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न्यायपालिका बनाम विधायिका , nyay paalika banam vidhayika ,
nyay paalika banam vidhayika , न्यायपालिका बनाम विधायिका
न्यायपालिका एवं विधायिका के बीच का टकराव केन्द्र एवं राज्य
स्तर की सरकारों के लिए चिंता का विषय बन गई है। कई बार
ऐसा देखने को मिला है जब इस प्रकार का टकराव सार्वजनिक
होता है तो कार्यपालिका के लिए समस्या उत्पन्न हो जाती हैं। अतः
जब इन टकरावों की समाप्ति होती हैं कार्यपाालिका राहत की सांस
लेती है। इस प्रकार का टकराव सिर्फ भारत में ही नहीं होती अपितु
ब्रिटेन में भी संसद सदस्यों के अधिकारों एवं विशेषाधिकारों के प्रश्न
पर उठ खड़ी होती हैं।
भारतीय परिदृश्य – भारत में लिखित संविधान के अधीन रहते हुए
राज्य के तीनों अंग यथा कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका
अपने-अपने क्षेत्राधिकार व दायरे में हीं कार्य कर सकते हैं। इनमें
से कोई भी एक-दूसरे की शक्ति का अध्यारोहण नहीं कर सकता।
राज्य का कोई अंग किसी दूसरे की शक्ति का अध्यारोहण कर रहा
है या नहीं इसका निर्वचन न्यायपालिका करती है। उच्चत्तम
न्यायालय ने कई मामलों एवं अवसरों पर यह फैसला सुनाया है कि
वह स्वयं संविधान का अंतिम निर्वचनकर्ता है तथा इसके निर्वचन
देश के सभी न्यायालयों, न्यायाधिकरणों तथा प्राधिकरणों के लिए
बाध्यकारी होगंे। अनुच्द्देद (141) के तहत् उच्चतम न्यायालय द्वारा
घोषित कोई भी विधि, नियम तथा निर्णय इत्यादि सभी पक्षों पर
समान रूप से लागू होते हैं। इसलिए यदि यह प्रश्न उठता है कि
क्या राज्य का कोई अंग अपने अधिकार के दायरे से बाहर जा रहा
है तो इस प्रश्न के विनिश्चय का अंतिम अधिकार उच्चतम न्यायालय
का हीं होता है।
विधायिका के सदस्यों की शक्तियों एवं विशेषाधिकारों सबंधी
संवैधानिक प्रावधान भी कई निर्बंधनों के अधीन है। इसलिए वे भी
मनमाने तरीके से कार्य नहीं कर सकते हैं। न हीं वे नागरिकों के
अधिकारों को मनमाने तरीके से छिन सकते हैं। संविधान में यह भी
प्रावधान है कि संसद या राज्य विधायिका अपने सदस्यों के
विशेषधिकारों से संबधित नियमों को संहिताबद्ध करेगा और
विधायिका ऐसा कोई कानून बनाता है जो अनुच्द्देद (13) के अधीन
वैध नहीं है तो पुनः उच्चतम न्यायालय इसे शून्य घोषित कर
सकता है।
टकराव के प्रमुख क्षेत्र –
(ं) संसदीय विशेषाधिकारों एवं शक्तियों का अस्तित्व, दायरा
तथा सीमा और इसके अवमान के लिए विधायिका द्वारा
दण्ड देने की शक्ति।
(इं) संसद तथा राज्य विधायिकाओं की कार्यवाहियों में दखल
(ब) दल – बदल निषेध के संदर्भ में पीठासीन अधिकारियों द्वारा
