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गुटनिरपेक्षता क्या है | गुट निरपेक्षता किसे कहते है , परिभाषा , विशेषता , निति प्रासंगिकता , उपलब्धियां non-aligned movement in hindi

non-aligned movement in hindi गुटनिरपेक्षता क्या है | गुट निरपेक्षता किसे कहते है , परिभाषा , विशेषता , निति प्रासंगिकता , उपलब्धियां आन्दोलन के बारे में जानकारी |

गुट निरपेक्षता
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
प्रसंग एवं आवश्यकताएँ
गुट निरपेक्षता की अवधारणा
गुट निरपेक्ष आंदोलन का विकास
गुट निरपेक्ष आंदोलन के उद्देश्य एवं उपलब्धियाँ
आज का गुट निरपेक्ष आंदोलन
बहस
गुट निरपेक्ष आंदोलन की प्रासंगिकता
सारांश
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर

उद्देश्य
इस इकाई का अध्ययन करने के उपरांत आपः
ऽ गुट निरपेक्ष आंदोलन की अवधारणा तथा जिन कारणों से इसका उद्भव हुआ उनका विश्लेषण कर सकेंगे,
ऽ गुट निरपेक्ष आंदोलन के विकास एवं कार्यशैली को जान सकेंगे, और
ऽ उत्तर सोवियत संघ के साथ-साथ उत्तरशीत युद्ध के विश्व में गुट निरपेक्षता एवं गुट निरपेक्ष आंदोलन दोनों की प्रासंगिकता को समझ सकेंगे।

प्रस्तावना
‘‘गुट निरपेक्षता‘‘ शब्द का प्रयोग उन राष्ट्रों की विदेश नीतियों का विवरण करने के लिए किया जाता है जिन्होंने दोनों महाशक्तियों अर्थात् संयुक्त राज्य अमरीका तथा सोवियत संघ के नेतृत्व में बने किसी भी गुट के साथ स्वयं को संबंधित करने से इंकार कर दिया अपितु उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में स्वतंत्र रूप से कार्यवाही करने के मार्ग का चुनाव किया है। गुट निरपेक्ष आंदोलन का उद्भव उस समय हुआ जब व्यक्तिगत गुटनिरपेक्ष राष्ट्र एक दूसरे के साथ आये और अपने प्रयासों को एक सामूहिक मंच पर समन्वित किया द्य इसने एक देश के दूसरे देश के साथ संबंधों की प्रकृति को परिवर्तित किया और नवीन स्वतंत्र विकसित देशों को अंतर्राष्ट्रीय मामलों में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने के लिए सक्षम बनाया।

प्रसंग एवं आवश्यकताएं
एक समय में दो विश्व व्यापी परिवर्तनों के प्रसंग में गुट निरपेक्षता का उद्गम हुआ। ये दोनों परिवर्तन थे- एशिया तथा अफ्रीका देशों में उपनिवेशवाद के विरुद्ध उभरते नव जन आंदोलन और द्विध्रुवीय विश्व राजनीति अर्थात् दो महाशक्तियों-संयुक्त राज्य अमरीका तथा सोवियत संघ के इर्दगिर्द विश्व राजनीति।

अफ्रीका तथा एशिया के राष्ट्रों में पुनर्जागरण ने औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता प्राप्त करने की अभिलाषा को प्रज्वलित किया और अपने भविष्य का स्वयं निर्धारण करने के लिए एक दृढ़ निश्चय को फूंका। इसने विश्व मामलों में सक्रिय एवं स्वतंत्र रूप से शामिल होने के एक विशिष्ट विचार को जन्म दिया और यह विचार राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय हितों के प्रति व्यक्तिगत देश की अपनी स्वयं की अवधारणाओं पर आधारित था । इस प्रकार नवोदित राष्ट्रों में राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय प्रश्नों पर एक स्वतंत्र दृष्टिकोण विकसित हुआ।

एशिया और अफ्रीका के देशों में उपनिवेशवाद के विरुद्ध नव जन आंदोलन तब उभरे जबकि विश्व दो विरोधी शत्रुतापूर्ण खेमों में विभाजित था। प्रत्येक खेमा या गुट दो विभिन्न विचारधाराओं तथा भिन्न राजनीतिक व्यवस्थाओं सहित दो भिन्न प्रकार की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करता था। एक गुट का नेतृत्व संयुक्त राज्य अमरीका तथा दूसरे गुट का भूतपूर्व सोवियत संघ । प्रत्येक गुट दूसरे राष्ट्रों के साथ सैनिक गठबंधनों के माध्यम से प्रभाव के और अधिक क्षेत्रों के लिए प्रेरित था। इस प्रसंग में नवोदित राष्ट्रों ने जो स्वतंत्र दृष्टिकोण अपनाया उसको गुट निरपेक्षता के नाम से जाना गया क्योंकि उन्होंने स्वयं को किसी गुट के साथ जोड़ने से इंकार कर दिया था।

गुट निरपेक्ष दृष्टिकोण की प्रेरणा कई स्रोतों से बंधी थी। इन राज्यों का सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य अपना आर्थिक विकास करना था जिसके लिए उनको आर्थिक सहायता के साथ बढ़ते व्यापार जैसे संसाधनों की आवश्यकता थी। गुट निरपेक्षता के द्वारा वे सभी देशों के साथ आर्थिक संबंधों को बनाये रखने में सक्षम रह सकते थे। दूसरी आवश्यकता शांति को बनाये रखने की जरूरत थी जिसके बगैर वास्तविक विकास नहीं हो सकता था। तीसरा स्रोत था कि शीतयुद्ध राजनीति से उत्पन्न विश्वव्यापी खतरे की अवधारणाओं से सुरक्षित रखने की उनकी आवश्यकता। दूसरी ऐसी घरेलू आवश्यकताएँ विद्यमान थीं जो एक देश से दूसरे देश में भिन्न थी। उदाहरण के रूप में, भारत की आंतरिक राजनीतिक विविधताओं, इसकी राजनीतिक प्रक्रियाओं, इसकी ऐतिहासिक भूमिका एवं भोगौलिक स्थिति ने गुट निरपेक्षता के उद्गम के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया।

गुट निरपेक्षता की अवधारणा
गुट निरपेक्षता का अभिप्राय है कि शीतयुद्ध के दौर में दो महाशक्तियों के विद्यमान दो मुख्य विरोधी गुटों में से किसी एक में भी कुछ देशों द्वारा सम्मिलित होने से इंकार करना। गुट निरपेक्षता को इस प्रकार भी परिभाषित किया जा सकता है कि किसी भी देश के साथ सैनिक गठबंधन में शामिल न होना फिर चाहे यह संयुक्त राज्य अमरीका के नेतृत्व वाला पश्चिमी देशों का गुट हो या सोवियत संघ के नेतृत्व में साम्यवादी गुट । विदेश नीति में यह एक स्वतंत्र निश्चित घोषणा है।

कछ पश्चिमी विद्वान गुट निरपेक्षता को अलगाववाद, अनिश्चितता, तटस्थता, तथा संबंद्धविहीनता के साथ रखकर लगातार भ्रांति उत्पन्न करते रहे हैं। गुट निरपेक्षता तटस्थता नहीं है। गुट निरपेक्षता एक राजनीतिक अवधारणा है जबकि तटस्थता एक वैधानिक तटस्थता की भांति गुट निरपेक्षता देश के संविधान में लिखित एक कानून नहीं है। तटस्थता राज्य की नीति की एक स्थायी विशेषता होती है, जबकि गुट निरपेक्षता नहीं। तटस्थता की भांति गुट निरपेक्षता नकारात्मक बल्कि एक सकारात्मक अवधारणा है। यह समर्थक है (क) विश्व मामलों में एक सक्रिय भूमिका की (ख) सभी देशों के साथ मित्रता एवं सहयोग की। यह प्रत्येक प्रश्न के गुणों तथा राष्ट्रीय हित की आवश्यकताओं के आधार पर एक स्वतंत्र दृष्टिकोण अपनाने का समर्थन करती है। यह किसी भी विचारधारा के विरुद्ध निर्देशित नहीं होती अपितु वैचारिक मतभेदों के बावजूद विश्व में शांति एवं मित्रता को प्रोत्साहित करती है।

