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अनुकूलतम फर्म की अवधारणा क्या है | अनुकूलतम फर्म की परिभाषा किसे कहते है optimal firm size theory in hindi
optimal firm size theory in hindi अनुकूलतम फर्म की अवधारणा क्या है | अनुकूलतम फर्म की परिभाषा किसे कहते है ?
अनुकूलतम फर्म की अवधारणा
अनुकूलतम फर्म की अवधारणा का प्रतिपादन ई.ए.जी. रॉबिनसन द्वारा किया गया है। ‘‘अनुकूलतम फर्म‘‘ से हमारा अभिप्राय उस फर्म से है जिसमें तकनीकी विधियों और संगठन योग्यता की विद्यमान दशाओं में प्रति इकाई औसत उत्पादन लागत न्यूनतम होती है, उसमें जबकि सभी लागतें सम्मिलित कर ली जाती हैं जिन्हें दीर्घ काल में सम्मिलित करना आवश्यक होता है।
इस संबंध में कुल लागत में वे सभी लागत सम्मिलित होते हैं जो किसी निर्गत के उत्पादन पर आता है- इसमें न सिर्फ श्रम और कच्चे माल का प्रकट लागत, अपितु समुचित लाभ की दर तथा सभी अन्य परोक्ष लागत भी, जिन्हें फर्म की उत्तरजीविता के लिए सम्मिलित करना आवश्यक है, को सम्मिलित किया जाता है।
अनुकूलतम फर्म का प्रादुर्भाव उत्पाद बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता की दशाओं से सुनिश्चित होता है। पूर्ण प्रतियोगी बाजार में, बड़ी संख्या में सजातीय उत्पादों का उत्पादन करने वाले फर्म विद्यमान होते हैं। प्रत्येक फर्म ‘‘प्राइस-टेकर‘‘ (चतपबम जंामत) अर्थात् मूल्य ग्रहण करने वाली फर्म होती है तथा उत्पाद का मूल्य माँग और आपूर्ति की बाजार शक्तियों द्वारा निर्धारित होता है।
संतुलित (आदर्श) बाजार यह सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक फर्म अपने न्यूनतम दीर्घकालीन औसत इकाई लागत (स्।ब्) पर उत्पादन करता है और वह फर्म सिर्फ सामान्य लाभ अर्जित करता है। यह इस तथ्य द्वारा भी सुनिश्चित होता है कि इस प्रकार की बाजार संरचना में प्रवेश और बहिर्गमन पर कोई प्रतिबंध नहीं होता है । असामान्य लाभ नए फर्मों को आकर्षित करता है और इस प्रकार बाजार में आपूर्ति में वृद्धि होती है, फलतः बाजार मूल्य उस स्तर तक नीचे गिरता है जहाँ यह औसत इकाई लागत के बराबर हो जाता है, इसी प्रकार घाटे में चलने वाले फर्म बंद हो जाते हैं फलस्वरूप आपूर्ति में कमी आती है और परिणामस्वरूप बाजार मूल्य में वृद्धि होती है।
संक्षेप में, पूर्ण प्रतियोगिता यह सुनिश्चित करती है कि एक उद्योग में सभी फर्मों का प्रचालन अनुकूलतम स्तर पर हो, अर्थात् अंततः प्रचालन में रह गई सभी फर्मे अनुकूलतम फर्म हैं।
आलोचना
तथापि, अनुकूलतम फर्म की अवधारणा की कटु आलोचना की गई है। इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:
एक, व्यवहार में पूर्ण प्रतियोगिता की दशा विद्यमान रहने की संभावना बहुत ही कम होती है और प्रतियोगिता की पूर्णता की मात्रा की माप करना असंभव है।
दो, यद्यपि कि पूर्ण प्रतियोगिता के अस्तित्त्व में यह पूर्ण मान्यता निहित रहती है कि फर्म अनुकूलतम आकार के हैं, किंतु पूर्ण प्रतियोगिता की अनुपस्थिति का अभिप्राय यह नहीं है कि फर्म अपने अनुकूलतम आकार से अनिवार्यतः काफी अलग आकार का होगा।
तीन, तथ्यात्मक जाँच द्वारा बहुधा यह पता करना संभव नहीं है कि विभिन्न उद्योगों में एक फर्म का अनुकूलतम आकार क्या है।
उद्देश्य
इस इकाई को पढ़ने के बाद आप:
ऽ फर्मों के विभिन्न प्रकारों के बीच भेद कर सकेंगे;
ऽ फर्म की कार्यकुशलता और लाभप्रदता के लिए इसके आकार का महत्त्व समझ सकेंगे;
