JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

हिंदी माध्यम नोट्स

Categories: Uncategorized

कृषक आन्दोलन : भारत में कृषक आंदोलन के कारण प्रभाव परिणाम क्या है प्रकार का जनक कौन है

peasant movement in hindi कृषक आन्दोलन : भारत में कृषक आंदोलन के कारण प्रभाव परिणाम क्या है प्रकार का जनक कौन है या पिता किसे कहा जाता है ? inmein se kaun krishak aandolan nahin hai ?

कृषक आन्दोलन
कृषक भूमि संबंधी वे वर्ग हैं जो कृषि से बतौर काश्तकार अथवा भू-स्वामी जुड़े हैं, और खेतीबाड़ी के कामों में भाग लेते हैं। वे एक पृथक्त समूह हैं। पिछड़ी और सामंती कृषि में, वे जमींदारों की जमीन को काश्तकारों के रूप में जोतते हैं। अधिक उन्नत कृषि में, जहाँ काश्तकार भूमि-सुधार लागू होने के बाद भू-स्वामी बन गए हैं, वे जमीन के मालिक हैं। वे किसान जिनके भू-संसाधन उनकी मौलिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है, और जो अपने खेतों में काम करने के अलावा दूसरों के लिए भी बतौर श्रमिक काम करते हैं, गरीब व छोटे किसान हैं। वे किसान जो वेतन के लिए काम नहीं करते, बल्कि कृषि से संबंधित पर्याप्त संसाधन रखते हैं, धनी और मध्यम किसान अथवा खेतिहर हैं। वे या तो जमीन पर काम करने के लिए मुख्यतः परिवार के श्रम पर निर्भर करते हैं अथवा इस काम में परिवार के बाहर से भाड़े के मजदूरों को भी शामिल कर सकते हैं। इस पाठांश में आप छोटे व गरीब किसानों और धनी किसानों अथवा खेतिहरों के आन्दोलनों का अध्ययन करेंगे।

 छोटे व गरीब किसानों के आन्दोलन
स्वतंत्रतापूर्व काल और स्वतंत्रोत्तर काल, दोनों में अनेक किसान आन्दोलन हुए। पूर्ववर्ती के कुछ उदाहरण हैं – 1920 में अवध आन्दोलन (यू.पी.), खेड़ा व बारदोली (गुजरात) तथा चम्पारण (बिहार) आन्दोलन और मोपला विद्रोह। स्वतंत्रोत्तर काल के मुख्य उदाहरण हैं – तेलंगाना (आन्ध्र प्रदेश), और तिभागा तथा नक्सलवादी (पश्चिम बंगाल) आन्दोलन ।

स्वतंत्रतापूर्व काल में किसान दयनीय सामाजिक व आर्थिक स्थितियों में रह रहे थे। वे एक जाति-समूह द्वारा शोषित किए जाते थे, यथा, जमींदार व उनके अभिकर्ता, साहूकार और औपनिवेशिक राज्य के अधिकारी। ये जमींदार किसानों पर लगान बढ़ाते ही रहते थे, बलात् उपहार लेते थे और उनसे बेगार वसूलते थे। यह सब चुकाने में किसानों की असमर्थता प्रायिक अकालों व सूखे से कई गुना बढ़ जाती थी जो उन्हें बुरी तरह प्रभावित करती थी। लगान चुकाने और अपने भरण-पोषण की आवश्यकताएँ पूरा करने के लिए वे साहूकारों के भारी कर्ज में डूबे रहते थे। जब ये किसान लगान, सेवाएँ अथवा बेगार नहीं चुका पाते थे, उन्हें उनकी भूमि से बेदखल कर दिया जाता था। उन्हें शारीरिक रूप से भी उत्पीड़ित किया जाता था। फसलों के वाणिज्यीकरण, और नए भू-नियमों के प्रचलितीकरण ने उनकी दशा को और अधिक बिगाड़ दिया। किसानों ने जमींदारों, साहूकारों और औपनिवेशिक राज्य के एजेण्टों के विरुद्ध क्रांति करके प्रतिक्रिया व्यक्त की। किसान आन्दोलनों में नेतृत्व या तो ग्रामीण बुद्धिजीवी-वर्ग अथवा शहरी बुद्धिजीवी-वर्ग द्वारा प्रदान किया गया। अवध किसान आन्दोलन के नेता, बाबा राम चन्द मूल रूप ग्रामीण बुद्धिजीवी थे।