गुट निरपेक्ष राष्ट्रों ने लगातार शीतयुद्ध के टकरावों की राजनीति का लगातार विरोध किया। उन्होंने सुस्पष्ट दो सत्तात्मक केन्द्रों के विश्व में शांति तथा शांति क्षेत्रों को बनाने की आवश्यकता पर बल दिया। गुट निरपेक्षता उस अवसरवादिता पर आधारित न थी जो एक शक्ति द्वारा दूसरी शक्ति के विरुद्ध किये गये कार्यों से लाभ उठाने की कोशिश करते।

बोध प्रश्न 1
टिप्पणी: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से अपने उत्तर की तुलना कीजिए।
1) गुट निरपेक्षता के विकास के लिए किस प्रकार की ऐतिहासिक स्थिति उत्तरदायी थी?
2) निम्नलिखित में कौन-सा बयान सत्य है या असत्य है। () का या () का चिन्ह लगाएं।
क) नवीन स्वतंत्र राष्ट्रों ने गुट निरपेक्षता के मार्ग का अनुसरण इसलिए किया क्योंकि विश्व युद्ध के परिणामों, गठबंधनों के निर्माण तथा शस्त्रों के उत्पादन ने इन राज्यों की पिछड़ी अर्थव्यवस्था के लिए नव औपनिवेशिक नियंत्रण के साथ खतरा उत्पन्न किया। ( )
ख) गुट निरपेक्षता का दृष्टिकोण प्रवृत्ति से ही साम्राज्यवाद विरोधी है क्योकि यह बाहर से किसी भी देश को प्रभुत्व या नियंत्रण करने की अनुमति नहीं देता। ( )
(ग) युगोस्लोवाकिया ने गुट निरपेक्षता के मार्ग का चुनाव इसलिए नहीं किया क्योंकि उसने सोवियत संघ द्वारा सर्वान्मुखी आधिपत्य की जाने वाली भूमिका से कोई खतरा महसूस किया था। ( )
घ) गुट निरपेक्षता का अभिप्राय दो शक्ति गुटों से बराबर की दूरी बनाये रखना है अपितु विश्व राजनीति में एक ऐसा दृष्टिकोण है जो स्वतंत्र नीति अपनाने का दावा करता है। ( )
ड.) तटस्थता गुट निरपेक्षता का दूसरा नाम हो सकता है। ( )
च) गुट निरपेक्ष गुट को तीसरा गुट नहीं कहा जा सकता। ( )

बोध प्रश्न 1 उत्तर
1) क) शीतयुद्ध प्रतिद्वन्दिता ने संयुक्त राज्य अमरीका को साम्यवाद के विरुद्ध विश्वव्यापी लड़ाई छेड़ने के लिए प्रोत्साहित किया।
ख) इस खोज में इसने एशियाई देशों को अपने मित्र बनाने के लिए कोशिश की।
ग) उन राज्यों की स्वतंत्रता को भयभीत किया।
घ) इन राज्यों ने अपनी स्वतंत्रता को अक्षुण बनाये रखने के लिए गुट निरपेक्ष होने का निर्णय किया।
2) (क) (ग)
(ख) (घ)

गुट निरपेक्ष आंदोलन का विकास
गुट निरपेक्ष आंदोलन का विकास व्यक्तिगत देशों द्वारा महाशक्ति तथा नव साम्राज्यवादीप्रभुत्व के विरुद्ध सामूहिक मोरचा बनाने के सतत प्रयासों से हुआ। भारत से जवाहरलाल नेहरू, मिस्र से गेमल अबदल नासर तथा युगोस्लोवाकिया से जोसिप ब्रॉज टीटो ने इस आंदोलन को संगठित करने का पहला निर्णय किया। इन प्रथम निर्माताओं में नेहरू को विशेष रूप से याद किया जायेगा। नव-साम्राज्यवाद के उद्भव के विषय में उसकी प्रारंभिक अवधारणा तथा परिणामी असुरक्षा जिसका सामना छोटे देशों द्वारा किया जाना था, ने इस आंदोलन के निर्माण की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया। नेहरू का मानना था कि एशिया तथा अफ्रीका के देशों को नव-साम्राज्यवाद से संघर्ष करने के लिए एकबद्धता के गठबंधन का निर्माण करना चाहिए। प्रथम कदम के रूप में नेहरू ने 1940 के दशक में एशियाई मोर्चे को संगठित करने का प्रयास किया। 1947 में उन्होंने नई दिल्ली में एशियाई संबंधों पर एक सम्मेलन बुलाया। 1950 के दशक जब अफ्रीकी देशों ने उपनिवेशवादी शासन से स्वतंत्रता प्राप्त करनी प्रारंभ कर दी तब इस मोर्चे के आधार का विस्तार करना आवश्यक हो गया। इसलिए नेहरू ने इंण्डोनेशिया, बर्मा, श्रीलंका तथा पाकिस्तान के दूसरे नेताओं के साथ अप्रैल, 1955 में इण्डोनेशिया के बाण्डंग में अफ्रीका-एशिया का सम्मेलन आयोजित किया। इन दोनों सम्मेलनों ने उस राजनीतिक एवं आर्थिक असुरक्षा पर जोर दिया जो उस समय के नये स्वतंत्र राज्यों के लिए खतरा उत्पन्न कर रही थी। लेकिन बाण्डंग सम्मेलन एकरूप एशियाई एवं अफ्रीकी मोर्चे का गठन करने में असफल रहा क्योंकि इनमें से बहुत से देश अपने विदेशी संबंधों को साम्राज्यवाद विरोधी झण्डे के अधीन संचालित करना नहीं चाहते थे। वे पहले से ही बहुत से पश्चिमी सैनिक गठबंधनों में शामिल हो चुके थे या फिर वे अपने हितों की पहचान पश्चिमी शक्तियों के साथ घनिष्ठता से करने लगे थे। बाण्डंग सम्मेलन में स्वयं ही दोनों गुटों के बीच मतभेद स्पष्ट तौर पर दिखायी पड़ने लगे। इस प्रकार उत्तर बाण्डंग वर्षों में यह आवश्यक हो गया कि गुट निरपेक्ष देश पहचान को सिद्धांतों के आधार पर बनाये न कि क्षेत्र के आधार पर। इन देशों ने युगोस्लोवाकिया भी अंतर्राष्ट्रीय मामलों में एक पहचान बनाने के लिए प्रयत्नशील था। बाद के गुट निरपेक्ष सम्मेलनों का प्रांरभिक स्वरूप जून, 1956 में युगोस्लोवाकिया के ब्रियोनी में अस्तित्व में आया जहाँ पर टिटो ने नासार तथा नेहरू के साथ ऐसे वास्तविक गठबंधन के बनाने की संभावनाओं पर परामर्श किया जो उनको एकरूप कर सके। इन प्रयासों का अंततरू परिणाम 1961 में बेलग्रेड में गुट निरपेक्ष सम्मेलन को बुलाने के रूप में हुआ। गुट निरपेक्ष आंदोलन का सदस्य बनने हेतु देशों के लिए पांच आधारों को निश्चित एवं लागू किया गया। जो देश इन पांच शर्तों को पूरा करते थे केवल उन्हीं को सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। शर्ते ये थींः
अ) विशेषकर शीतयुद्ध के प्रसंग में एक स्वतंत्र विदेश नीति ।
ब) उपनिवेशवाद का इसके सभी स्वरूपों एवं अभिव्यक्तियों में विरोध ।
स) किसी भी सैनिक गुट का सदस्य नहीं होना चाहिए।
द) दोनों महाशक्तियों में से किसी भी एक के साथ द्विपक्षीय संधि नहीं करनी चाहिए।
इ) किसी एक महाशक्ति को अपने क्षेत्र का सैनिक अड्डे के रूप में प्रयोग न करने दे। इन सभी शर्तों का पालन करने वाला देश बेलग्रेड शिक्षा सम्मेलन में भाग लेने योग्य होगा।

