धर्म संबंधी स्वतंत्रता पर जोर दिया जाता है। वस्तुतः ये आधुनिक नैतिक दर्शन व सिद्धान्त मुख्य रूप से मानवाधिकारों नागरिक अधिकारों, राजनीतिक अधिकारों तथा सामाजिक तथा आर्थिक अधिकारों पर ही मुख्य रूप से बल देते हैं। इसका एक ज्वलंत उदाहरण है संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा घोषित मानवाधिकार। एक दूसरा महत्वपूर्ण उदाहरण है कल्याणकारी राज्य की अवधारणा जो इस बात पर बल देता है कि एक कल्याणकारी राज्य/राष्ट्र ही अपने नागरिकों को सुरक्षा तथा स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार तथा आवास की सुविधाएं मुहैया करा सकता है।
नैतिक चेतना का विकास: लॉरेंस कोलबर्ग
(Development of Moral Consciousness : Lawrence Kohlberg)
नैतिक चेतना का विकास वर्णनात्मक नीतिशास्त्र का एक सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन सुविख्यात मनोवैज्ञानिक लॉरेंस कोलबर्ग द्वारा किया गया था। लाॅरेंस कोलबर्ग ने 1950 के दशक में ‘नैतिक विकास‘ का अध्ययन प्रारंभ किया। इस दौरान उसने 10 से 16 वर्ष के 75 बच्चों के समक्ष काल्पनिक दुविधाजनक परिस्थितियों को प्रस्तुत किया तथा 30 वर्षों तक उनसे समय-समय पर प्रश्न पूछे गए। इन बच्चों के समक्ष रखी गई दुविधापूर्ण प्रश्नों में प्रत्येक प्रश्न अंतिम रूप से न्याय संबंधी दुविधा से ही जुड़ा था। इस तरह इन सभी बच्चों के साक्षात्कार लिए गए तथा इन्हीं साक्षात्कारों के आधार पर कोलबर्ग ने यह निष्कर्ष निकाला कि व्यक्ति नैतिक निर्णय लेते हैं और नैतिक मुद्दों पर उनके विचार करने के ढंग से ही उनकी संज्ञानात्मक क्षमता परिलक्षित होती है। पुनः नैतिक मुद्दों पर विचार करते समय वे अपने शिक्षकों, माता-पिता अथवा समकक्षी लोगों के अनुसार ही निर्णय लेते हैं- यह विचार भी बिल्कुल सही नहीं है क्योंकि उनका निर्णय कई बार उनका अपना होता है। अर्थात् वे किसी और विचारों से प्रभावित नहीं भी होते हैं।
दुविधा की स्थिति में चल रही चिन्तन प्रक्रिया और उसके बाद मिली अनुक्रियाओं के आधार पर कोलबर्ग ने नैतिक चिन्तन अथवा तर्कणा के तीन स्तरों की व्याख्या की। ये हैं-
प्रथम स्तर (औपचारिक अथवा रूढ़िगत नैतिकता)ः यह नैतिक चिन्तन अथवा तर्कणा का प्रथम और बुनियादी स्तर है। इस स्तर अथवा अवस्था में व्यक्ति पूर्ण रूप से बाह्य नियंत्रण में रहता है। अर्थात् उसकी सोच व चिन्तन प्रक्रिया पर स्वयं उसका नियंत्रण नहीं रहता। बाह्य कारक उसके कार्य-व्यवहार को पूर्ण रूप से निर्देशित करते हैं; जैसे कि एक व्यक्ति कोई कार्य करता है तो सिर्फ इसलिए कि उसे दंड से बचना है अथवा उसे कोई इनाम मिलने की आशा है। चिन्तन की यह अवस्था पूर्ण रूप से अहं केन्द्रित होती है। उदाहरणस्वरूप हम अक्सर देखते हैं कि कोई बच्चा परीक्षा में नकल सिर्फ इसलिए नहीं करता है क्योंकि उसे दंड से बचना है।
द्वितीय स्तर (आदर्श अनुपालन नैतिकता): यह नैतिक तर्कणा की दूसरी अवस्था या स्तर है जिस पर समाज का प्रभाव सबसे ज्यादा होता है। चूंकि व्यक्ति समाज का एक अंग होता है, इसलिए सामाजिक मूल्यों, मान्यताएं व विश्वासों का अनुकरण करना उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति बन जाती है। वह समाज या फिर सामाजिक प्राधिकार के अनुमोदन की इच्छा रखता है तथा उन्हीं के आदर्श के अनुपालन में विश्वास रखता है। इस प्रकार नैतिक तर्कणा के इस स्तर पर व्यक्ति का व्यवहार समाज द्वारा निर्देशित होता है। माध्यमिक स्कूल का एक बच्चा इसलिए नकल नहीं करता है क्योंकि वह जानता है कि शिक्षक व उसके मित्र आदि ऐसे कार्यों की निंदा करेंगे। यह उस बच्चे पर बाह्य प्रभाव को दर्शाता है।
तृतीय स्तर (स्वायत्त चिन्तन पर आधारित नैतिकता): यह नैतिक चिन्तन व तर्कणा का तृतीय स्तर है जिसमें व्यक्ति के नैतिक निर्णय पर किसी बाहरी कारक का प्रभाव नहीं पड़ता बल्कि व्यक्ति स्वयं अपने व्यवहार व निर्णय का नियंत्रक होता है। व्यक्ति मुद्दों की जटिलता तथा भिन्न भिन्न नैतिक प्रतिमानों के बीच के संघर्ष को समझता है। अतः अधिकार, कर्तव्य, ईमानदारी, न्याय आदि सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर वह स्वविवेक से नैतिक निर्णय लेता है। इस तरह उसके निर्णय पर किसी बाहा कारक का प्रभाव नहीं होता। एक उदाहरण द्वारा इस बात को हम इस प्रकार समझ सकते हैं कि एक युवक प्रतियोगिता परीक्षाओं में नकल इसलिए नहीं करता क्योंकि वह समझता है कि ऐसा करने से ‘प्रतियोगिता‘ शब्द का कोई मायने नहीं रह जाएगा तथा परीक्षा का उद्देश्य की अर्थहीन हो जाएगा। इस प्रकार नकल करने जैसे कार्य को गलत और अनुचित समझ कर वह इससे बचता है।
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