ये किसान किसी न किसी संगठन द्वारा लामबन्द किए जाते थे। यदि कोई संगठन नहीं भी होता था, तो कृषकों का अनौपचारिक नेटवर्क जैसा कोई संगठन और उनका नेता ही संगठन बतौर काम करता था। यह विशेषतः स्थानीय विद्रोहों के लिए सत्य था। अनौपचारिक नेटवर्क अथवा संगठनात्मक ढाँचा लामबन्दी में, संदेशों के संचरण तथा रणनीतियों व कार्यक्रमों की योजना बनाने में काम करता था।

बीसवीं शताब्दी के आरम्भ से ही विभिन्न राजनीतिक दल किसानों को विद्रोहों में लामबंद करने लगे। अपने समर्थनाधार को बृहदाकार देने का उद्देश्य लिए कांग्रेस ने किसानों की लामबंदी बीस के दशक से शुरू की। इसने उन किसान आन्दोलनों को परवर्ती के साथ विलय हो जाने में मदद की जो स्थानीय थे और राष्ट्रीय आन्दोलन के समानान्तर चल रहे थे। 1928 का बारदोली सत्याग्रह, लगान-नहीं अभियान ऐसे ही विलय के उदाहरण थे। लेकिन कांग्रेस ने जमींदारों और किसानों के बीच विवाद को तीखा होने देने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया। यह कांग्रेस जमींदारों, किसानों व अन्य वर्गों के बीच एक घालमेल पैदा करने में अधिक रुचि लेती थी।

नागरिक अवज्ञा आन्दोलन के बाद उग्र राष्ट्रवादी और किसान आन्दोलन के अनेक नेताओं ने यह धारणा रखनी शुरू कर दी कि कांग्रेस पूँजीपतियों और जमींदारों की हमदर्द है। उनके द्वारा किसानों के हित की रक्षा करने के लिए स्वतंत्र वर्ग संगठन और नेतृत्व विकसित करने की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। इन्हीं परिस्थितियों के चलते ही 1936 में बिहार प्रदेश किसान सभा के संस्थापक, स्वामी सहजानंद सरस्वती की अध्यक्षता में लखनऊ में प्रथम अखिल भारतीय कृषक संगठन, ऑल इण्डिया किसान सभा का निर्माण हुआ। आन्ध्र में किसान आन्दोलन के अग्रणी, एन, जी. रंगा इसके प्रथम महासचिव बने । आम माँगों की एक योजना के साथ और पूरे देश में किसानों की आकांक्षाओं को व्यक्त करते एक अखिल भारतीय संगठन का जन्म बड़े ही ऐतिहासिक महत्त्व की घटना थी। शीघ्र ही अनेक जिलों में ऑल इण्डिया किसान सभा की शाखाएँ स्थापित की गईं।

1937 के आरम्भ में बहुसंख्य प्रांतों में कांग्रेसी मंत्रिमंडलों के गठन ने किसान आन्दोलनों के विकास में एक नए चरण की शुरुआत को सूचित किया। चुनावों से पूर्व कांग्रेस ने किसानों की स्थिति में क्रांतिक सुधार लाने का वायदा किया था। प्रदत्त नागरिक अधिकारों में सुस्पष्ट वृद्धि हुई, जिसने किसानों की लामबंदी हेतु बेहतर अवसर प्रदान किए। अनेक कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने ऋण राहत हेतु, मंदी के दौरान गँवाई भूमियों का प्रत्यानयन, कार्यकाल की सुरक्षार्थ आदि कृषिक विधान लागू किए। परन्तु इन उपायों ने निचले स्तर के किसानों की दशा को कतई प्रभावित नहीं किया। किसानों का यह रोष अनेक विरोध सभाओं, सम्मेलनों और प्रदर्शनों में व्यक्त हुआ। उन्होंने सरकार द्वारा उठाये गए अनेक किसान-विरोधी कदमों की आलोचना की, जैसे कृषक नेताओं की गिरफ्तारी और किसान-सभाओं पर प्रतिबंध लगाना। द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रादुर्भाव के साथ ही हुआ कांग्रेसी मंत्रिमंडलों का इस्तीफा और किसान सभा के नेताओं के विरुद्ध घारे दमन की शुरुआत । वर्ष 1939 में ऑल इण्डिया किसान सभा के राष्ट्रीय समागम की अध्यक्षता आचार्य नरेन्द्र देव ने की। अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने किसान सभा को कांग्रेस से अलग किए जाने की आवश्यकता पर बल दिया। उनके अनुसार, कांग्रेस पर दवाब बनाने के लिए एक पृथक् किसान सभा की आवश्यकता थी।

