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शांति की अवधारणा क्या है | शांति आंदोलन किसे कहते है , इतिहास | शांति संधियाँ peace meaning and peace movements

peace meaning and peace movements in hindi peace agreements शांति की अवधारणा क्या है | शांति आंदोलन किसे कहते है , इतिहास | शांति संधियाँ कौन कौनसी है ?

शांति की अवधारणा
शांति मानव जाति की शाश्वत अभिलाषा है। इसे जीवन के श्रेष्ठतम मूल्यों की सूची में रखा जाता है। ‘‘हर कीमत पर शांति‘‘, “सबसे बेकार किस्म की शांति भी सबसे न्यायपूर्ण युद्ध से अच्छी होती है‘‘, ‘‘युद्ध कभी अच्छा नहीं होता न शांति कभी बुरी‘‘। उपर्युक्त उद्धरणों से शांति का महत्व रेखांकित होता है। शांति की नई परिभाषा है युद्ध और तनाव की अनुपस्थिति। शांति दो या अधिक देशों के बीच सौहार्द, सामंजस्य और समझौते के रूप में भी परिभाषित की जाती है। शत्रुता, हिंसा या युद्ध का विलोम है, शांति । शांति युद्ध से मुक्ति की अवस्था है।

मनुष्य के शाश्वत स्वप्न, शांति की स्थापना के लिए बहुत से प्रस्ताव पारित हुए हैं, और योजनाएँ बनी हैं। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए राज्यों के संघ बनाने, लोगों और देशों के बीच संधियों, वैधानिक प्रणालियों में सुधार करने जैसे उपायों पर बहस चलती रही है।

इस संदर्भ में परिवर्तन से शांति की अवधारणा भी बदल जाती है। मध्यकालीन यूरोप में शांति का मतलब था “काफिरों‘‘ के विरुद्ध ईशाइयत वाले राज्यों की एकता स्थापित करना। यह शांति की सांप्रदायिक अवधारणा थी। इस काल में भी कुछ विद्वान ऐसे थे जो वस्तुगत शांति की अवधारणा को ज्यादा वस्तुगत बनाने पर जोर दे रहे थे और इस तरह से यह सार्वभौमिक होती गयी। इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के दौर में शांति की माँग बढी, क्योंकि इसे पूँजीवादी विकास में सहायक माना जाता था। फ्रांसीसी क्रांति के दिनों में क्रांतिकारियों ने शांति की एक नई अवधारणा प्रस्तुत की। इस नई अवधारणा के अनुसार, विवेक, तर्क और मूलभूत मानवधिकार शांति के घटक हैं। राष्ट्र राज्यों के संघ या अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में मध्यस्थता की व्यवस्था जैसे मुद्दों पर बहस में तेजी आई। देशभक्ति के नाम पर युद्धों के लिए लोगों को लामबंद किया जाता रहा है लेकिन लोग शांति की आवश्यकता के प्रति ज्यादा जागरूक होने लगे हैं। शांति जन सामान्य का सरोकार बन गई।

19वीं शताब्दी में शांति संगठनों एवं आंदोलनों की उपस्थिति तीव्रता से महसूस की जाने लगी। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार शांति संगठनों का गठन हुआ और सम्मेलन आयोजित किए गए। 19वीं शताब्दी में ही मार्क्सवाद और मार्क्सवादी आंदोलनों के चलते शांति आंदोलन को एक नया आयाम मिला। शांति की इस नई अवधारणा के अनुसार शांति की स्थापना सामाजिक परिवर्तन के जरिए ही की जा सकती है। वर्गविहीन समाज में ही शांति की स्थापना संभव है। शांति की अब दो परस्पर विरोधी अवधारणाएँ हैंः पूँजीवादी और मार्क्सवादी।

बोध प्रश्न 4
टिप्पणी: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से अपने उत्तर की तुलना कीजिए।
1) लोग शांति की कामना क्यों करते हैं ?