गुट निरपेक्ष आंदोलन के सम्मेलनों ने समय-समय पर बहुत से प्रश्नों एवं समस्याओं पर विचार विमर्श किया। प्रथम शिखर सम्मेलन (बेलग्रेड 1961) में जिन 25 देशों ने भाग लिया उन्होंने बर्लिन की स्थिति, संयुक्त राष्ट्र में जनवादी गणतांत्रिक चीन के प्रतिनिधित्व के प्रश्न, कांग्रों संकट, विश्व शांति के लिए साम्राज्यवाद एक सक्षम खतरा और रंगभेद जैसे प्रश्नों पर विचार विमर्श किया। सम्मेलन ने शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति में पूर्ण विश्वास व्यक्त किया। भारत का प्रतिनिधित्व जवाहरलाल नेहरू ने किया।

काहिरा सम्मेलन 1964 में हुआ जिसमें 46 देशों ने भाग लिया। भारतीय प्रतिनिधि मंडल का नेतृत्व लाल बहादुर शास्त्री द्वारा किया गया। इस सम्मेलन ने निरस्त्रीकरण की तुरन्त आवश्यकता पर बल दिया। सभी अंतर्राष्ट्रीय झगड़ों के शांतिपूर्ण हल की वकालत की, सदस्य देशों की सरकारों से रोडेशिया में गोरों की अल्पसंख्यक सरकार को मान्यता न देने की विनती की तथा रंगभेद एवं उपनिवेशवाद के विरुद्ध गुट निरपेक्ष आंदोलन के पूर्व दृष्टिकोण को दोहराया। संयुक्त राष्ट्र में जनवादी चीन के प्रतिनिधित्व की माँग को भी दोहराया गया।

तीसरा महासम्मेलन 1970 में लुसाका में हुआ जिसमें 52 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस सम्मेलन ने वियतनाम से विदेशी सेनाओं की वापसी की माँग की और सदस्य देशों से इजराइल के बहिष्कार की भी विनती की गयी क्योंकि पड़ोसी अरब देशों के कुछ क्षेत्रों पर उसने अधिकार किया हुआ था। इसने सदस्य राष्ट्रों की सरकारों से रंगभेद के विरुद्ध संघर्ष को और तेज करने की प्रार्थना की और दक्षिण अफ्रीका के वायुयानों को अपने क्षेत्र से गुजरने की अनुमति इस संघर्ष के भाग के रूप में प्रदान न करने की.भी विनती की। इस शिखर सम्मेलन ने आर्थिक सहयोग को बढ़ाने का भी प्रस्ताव पारित किया। इसने आंदोलन के स्थायी सचिवालय की स्थापना के प्रस्ताव को मानने से इंकार कर दिया। भारतीय प्रतिनिधि मंडल का नेतृत्व श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा किया गया था।

अलजियर्स में होने वाले अगले शिखर सम्मेलन तक (यह सम्मेलन 1973 में हुआ और 75 देशों ने भाग लिया) शीतयुद्ध राजनीति में तनावशैथिल्य के चिन्ह दिखाई पड़ने लगे थे। इस सम्मेलन ने अंतर्राष्ट्रीय तनाव में कमी का स्वागत किया, तनावशैथिल्य का समर्थन किया, इसने साम्राज्यवाद तथा रंगभेद के विरुद्ध गुट निरपेक्ष आंदोलन के ज्ञात दृष्टिकोण को दोहराया और सदस्य देशों के बीच व्यापार, आर्थिक तथा तकनीकी सहयोग को प्रोत्साहित करने के प्रस्ताव को अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था में परिवर्तन की माँग को क्योंकि यह समानता तथा न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन करती है।

1976 में होने वाले कोलम्बो शिखर सम्मेलन में 85 देशों ने भाग लिया। संयुक्त राष्ट्र की आम सभा ने 1974 में नयी अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के लिये आह्वान किया था। कोलम्बो सम्मेलन में गुट निरपेक्ष आंदोलन ने न केवल इस माँग का हार्दिक समर्थन किया अपितु विश्व वित्तीय व्यवस्था एवं स्वरूप में मौलिक परिवर्तन की माँग की। यह भी प्रस्ताव किया कि हिन्द महासागर को एक शांति क्षेत्र घाषित किया जाये।

हवाना में होने वाले छठे शिखर सम्मेलन (1979) के समय भारत में काम चलाऊ सरकार कार्य कर रही थी। इसलिए उस समय के प्रधान मंत्री श्री चरण सिंह ने भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए उस समय के विदेश मंत्री को भेजा। भाग लेने वाले देशों की संख्या 92 तक पहुँच गयी। पाकिस्तान को गुट निरपेक्ष आंदोलन का सदस्य बना लिया गया किन्तु बर्मा ने इसे छोड़ दिया। क्यूबा के राष्ट्रपति फीडल कास्त्रों ने उस समय के सोवियत संघ को आंदोलन का स्वाभाविक मित्र बताया। शिखर सम्मेलन ने साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, नव उपनिवेशवाद तथा रंगभेद के विरुद्ध भली भांति ज्ञात दृष्टिकोण का अनुमोदन किया। सम्मेलन ने प्रस्ताव पारित कर दक्षिण अफ्रीका के स्वतंत्रता संघर्ष का समर्थन किया और इस देश को तेल आपूर्ति रोकने की माँग की। मिस्र इजराइल के साथ अपने मतभेदों को दूरकर चुका था इसलिए कुछ इजराइल विरोधी देशों ने मिस्र को निकालने की माँग की। सम्मेलन ने इस प्रस्ताव मात्र पर बहस की।

1982 में बगदाद में होने वाला सातवाँ शिखर सम्मेलन ईरान-इराक युद्ध के कारण न हो सका। यह सम्मेलन 1983 में नई दिल्ली में हुआ और इसमें 101 देशों ने इसमें भाग लिया। नई दिल्ली घोषणा ने बहुत से प्रश्नों पर गुट निरपेक्ष आंदोलन के भली भांति ज्ञात दृष्टिकोण का फिर एक बार अनुमोदन किया। इसने ईरान-इराक युद्ध के शीघ्र अंत तथा नामीबिया की स्वतंत्रता की आशा की। लेकिन यह सम्मेलन अफगानिस्तान में सोवियत संघ के हस्तक्षप पर कोई निर्णय करने में असफल रहा। सोवियत आधिपत्य का वियतनाम, दक्षिणी यमन, सीरिया और इथोपिया ने खुले तौर पर समर्थन किया। सिंगापुर, नेपाल, पाकिस्तान, मिस्र तथा जैरे ने इसका कड़ा विरोध किया।

1986 के हरारे सम्मेलन ने हरारे घोषणा को पारित किया और इस घोषणा में इसके सदस्यों के बीच और अधिक आर्थिक सहयोग तथा दक्षिण में अधिक तेज गति से विकास के लिए उत्तर दक्षिण सहयोग पर बल दिया गया। इस सम्मेलन ने समाचारों के वितरण पर पश्चिमी एकाधिकार को समाप्त करने के लिए नयी अंतर्राष्ट्रीय सूचना तथा सम्पर्क व्यवस्था के लिए आह्वान किया। यह समझते हुए कि दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद शासक उन अग्रिम पंक्ति के देशों के विरुद्ध जवाबी कार्यवाही करें जो उसके विरुद्ध प्रतिबंधों को लागू कर रहे थे, गुट निरपेक्ष आंदोलन ने साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद तथा रंगभेद के विरुद्ध प्रतिरोधात्मक कार्यवाही करने के लिए एक कोष की स्थापना का निर्णय किया। इसको संक्षेप में अफ्रीका फण्ड (।बजपवद वित तमेपेजंदबम ंहंपदेज पउचमतपंसपेउ, बवसवदपंसपेउ ंदक ंचंतहसपमक) कहा गया।

1989 में आयोजित होने वाला बेलग्रेड शिखर सम्मेलन युगोस्लोवाकिया के टूटने से पूर्व का अंतिम सम्मेलन और जिस समय यह हुआ तब शीतयुद्ध का अंत निकट था। इसने अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद, तस्करी एवं नशीली दवाइयों के अवैध व्यापार के विरुद्ध आह्वान किया । आत्मनिर्णय के सिद्धांत को दक्षिण अफ्रीका तथा नामीबिया में जारी उसके शासन के प्रसंग में पुनः दोहराया गया।