युद्ध की समाप्ति, जिसके बाद सत्ता-हस्तांतरण हेतु सौदेबाजी और स्वतंत्रता की आकांक्षा परिदृश्य पर उभरे ने किसान आन्दोलनों के इतिहास में एक नई अवस्था को इंगित किया। आसन्न स्वतंत्रता ने किसान आन्दोलनों में अपने अधिकार माँगने हेतु नई उमंग भर दी थी। इनमें से कुछ आन्दोलनों का विश्लेषण हमें भारत में किसान आन्दोलनों की प्रकृति, सामाजिक आधार, उपलब्धियाँ और मर्यादाओं की पर्याप्त व पूर्ण जानकारी उपलब्ध कराता है।

बंगाल का तिभागा आंदोलन ऐसे ही आन्दोलनों में एक था। प्रान्तीय किसान सभा, बंगाल ने इस आन्दोलन को 1946 में शुरू किया। धीरे-धीरे आमतौर पर वामपंथियों का और खासतौर पर कम्यूनिस्टों का प्रभाव किसान सभा में बढ़ा। 1947 में ऑल इण्डिया किसान सभा का नेतृत्व कम्यूनिस्टों के हाथों में चला गया। कम्यूनिस्टों ने प्रांतीय किसान सभा, बंगाल का भी नेतृत्व सँभाला। इन आन्दोलनों ने जल्द ही बर्गारदारों (बटाई-काश्तकारों) और जोतेदारों (नियोक्ताओं) के बीच एक संघर्ष का रूप ले लिया। बटाई-काश्तकार दावे के साथ यह कहने लगे कि वे अपने जोतेदारों को अब अपनी फसल का आधा हिस्सा नहीं दिया करेंगे बल्कि एक-तिहाई दिया करेंगे। उन्होंने यह भी आग्रह किया कि बँटवारे से पूर्व फसल उनके खामारों (गोदामों) में जमा की जाए न कि जोतेदारों के में। गरीब किसानों, मध्यम किसानों और कुछ जोतेदारों के बेटों ने भी आन्दोलन का नेतृत्व किया। मध्यम किसानों ने अधिकांश नेता दिए और आन्दोलन को अंत तक समर्थन दिया। उन्हें उम्मीद थी कि जमींदारवाद पर भरपूर प्रहार को पराकाष्ठा पर यही ले जाएगा। धनी किसानों ने धीरे-धीरे कदम वापस खींच लिए। 1947 में जब सरकार दमन-चक्र सख्ती से चलाने लगी तो इस आन्दोलन का पटाक्षेप हो गया।

इसी प्रकार का एक अन्य आन्दोलन था तेलंगाना आन्दोलन । यह 1946 में निजाम शासित हैदराबाद के राजसी राज्य में शुरू किया गया। यह आन्दोलन युद्धोपरांत आर्थिक संकट के परिप्रेक्ष्य में विकसित हुआ। यह आन्दोलन जागीरदारों द्वारा बलात् वसूल किए जाने वाले अत्यधिक लगान के खिलाफ एक विरोध-प्रदर्शन के रूप में शुरू हुआ। आरम्भ में नेतृत्व धनी कृषकों के हाथ में था और यह आन्दोलन निजामशाही से संबद्ध बड़े अन्यत्रवासी जमींदारों के खिलाफ दिशानिर्देशित था। लेकिन जल्द ही यह पहल शक्ति उन गरीब किसानों और कृषिक श्रमिकों के हाथों में आ गई जिन्होंने जमींदारों की जमीनों, और बंजर भूमियों को घेरना और उसे अपने बीच बाँट ना शुरू कर दिया। 1947 तक इस आन्दोलन ने उन गरीब कृषि वर्ग और कृषक श्रमिकों को लामबंद कर एक गुरिल्ला सेना गठित कर ली जिनमें अनेक लोग जनजातीय तथा अछूत थे। इस सेना ने जमींदारों से काफी बड़ी संख्या में हथियार छीन लिए और स्थानीय सरकारी अधिकारियों को भगा दिया। उन्होंने . 40,000 की जनसंख्या वाले 15,000 वर्ग मील क्षेत्र पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। इन क्षेत्रों में प्रशासन कृषक पंचायतें चलाती थीं। 1951 में स्वतंत्र भारत की सेना तेलंगाना आन्दोलन को कुचलने में सफल हो गई।