बोध प्रश्न 4 उत्तर
1) शांति में मानव विकास संभव होता है। अशांति में विकास रुक जाता है और जान माल की हानि होती है।

शांति आंदोलन
सेंट साइमन की पुस्तक ‘‘रिआर्गनाइजेशन ऑफ यूरोपियन सोसाइटी‘‘ (यूरोपीय समाज का पुनर्गठन) के प्रकाशन के साथ-साथ शांति संगठनों का गठन शुरू हो गया। पहले शांति संगठन की स्थापना अमरीका में हुई। शुरूआती दौर के शांति संगठनों के बहस के मुद्दे थे रू उचित और अनुचित युद्ध, हिंसा की आवश्यकता और उपनिवेशवाद आदि। धीरे-धीरे दासता, नारी मुक्ति, सार्वजनिक शिक्षा एवं मानवाधिकार जैसे सामाजिक मुद्दे शांति संगठनों की बहस का विषय बनते गए। धीरे-धीरे राष्ट्रीय शांति संगठनों को एक अंतर्राष्ट्रीय शांति संगठन की आवश्यकता महसूस होने लगी। 19वीं शताब्दी के मध्य के आसपास अंतर्राष्ट्रीय शांति सम्मेलनों में राष्ट्रों के एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन के गठन और झगड़ों के निपटारे के लिए अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय की स्थापना पर बहसें होती रहीं थी। इन सम्मेंलनों में औपनिवेशिक लोगों की आजादी पर भी चर्चाएं हुई। व्यक्तिवादियों ने इस बात की हिमायत शुरू की कि राज्यों के बीच मुक्त व्यापार के सिद्धांत के आधार पर शांति की स्थापना की जा सकती है। इन संगठनों पर ज्यादातर जनतांत्रिक उदारवादियों का वर्चस्व था जिन्होंने बहुत से क्रांतिकारी फैसले लिए किंतु उन्हें लागू करने में असफल रहे।

1870 में मार्क्सवाद के अनुयायियों ने “फस्ट इंटरनेशनल‘‘ इंटरनेशनल वर्किंग मेन्स एसोसिएशन (कामगारों की अंतर्राष्ट्रीय परिषद की स्थापना की। फर्स्ट इंटरनेशनल की मान्यता में मजदूर वर्ग के आंदोलन का उद्देश्य नीहित है, सामाजिक परिवर्तन जो कि विश्व शांति स्थापना की अनिवार्य शर्त है। फर्स्ट इंटरनेशनल ने एक ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित किया, जिसके अनुसार:

‘‘युद्ध का भार मुख्य रूप से मजदूर वर्ग पर पड़ता है। युद्ध मजदूरों को उनकी आजीविका के साधन से ही नहीं बेदखल करता बल्कि एक दूसरे का खून बहाने को भी बाध्य करता है। सशस्त्र क्रांति से उत्पादन शक्तियाँ कमजोर होती है। यह मजदूरों से शांति के लिए व्यर्थ श्रम की माँग करती है जो कि आम जन की भलाई की आवश्यक शर्त है। इसे नई व्यवस्था में नए तरीके से संपादित करना होगा। एक ऐसी व्यवस्था में जिसमें एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के शोषण का । सिलसिला समाप्त हो जाए। मार्क्सवादी शांति आंदोलनों ने शांति आंदोलन में एक नया आयाम और जोड़ा और आंदोलन के नेतृत्व से आदर्शवादियों को हटाकर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया।‘‘

