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operational amplifier in hindi notes संक्रियात्मक प्रवर्धक क्या है पाठ के नोट्स  भेद प्रवर्धक (DIFFERENTIALAMPLIFIER)

बूलीय व्यंजक का सरलीकरण (SIMPLIFICATION OF BOOLEAN EXPRESSION) प्रत्येक बूलीय व्यंजक जितना संभव हो उतना लघुकृत होना चाहिए ताकि कम संख्या में अवयवों की आवश्यकता हो एवं लागत में कमी हो। इसके लिए बूलीय बीजगणित के नियमों तथा दे मॉर्गन की प्रमेय का उपयोग कर बूलीय व्यंजक का सरलीकरण करते हैं। इसके लिए निम्नलिखित नियम विशेष रूप से सहायक होते हैं-

अध्याय 9

संक्रियात्मक प्रवर्धक (Operationl Amplifier)

प्रस्तावना (INTRODUCTION)

आधुनिक इलेक्ट्रॉनिकी में एकीकृत परिपथों (integrated circuits) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अर्ध चालक युक्तिओं (डायोड, ट्रॉजिस्टर आदि) के अनेक लाभ होते हुए भी विविक्त अवयवों के साथ परिपथों की रचना जटिल तथा महंगी होती है। अंतरिक्ष व कम्प्यूटर प्रौद्योगिकी की आवश्यकताओं के अनुसार उपकरणों का आमाप ( size) भी न्यूनतम रखना आवश्यक हो गया है। अब एकीकृत (monolithic integrated) रचना द्वारा एक लघु सिलीकन की चिप (chip) पर पूर्ण परिपथ का निर्माण संभव है जिससे आमाप का लघुकरण (reduction of size), ताप प्रभावों का संतुलन, अधिक विश्वसनीयता तथा लागत में कमी प्राप्त हो सकी है।

संक्रियात्मक प्रवर्धक (संक्षेप में OPAMP) एक प्रत्यक्ष युग्मित प्रवर्धक ( direct coupled amplifier) होता है ‘ जिसकी लब्धि (gain) बहुत अधिक होती है तथा ऋणात्मक पुनर्निवेश द्वारा इसकी अनुक्रिया नियंत्रित होती है। यह प्रवर्धक अनेक गणितीय रैखिक (linear) व कुछ अरैखिक (nonlinear) संक्रियाओं के निष्पादन के लिये प्रयुक्त किया जा सकता है। इसी कारण इसका नाम सक्रियात्मक प्रवर्धक रखा गया है। संक्रियात्मक प्रवर्धक एकीकृत परिपथों का महत्वपूर्ण रचना खण्ड है । इस अध्याय में हम संक्रियात्मक प्रवर्धक के सिद्धान्त व अनेक उपयोगों का वर्णन करेंगे। साथ ही एकीकृत प्रवर्धकों के मुख्य लब्धि – अवयव, भेद प्रवर्धक ( differential amplifier) का विस्तारपूर्वक अध्ययन करेंगे।

 भेद प्रवर्धक (DIFFERENTIALAMPLIFIER)

व्यापक रूप से भेद प्रवर्धक का कार्य दो संकेतों के अन्तर को प्रवर्धित करना है।

यदि निवेशी संकेत क्रमश: 1 व 2 है तो आदर्श भेद प्रवर्धक का निर्गत संकेत होगा-

Vo = Ad (V1 – V2)…………..(1)

जहाँ Adभेद प्रवर्धक की लब्धि है। समीकरण (1) के अनुसार आदर्श अवस्था में vo का मान संकेतों के माध्य स्तर पर निर्भर नहीं करता है। उदाहरणस्वरूप यदि किसी अवस्था में V1 = 25uV व v2 = 25uV तथा किसी अन्य अवस्था में V1 = 525 uV व v2 = 475 uV हो तो दोनों अवस्थाओं में निर्गत संकेत (V1 – V2 ) = 50uV के अनुसार समान प्राप्त होना चाहिये, जबकि इन अवस्थाओं में माध्य स्तर भिन्न (0 व 500 uV) है। वास्तविकता में निर्गत संकेत विभेदी संकेत (difference signal) Vd= (V1 – V2 ) के साथ-साथ उनके माध्य स्तर अर्थात् उभयनिष्ठ- विधा संकेत (common-mode signal)  पर भी निर्भर होता है।

यदि दूसरे संकेत की अनुपस्थिति में प्रथम संकेत के लिये लब्धि A1 तथा प्रथम संकेत की अनुपस्थिति में दूसरे संकेत के लिये लब्धि A2 है तो अध्यारोपण के सिद्धान्त से दोनों संकेतों की उपस्थिति में निर्गत संकेत होगा-

परन्तु

Vo = A1jV1 + A2v2 ……………(2)

Vd = (V1 – V2 )

आदर्श भेद प्रवर्धक के लिये Ac शून्य होना चाहिये । यर्थाथतः Ad का मान Ac के सापेक्ष अधिक से अधिक होना अपेक्षित है।

भेद प्रवर्धक की दक्षता का मापन Ad व Ac के अनुपात के परिमाण द्वारा किया जा सकता है व इस अनुपात को उभयनिष्ठ-विधा निराकरण अनुपात (common mode rejection ratio), संक्षेप में CMRR, कहते हैं।