1992 में जकार्ता में होने वाला दसवाँ सम्मेलन शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद की गुट निरपेक्ष आंदोलन की प्रथम बैठक थी। सोवियत संघ के पतन तथा शीतयुद्ध के अंत के बाद इस शिखर सम्मेलन को यह समझाने में बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ा कि नव उपनिवेशवाद तथा महाशक्ति के सभी प्रकार के हस्तक्षेप के विरूद्ध विकसित देशों के एक मंच के रूप में संघर्ष करने के लिए आंदोलन की उपयोगिता है। तनाव मुक्त विश्व में अपने सदस्य देशो का तीव्र गति से विकास करने के लिए एक साधन के रूप में गुट निरपेक्ष आंदोलन को बनाये रखना तथा उसकी पहचान को और मजबूत करना एक मुख्य प्रश्न था ।

गुट निरपेक्ष आंदोलन का 11वाँ सम्मेलन अक्टूबर, 1995 में कार्टाजेना (कोलोम्बिया) में आयोजित किया गया। भारत का प्रतिनिधित्व एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधि मंडल द्वारा किया गया जिसका नेतृत्व भारतीय प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हाराव ने किया। शीतयुद्ध की समाप्ति के पश्चात निरपेक्ष आंदोलन के इस सम्मेलन ने गुट रहित विश्व की परिवर्तित परिस्थितियों में अपनी उपयुक्त भूमिका तलाश करने की कोशिश की। विदेश मंत्रियों के स्तर की बैठक में पाकिस्तान ने गुट निरपेक्ष आंदोलन पर एक ऐसी प्रणाली को विकसित करने के लिए दबाव डालने का प्रयास किया जिसके अंतर्गत आंदोलन द्वारा द्विपक्षीय झगड़ों का समाधान किया जा सके। गुट निरपेक्ष आंदोलन की कार्यसूची में काश्मीर को शामिल कराने के लिए यह एक चालाकीपूर्ण तरीका था। लेकिन पाकिस्तान अपने इन इरादों में सफल न हो सका। गुट निरपेक्ष आंदोलन के 122 सदस्यों के इस शिखर सम्मेलन द्वारा सामान्य एवं सवव्यापी निरस्त्रीकरण करने का आह्वान कर एक महत्वपूर्ण निर्णय किया गया। भारत ने अणु हथियारों पर नाभिकीय शक्ति देशों के एकाधिकार के विरुद्ध अपने निर्जन संघर्ष में इस समय आश्चर्यजनक विजय प्राप्त की जबकि गुट निरपेक्ष आंदोलन ने प्रस्ताव पारित किया कि व्यापक विध्वंस के सभी हथियारों की पूर्ण समाप्ति के प्रस्ताव को वह संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रस्तुत करेगा। भारत द्वारा स्थिति का अनुमोदन किये जाने से भेदभावपूर्ण एन पी टी (दवद चतवसपमितंजपवद जतमंजल) पर हस्ताक्षर करने के विरुद्ध भारत के संसुगत दृष्टिकोण को प्रोत्साहन मिला। गुट निरपेक्ष आंदोलन द्वारा एन पी टी पर भारत की स्थिति का अनुमोदन करने का महत्व इसलिए भी था क्योंकि गुट निरपेक्ष आंदोलन के 113 सदस्यों में से 111 पहले ही एन पी टी पर हस्ताक्षर कर चुके थे। 1995 में पहले ही वे एन पी टी के अनिश्चित प्रसार के लिए न्यूयार्क में मत दे चुके थे। पाकिस्तान लगातार एक क्षेत्रीय नाभिकीय व्यवस्था के पक्ष में रहा और उसे एन पी टी की मतभेदवादी प्रकृति के प्रति भारतीय चिंता से कोई सरोकार न था। अंतिम विज्ञप्ति में पाकिस्तान के विचारों को भी स्थान दिया गया। इस विज्ञप्ति में सदस्य देशों से उन स्थानों के लिए नाभिकीय हथियारमुक्त क्षेत्रों को बनाने के समझौते करने का आग्रह किया गया। जहाँ पर वे विद्यमान न थे। इस प्रकार के क्षेत्रों का निर्माण विचाराधीन होने के साथ-साथ इजराइल से नाभिकीय हथियारों के परित्याग एन पी टी में शामिल होने और अंतर्राष्ट्रीय अण ऊर्जा सरक्षा उपायों के पूर्ण नियंत्रण के अंतर्गत अपने सभी नाभिकीय प्रतिष्ठानों को तुरन्त बन्द करने के लिए कहा गया। इस शिखर सम्मेलन ने नाभिकीय शक्ति से संबंधित उपकरण, सूचना, सामग्री एवं सुविधाओं पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने के लिए कहा।

बोध प्रश्न 2
टिप्पणी: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से अपने उत्तर की तुलना कीजिए।
1) जवाहरलाल नेहरू ने किस प्रकार से गुट निरपेक्ष आंदोलन के विकास में योगदान किया ?

बोध प्रश्न 2 उत्तर
1) क) प्रथम नेहरू ने एशियाई संबंधों का सम्मेलन तथा एशियाई – अफ्रीका सम्मेलन बुलाकर एक विश्वव्यापी मोर्चा बनाने का प्रयास किया।
ख) बाद में, युगोस्लोवाकिया तथा दूसरे समान विचारों वाले देशों के साथ मिलकर एक विश्वव्यापी मोर्चा बनाया।

गुट निरपेक्ष आंदोलन के उददेश्य एवं उपलब्धियाँ
गुट निरपेक्ष आंदोलन का मुख्य उद्देश्य उपनिवेशवाद का अंत करना था। गुट निरपेक्ष आंदोलन के सम्मेलनों ने राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों तथा संगठनों का समर्थन किया और इन आंदोलनों का नेतृत्व करने वालों को इन सम्मेलनों में पूर्ण सदस्यता का दर्जा प्रदान किया। एशिया तथा अफ्रीका में औपनिवेशिक विखंडन की प्रक्रिया को इस समर्थन ने और तीव्र किया।

इसने रंग के आधार पर भेदभाव तथा अन्याय का कड़ा प्रतिवाद किया और दक्षिण अफ्रीका एवं नामीबिया में रंगभेद विरोधी आंदोलन को भरपूर समर्थन दिया। अब इन दोनों देशों में स्वतंत्रता तथा बहुसंख्यक शासन के साथ इस घृणित नीति का अंत हो गया है।

एक तीसरे क्षेत्र अर्थात् शांति एवं निरस्त्रीकरण को बनाये रखने की दिशा में भी गुट निरपेक्ष आंदोलन ने महत्वपूर्ण योगदान किया है। शांति, शांतिपूर्ण सहअस्तित्व तथा मानवीय भ्रातृत्ववाद को इसके समर्थन और किसी भी प्रकार के युद्ध के विरोध ने शीतयुद्ध के तनावों को कम करने में श्योगदान किया। विश्व में शांति के क्षेत्रों में होने वाले प्रसार के कारण कम से कम देश सैनिक गठबंधनों में शामिल हुए। इसने लगातार निरस्त्रीकरण के लिये प्रयास किये तथा हथियारों की दौड़ के अंत के लिए कहा कि विश्वव्यापी शांति तथा सुरक्षा को तभी प्राप्त किया जा सकता है जबकि प्रभावशाली अंतर्राष्ट्रीय नियंत्रण के अंतर्गत सामान्य एवं पूर्ण निरस्त्रीकरण हो। इसने यह भी समझाया कि हथियारों की दौड़ उन महत्वपूर्ण संसाधनों को बर्बाद करती है जिनका प्रयोग सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए किया जाना चाहिये। उन्होंने नाभिकीय परीक्षण पर स्थायी रोक लगाने की माँग की और बाद में सभी प्रकार के रासायनिक हथियारों के प्रयोग, उत्पादन, भण्डारण तथा विकास पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक संधि करने की माँग की।