20वीं शताब्दी की शुरूआत के साथ अंतर्राष्ट्रीय मंच पर शांति संगठनों की भरमार हो गई। लेकिन ये संगठन 1914 में प्रथम विश्व युद्ध को रोकने में असफल रहे। युद्ध के दौरान इनमें से कई संगठनों ने अपना आदर्शवादी सार्वभौमिक सिद्धांत छोड़ कर राष्ट्रीय युद्ध के पक्ष में जुट गए। युद्ध के बाद शांति, लेनिन के शांति के सूत्र और राष्ट्रपति विल्सन के 14 सूत्र आदि प्रस्ताव दुनिया के समाने पेश किए गए। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध को नहीं रोका जा सका । यह युद्ध अत्यंत भयावह था। इस युद्ध में पहली बार परमाणु बम जैसे भयंकर प्रलयंकारी हथियारों का उपयोग हुआ। इस युद्ध का दुनिया पर भयंकर प्रभाव पड़ा। युद्ध की समाप्ति के साथ एक नए युग की शुरूआत हुई – परमाणु युग की। नए युग ने नई आशंकाओं को जन्म दिया। यदि परमाणु युद्ध छिड़ा तो मानव सभ्यता का विनाश अवश्यंभावी है, ऐसा डर लोगों के मन में बैठ गया है। परमाणु युद्ध की आशंका के भय ने शांति की नई अवधारणाओं को जन्म दिया और शांति आंदोलन में नई बहसें चल पड़ी। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद तो शांति आंदोलन ने विश्व शांति संगठन (वर्ल्ड पीस कौंसिल) के तत्वाधान में एक जनांदोलन का रूप ले लिया। दुनिया के तमाम देशों में संगठन ने अपना सांगठनिक जाल फैलाया। ये संगठन विश्व शांति के आदर्शों का प्रचार करते थे। इस आंदोलन में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के लेखक, दार्शनिक और कलाकार शरीक हुए। दार्शनिक लेखक बट्रांड रसेल भी आंदोलन के सदस्य थे। लेकिन अमरीका ने इन शांति आंदोलनों को सोवियत संघ और साम्यवाद की चाल बताकर इनकी भर्त्सना करना शुरू कर दिया। अमरीकी विरोध के बावजूद आंदोलन दुनिया के तमाम हिस्सों में फैल गया । आज दुनिया में तमाम शांति संगठन हैं। ये शा संगठन विश्व शांति की हिमायत करते हैं और शांति के मुद्दों और इससे जुड़े विषयों पर शोध को प्रोत्साहित करते हैं। बहुत से संगठन शांति संगठनों के परामर्शदाता की हैसियत से सक्रिय हैं।

बोध प्रश्न 5
टिप्पणी: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से अपने उत्तर की तुलना कीजिए।
1) शांति की मार्क्सवादी अवधारणा की व्याख्या कीजिए।

बोध प्रश्न 5 उत्तर
1) वर्ग विहीन समाज में ही शांति की स्थापना संभव है।

भारत, शांति आंदोलन और निरस्त्रीकरण
भारत एक शांतिप्रिय देश है। इसने शताब्दियों पुराने औपनिवेशिक शासन से मुक्ति। शांतिपूर्ण-अहिंसक तरीकों से प्राप्त की। भारत में शांति और युद्ध के प्रति वितृष्णा की एक लंबी परंपरा रही है। प्राचीन काल में सम्राट अशोक ने शस्त्रों एवं युद्ध के सिद्धांत का त्याग किया था। यह निरस्त्रीकरण का एक प्राचीनतम उदाहरण है। भारत में ब्रिटिश के आगमन के पहले यहाँ के राजे-रजवाड़े आपसी युद्धों में फंसे रहते थे। लेकिन इन युद्धों का जनसाधारण के जीवन और संपत्ति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। शांति की परंपराओं का पालन करते हए आजादी के बाद भारत ने शांति को एक प्रमुख राजनीतिक नीति के रूप में स्वीकार किया। 1954 में भारत ने परमाणु परीक्षणों पर प्रतिबंध लगाने की मुहिम की पहल की। भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र संघ में परमाणु परीक्षणों के मामले में यथास्थिति बनाए रखने का प्रस्ताव किया। वे जानते थे, कि परमाणु हथियारों को पूरी तरह नष्ट करना संभव नहीं था इसलिए वे परमाणु परीक्षणों पर आगे प्रतिबंध लगाना चाहते थे जिससे परमाणु अस्त्रों की होड़ रोकी जा सके। दुनिया के तमाम देशों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया किंतु महाशक्तियों ने इस पर कोई ध्यान नहीं। दिया। इस प्रस्ताव ने निरस्त्रीकरण की चर्चा को आगे बढ़ाया और संयुक्त राष्ट्र संघ में कई देश शांति और निरस्त्रीकरण की मुखर रूप में हिमायत करने लगे। परिणामस्वरूप 1960 के दशक की शुरूआत से शांति और निरस्त्रीकरण की दिशा में नए प्रयास शुरू हो गए।