1967 में, पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले में नक्सलबाड़ी पुकारे जाने वाले एक स्थान पर एक कृषक विरोध-प्रदर्शन शुरू हुआ। स्वाधीनता और कांग्रेस शासन से दो दशकों बाद एक बड़े स्तर पर लोगों का मोहभंग हुआ, जो आठ राज्यों में कांग्रेस की चुनावी हार में व्यक्त हुआ। लेकिन कम्यनिस्टों ने केरल व पश्चिम बंगाल में अच्छा काम किया। प्रति व्यक्ति आय घटने लगी और बेरोजगारी बढ़ने लगी। 1964 में भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के विभाजन से पैदा हुए सैद्धान्तिक विवादों के चलते युवा कम्यूनिस्टों के समूह ने 1967 के चुनावों में भाग लेने की ‘माकपा‘ की नीति और बाद में अगुआ तत्त्व के रूप में कृषि-वर्ग के साथ सशस्त्र संघर्ष की आवश्यकता पर बल देने की बजाय सरकार में शामिल हो जाने के लिए उससे विरोध जताया। दार्जिलिंग जिले में ‘माकपा‘ का कृषक संगठन ऐसे ही कम्यूनिस्ट नेताओं के हाथों में था। सरकार की भूमि-सुधार नीति जमींदारों व बड़े कृषकों से जमीनें लेने और गरीब किसानों व भूमिहीन श्रमिकों के बीच तकसीम करने में कोई खास सफल नहीं रही थी। खेतिहरों के बीच असंतोष व्याप्त था। ऐसी स्थिति में कृषक संगठन के नेताओं ने कृषक समितियों की सरकार स्थापित करने, भूमि पर जोतेदारों का स्वामित्व समाप्त करने के लिए सशस्त्र संघर्ष आयोजित करने और जमीन को गरीब किसानों और भूमिहीन श्रमिकों के बीच बाँट देने का आह्वान किया। उन्होंने प्रेरणा तेलंगाना आन्दोलन से ली थी। नक्सलबाड़ी आन्दोलन मई 1967 के तीसरे सप्ताह में अपनी पराकाष्ठा पर था। एक बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। नक्सलबाड़ी को अपार लोकप्रियता हासिल हुई क्योंकि वह उस राज्य सरकार से लड़ रहा था जिसमें ‘मापका‘ एक प्रमुख बहुदलीय साझेदार था और इसलिए भी कि चीन मानता था कि नक्सलवादी सही दिशा में जा रहे हैं।

यह सिर्फ बावन दिन चला। जुलाई 1967 में, राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री, अजय मुखर्जी द्वारा भेजी गई पुलिस और परासैन्य-बल वाहिनियों ने पूरे क्षेत्र को छान मारा और विद्रोह को कुचल दिया गया। अपनी अवधि, प्रतिरोध की प्रबलता, नियंत्रित क्षेत्र अथवा दूसरे पक्ष के घायल या मृत अथवा पीड़ितों की संख्या के लिहाज से नक्सलबाड़ी एक छोटी-मोटी घटना ही थी। इन संकेतों के हिसाब से तेलंगाना एक अधिक बड़ी घटना थी। लेकिन नक्सलबाड़ी सशस्त्र किसान विद्रोह का एक प्रतीक बन गया। इसकी गूंज पूरे देश में फैल गई। इसके बाद, वे क्रांतिकारी जो उत्तरप्रदेश, बिहार, पंजाब, कश्मीर, केरल और आंध्रप्रदेश में सक्रिय हो गए, नक्सलवादियों के नाम से जाने जाने लगे। केरल, आंध्रप्रदेश और बिहार में यह एक अधिक शक्तिशाली ताकत के रूप में उभरा। नक्सलवाद के उद्गमन ने श्भाकपा-माले (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) – तीसरी कम्युनिस्ट पार्टी के गठन की ओर उन्मुख किया। इस पार्टी का मानना था कि समाजवाद की लक्ष्यप्राप्ति सशस्त्र संघर्ष, जमींदारों की जमीनों पर कब्जा करने के लिए हिंसा के यथोचित प्रयोग और इन जमीनों को गरीब किसानों के बीच तकसीम करने से ही होगी। नक्सलवादी आन्दोलन उन गरीब किसानों और भूमिहीन मजदूरों के लिए एक संदर्भ बिन्दु बन गया जिनको सरकार से वायदों के सिवा कुछ न मिला और जिनकी स्थिति में किसी सुधार से आसार नहीं दिखाई पड़ते थे और जो ग्रामीण प्रभुत्वसम्पन्न वर्गों के हाथों में रह उत्पीड़न झेल रहे थे। उन्हें इस लड़ाका फलसफे में आशा की किरण नजर आयी। यह फलसफा ग्रामीण आबादी के उस भाग को निरन्तर प्रेरणा देता रहता है जो प्राप्ति छोर पर रही थी। अनेक स्थानों पर वे रोजगार सुरक्षा, न्यूनतम मजदूरी, उपज के एक भाग पर अधिकार हेतु और अपनी स्त्रियों के यौन-उत्पीड़न के खिलाफ लड़ रहे हैं। जब वे अपने मताधिकार का प्रयोग करने जाते हैं, हिंसा की घटनाएँ होती हैं। बहुधा उन्हें अपने अधिकारों और मन-मर्यादा की रक्षार्थ हिंसा का सहारा लेना पड़ता है, जिन पर समाज में भू-स्वामित्व और प्रभुत्व रखने वाले वर्गों से खतरा बना रहता है। हिंसा में उनकी आस्था को बल इस बात से मिलता है कि वे राज्य और पुलिस को हमेशा समाज के भू-स्वामित्व वाले प्रबल वर्गों का साथ देते पाते हैं।