चैथे, गुट निरपेक्ष राज्यों ने संयुक्त राष्ट्र के चरित्र को परिवर्तित कराने में सफलता प्राप्त की और इसके फलस्वरूप इसके अवयवों के माध्यम से संचालित होने वाले अंतर्राज्य संबंधों की दिशा में भी परिवर्तन हुआ। 1940 तथा 1950 के दशकों में संयुक्त राष्ट्र के अवयवों में होने वाली कार्यवाहियों पर महाशक्तियों तथा उनके सहायक देशों का पूर्ण प्रभुत्व बना रहता था। गुट निरपेक्ष आंदोलन के उद्गम ने इस स्थिति को बदल दिया। इसने आम सभा में न केवल एक नवीन बहुसंख्यक मत प्रणाली को उत्पन्न किया अपितु एक ऐसे सामूहिक मंच का भी निर्माण किया। जिसके माध्यम से तीसरी दुनिया के देश अपने हितों को भी उठा सकते थे। इस मंच की अवहेलना करना अब संभव न था। आज तीसरी दुनिया के मत का संयुक्त राष्ट्र में प्रतिनिधित्व इतना प्रभावशाली ढंग से किया जाता है कि यह कई बार विकसित देशों के विचारों से कहीं अधिक प्रभावशाली हो जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि गुट निरपेक्ष आंदोलन ने विश्व राजनीति में तीसरी दुनिया की भूमिका को सुगम बनाने का महत्वपूर्ण योगदान किया है और इस प्रक्रिया के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का भी लोकतंत्रीकरण हुआ है।

पाँचवा, महत्वपूर्ण योगदान आर्थिक समानता के प्रसंग में था। यह गुट निरपेक्ष आंदोलन ही था जिसने नया अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (एन आई ई डी) के स्थापना की माँग की। अपनी राजनीतिक सार्वभौमिकता के बावजूद नये स्वतंत्र देश आर्थिक रूप से असमान बने रहे। वे पूर्व की भांति ही कच्चे माल के उत्पादक देश बने रहे जो अपनी वस्तुओं को विकसित देशों को कम से कम मूल्य पर बेचते तथा उत्पादित वस्तुओं को उनसे उच्च मूल्य पर खरीदते। दुःख इस विषय का था कि वे दमनात्मक आर्थिक व्यवस्था के न केवल अतीत में भाग थे अपितु यह स्थिति अभी भी जारी थी और इसी के अंतर्गत कार्य करना पड़ रहा था। इसके कारण उनको लगातार पूँजीगत सामानों, वित्तीय एवं तकनीकी के अंतर पर निर्भर रहना पड़ता है। इस आर्थिक शोषण का अंत करने के लिए जिसको नव उपनिवेशवाद भी कहा जाता है, गुट निरपेक्ष आंदोलन ने समानता, बगैर किसी दुराग्रह एवं सहयोग के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक एवं वित्तीय व्यवस्थाओं को पुनः गठित करने की माँग की।

आर्थिक न्याय के लिए गुट निरपेक्ष आंदोलन के संघर्ष ने स्पष्ट किया कि पूरब पश्चिम के बीच विश्व के विभाजन की अपेक्षा उत्तर तथा दक्षिण के बीच विश्व विभाजन कितना वास्तविक है। इसने सिद्ध किया कि बहुसंख्यक मानव जाति कि चिन्ताएँ पूँजीवाद तथा साम्यवाद के बीच चुनाव की नहीं बल्कि गरीबी एवं सम्पन्नता के बीच चुनाव की है। गुट निरपेक्ष आंदोलन के प्रचार ने विकसित विश्व को कुछ सीमा तक यह विचारने के लिए बाध्य किया कि तीसरे विश्व की हानि कभी उनकी सम्पन्नता पर भी विपरीत प्रभाव डाल सकती है। इसने बहुत सीमा तक उनको वार्तालाप करने के लिए बाध्य किया। तीसरी दुनिया की आर्थिक माँगों पर वार्तालाप करने की सामान्य सफलता के अतिरिक्त गट निरपेक्ष आंदोलन ने कछ अन्य महत्वपूर्ण समस्याओं पर भी विजय प्राप्त की। उदाहरण के रूप में, प्राकृतिक संसाधनों पर आर्थिक संप्रभुता अब एक स्वीकार्य सिद्धांत है। गुट निरपेक्ष आंदोलन हस्तक्षेपीय व्यापार नीति को वैधता प्रदान कराने में भी सफलता प्राप्त कर चुका है। क्योंकि विकसित देश इसको जारी रखना चाहते हैं। इसने सफलतापूर्वक विश्व का ध्यान बहु राष्ट्रीय कंपनियों द्वारा उत्पन्न की गयी समस्याओं विशेषकर तकनीकी हस्तांतरण के प्रसंग में आकृष्ट किया है। इसने क्षतिपूर्ति वित्तीय सहायता की व्यवस्था की स्थापना के लिए आई एम एफ (अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय कोष) सफलतापूर्वक दबाव डाला है। इसके द्वारा विकासशील देशों को उनकी अदायगी से संबंधित समस्याओं के लिए आर्थिक सहायता प्रदान की जाती है।

सांस्कृतिक क्षेत्र में समाचार एजेंसी निकाय की स्थापना को एक उपलब्धि समझा जाना चाहिए। ऐसा इतिहास में प्रथम बार हुआ है कि राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से कमजोर राष्ट्र संचार व्यवस्था के बगैर सूचना को प्राप्त करने तथा बाहय विश्व के साथ इसे संचारित करने में सफल हो पाये हैं।

गुट निरपेक्ष आंदोलन की सबसे अधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि इस तथ्य में निहित है कि इसने विकासशील दुनिया को स्वतंत्र आर्थिक विकास को जारी रखना सिखाया यद्यपि यह विश्व भी उस पूँजीवादी विश्व आर्थिक व्यवस्था का हिस्सा है जिसने उनको पूँजी एवं तकनीक के लिए विकसित राष्ट्रों पर निर्भर बनाया है।

बोध प्रश्न 3
टिप्पणी: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से अपने उत्तर की तुलना कीजिए।
1) निम्नलिखित में शांति बनाये रखने के लिए एक ऐसी कौन सी पूर्व शर्त नहीं है जिस पर गुट निरपेक्ष आंदोलन ने बल दिया:
क) सैनिक गुटों को समाप्त करना।
ख) शस्त्रीकरण।
ग) महाशक्तियों के बीच टकराव को टालना।
घ) अंतर्राज्य संबंधों का लोकतंत्रीकरण ।
2) निम्नलिखित कथनों में कौन सा ठीक है:
क) राजनीतिक स्वतंत्रता गुट निरपेक्ष आंदोलन द्वारा समर्थित एक प्रकार का आत्म निर्णय है।
ख) गुट निरपेक्ष देशों ने विद्यमान आर्थिक व्यवस्था को पुनः गठित करने की माँग की क्योंकि औपनिवेशिक शोषण ने उनको असमान आर्थिक हिस्सेदार बना दिया था।
ग) गुट निरपेक्ष आंदोलन ने विकसित देशों की आर्थिक संप्रभुता पर बल नहीं दिया।
घ) अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में बेहतर व्यवहार को एक आर्थिक माँग के रूप में गुट निरपेक्ष आंदोलन ने आगे बढ़ाया।

बोध प्रश्न 3 उत्तर
1) क)
2) क) ख) ग)

आज का गुट निरपेक्ष आंदोलन
बहस
कुछ विद्वानों के अनुसार, गुट निरपेक्ष आंदोलन शीतयुद्ध तथा विश्व का दो शक्ति गुटों में विभाजन का परिणाम था। क्योंकि अब शीतयुद्ध का अंत हो गया है और सोवियत संघ का विखंडन, इसलिए गुट निरपेक्ष आंदोलन भी अपनी प्रासंगिकता को खो चुका है। जहाँ तक गुट निरपेक्ष आंदोलन के अन्य कार्यक्रमों का प्रश्न है जिनको उसने प्रारंभ में उठाया था, वे भी पूर किये जा चुके हैं। दृष्ठांत के तौर पर, उपनिवेश स्वतंत्रता प्राप्त कर चुके हैं, रंगभेद टूट चुका है, विदेशी अड्डे अपने महत्व को खो चुके हैं, नाभिकीय हथियारों में कटौती का एक विनम्र प्रारंभ हो गया है और इन सभी से विशिष्ट तथ्य यह है कि जब गठबंधन टूट रहे हैं तब गुट निरपेक्षता के लिए महत्व कहाँ रह जाता है। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य विद्वानों का मानना है कि गुट निरपेक्ष आंदोलन को भंग कर देना चाहिये क्योंकि तत्कालिक खाड़ी संकट के समय इसकी भूमिका विशेषकर प्रभाव विहीन थी।