भारत और परमाणु अप्रसार संधि (एन पी टी)
परमाणु अप्रसार संधि (एन पी टी) 1967 में संपन्न हुई और 1960 तक इसे देशों द्वारा हस्ताक्षर के लिए खुला रखा गया तथा 1970 में 25 सालों के लिए इसे लागू किया गया। 17 अप्रैल से 12 मई, 1995 तक न्यूयार्क में इसकी समीक्षा के लिए एक सम्मेलन हुआ जिसमें एन पी टी की अवधि बिना किसी शर्त के अनिश्चित काल तक के लिए बढ़ा दी गई। 1995 के सम्मेलन में इसके प्रावधानों में कोई सुधार या परिवर्तन नहीं किया गया। सम्मेलन में कोई समीक्षा दस्तावेज भी जारी नहीं किया। 178 देशों ने इस पर हस्ताक्षर किये लेकिन भारत समेत 13 देशों ने इस पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया।

एन पी टी परमाणु प्रसार रोकने का एक उत्तम एवं विश्व कल्याणकारी प्रयास लगाता है। लेकिन संधि की शर्तों पर ध्यान देने से स्पष्ट हो जाता है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँचों स्थाई सदस्य (अमरीका, फ्रांस, इंग्लैंड, सोवियत संघ और चीन) जिन्हें वीटो का अधिकार प्राप्त है, परमाणु तकनीक पर एकाधिकार स्थापित करके विश्व पर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते हैं। एन पी टी के प्रावधानों के अनुसार, परमाणु शक्ति रहित देश और ऐसे देश जो परमाणु शक्ति हासिल करने के कगार पर हैं, परमाणु अस्त्रों पर शोध और उनका निर्माण बंद कर दें। चूंकि संधि भेदभावपूर्ण है, इसलिए भारत ने अपनी आपत्ति जताते हुए इस पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया। भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि वह इस संधि के मौजूदा स्वरूप पर हस्ताक्षर नहीं करेगा। भारत के अनुसार, संधि के मौजूदा स्वरूप में इसे अनिश्चित काल के लिए स्वीकार करने से भेदभाव वाले पहल क बल मिलेगा और परमाणु शक्ति वाले देशों और इससे वंचित देशों के बीच की विभाजक रेखा और गहरी होती जाएगी। भारत चाहता है कि संधि के प्रावधान सभी राष्ट्रों पर समान रूप से लागू हों।

भारत और समग्र परीक्षण प्रतिबंध संधि (सी टी बी टी)
एन पी टी में ही समग्र परीक्षण प्रतिबंध संधि (सी टी बी टी) का उल्लेख था। इस संधि का उद्देश्य सामान्य और पूर्ण परमाणु निरस्त्रीकरण है। लेकिन अपने मौजूदा स्वरूप में सी टी बी टी विश्व को परमाणु अस्त्रों से मुक्त करने में अक्षम है। इससे न तो परमाणु अस्त्रों की संख्या घटेगी न ही परमाणु हथियारों वाले देशों की मौजूदा आक्रमण क्षमता। एन पी टी की भांति सी टी बी टी भी भेदभावपूर्ण है। इसमें भी परमाणु शक्तियों के लिए अलग तरह के प्रावधान हैं और बाकी देशों के लिए अलग। भारत ने इसके भेदभावपूर्ण चरित्र के कारण इस संधि पर भी हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया। सी टी बी टी के बाद अब जनवरी, 1997 से एक अन्य संधि विस्फोट पदार्थ उत्पादन विच्छेद संधि (एफ एम सी टी) फिसाइल मैटेरियल प्रोडक्शन कट ऑफ ट्रीटी की वार्ता शुरू हो गई है। प्रस्तावित संधि का उददेश्य विस्फोटक पदार्थो की सीमा रेखा तय करना है। भारत ने इस संधि की वार्ता में शामिल होने से इंकार कर दिया है।

दरअसल, उपर्युक्त तीनों संधियों का प्रारूप इस तरह से तैयार किया गया है कि जिससे परमाणु तकनीकों पर परमाणु शक्तियों का एकाधिकार बना रहे और विश्व पर उनका वर्चस्व कायम हो सके। इन संधियों से परमाणु शक्तियों का एकाधिकार बना रहे और विश्व पर उनका वर्चस्व कायम हो सके। इन संधियों से परमाणु शक्तियों द्वारा अपने हथियारों को ज्यादा परिष्कृत करने और परमाणु तकनीक में सुधार करने पर कोई रोक नहीं लग पाएगी। परमाणु शक्ति से संपन्न देश ऐसी स्थिति में पहुंच गए हैं कि कंप्यूटर और बंद जगहों पर परीक्षण की मदद से अपनी परमाणु तकनीक में सुधार का कार्यक्रम जारी रख सकते हैं। इन संधियों में इन उपायों पर कोई प्रतिबंध नहीं है।