दिए गए निर्णय।
(ंक) पीठासीन अधिकारियों द्वारा अपने सचिवालयों के प्रशासन
के संदर्भ में निर्णय।
निष्कर्ष- विधायिका एवं न्यायपालिका में टकराव को कम करने के
लिए यह सुझाव दिया जाता है कि पीठासीन अधिकारी को अपने
सचिवालय के प्रशासनिक मामलों में आए वादों (मुकदमों) में स्वयं
पक्षकार नहीं बनना चाहिए। ऐसे मुकदमों को सम्बद्ध विधायिका के
सचिव के माध्यम से लाया जाना चाहिए और जब जरूरी हो तो उसे
हीं व्यक्तिगत रूप से न्यायालय में विधायिका का प्रतिनिधित्व करना
चाहिए। लेकिन राष्ट्रपति एवं राज्यपाल को अनुच्द्देद (361) के तहत्
प्राप्त संरक्षण का विस्तार विधायिका के पीठासीन अधिकारियों तक
करने की वकालत नहीं की जाती है।
कुछ आलोचकों का मानना है कि विधायिका के विशेषधिकारों को
संहिताबद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इस तर्क को इस
तथ्य से समझा जा सकता है कि इससे न्यायपालिका के हस्तक्षेप में
वृद्धि होगी। दूसरी तरफ, नागरिक हितों के संदर्भ में विधायी
विशेषधिकारों के संहिताबद्ध किए जाने की सख्त आवश्यकता है।
यद्यपि विधायी विशेषाधिकारों के उल्लंधन तथा सदन के अवमान के
मामलों की संख्या का काफी कम हीं अवसरों पर विधायिका के समक्ष
आना एक संतोषप्रद बात है। परन्तु विधायी विशेषाधिकारों के
उल्लंधन तथा विधायी अवमान के मामलों में विधायिका एवं न्यायपालिका
के बीच असहजता बनी रहेगी जब तक कि लोकतांत्रिक सरकार की
भावना एवं समझ भारतीय समाज के कण-कण में समाहित न हो
जाए। फिर भी विधायिका एवं न्यायपालिका के बीच सौहार्दपूर्ण
संबधों का निमार्ण अनौपचारिक माध्यमों एवं आपसी समझ द्वारा किया
जा सकता है।
न्यायिक पुनर्विलोकन के खिलाफ
क्या प्रश्न उठाया जाता है?
न्यायिक पुनर्विलोकन के आलोचकों द्वारा निम्नलिखित
प्रमुख प्रश्न उठाए जाते है:
ऽ क्या न्यायपालिका अपनी शक्तियों का विस्तार कार्यपालिका
की कीमत पर कर रही है?
ऽ क्या न्यायपालिका शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त का उल्लंधन
नहीं कर रही है?
ऽ क्या न्यायपालिका न्यायिक सक्रियता के नए आयामों द्वारा
कार्यपालिका के क्षेत्र का आतिक्रमण नहीं कर रही है?
ऽ क्या न्यायपालिका का शासन स्थापित हो गया है जो कि
लोकप्रिय जनादेश नही रखता।
ऽ वह सीमा-रेखा क्या है जिस पर न्यायपालिका अपने को रोक
लेगी?
ये प्रश्न अक्सर विचारकों को उत्तेजित करते हैं। हलांकि इन
मुद्दों पर लोक-मत विभाजित है लेकिन सबसे बडा सवाल अभी
भी बना हुआ है कि,
‘‘क्या न्यायपालिका अपने वैध कार्यो की सीमाओं से आगे बढ़ गई
है?’’
विधायिका के सदस्यों की षक्तियाँ,
विषेशाधिकार एवं उन्मुक्तियाँ क्या हैं?