समीकरण (8) के अनुसार भेद प्रवर्धक की अभिकल्पना इस प्रकार होनी चाहिए कि p का मान अनुपात (vc /vd)’ के सापेक्ष अधिकाधिक हो। ऐसी अवस्था में

Vo = Adva

जैसा कि आदर्श भेद प्रवर्धक में होता है।

CMRR का मान ज्ञात करने के लिये सर्वप्रथम निवेशी संकेत वोल्टताएँ निम्न लेते हैं

उत्सर्जक युग्मित भेद प्रवर्धक (Emitter coupled differential amplifier) उत्सर्जक युग्मित भेद प्रवर्धक का परिपथ चित्र (9.2-1) में प्रदर्शित किया गया है। इसमें दो एकसमान ट्रॉजिस्टर Q1 व Q2 प्रयुक्त होते हैं। ये दोनों ट्रॉजिस्टर एकीकृत परिपथ की रचना में चिप पर पास-पास स्थित होते हैं अतः उनका ताप समान रहता है जिससे उनके प्राचलों में ताप वृद्धि के कारण परिवर्तन समान होते हैं और विभेदी विद्या में इन परिवर्तनों का निर्गत संकेत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। Q1 व Q2 के संग्राहक समान लोड प्रतिरोधों RL, RL के द्वारा शक्ति प्रदायक Voo से जोड़ दिये जाते हैं। Q1 व Q2 के उत्सर्जक परस्पर संबंधित कर उच्च प्रतिरोध RE के द्वारा उत्सर्जक RA शक्ति प्रदायक VEE से जोड़ दिये जाते हैं। निवेशी संकेत V1 व V2 क्रमशः Q1 व Q2 के आधारों पर लगाये जाते हैं। निर्गत संकेत Q व Q2 के संग्राहकों के मध्य अर्थात् चित्रानुसार A, B के मध्य प्राप्त होता है। यह परिपथ चित्र में प्रदर्शित रेखा a.a’ के सापेक्ष सममित होता है।

विभेदी विधा (differential mode) में निवेशी संकेत इस प्रकार लगाये जाते हैं कि उनके परिमाण बराबर हों परन्तु कलायें विपरीत हों अर्थात् V1 = V2 इस विधा में निवेश चित्र (9:2-2) के अनुरूप होता है।

उभयनिष्ठ विधा (common-mode) में निवेशी संकेत परिमाण में बराबर साथ ही समान कला में होते हैं, अर्थात् V1 = V2| वास्तविक प्रचालन में उभयनिष्ठ विधा में संकेत लगाये नहीं जाते वरन् परिपथ में असममित अथवा ‘अन्य कारण से उत्पन्न होते हैं। उभयनिष्ठ विधा के संकेतों को न्यूनतम स्तर पर रखना अपेक्षित होता है। उभयनिष्ठ-विधा में निवेश चित्र (9.2-3) में प्रदर्शित किया गया है।

ट्रॉजिस्टर Q1 व Q2 एकसमान मानते हुए भेद प्रवर्धक का तुल्य परिपथ चित्र (4) में प्रदर्शित किया गया है। विभेदी विधा में चूँकि निवेशी संकेत V1 व v2 परिमाण में समान परन्तु विपरीत कला में होते हैं अतः इनके कारण एक ट्रॉजिस्टर की संग्राहक धारा में वृद्धि और दूसरे की संग्राहक धारा में कमी होगी। अल्प संकेत अयामों के लिये ट्रॉजिस्टरों के अन्योन्य लाक्षणिक सरल रेखीय माने जा सकते हैं जिससे विभेदी विधा में संकेत लगाने पर एक ट्रॉजिस्टर की संग्राहक धारा में वृद्धि, दूसरी की संग्राहक धारा में कमी के बराबर होगी। उत्सर्जक प्रतिरोध RE में धारा इन धाराओं के योग के तुल्य होती है जो इस विधा में नियत बनी रहेगी। इसप्रकार संग्राहक टर्मिनलों के मध्य निर्गत संकेत Vo प्राप्त होगा परन्तु प्रतिरोध RE पर विभेदी संकेत पाप्त नहीं होगा । चित्र (4) से विभेदी विधा में

निष्ठ विधा के संकेत यदि उपस्थित हों तो उनके कारण दोनों ट्रॉजिस्टरों की संग्राहक धारा में समान परिवर्तन होगा जिससे निर्गत संकेत शून्य होगा। इस अवस्था में उत्सर्जक प्रतिरोध RE से धारा में वृद्धि होगी जिससे ऋणात्मक पुनर्निवेश के द्वारा उभयनिष्ठ विधा की लब्धि कम हो जायेगी व CMRR बढ़ जायेगा। प्रतिरोध RE को बढ़ाकर ऋणात्मक पुनर्निवेश बढ़ाया जा सकता है। परन्तु RE के अधिक मान के साथ उत्सर्जक शक्ति प्रदायक की वोल्टता VEE भी अधिक लेनी आवश्यक होगी। इस समस्या के समाधान के लिये Re के स्थान पर नियत धारा ट्रॉजिस्टर परिपथ प्रयुक्त किये जाते हैं।

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