भूमिहीनों के बीच भूमि बाँटने के कथित उद्देश्य को लेकर चला, भूमि सीमन अधिनियम के नाम से… जाना जाने वाला भूमि-सुधारों का द्वितीय चरण 1961 से शुरू हुआ। 1967 के नक्सलबाड़ी आन्दोलन और 1970 में अनेक राज्यों में शुरू किए गए भूमि हथियाओश् आन्दोलनों के पश्चात् कठोर भूमि सीमन लागू करने की आवश्यकता महसूस की गई। 1969 के आते-पाते गृहमंत्री ने चेतावनी दी कि यदि राज्य व केन्द्र, दोनों सरकारों द्वारा कृषिक तनाव को कम करने के कदम न उठाये गए, स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाएगी। आपात्काल के दौरान भूमि-सुधार श्रीमती इंदिरा गाँधी के बीस-सूत्रीय कार्यक्रम का एक अनिवार्य भाग था। परन्तु इस सबके बावजूद 1977 तक केवल 40.4 लाख एकड़ भूमि ही फालतू घोषित की गई, इसमें से 21 लाख सरकार द्वारा अधिगृहीत कर ली गई और मात्र 12.9 लाख एकड़ ही वास्तव में वितरित की गई। हरित क्रांति जिसका काफी अभिनन्दन हुआ, ने भी उनकी दशा में कोई खास परिवर्तन नहीं किया। ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की रेखा से नीचे आने वाले परिवारों की प्रतिशतता 1960-61 में 38.11ः से 1977-78 में 48ः तक चली गई है। कृषिक श्रम अब भी उनकी आय है और अधिकांश अध्ययन दशति हैं कि वास्तविक मजदूरी और कार्यदिवसों, दोनों में उल्लेखनीय ह्रास हुआ है।

नक्सलवादी उपकरण आन्ध्रप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश और और नव-गठित झारखण्ड व छत्तीसगढ़ में भी, सक्रिय हैं। बहुधा वे बुद्धिहीन युयुत्सा में उलझ जाते हैं परन्तु वे ग्रामीण समाज के विजित लडाकओं को निरन्तर प्रेरणा देते रहते हैं क्योंकि वे अधिकतर इन्हीं वर्गों द्वारा सामना की जाने वाली समस्याओं को उठाते हैं। सरकार उनके सशस्त्र संघर्ष को कानून-और-व्यवस्था की समस्या बतौर लेती है और उनके दमन के लिए पुलिस और परासैन्य बलों को अपनाती है। सरकार ने गाँवों के गरीबों के सामने आने वाली समस्याओं पर काम करने के लिए दृढ़ निश्चय नहीं दर्शाया है। सरकार द्वारा किए गए भूमि-सुधार किसी उल्लेखनीय तरीके से गरीब किसानों और भूमिहीन श्रमिकों के बीच भूमि-वितरण में सफल नहीं हुए हैं। जिलों को केन्द्रीय सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जाने वाली निधि से ग्रामीण क्षेत्रों में गरीब किसानों, कृषिक श्रमिकों और शिल्पकारों की वित्तीय दशा को सुधारने के लिए श्रमिकों और शिल्पकारों की वित्तीय दशा को सुधारने के लिए प्रयास किए गए हैं। लेकिन इन निधियों के एक बड़े हिस्से का स्थानीय निहित स्वार्थों द्वारा एकाधिकार क्रय कर लिया जाता है।

कृषिक मजदूर, गरीब किसान, ठेका-मजदूर चाहे दलित हों, जनजातीय अथवा जातीय हिन्दू, अपने अधिकारों का दावा करने को संघर्ष करते रहे हैं। वे वेतन, जमीन, और विभिन्न प्रकार के दमन के विरुद्ध संघर्ष करते हैं। उनके आन्दोलन कमजोर और विभाजित हैं। परन्तु इनमें निश्चित रूप से एक प्रबल शक्ति के रूप में उभरने की आंतरिक शक्ति है और उससे वे न्याय पा सकते हैं।