इन संधियों में परमाणु शक्तियों द्वारा एक निश्चित अवधि में मौजूदा परमाणु अस्त्रों को नष्ट करने का भी कोई प्रावधान नहीं है और न ही परमाणु शक्तियां इसके लिए तैयार होंगी।

इस प्रकार हम देखते हैं कि ये संधियाँ विश्व को हथियारों की होड़ से मुक्त रखने में सक्षम हैं और न ही ये सामान्य और पूर्ण निरस्त्रीकरण की दिशा में सहायक हैं।

बोध प्रश्न 6
टिप्पणी: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से अपने उत्तर की तुलना कीजिए।
1) भारत ने एन पी टी, सी टी बी टी और एफ एम सी टी पर हस्ताक्षर करने से क्यों इंकार किया।

बोध प्रश्नों के उत्तर
बोध प्रश्न 6
1) क्योंकि ये संधियां भेदभावपूर्ण है। यह दुनिया को परमाणु शक्ति संपन्न होने और इससे वंचित देशों के दो खेमों में बांटती है।

सारांश
यद्यपि हथियारों की होड़ ही वास्तव में तनाव और युद्ध के कारण हैं। लेकिन कोई भी देश हथियारों पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाने को राजी नहीं है। हथियारों का भंडार बढ़ाना राज्यों की राजनीतिक और आर्थिक मजबूरी है। परिणामस्वरूप निरस्त्रीकरण प्रस्ताव प्रभावहीन साबित हो रहे हैं।

दोनों विश्व युद्धों के बीच और शीतयुद्ध के दौरान शांति स्थापना के लिए निरस्त्रीकरण के प्रयास हथियारों की होड़ या ज्यादा परिष्कृत और घातक हथियारों के उत्पादन को रोकने में असफल रहे हैं । निरस्त्रीकरण अभियान की पहल करने वाला देश होने के बावजूद एन पी टी, सी टी बी टी आदि संधियों पर इनके भेदभावपूर्ण चरित्र के चलते भारत ने इन पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं।

 शब्दावली
प्रक्षेपास्त्र निरस्त्रीकरण प्रणाली ः एंटी बैलेस्टिक मिसाइल सिस्टम प्रक्षेपास्त्र ऐसा परमाणु हथियार है, जिसे स्वतः या दूर नियंत्रण (रिमोट कंट्रोल) से परिचालित किया जा सकता है।
प्रक्षेपास्त्र ः बैलेस्टिक मिसाइल: एक ऐसा प्रक्षेपास्त्र है जिसे शुरूआती स्थिति में बल और दिशा प्रदान की जाती है लेकिन अंतिम स्थिति में यह अपने लक्ष्य पर अपने गुरूत्व से स्वयं गिरता है।
विस्फोटक ः ऐसा पदार्थ जो नाभिकीय विघटन में सक्षम हो। विघटन का मतलब है पदार्थ का दो या अधिक भागों में टूटना।
एन पी टी ः परमाणु हथियारों को हासिल करने और उन्हें बढ़ाने पर रोक लगाने वाली संधि।

 कुछ उपयोगी पुस्तकें
एफ एच हिसले, 1963 पावर एंड परसूट ऑफ पीस कैब्रीज।
इस्तवान केंडे, दि हिस्ट्री ऑफ पीस: कांसेप्ट एंड आर्गेनाइजेशन्स फ्राम द लेट मिडिल एजेज टू द
नाइन्टीन सेवंटीज, जर्नल ऑफ पीस रिसर्च खंड 26, अंक 3, 1989.
घनश्याम परदेशी (संपादित, 1982 कंटेंपरेरी पीस रिसर्च, नई दिल्ली, एस जे आर बिलग्रामी, दि
आर्स रेस एंड डिसार्मामेंट, नई दिल्ली।

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