ऽ फर्म के आकार को प्रभावित करने वाले घटकों की पहचान कर सकेंगे; और
ऽ उन स्थितियों के बारे में बता सकेंगे जिनमें क्रमशः बृहत् और लघु आकार के फर्म सापेक्षिक
लाभ में होते हैं।
प्रस्तावना
उद्योग का आकार इसकी कार्यकुशलता और लाभप्रदता का एक महत्त्वपूर्ण निर्धारक है। विभिन्न उद्योगों का उनके आकार के आधार पर बृहत् उद्योग और लघु उद्योग में वर्गीकरण अधिक प्रचलित है। इन दोनों के बीच मध्यम आकार के उद्योगों का समूह होता है जिसे मध्यम क्षेत्र कहा जाता है। तथापि, आकार और लाभप्रदता के बीच संबंध स्पष्ट रूप से प्रमाणित नहीं है। कतिपय उद्योग और उत्पादन-व्यवसाय हैं जिसमें फर्म की लाभप्रदता उत्पादन के न्यूनतम पैमाने पर निर्भर करती है; इस प्रकार के उद्योग, अधिकांशतया स्वाभाविक रूप से एकाधिकारवादी भी हो सकते हैं, अर्थात् वे पैमाने की उत्पत्ति वृद्धि नियम के अधीन हैं। दूसरी ओर, कुछ उत्पादन व्यवसाय और उद्योगों में बृहत् पैमाने पर उत्पादन अकुशलता को जन्म देता है और इससे उत्पादन लागत तथा उत्पादकता दोनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। उद्योग के लिए एक अनुकूलतम आकार होता है, और यदि कोई फर्म इस अनुकूलतम आकार से अधिक बड़ी है अथवा अधिक छोटी है तो उसे अकुशलता का सामना करना होगा। अर्थशास्त्रियों ने इस स्थिति को दर्शाने के लिए अनुकूलतम फर्म, प्रतिनिधि फर्म इत्यादि अवधारणाओं का प्रतिपादन किया है।
इस इकाई में हम इन अवधारणाओं की जाँच करेंगे तथा फर्म के आकार और कार्यकुशलता एवं लाभप्रदता के बीच संबंध और इसी प्रकार के अन्य मानदंडों का भी अध्ययन करेंगे।
सारांश
उद्योगों का आकार अलग-अलग होता है; मोटे तौर पर उनका वर्गीकरण बृहत् और लघु उद्योगों में किया जाता है। बृहत् उद्योगों को बड़े पैमाने की मितव्ययिता का लाभ मिलता है किंतु ऐसा सिर्फ एक बिंदु तक होता है; इससे आगे बड़े पैमाने की अपमितव्ययिता के अनेक स्रोत हैं। प्रत्येक औद्योगिक फर्म अनुकूलतम बिंदु तक पहुँचने का प्रयास करता है। तथापि, यह अनुकूलतम एक उद्योग से दूसरे उद्योग में, एक उत्पाद से दूसरे उत्पाद में और एक प्रौद्योगिकी से दूसरे प्रौद्योगिकी में अलग-अलग हो सकता है। यही कारण है कि बड़े उद्योगों और छोटे उद्योगों दोनों का सह अस्तित्त्व रहता है; बहुधा ये एक दूसरे के पूरक होते हैं। बहुधा लघु उद्योगों के सहायक के रूप में कार्य करते हैं।
कुछ उपयोगी पुस्तकें एवं संदर्भ
ई.ए.जी. रॉबिनसन; (1932). दि स्ट्रक्चर ऑफ कम्पीटिटिव इण्डस्ट्री, शिकागो यूनिवर्सिटी प्रेस शिकागो
एच.एस. होवे; (1930). इण्डस्ट्रियल इकनॉमिक्स, एन एप्लाइड एप्रोच, मैकमिलन
ए. मार्शलय (1930). एलीमेन्ट्स ऑफ इकनॉमिक्स ऑफ इण्डस्ट्री, मैकमिलन एण्ड कम्पनी, लंद
जे.ई. बेन (1968). इण्डस्ट्रियल ऑर्गेनाइजेशन, विली एण्ड सन्स् न्यूयार्क
जे.एस. बेन (1966). बेरिर्यस टू न्यू कम्पटीशन, केम्ब्रिज यूनिवर्सिटीज प्रेस
शब्दावली
अनुकूलतम संयंत्र आकार ः संयंत्र का वह आकार जिस पर दीर्घकालीन औसत लागत न्यूनतम होता है।
बड़े पैमाने की मितव्ययिता ः उत्पादन के विस्तारित स्तर के परिणामस्वरूप दीर्घकाल में उत्पाद के औसत लागत में कमी।
सीखने का प्रभाव ः प्रचालन संबंधी अनुभवों के परिणामस्वरूप तकनीकी प्रगति।
एकाधिकार ः वह स्थिति जिसमें किसी सजातीय उत्पाद जिसका कोई स्थानापन्न नहीं होता है और उसके अनेक खरीदार होते हैं का सिर्फ एक ही फर्म द्वारा आपूर्ति किया जाना।
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