संसद सदस्यों तथा राज्य विधायिका के सदस्यों की शक्तियों,
विशेषाधिकारों तथा उन्मुक्तियों का उल्लेख क्रमशः संविधान के
अनुच्छेद (105) एवं (194) में किया गया है। इनके तहत निम्न
प्रावधान किए गए हैं।
(1) संविधान के उपबंधों एवं विधायी नियमों के अधीन रहते हुए
संसद एवं राज्य विधायिकाओं में वाक् स्वतंत्रता होगी।
(2) केन्द्र या राज्य विधायिका में या उसकी किसी समिति में
किसी सदस्य द्वारा कही गई बात या मत के विरूद्ध किसी
न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी और किसी
व्यक्ति के विरूद्ध संसद के किसी सदन के प्राधिकार द्वारा
या उसके अधीन किसी प्रतिवेदन, पत्र, मतों या कार्यवाहियों
के प्रकाशन के संबंध में इस प्रकार की कोई कार्यवाही नहीं
की जाएगी।
(3) अन्य बातों में विधायिका के सदस्यों की शक्तियाँ,
विशेषाधिकार और उन्मुक्तियाँ ऐसी होगी जो विधायिका
समय-समय पर विधि द्वारा निश्चित करे और जब तक वे
यह निश्चित नहीं करती हैं तब तक वही होंगी जो 44 वें
संविधान संशोधन के प्रवृत होने से ठीक पहले थीं।
इनके अतिरिक्त अनुच्छेद (122) संसदीय कार्यवाहियों में
न्यायपालिका के हस्तक्षेप पर अंकुश लगाता है। संसदीय
कार्यवाही प्रारंभ होने की तारीख से 40 दिन पूर्व एवं 40 दिन बाद
तक दीवानी मामलों में गिरफ्तारी से उन्मुक्ति प्राप्त है। साक्षी के
रूप में उपस्थित होने की बाध्यता नहीं है। किसी सदस्य या
अन्य व्यक्ति को संसद के अवमान के लिए दण्ड देने का
अधिकार संसद को प्राप्त है।
केन्द्र – राज्य संबंधः तनाव के मुद्दे
केन्द्र – राज्य संबंधों से संबंधित प्रावधानों के अतिरिक्त केन्द्र
एवं राज्य स्तर पर सत्तारूढ़ दल की विचारधारा में अंतर की
पृष्ठभूमि में, भारतीय संघवादी व्यवस्था में निम्न तनाव के क्षेत्र
उभरे हैं-
1 राज्यपाल की, केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में राज्य
मंत्री परिषद की नियुक्ति एवं बर्खास्तगी तथा राज्य विधान
सभा को भंग किए जाने में भूमिका।
2 अनुच्छेद (356) के तहत् राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू
करने संबंधी शक्ति का दुरूपयोग।
3 अनुच्छेद (201) के तहत् राष्ट्रपति के विचार के लिए
विधेयको को आरक्षित रखने की राज्यपाल की शक्ति।
4 वित्त का बंटवारा एवं राज्य योजनाओं का केन्द्रीय अनुमोदन
(योजनागत वित्तीय आवंटन के संदर्भ में)
5 राज्यों द्वारा स्वायत्तता की मांग।
6 अखिल भारतीय सेवा।
7 राज्यों में केन्द्रीय अर्धसैनिक बलों की तैनाती।
8 कई अवसरों पर राज्य सूची के विषयों पर केन्द्र द्वारा कानून
बनाए जाने की शक्ति।
राज्यपाल की भूमिका – 1967 के बाद जब कांग्रेस पार्टी का
एकाधिकार समाप्त हो गया, तब राज्यपाल की भूमिका के महत्व में
वृद्धि हुई। इसके महत्व में और अधिक वृद्धि, बहुदलीय व्यवस्था की
प्रकृति तथा दल-बदल की बढ़ती प्रवृति के फलस्वरूप सरकार की
अस्थिरता में हुई वृद्धि के कारण हुई। वस्तुतः राज्यपाल पद द्वारा
केन्द्रीय सत्तारूढ़ दल राज्य स्तर पर अपनी पकड़ मजबुत करने का
प्रयास करते हैं। 1970 एवं 80 के दशक में राज्यपाल पद का प्रयोग
राज्य सरकारों को बर्खास्त करने एवं राष्ट्रपति शासन लगाने हेतु