गुट निरपेक्षता के इन आलोचकों को याद रखना चाहिये कि यद्यपि गुट निरपेक्ष आंदोलन का उद्गम शीतयुद्ध तथा दो गुटों में विभाजित विश्व के वर्षों में एक अतिरिक्त विदेशी नीति के चुनाव के रूप में हुआ था, लेकिन इसकी सतत प्रासंगिकता का संबंध इन दोनों ही प्रसंगों में कोई विशिष्ट नहीं है। यह तो एक संयोग ही है कि इस नीति का उद्गम एवं विकास तब हुआ जब विश्व राजनीति में ये घटनाक्रम घटित हो रहा था। लेकिन उपनिवेशवाद का विखण्डन इस गुट निरपेक्ष आंदोलन का आधार था और शीतयुद्ध या विश्व के दो शक्ति गुटों में शीतयुद्ध के निवारण ने केवल आगामी वर्षों में इस आंदोलन के प्रसार में सहायता की।

यह भी याद रखा जाना चाहिए कि शीतयुद्ध के अंत ने गुट निरपेक्ष आंदोलन के सार को अप्रासंगिक नहीं किया है। यह सार है कि प्रत्येक प्रश्न को योग्यता के आधार पर विचार करने का अधिकार और किसी प्रश्न को गलत समझा जाता है उसके विरुद्ध जो भी उचित और व्यावहारिक हो उसपर कार्यवाही करने का अधिकार । भले ही इस गलती को एक ध्रवीय विश्व में एक महाशक्ति द्वारा जारी रखा जाये या द्विध्रवीय विश्व में एक या दोनों महाशक्तियों द्वारा । जैसा कि नेहरू ने न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा था ‘‘जहाँ स्वतंत्रता को भय है या न्याय को खतरा है या जहाँ आक्रमण होता है, हम न तटस्थ हो सकते हैं और न होंगे।‘‘ इसको इस प्रकार भी कहा जा सकता है। गुट निरपेक्षता का सार विदेशनीति में स्वतंत्र नीति का अनुसरण करना है, गट निरपेक्षता किसी भी समय में अप्रासंगिक नहीं होती है जिसपर विरोध किया जा रहा है। वह संभवतः इसका नाम है।

गुट निरपेक्ष आंदोलन की प्रासंगिकता
अब विश्व द्विध्रवीय नहीं हैं लेकिन इसके संरूपण की प्रकृति पर भी कोई सहमति नहीं है। कुछ लेखकों का मानना है कि संयुक्त राज्य अमरीका के एकमात्र महाशक्ति होने के कारण यह एक ध्रुवीय है। दूसरे कुछ लेखकों का कहना है कि संयुक्त राज्य अमरीका के साथ यूरोपीय संघ, जापान, रूस तथा चीन के महत्वपूर्ण शक्ति केन्द्र होने के कारण विश्व बहु ध्रवीय है। लेकिन कुछ लेखक इसको एक ध्रुवीय से बहु ध्रवीय के रूप में मानते हैं। इसके लिए. किसी भी शब्द का प्रयोग करें, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि संयुक्त राज्य अमरीका तथा जी-7 देश एक साथ सामंजस्य से काम करने तथा शेष विश्व का प्रबंधन करने की स्थिति में है। एक और शक्ति केन्द्र का उदगम हुआ है। जिसको शक्तिशाली राष्ट्रों का नवीन उत्तरी सामंजस्य दमू दवतजीमउ बवदबमतज व िचवूमते कहा गया है। विश्वव्यापी इस स्थिति में गुट निरपेक्ष आंदोलन का कार्य करना मुश्किल हो गया है क्योंकि न तो चालाकी से परिचालन करने के लिए अवसर शेष रहे हैं और न ही मध्यमार्गी भूमिका के लिए स्थान है। इसके बावजूद भी गुट निरपेक्षता के व्यवहार की व्यापक आवश्यकता है क्योंकि यदि उनको उत्तर- के पूर्ण अभिभूत से बचाना है तब दक्षिण के विकासशील देशों को अपनी स्वतंत्रता का दावा तथा एक साथ मिलकर कार्य करना होगा।

गुट निरपेक्ष आंदोलन को पुनर्जीवित करने की आवश्यकताएँ बहुत से स्रोतों से उत्पन्न होती हैं। यह बहु ध्रवीयता विकासशील देशों के लिए एक अनिश्चित जटिल एवं अंधकारमय वातावरण उपस्थित करती है जिसके अंतर्गत बहुत से नवीन अवसर नहीं हो सकते लेकिन असुरक्षा बढ़ी है। वर्तमान समय में विकासशील देशों के लिए ऐसे किसी परिवर्तन का आभास नहीं हो रहा है जिससे वे बड़ी आर्थिक शक्तियों के बीच प्रकट होने वाले मतभेदों से लाभ उठाने में सफल हो सकें। हालांकि लम्बे या मध्य अंतराल में स्थिति में कोई परिवर्तन हो सके।

तीसरी दुनिया के देशों पर बाजारों को खोलने तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकारों के प्रश्न पर विकसित देशों की सभी माँगों को मानने के लिए दबाव डाला जा रहा है। लेकिन वास्तविकता यह है कि ऐसे समय में विकसित देशों में संरक्षणवाद की प्रवृत्ति बढ़ रही है। जबकि अधिकतर विकसित देश अपनी अर्थव्यवस्थाओं में तथा अनियंत्रित बाजार को उपलब्ध कराने के लिए गंभीर सुधारों को कर रहे हैं इसलिए इस प्रभाव को प्रोत्साहित किया जा रहा है कि तीसरी दुनिया के देश किसी न किसी प्रकार से पर्यावरण संबंधी प्रदूषण के लिए उत्तरदायी हैं लेकिन वास्तविकता यह है कि उत्तरी विकसित देशों के द्वारा संसाधनों का बे-लगाम दोहन ही पर्यावरण संबंधी प्रदूषण का मुख्य स्रोत है। उत्तरी देशों की सरकारें अपने जारी न रख पाने वाले उत्पादन तथा उपभोक्ता व्यवस्थाओं को बनाये रखने पर निर्भर हैं। ऐसी स्थिति में वे दक्षिण के देशों से आशा करते हैं कि उत्तरी देशों के लिए एक सुरक्षित पर्यावरण को बनाये रखने के लिए सभी प्रकार के त्याग तथा समायोजन को करें। पर्यावरण के बहाने उत्तर के विकसित देश दक्षिण के विकासशील देशों पर प्रतिबंधों तथा दण्डात्मक उपायों को थोपने की कोशिश में है जिसकी अस्पष्ट झलक हमें दिखायी पड़ने लगी है।

तीसरे विकसित देशों की ओर से विकासशील देशों को हस्तांतरित की जाने वाली तकनीक पर कठोर प्रतिबंध लगाये जाने की प्रवृत्ति है। तथाकथित दोहरे उपयोग प्रतिबंधों के अंतर्गत आने वाली वस्तुओं की लगातार बढ़ती सूची के कारण बहुत से महत्वपूर्ण क्षेत्रों में तकनीकी प्रगति के परिणामों से विकासशील देशों को वंचित होने की प्रभावशाली आशंका है। इस प्रकार के प्रतिबंधों के घेरे में कम्प्यूटर से लेकर मशीनी औजार, विशिष्ट प्रकार के रासायनिक सम्मिश्रण तथा औषधि जैसी सामग्री तक आ गये हैं। इस प्रकार के प्रतिबंधों को पुनः उत्पादन को रोकने के बहाने थोपा गया है यद्यपि पुनः उत्पादन का मुख्य उत्तरदायित्व अक्सर उन्हीं देशों का है जो प्रतिबंधों को थोप रहे हैं। यह बहुत ही न्यायपूर्ण है।

