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पहाड़ी चित्रकला शैली क्या है ? पहाड़ी चित्रकला शैली के प्रकार का संबंध किस प्रदेश से है pahari painting in hindi
pahari painting in hindi pahari painting belongs to which state पहाड़ी चित्रकला शैली क्या है ? पहाड़ी चित्रकला शैली के प्रकार का संबंध किस प्रदेश से है ?
प्रश्न: पहाड़ी चित्रकला
उत्तर: भारत के अन्य भागों की तरह कश्मीर, हिमाचल, पंजाब एवं उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में प्राचीन भारतीय चित्रकला का संशोधित रूप विकसित हुआ। ऐसी संपूर्ण शैली पहाड़ी शैली के नाम से जानी जाती है। पहाड़ी शैली के चित्रों में प्रेम का विशिष्ट चित्रण दृष्टिगत होता है। कृष्ण-राधा के प्रेम के चित्रों के माध्यम से इनमें स्त्री-पुरुष प्रेम संबंधों को बड़ी बारीकी एवं सहजता से दर्शाने का प्रयास किया गया है। इस शैली की कई उपशैलियां है, जिन्होंने कालांतर में स्वतंत्र अस्तित्व ग्रहण कर लिया। इनमें प्रमुख पहाड़ी शैलियां हैं- बसौली शैली, गुलेर शैली, कांगड़ा शैली, जम्मू शैली, चंबा शैली एवं गढ़वाल शैली। पहाड़ी चित्रकला शैली के अंतर्गत प्रकृति का प्रमुखता से निरूपण किया गया है।
प्रश्न: सल्तनतकालीन चित्रकला का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
उत्तर: इस्लाम में जीवित प्राणियों के चित्र बनाना प्रतिबन्धित होने के कारण अधिकांश सल्तनतकालीन सुल्तानों ने चित्रकला में रूचि नहीं ली। सर्वप्रथम 1947 ई. में हरमन गोइट्स ने दी जनरल ऑफ ‘‘दी इण्डियन सोसाइटी ऑफ ओरिएन्टल आर्ट‘‘ में अपने लेख में कहा कि दिल्ली सल्तनत के काल में चित्रकला का अस्तित्व था। सल्तनतकालीन चित्रकला का प्रथम उल्लेख बैहाकी द्वारा लिखित गजनवियों के इतिहास में मिलता है। फुतूह-उस-सलातीन के अनुसार इल्तुतमिश के समय में चीन के चित्रकार दिल्ली आये। शम्स-ए-सिराज अफीफ तारीख-ए-फिरोजशाही में सल्तनतकालीन चित्रकला का कुछ वर्णन देता है। उसके अनुसार फिरोज तुगलक ने यह आदेश दिया कि आरामगृहों में हिन्दू नरेशों के चित्र नहीं लगाने चाहिये। मालवा, जौनपुर व बंगाल के सुल्तानों ने चित्रकला को संरक्षण दिया।
प्रश्न: ‘‘लघु चित्रकला की पाल शैली‘‘ पर एक लेख लिखिए।
उत्तर: भारत में लघु चित्रकला के सबसे प्राचीन उदाहरण पूर्वी भारत के पाल वंश के अधीन निष्पादित बौद्ध धार्मिक पाठों और ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी ईसवी के दौरान पश्चिम भारत में निष्पादित जैन पाठों के सचित्र उदाहरणों के रूप में विद्यमान हैं। पाल अवधि (750 ईसवी से बारहवीं शताब्दी के मध्य तक) बुद्धवाद के अन्तिम चरण और भारत बौद्ध कला के साक्षी है। नालन्दा, ओदन्तपुरी, विक्रम-शिला और सोमरूप के बौद्ध महाविहार बौद्ध शिक्षा तथा कला के महान केन्द्र थे। बौद्ध विषयों से संबंधित ताड-पत्ते पर असंख्य पाण्डुलिपियां इन केन्द्रों पर बौद्ध देवताओं की प्रतिमा सहित लिखी तथा सचित्र प्रस्तुत की गई थीं। इन केन्द्रों पर कांस्य प्रतिमाओं की ढलाई के बारे में कार्यशालाएं भी आयोजित की गई थीं। समूचे दक्षिण-पर्व एशिया