किया जाता रहा।
साथ हीं सत्ता परिवर्तन द्वारा भी राज्यपाल ने राज्य सरकार में हस्तक्षेप
किया। इसके अलावा राज्यपाल अपनी स्वविवेकीय शक्तियों के प्रयोग
के बहाने राज्य सरकार की दैनिक गतिविधियों में भी हस्तक्षेप करने
लगे। 1967 के बाद से राज्यपाल द्वारा विधान सभा को भी भंग कर
केन्द्रीय सत्तारूढ़ दल को अपने अनुसार सरकार बनाने का अवसर
प्रदान किया जाता रहा है।
राज्यपाल द्वारा दलगत आधार पर अपनी शक्तियों का दुरूपयोग कर
राज्य सरकार के मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप करने से राज्यों में
असुरक्षा की भावना बढ़ी है। इसी कारण राज्यों द्वारा राज्यपाल की
नियुक्ति एवं बर्खास्तगी में सुधार की मांग की जा रही है। साथ हीं
राज्यपाल की स्वविवेकीय शक्तियों के प्रयोग के लिए दिशानिर्देशों को
संहिताबद्ध करने की भी मांग की जाती रही है।
अनुच्छेद (356) का दुरूपयोगः – यद्यपि अनुच्छेद (356) के
तहत् राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने संबंधी केन्द्रीय शक्ति
संवैधानिक व्यवस्था के सुचारू संचालन हेतु प्रावधानित है परन्तु कई
अवसरों पर ऐसा देखा गया है कि दलगत राजनीति की संकीर्णता से
प्रेरित होकर केन्द्र द्वारा राज्यों में सरकार बदलने में इसका प्रयोग
किया जाता रहा है। बिहार राज्य में राज्यपाल बूटा सिंह की
सिफारिश पर राष्ट्रपति शासन को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा
असंवैधानिक घोषित किया जाना इस अनुच्छेद के दुरूपयोग का एक
सशक्त उदाहरण है।
अनुच्छेद (356) के तहत् राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिए राष्ट्रपति
का सिर्फ विषयगत समाधन का होना विवाद का एक बड़ा मुद्दा है।
हलंाकि इस संदर्भ में एस0 आर0 बोम्मई बनाम भारत संघ, 1994 के
बाद एवं सरकारिया आयोग रिपोर्ट के बाद सुधार की संभावना बढ़ी
है। बोम्मई मामले में सर्वेाच्च न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रपति का
समाधान (356 के संदर्भ में) न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन है लेकिन
यह कुछ क्षेत्रों तक सीमित होगा जैसे,
1 क्या कोई वस्तुगत वजह थी जिस पर राष्ट्रपति का समाधान
आधारित है?
2 क्या वह वस्तुगत आधार प्रासंगिक था?
3 क्या इस शक्ति के अनुपालन में राष्ट्रपति के इरादे निष्पक्ष थे?े
44 वंे संविधान संशोधन अधिनियम ने भी अनुच्छेद (356) के दुरूपयोग
पर अकुंश लगाने में मदद की । इसने 6 माह के बाद राष्ट्रपति शासन
को जारी रखने के लिए संसदीय अनुमति लेना अनिवार्य कर दिया।
साथ हीं इसके द्वारा अधिकतम 3 वर्ष तक राष्ट्रपति शासन लागू रहने
वाली अवधि को भी सामान्य परिस्थिति में अधिकतम एक वर्ष एवं
विशेष परिस्थिति में दो वर्ष अतिरिक्त में विभाजित कर दिया। यदि
राष्ट्रपति शासन को एक वर्ष से अधिक समय के लिए बढ़ाना हो तो
निम्न दो शर्तों की पूर्ति आवश्यक है।
1 यदि पूरे देश में या संबंधित राज्य में राष्ट्रीय आपात लागू हो।
2 यदि चुनाव आयोग यह धोषणा करता है कि विद्यमान परिस्थितियों
में राज्य में चुनाव कराना संभव नहीं है।
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