चतुर्थ विश्व अभी भी नाभिकीय शक्ति से सम्पन्न एवं नाभिकीय शक्ति से वंचित देशों के बीच विभाजित है। नाभिकीय शक्ति से सम्पन्न देशों ने अपने नाभिकीय हथियारों के जखीरे को बनाये रखने का पक्का निश्चय किया हुआ है, यद्यपि इसमें कुछ कटौती कर तथा दूसरे देशों को इस प्रकार के हथियारों को प्राप्त करने से रोक कर भी वे ऐसा ही कर रहे हैं। विडम्बना यह है कि नाभिकीय हथियारों का लक्ष्य अब तीसरी दुनिया के देश हैं क्योंकि इन्हीं देशों को नाभिकीय हथियार वाले देशों की सुरक्षा के लिए मुख्य खतरा माना जा रहा है। शीतयुद्ध के समाप्त होने के बाद इनका परित्याग करने के स्थान पर, इनको भय निवारण के रूप में बनाये रखा गया है और तीसरी दुनिया के देशो के विरुद्ध भेदभावपूर्ण तरीके से इस्तेमाल करने के लिए तैयार रखा गया है। व्यापक विध्वंसकारी हथियारों को विकसित न करने तथा अत्यधिक सैन्य खर्च को कम करने के लिए तीसरी दुनिया के देश अब भारी दबाव में है। पाँचवे, संयुक्त राष्ट्र के अधीन बहुपक्षीयवाद को पुनर्जीवित करने के स्थान पर संयुक्त राष्ट्र अमरीका के नेतृत्व में नया गठबंधन विश्व संस्था की कार्यसूची को परिवर्तित करने तथा कुछ निश्चित क्षेत्रों में इसकी कार्यशीलता के महत्व को कम करने के लिए इस संस्था के बहुपक्षीय चरित्र को सफलतापूर्वक व्यापक अभियान चलकर नष्ट करना चाहता है। गरीबी निवारण, विकासवादी योजनाएँ, व्यापार, धन, वित्त तथा कर्ज जैसे महत्वपूर्ण प्रश्नों को संयुक्त राष्ट्र की कार्यसूची से हटा दिया गया है और इनको अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक। तथा व्यापार एवं सीमा शुल्क पर आम समझौता जैसे संगठनों को हस्तांतरित किया गया है क्योंकि इन पर उनका अधिक नियंत्रण है ओर ये इनको पारगामी परिस्थितियों तथा पारगामी रिश्तों के रूप में इस्तेमाल करने की आज्ञा देते हैं। ऐसे संगठन जो संयुक्त राष्ट्र परिवार के भाग हैं उनकी वित्तीय सहायता बंद कर उनको बर्बाद होने के लिए छोड़ दिया गया है और संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य पारस्परिक घनिष्ट सहयोग के द्वारा विश्व शांति तथा सुरक्षा को प्रभावित करने वाले निर्णयों को करते हैं।

इनके अतिरिक्त कुछ अस्थायी प्रतिबंध भी हैं जिनका उद्देश्य व्यापक विध्वंस वाले हथियारों के उत्पादन को रोकना है। इन प्रतिबंधों के अंतर्गत शामिल हैं-रासायनिक हथियार (दि आस्ट्रेलियन क्लब) नाभिकीय हथियार (दि सी ओ सी ओ एम व्यवस्थाएँ) तथा प्रक्षेपात्र (दि मिसाइल टेक्नॉलाजी कंट्रोल रीजम्स या एम टी सी आर) दोहरे उद्देशीय तकनीकियों की सूची अर्थात ऐसे पदार्थ एवं सामग्रियाँ जिनका निर्यात तीसरी दुनिया के देशों को इन प्रतिबंधों के अंतर्गत नहीं किया जा सकता और ये इतनी व्यापक है कि कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में विकासशील देशों का तकनीकी एवं औद्योगिक विकास को रोकने में प्रभावकारी होंगी। यह भी अनुमान कर पाना कठिन है कि किसी विशिष्ट । मामले में इन प्रतिबंधों को लागू करने पर संबंधित देश को प्रतियोगी क्षमता के विकास से रोकने में व्यावसायिक दृष्टिकोण से प्रेरित है या फिर उसको पुनः उत्पादन करने से सुनिश्चित तौर पर रोकने के लिए ऐसा किया गया है। इस प्रकार के प्रतिबंधों के लिए अंतर्राष्ट्रीय कानून से कोई अनुमति नहीं ली गयी है। जैसा कि ये संयुक्त राष्ट्र की परिधि से बाहर हैं और इनकी सदस्यता सीमित है, और ये बहुपक्षीयवाद को कम करने में प्रभावशाली है।

तीसरी दुनिया के सभी देश राष्ट्र राज्यों के बिखराव से भय का सामना कर रहे हैं। इसके उदाहरण चैकोस्लोवाकिया, इथोपिया, भूतपूर्व सोवियत संघ तथा यूगोस्लोवाकिया है। अपनी राष्ट्रीय एकता के प्रति विकसित देश सुनिश्चित हैं क्योंकि उनकी सैन्य शक्ति इस को सुदृढ़ आधार प्रदान करती है या फिर इस प्रकार का समर्थन उनको अपने मित्र राष्ट्रों से प्राप्त होता है। अपनी अपेक्षाकृत राजनीतिक स्थिरता तथा आर्थिक सम्पन्नता के दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए नये गठबंधन के देशों ने ऐसे कारणों तथा सिद्धांतों का समर्थन प्रारंभ किया जो तीसरी दुनिया के देशों में विखण्डन को प्रोत्साहित करते हैं जहाँ तीसरी दुनिया के इन देशों में आर्थिक एवं राजनीतिक स्थिति स्थायित्व से बहुत दूर है। इसके कारण राष्ट्र राज्यों का बिखराव और बढ़ सकता है। आत्म निर्णय के लिए हाल में ही नये गठबंधन में उत्पन्न हुए उत्साह ने अपने राजनीतिक तथा आर्थिक उत्तोलक का इस्तेमाल दूसरे राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए किया है। ऐसा मानव अधिकारों तथा कुशल सरकार के बहाने किया जा रहा है तथा प्रतिबंध भी लगाये गये हैं। मानवीय आधारों पर दूसरे देशों में सफलतापूर्वक हस्तक्षेप करने की तलाश, इस दिशा की ओर स्पष्ट संकेत करते हैं। पहले भी संप्रभुता कभी भी अपने में संपूर्ण न थी किन्तु इसे अब और काँट-छाँट तथा कम करने का विषय बनाया जा रहा है।

वर्तमान समय में व्यापार के क्षेत्र में भी एक पक्षीय और द्विपक्षीय उत्पीड़क तरीकों का प्रयोग बढ़ रहा है। इसकी पुष्टि संयुक्त राज्य अमरीका व्यापार एवं प्रतियोगात्मक अधिनियम के स्पेशल और सपर 301 के लाग करने से होती है। इस अधिनियम के माध्यम से बाजारों में पारस्परिक पहँच तशा मिश्रित संबंधों के इस्तेमाल करने के लिए बातचीत की जाती है। उस पति को अपैल 1994 में अमरीका सहित 115 देशों द्वारा मारकेश में गैट संधि पर हस्ताक्षर कर दिये जाने के बाद भी नहीं रोका गया है। इन कार्यवाहियों के अतिरिक्त विकसित देशों द्वारा ऐसे नये प्रश्नों को उठाया जा रहा है जो प्रत्यक्ष रूप में व्यापार से संबंधित नहीं है, जैसेकि श्रम मानकों, सामाजिक पारिस्थितियों और पर्यावरण से जुड़े प्रश्नों को अभी हाल में संपन्न हुई गैट संधि के समय उठाया गया। इनसे स्पष्ट तौर पर सिद्ध होता है कि नयी तैयार की गयी व्यापार व्यवस्था विकासशील देशों के हितों को ठीक प्रकार से पूरा करने वाली नहीं है।