 धनी किसानों व खेतीहरों के आन्दोलन
बीसवीं शताब्दी के अन्तिम चतुर्थांश में ग्रामीण इलाकों में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण सामाजिक समूह के आन्दोलन देखे गए जो भारत के अनेक क्षेत्रों में धनी किसान, खेतिहर, कुलक अथवा पूँजीवादी खेतिहर आदि के रूप में प्रसिद्ध थे। वे अपने-अपने क्षेत्रों में किसान संगठनों के पीछे एकजुट हुए। ये संगठन हैं — पंजाब व उत्तर प्रदेश की दो भारतीय किसान यूनियनें (भा.कि.यू.), महाराष्ट्र का शेतकारी संगठन, गुजरात का खाद्युत समाज, कर्नाटक का कर्नाटक राज्य रैथ संघ और तमिलनाडु का विवसायीगल संगम । इन संघों के सर्वाधिक प्रमुख नेता हैं — पंजाब में भूपेन्दर सिंह मान, उत्तर प्रदेश में महेन्द्र सिंह टिकैत, महाराष्ट्र में शरद जोशी और कर्नाटक में नन्दुन्जप्पा स्वामी। ये किसान अपने-अपने क्षेत्रों में ग्रामीण समाज के सर्वाधिक प्रभावशाली और संसाधनसम्पन्न वर्ग हैं। वे अधिकतर मध्यवर्ती जातियों से ताल्लुक रखते हैं। वे सबसे ज्यादा राज्य की नीतियों से लाभान्वित हए हैं, खासकर भूमि-सुधार और हरित क्रांति से। वे भाड़े के मजदूरों की मदद से परिवार के श्रमदान से भूमि जोतते हैं। वे ग्रामीण समाज में अधिकांश संसाधनों पर नियंत्रण रखते हैं, यथा भूमि, जल-संसाधन, पशुधन, ट्रैक्टर जैसी आधुनिक प्रौद्योगिकी आदि।

गरीब किसानों के आन्दोलनों से भिन्न धनी किसानों के आन्दोलन किन्हीं ग्रामीण शोषकों के खिलाफ दिशानिर्देशित नहीं हैं। वास्तव में, उनमें से एक बड़ा समूह परवर्ती से ही संबंध रखता है। ये राज्य और व्यापार की असमान शर्तों के विरुद्ध दिशानिर्देशित हैं।

उनकी मुख्य माँगें रही हैं – लाभपरक मूल्य घ, मूल्यपूरित निवेश, ऋणों की माफी, बिजली का बिल घटाना, नहर-शुल्क में वास्तविक कमी, कृषि मूल्य आयोग में किसानों का प्रतिनिधित्व । महाराष्ट्र के अपवाद के साथ, उन आन्दोलनों ने छोटे उत्पादकों की समस्याएँ नहीं उठाईं। बल्कि, टिकैत ने भमि अधिसीमन कानून और न्यूनतम वेतन अधिनियम को निरस्त किए जाने की माँग उठाई है।

कषकों अथवा धनी किसानों के आन्दोलनों में लामबन्दी के सबसे आम तरीकों में शामिल हैं – रैली, सत्याग्रह, रास्ता रोको, गाँव बन्दी (गाँवों में बाहरी व्यक्तियों के प्रवेश पर प्रतिबन्ध) और सार्वजनिक सम्पत्ति पर हमला। कभी-कभी ये हिंसा में परिणत होते हैं। उनका ‘‘अराजनीतिक‘‘ स्वभाव, जिसका अर्थ है उनकी राजनीतिक दलों से असम्बद्धता, लामबंदी का सर्वाधिक प्रभावशाली तरीका रहा है, खासकर आन्दोलनों के आरम्भिक चरण में।

जबकि भारत में किसान आन्दोलनों के बीच अनेक सामान्य लक्षण थे, यथा, उन्होंने बाजारोन्मुखी माँगें उठायीं, उनकी ‘‘अराजनीतिक‘‘ प्रकृति, राज्य के विरुद्ध उनकी दिशा, लामबन्दी का प्रतिमान, उत्तर प्रदेश का भा.कि.यू. आन्दोलन नेतृत्व और पारम्परिक प्रथा की अन्तर्भाविता के लिहाज से भिन्न था। उत्तर प्रदेश भा.कि.यू. प्रमुख, महेन्द्र सिंह टिकैत खेतिहर जाटों के ‘सर्व खप‘ के रूप में प्रसिद्ध पारम्परिक जाति संगठन के वंशागत मुखिया भी हैं। उनकी सामाजिक स्थिति ने उस समय भा.कि.यू. का नेता बनने के लिए उन्हें समर्थ बनाया जब 1987 में चरण सिंह की मृत्यु के उपरांत उत्तर प्रदेश के किसानों के पास उस कद का कोई नेता न था। टिकैत अनेक खेतिहर जातियों के पारम्परिक नेतृत्वों अथवा खप-प्रमुखों को भा.कि.यू. के झण्डे तले लाने में सक्षम थे। इसके अलावा, भा.कि.यू. ने अपने आन्दोलन के आरंभिक चरण में दहेज जैसे सामाजिक मुद्दे भी उठाए।