के विद्यार्थी और तीर्थयात्री यहां शिक्षा तथा धार्मिक शिक्षण के लिए एकत्र होते थे। वे अपने साथ कांस्य और पाण्डुलिपियों के रूप में पाल बौद्ध कला के उदाहरण अपने देश ले गए थे जिससे पाल शैली को नेपाल, तिब्बत, बर्मा, श्रीलंका और जावा आदि तक पहुंचाने में सहायता मिली। पाल द्वारा सचित्र पाण्डुलिपियों के जीवित उदाहरणों में से अधिकांश का संबंध बौद्ध मत की वज्रयान शाखा से था। पाल चित्रकला की विशेषता इसकी चक्रदार रेखा और वर्ण की हल्की आभाएं हैं। यह एक प्राकृतिक शैली है जो समकालिक कांस्य पाषाण मूर्तिकला के आदर्श रूपों से मिलती है और अजन्ता की शास्त्रीय कला के कुछ भावों का प्रतिबिम्बित करती है। पाल शैली में सचित्र प्रस्तुत बुद्ध के ताड़-पत्ते पर प्ररूपी पाण्डुलिपि का एक उत्तम उदाहरण बोदलेयन पुस्तकालय, ऑक्सफार्ड, इंग्लैण्ड में उपलब्ध है। यह अष्ट सहस्रिका प्रज्ञापारमिता, आठ हजार पंक्तियों में लिखित उच्च कोटि के ज्ञान की एक पाण्डुलिपि है। इसे पाल राजा, रामपाल के शासनकाल के पन्द्रहवें वर्ष में नालन्दा के मठ में ग्यारहवीं शताब्दी के अन्तिम चतुर्थाश में निष्पादित किया गया था। इस पाण्डुलिपि में छः पृष्ठों पर और साथ ही दोनों काव्य आवरणों के अन्दर की ओर सचित्र उदाहरण दिए गए हैं। तेरहवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा बौद्ध मठों का विनाश करने के पश्चात पाल कला का अचानक ही अंत हो गया। कुछ मठवासी और कलाकार बच कर नेपाल चले गए जिसके कारण वहां कला की विद्यमान परम्पराओं को सुदृढ़ करने में सहायता मिली।
प्रश्न: चित्रकला की चैरपंचाशिका एवं जैन शैलियों की विवेचना कीजिए। क्या चैरपंचाशिका शैली को पोथी प्रारूप का पूर्ववर्ती माना जा सकता है ?
उत्तर: चित्रकला की चैरपंचाशिका शैली जैन चित्रशैली का रूप थी। इस शैली के बने चित्र हमें मेवाड़ चित्रकला में दिखाई देते हैं। इस शैली के द्वारा जैन चित्रशैली को एक रचनात्मक आधार प्राप्त हुआ। इसमें जैन चित्रशैली की पुरानी परम्पराओं के साथ-साथ प्रेम-प्रसंगों को नवीन ढंग से सुसज्जित करने का प्रयास किया गया है। चैरपंचाशिका शैली में रंगों का उचित संयोजन, चमकीले बॉर्डर आदि के साथ-साथ प्रेम-प्रसंगों को नवीन ढंग से सुसज्जित करने का प्रयास किया गया है। जैन चित्रकला शैली 8वीं-9वीं शताब्दी के बीच अपनी सम्पूर्णता पर थी। इस समय चित्रों को ’पाम-लीव’ एवं भोज-पत्रों पर चित्रित किया गया। इसकी विषय-वस्तु हाथी, जंगली हंस आदि थे तथा बॉर्डरों को विभिन्न प्रकार की फूल-पत्तियों से सजाया गया था। इस शैली के चित्रांकन में स्वर्ण एवं चांदी की स्याही, काले या लाल प्रकार के पेस्टों का प्रयोग किया गया था। चित्रकला की चैरपंचाशिका शैली को पुस्तक में छपी (चित्रित) चित्रकला शैली का पर्ववर्ती (पहले का) माना जा सकता है क्योंकि इस शैली का प्रयोग मेवाड़ शैली में, सीमित मात्रा में देखने को मिलता है। बाद में इसका प्रयोग कश्मीर के एक धर्मनिरपेक्ष कवि ने अपनी पुस्तक ’50 Stanja of the Thief sea किया था। जिसमें उन्होंने एक सुन्दर राजकुमारी और एक चोर के बीच के ’रहस्यमय प्रेम’ को चित्रों के माध्यम से दर्शाने का प्रयास किया था।