उपर्युक्त विश्लेषण दर्शाता है कि गुट निरपेक्ष देशों की स्वतंत्रता के लिए खतरा एवं दबाव नये। स्वरूपों को ग्रहण कर चुका है। विश्व में वर्तमान नकारात्मक प्रवृत्तियाँ न्यायोचित, सामयिक तथा लोकतांत्रिक विश्व व्यवस्था के लिए गुट निरपेक्ष आंदोलन के उद्देश्यों एवं लक्ष्यों के विपरीत है। गुट निरपेक्ष आंदोलन का कोई भी देश या देशों का, समूह फिर चाहे यह बड़ा या धनी हो, इन नवीन वास्तविकताओं का अकेला सामना नहीं कर सकता। इसलिए गुट निरपेक्ष आंदोलन के देशों को सामूहिक विचार एवं कार्य के लिए एक साथ संगठित रहकर कार्य करना चाहिए। लेकिन अब प्रश्न यह है कि बिल्ली के गले में घंटी कैसे बांधी जाये। इसका उत्तर यह है कि गुट निरपेक्ष देश तीन महत्वपूर्ण तरीकों को अपनाकर इस उपरोक्त नकारात्मक प्रवृत्ति को बदल सकते हैं और तीन महत्वपूर्ण तरीके हैं:
क) संयुक्त राष्ट्र को सुधार कर एवं मजबूत बनाकर।
ख) दक्षिण-दक्षिण सहयोग को प्रोत्साहित कर, और
ग) जरूरी सुधारों के द्वारा आंदोलन को और अधिक दृढ़ कर।

इस प्रकार वर्तमान विश्व की राजनीतिक वास्तविकताएँ विश्व के विकासशील देशों के लिए गुट निरपेक्षता उसी तरीके से प्रासंगिक है जैसाकि शीतयुद्ध के वर्षों के दौरान था।

जबकि गुट निरपेक्षता की प्रासंगिकता विद्यमान है किन्तु वर्तमान विश्व मामलों में गुट निरपेक्ष आंदोलन की भूमिका में कुछ गिरावट आई है। प्रथम गुट निरपेक्ष आंदोलन अपने दो सदस्यों इराक तथा कुवैत के बीच संघर्ष को रोकने में असफल रहा और न ही इसके बाद घटित खाड़ी संकट में कोई प्रभावकारी भूमिका अदा कर सका। न ही यह अपने एक महत्वपूर्ण सदस्य युगोस्लोवाकिया में गृहयुद्ध को रोक सका।

इसकी अक्षमता का एक कारण यह है कि आज का गुट निरपेक्ष आंदोलन गंभीर आंतरिक समस्याओं का सामना कर रहा है। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं, इसकी सदस्यता की योग्यता इतनी अधिक उदार है कि अक्सर उसकी अवहेलना की जाती है, इसके सदस्यों के बीच आत्म अनुशासन की कमी है। सहमति के तरीके की कमजोरियां और विश्वव्यापी घटनाओं पर मानीटर करने के लिए किसी भी प्रकार की प्रणाली का अभाव ।

बोध प्रश्न 4
टिप्पणी: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से अपने उत्तर की तुलना कीजिए।
1) गुट निरपेक्ष आंदोलन की उपलब्धियों की विवेचना कीजिए।
2) क्या भविष्य में गुट निरपेक्ष आंदोलन किसी उपयोगी उद्देश्य की पूर्ति कर सकता है ?

 बोध प्रश्नों के उत्तर
बोध प्रश्न 4
1) आंदोलन ने उपनिवेशवाद के विखंडन में सहायता पहुंचायी, शांति को प्रापत करने की संभावनाओं को प्रोत्साहित किया, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के लोकतंत्रीकरण में सहायता की, आर्थिक न्याय की समस्या की ओर विश्व का ध्यान आकृष्ठ किया और कुछ सीमा तक आर्थिक अधिकारों की लड़ाई में विजय प्राप्त की तथा पश्चिम के सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को विमुख किया।
2) हाँ। क्योंकि आर्थिक विभाजन है और भविष्य में भी राज्यों के बीच सबसे अधिक महत्वपूर्ण विभाजन के रूप में बना रहेगा इसलिए तीसरी दुनिया के देशों की आर्थिक मांगों के लिए संघर्ष करने के महत्वपूर्ण कार्य को पूरा करने हेतु गुट निरपेक्ष आंदोलन की आवश्यकता बनी रहेगी।

 सारांश
गुट निरपेक्षता का उद्गम दो विश्वव्यापी परिवर्तनों के प्रसंग में हुआ था, उपनिवेशों राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष तथा संयुक्त राज्य अमरीका एवं सोवियत संघ के बीच शीतयुद्ध जिसके कारण दो सैनिक गुटों तथा गठबंधनों का उद्गम हुआ। राजनीतिक स्वतंत्रता के बावजूद, नये राज्य आर्थिक रूप से अविकसित थे तथा वे नवीन साम्राज्यवादी दबाव में आ सकते थे।

गुट निरपेक्षता शब्द उन राज्यों के दृष्टिकोण को प्रतिबिम्बित करता है जो गठबंधनों की इस व्यवस्था से बाहर रहने के इच्छुक थे तथा विदेश नीति एवं संबंधों में एक स्वतंत्र नीति का अनुसरण करना चाहते थे। गुट निरपेक्षता की आवश्यकता आर्थिक राजनीतिक, सामरिक तथा आंतरिक या स्वदेशी स्रोतों से उत्पन्न हुई थी।

ये राज्य एक सामूहिक मंच पर एकत्रित हुए और गुट निरपेक्ष आंदोलन का निर्माण किया। इसने दक्षिण के विकसित देशों की सामूहिक समस्याओं पर बहस करने के लिए एक महत्वपूर्ण मंच उपलब्ध कराया जिससे ये देश समान उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु सामूहिक कार्यवाही करने के लिए तैयार हुए। इसने उन सिद्धांतों को बनाये रखा है जो अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में राजनीतिक तथा आर्थिक न्याय को प्रोत्साहित करने की तलाश करते हैं। इसकी उपलब्धियाँ महत्वपूर्ण थी। अब शीत युद्ध या द्विध्रवीयता विहिन विश्व में गुट निरपेक्षता की प्रांसगिकता के विषय में वाद-विवाद है। यद्यपि शीतयुद्ध का प्रसंग परिवर्तित हो सकता है परन्तु विश्व गरीब एवं धनी राष्ट्रों के बीच अभी भी विभाजित है। विकासशील देश जो विश्व जनसंख्या तीन चैथाई है, अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था की परिधि पर ही विद्यमान है। गुट निरपेक्ष नीति उस समय तक वैध बनी रहेगी जब तक व्यवस्था ईमानदारी से समानता नहीं करने लगती। गुट निरपेक्ष आंदोलन को पुनः सक्रिय करने की शीघ्र आवश्यकता है जिससे कि और अधिक समतावादी विश्व व्यवस्था की ठोस रूप में स्थापना की जा सके।

 कुछ उपयोगी पुस्तकें
विल्लेट्टस, पीटर, 1978 ः दि नॉन एलाइन मुवमेंट, दि ओरिजन ऑफ ए थर्ड वर्ल्ड एलायंस, पॉपुलर प्रकाशन, बंबई।
राणा, ए पी, 1976 ः दि इम्पेरेटिवाज ऑफ नॉन एलाइन मूवमेंट।
अप्पादोराय एण्ड राजन, 1985 ः इंडियाज फॉरेन पॉलिसी एण्ड रिलेशन्स।
बन्दोपाध्याय, जे, 1970 ः दि मैकिंग ऑफ इण्डियाज फॉरेन पॉलिसी: डीटरमीनेन्टस इंस्टीट्यूशन्स, प्रोसेज, पर्स नेलीटीस
राजन एम एस, 1990 ः नॉन एलाइनमेंट एण्ड नॉन एलाइन्ड मूवमेंट।
राजन एम एस, 1990 ः दि फ्यूचर ऑफ नॉन एलाइमुवमेण्ट एण्ड नॉन एलाइन्ड मुवमेंट।

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