महेन्द्र सिंह टिकैत की ‘भारतीय किसान यूनियन‘ उस भाषा का इस्तेमाल करती है जो कृषि पर चरणसिंह के कथनांशों का आह्वान करती है। चरण सिंह तर्क दिया करते थे कि भारतीय योजना में एक शहरी पूर्वाग्रह है और वे इसे ही कृषि से संसाधनों के विपथन हेतु उत्तरदायी मानते थे। यह, बहरहाल, शरद जोशी के शेतकारी संगठन से भिन्न, औद्योगिक और शहरी भारत को ग्रामीण भारत के विरुद्ध समझने की हद तक नहीं जाता । धनी किसान संगठन धनी किसानों और गरीब कृषि वर्गों के हितों के बीच कोई विरोध नहीं मानते हैं। उनका तर्क है कि अलाभकारी मूल्य धनी व गरीब, दोनों ही को प्रभावित करते हैं। जबकि शेतकारी संगठन कृषि में वर्ग-विभाजन को छुपाने के लिए ‘इण्डिया‘ और ‘भारत‘ विभाजन का दिखावा करता है, भा.कि.यू. इसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में विद्यमान भाईचारा (भ्रातृत्व) और कृषक-स्वामित्व के आवरण में छुपाती है।

धनी किसानों का आन्दोलन आज की भारतीय वास्तविकता का एक महत्त्वपूर्ण तथ्य बन चुका है। कोई भी राजनीतिक दल उन्हें नाराज कर खामियाजा नहीं भुगतना चाहता। किसानों के लिए बिजली की दरें बढ़ाने, उर्वरकों के दाम बढ़ाने आदि पर सरकार के निर्णय पर कड़ा विरोध होता है। कई बार अपनी माँगें मनवाने के लिए वे प्याज, चीनी अथवा दूध जैसी रोजमर्रा की वस्तुओं की आपूर्ति रोक देने का रास्ता अख्तियार कर लेते हैं। एक बात जाहिर है कि इस वर्ग की शक्ति में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। वे न सिर्फ श्रमिक बल का शोषण करते और अधिकांश भूमि पर नियंत्रण रखते हैं, वे अधिक से अधिक लाभ कमाने के लिए और ग्रामीण क्षेत्र में अपनी प्रभुत्वशाली स्थिति बनाये रखने के लिए भी, ग्राम पंचायत, जिला परिषद् सहकारियों और शैक्षणिक संस्थानों व बैंकों जैसी उत्तोलक शक्तियों पर भी नियंत्रण रखते हैं।

धनी किसान आय के अपने साधनों में विविधता ला रहे हैं। उनकी कुछ आमदनी कृषि-क्षेत्र के बाहर से भी होती है, जैसे शहरों में रोजगार, किराया व्यापार, साहूकारी अथवा यातायात से। वे चीनी और चावल मिलों, साथ ही खाद्य प्रसंस्करण जैसे छोटे उद्योगों में भी निवेश करते हैं।

 श्रमिक व कृषक आन्दोलनों पर उदारीकरण का प्रभाव
देश में आर्थिक सुधार जिन्हें उदारीकरण के रूप में जाना गया, को मुख्यतः ‘1990 घटनाक्रम‘ कहा जा सकता है। इन सुधारों का दौर पी.वी. नरसिंहा राव की सरकार के साथ शुरू हुआ। तब से आनुक्रमिक सरकारें उदारीकरण कार्यसूची के साथ ही चल रही हैं। अटल बिहारी वाजपेयी की वर्तमान सरकार भी इसी कार्यसूची के प्रति वचनबद्ध है। इस नई आर्थिक नीति के मुख्य मोरचों में हैं – रुग्ण व घाटे में चल रहे सार्वजनिक उद्यमों को बंद करना, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों से विनिवेश और उनका निजीकरण अस्सी के दशक के मुकाबले नब्बे के दशक में संगठित क्षेत्र में कुल रोजगार की वृद्धि दर में एक उल्लेखनीय ह्रास हुआ है। वास्तव में, इस अवधि को ‘रोजगार-रहित वृद्धि का काल‘ कहा जाता है। रोजगार सुरक्षा से संबंधित श्रम-कानून बदले जा रहे हैं । ‘स्वैच्छिक सेवा-निवृत्ति योजना‘ के तहत अनेक कर्मचारी नौकरियों से हटाये जा चुके हैं। नियमित कर्मचारियों के स्थान पर ठेके पर और नैमित्तिक श्रमिकों को लगाने की प्रथा व्यापक हो चुकी है। राज्य बिजली बोर्डी, आई.टी.डी.सी. होटलों, बैंकों, आदि में कर्मचारियों के हितों के रक्षार्थ श्रमिक संघों ने हड़तालें की हैं। रोजगार रहित कर दिए गए श्रमिक बल को एक सामाजिक सुरक्षा जाल प्रदान करने के लिए 1992 के आते-आते एक ‘राष्ट्रीय पुनर्नवीकरण कोष‘ बना दिया गया।