प्रश्न: ’’भारत की मध्यपाषाण शिला-कला न केवल उस काल के सांस्कृतिक जीवन को, बल्कि आधुनिक चित्रकला से तुलनीय परिष्कत सौन्दर्य-बोध को भी, प्रतिबिम्बित करती है।‘‘ इस टिप्पणी का समालोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर: मध्यपाषाणकालीन शैल कृत चित्रकलाओं में मुख्यतः शिकार एवं सामाजिक जीवन संबंधी दृश्यों को दर्शाया गया है। इसमें जानवरों एवं शिकार करते हुए मानव आकृतियों के साथ-साथ शिकार में प्रयुक्त होने वाले हथियार; जैसे – तीर, नुकीली छड़ी, बर्छी आदि को भी दिखलाया गया है। इसके अलावा इसमें सामुदायिक नृत्य, वाद्ययंत्र, माँ एवं बच्चे, गर्भवती स्त्रियों आदि के सांस्कृतिक जीवन को भी दर्शाया गया है।
ये शैलकृत कलाएं वास्तव में मूर्तिकलाओं के ज्यादा समरूप दिखती हैं, जिसमें महीन बारीकियों का भी ध्यान रखा गया है। ये बारीकियां कला से ज्यादा सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन से संबंधित हैं।
मध्यपाषाणकालीन शैलचित्र के कई उदाहरण हमें भीमबेटका, जोगीमारा एवं मिर्जापुर की गुफाओं में देखने को मिलते हैं, जिसमें मध्यपाषाणकालीन सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिदृश्य का व्यापक चित्रण किया गया है, जो आज भी सही रूप में उपस्थित हैं। मध्यपाषाणकालीन शैलचित्र कला अजन्ता एवं एलोरा गुफा मंदिर के चित्रकारी के रूप में अपने चरमोत्कर्ष पर दिखती है। आधुनिक चित्रकलाएं भी चित्रकारों को स्वतंत्रता, स्वायत्तता एवं कलात्मकता प्रदान करती है, जिसमें उनके पास आधुनिक संसाधन एवं तकनीक की प्रचुरता होती है और उनको रंगों के संयोजन का भी व्यापक ज्ञान होता है। इन सब के बाद भी अगर इसकी तुलना मध्यपाषाणकालीन शैलचित्र से करें तो हम पाते हैं कि मध्यपाषाण काल में रंगों की सीमित उपलब्धता संसाधन एवं तकनीक का अभाव होने के बावजूद भी शैल चित्रकारी एवं भित्ति चित्रकारी मध्यपाषाण काल में काफी विस्तृत एवं व्यापक था, जहां रेखाचित्र के माध्यम से उन बारीकियों को आसानी से दिखाया गया है, जिसको आधुनिक चित्रकार करने में अक्षम दिखते हैं। मध्यपाषाणकाल में आदिमानव स्थानीय स्तर पर उपलब्ध रंगों का प्रयोग शैलचित्र एवं भित्ति चित्र में किया करते थे। इसके बावजूद भी इनकी वर्तमान में उपस्थिति एक चमत्कार ही लगता है।
मध्यकालीन भारतीय चित्रकला
प्रश्न: राजस्थानी शैली
उत्तर: राजस्थानी शैली 15वीं शताब्दी के आस-पास के काल खंड में पूर्ण रूप से विकसित हुई। इसे राजपूत शैली के नाम से भी जाना जाता है। हालांकि इस शैली का मुख्य केन्द्र राजस्थान था, लेकिन इस शैली के चित्रों का मुख्य दृश्य ’रागमाला है। इस शैली के अंतर्गत धार्मिक दृश्य, राधा-कृष्ण लीला, राजदरबार के दृश्यों को प्रमुखता से चित्रित किया गया राजस्थानी शैली रंगों के गतिशील विस्तार एवं उच्च रैखिक निरूपण के लिए विख्यात हैं। राजस्थान शैली के अंतर्गत विकसित प्रमुख शैलियां हैं- ढूंढाढ शैली, मेवाड़ शैली, मारवाड़ शैली, हाड़ौती शैली, किशनगढ़ शैली।
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