1994 में, भारत सरकार ने मैराकस (मोरक्को) में शुल्क-व्यापार आम सहमति (‘गैट‘) के उरुग्वे दौर पर हस्ताक्षर किए और वह विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू.टी.ओ.) का सदस्य बन गया। सरकार का यह कदम नई आर्थिक नीति के हिस्से के रूप में देखा जा सकता है। ‘गैट‘ की पूर्व-शर्तों के अनुसार, भारत समेत विकासशील देश अर्थसाहाय्य-अनुशासन लागू करने को बाध्य हैं। उनको कहा जा रहा है कि वे किसानों को दी जाने वाली आर्थिक सहायता उनके उत्पादन-मूल्य के 10ः तक ही रखें। लेकिन परिदानों पर कटौती एक मुश्किल प्रस्ताव है क्योंकि कोई भी सरकार धनी किसानों को नाराज नहीं करना चाहती। सिंचाई जल और बिजली जैसी चीजें मुफ्त अथवा नाममात्र मूल्यों पर मिलना जारी है। किसानों के सामने आने वाली एक अन्य गैर-संबंधित समस्या है – कृषि में एकस्वीकरण (पैटण्ट) का प्रवेश । किसान को स्वतः ही अगली फसल बोने के लिए संरक्षित किस्मों के खेत-संचित बीजों को प्रयोग करने की अनुमति नहीं है। उसको अपने संचित बीजों के प्रयोग हेतु हर्जाना देना पड़ेगा अथवा उसके प्रजनक की स्वीकृति लेनी होगी। चूँकि अधिकांश पादप प्रजनक बहु-राष्ट्रीय कम्पनियाँ (एम.एन.सी.) हैं, उनका मूल्य उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना ही है। बीजों को पुनः खरीदने के सिवा किसानों के कोई चारा नहीं रहता। कर्नाटक में किसानों ने अपने गुस्से को व्यक्त करने के लिए कारगिल सीड्स के फार्म पर हमला किया। महाराष्ट्र और गुजरात में कपास के टर्मिनेटर सीड्स के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन हुए। नई आर्थिक नीति जैसे नए घटनाक्रमों के प्रति धनी किसानों के आन्दोलनों के प्रतिक्रियास्वरूप विश्व व्यापार संगठन में शामिल भारत भी कोई अभिन्न नहीं रहा है। जबकि देश के पश्चिमी भाग में शरद जोशी ने नए घटनाक्रमों का समर्थन किया है, उत्तर में महेन्द्र सिंह टिकैत और दक्षिण में नंजन्दास्वामी इसके आलोचक रहे हैं।

Sbistudy

Recent Posts

सती रासो किसकी रचना है , sati raso ke rachnakar kaun hai in hindi , सती रासो के लेखक कौन है

सती रासो के लेखक कौन है सती रासो किसकी रचना है , sati raso ke…

11 hours ago

मारवाड़ रा परगना री विगत किसकी रचना है , marwar ra pargana ri vigat ke lekhak kaun the

marwar ra pargana ri vigat ke lekhak kaun the मारवाड़ रा परगना री विगत किसकी…

11 hours ago

राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्रोतों की विवेचना कीजिए sources of rajasthan history in hindi

sources of rajasthan history in hindi राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्रोतों की विवेचना कीजिए…

2 days ago

गुर्जरात्रा प्रदेश राजस्थान कौनसा है , किसे कहते है ? gurjaratra pradesh in rajasthan in hindi

gurjaratra pradesh in rajasthan in hindi गुर्जरात्रा प्रदेश राजस्थान कौनसा है , किसे कहते है…

2 days ago

Weston Standard Cell in hindi वेस्टन मानक सेल क्या है इससे सेल विभव (वि.वा.बल) का मापन

वेस्टन मानक सेल क्या है इससे सेल विभव (वि.वा.बल) का मापन Weston Standard Cell in…

3 months ago

polity notes pdf in hindi for upsc prelims and mains exam , SSC , RAS political science hindi medium handwritten

get all types and chapters polity notes pdf in hindi for upsc , SSC ,…

3 months ago
All Rights ReservedView Non-AMP Version
X

Headline

You can control the ways in which we improve and personalize your experience. Please choose whether you wish to allow the following:

Privacy Settings
JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now