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राष्ट्रवाद की परिभाषा क्या है | राष्ट्रवाद की अवधारणा क्या है किसे कहते है ? nationalism in hindi definition
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राष्ट्रवाद
आम बोलचाल में हम राष्ट्र राष्ट्रीयता तथा राष्ट्रवाद पयार्यवाची की तरह प्रयोग करते हैं, लोग उनके अर्थों में फर्क करना नहीं जानते। जैसा कि कार्लटन जे. एच. हेमेस ने कहा है, ष्आज के सभ्य समाज की सोच एवं क्रियाक्लापों में राष्ट्रवाद इस तरह घुलमिल गया है कि हम अक्सर राष्ट्रीयवाद को अपनी बपौती मान बैठते हैं। लेकिन इसमें से अधिकांश लोग इसके अर्थ से परिचित नहीं है। प्रत्येक राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हित को सर्वोच्च वरीयता देता है और राष्ट्रीय हित की रक्षा के लिए ही सत्ता का पूरा संघर्ष भी है। राष्ट्रवाद अक्सर राष्ट्रभक्ति पैदा करता है। आश्रित लोगों के लिए जैसा कि हम 1947 से पहले थे, राष्ट्रवाद उस जज्बे का नाम है जिसने विदेशी सत्ता के खिलाफ संघर्ष में हमें कामयाब बनाया। लेकिन राष्ट्रवाद कभी-कभी हमारे नैतिक विश्वासों पर हावी हो जाता है कि हिटलर के नाजी जर्मनी में हुआ था। जर्मनी में राष्ट्रवाद का अर्थ था – थर्ड रीक का विस्तार और यहूदियों का निष्कासन, इजरायल में यह अरब विरोध के खिलाफ अस्तित्व की लड़ाई है तो पाकिस्तानी राष्ट्रवाद पूरी तरह भारत विरोधी मुहिम पर, खासकर कश्मीर के मसले पर टिका हुआ है।
राष्ट्रवाद की अवधारणा
शार्प और कुर्क के अनुसार, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्येता के लिए राष्ट्रवाद की समझ उतनी ही महत्वपूर्ण है जितना कि उस व्यक्ति के लिए मास्टर कुंजी (उंेजमत ामल) जरूरी है जो एक घर के सभी दरवाजों से अंदर आना चाहता है। यानी शार्प एवं कुर्क के लिए राष्ट्रवाद की समझ अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की मास्टर कुंजी है। आज राज्य व्यवस्था का पूरा व्यवहार राष्ट्रीय आशा, राष्ट्रीय डर, राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा, और राष्ट्रीय संघर्ष जैसे पदों से व्यक्त होता है। नेतागण यह कहते मिल सकते हैं कि चूंकि आधुनिक राज्य, राष्ट्र राज्य होता है। अतः वह राष्ट्रवाद को बढ़ावा देना चाहता है। जैसा कि पाल्मर एवं पार्किन्स कहते हैं, ‘‘अपने सबसे घटिया रूप में राष्ट्रवाद व्यक्तियों की सोच को पूरी तरह ढक लेता है तथा इसके रहस्यवादी और धार्मिक दामन पर इस युग के कुछ क्रुरतम अमानवीय कृत्य दर्ज हैं।‘‘ इस तरह राष्ट्रवाद का प्रयोग लोगों को नेक काम के लिए लामंबद करने में हो सकता है जैसा कि तानाशाह करते रहे हैं, इस का प्रयोग घोर अमानवीय कृत्य नरसंहार को अंजाम देने में भी किया जा सकता है। 1990 से पहले का नामीबियाई स्वतंत्रता संघर्ष पहली श्रेणी में रखा जा सकता है तो यहूदियों के खिलाफ हिटलर की नीति आसानी से दूसरी श्रेणी में रखी जा सकती है।
इस इकाई में जितना सीमित स्थान उपलब्ध है, उसमें राष्ट्रवाद की संक्षिप्त व्याख्या ही की जा सकती है। राष्ट्रवाद से पहले राष्ट्र को समझना ज्यादा समीचीन है। अर्नेस्ट बार्कर ने राष्ट्र की अत्यंत सटीक परिभाषा की है। उसने लिखा है ‘‘राष्ट्र व्यक्तियों का ऐसा समुदाय होता है जो एक निश्चित क्षेत्र में निवास करते हैं और जो सामान्यतया विविध नस्लों से मिलकर बने होते हैं किन्तु जो अपने साझे इतिहास के दौरान साझे विचार और साझी भावना को अंगीकार कर लेते हैं। बार्कर ने साझे धार्मिक विश्वास तथा साझी भाषा को जुड़ाव का तत्व माना है तथापि राष्ट्र की एकता में सबसे महत्वपूर्ण तत्व यह होता है कि लोग एक ही तरह की इच्छा शक्ति को संजोय रखते हैं तथा उसी के अनुसार अपना अलग राज्य निर्माण करते हैं अथवा निर्माण करने की कोशिश करते हैं। इस तरह स्पष्ट है कि साझी इच्छा शक्ति ही राष्ट्र की आत्मा होती है। इस तरीके से गठित राज्य को राष्ट्र की संज्ञा दी जाती है।
आम बोलचाल में राष्ट्र और राज्य पर्यायवाची की तरह प्रयुक्त होते हैं। यह कारण है कि अंतर्राज्यीय की जगह हम अंतर्राष्ट्रीय शब्द का प्रयोग करते हैं। किंतु चूंकि अधिकांश मौजूदा राष्ट्र राज्य के रुप में संगठित हैं, अतः राष्ट्र एवं राज्य की सीमा रेखा धूमिल हो गई है। हान्स मार्गेन्यु का मानना है कि राष्ट्र को राज्य की जरूरत है। इस तरह एक राष्ट्र एक राज्य राष्ट्रवाद की राजनीतिक उत्पत्ति है और राष्ट्र राज्य उसका आदर्श रूप राष्ट्रीयता राष्ट्रवाद का अभिन्न अंग होता है। राष्ट्रीयता या तो राष्ट्रीय चरित्र का द्योतक होता है या फिर राष्ट्र के प्रति साझे जज्बे का। इस जज्बे से बंधे लोगों का समूह भी राष्ट्र में हो सकता है तो फिर हम राष्ट्र की अवधारणा की व्याख्या कैसे करेंगे।
राष्ट्रवाद के प्रमुख अध्येताओं में जे. एच. हेमस एवं हान्स कोडन के नाम विशेष उल्लेखनीय है। हेमस के अनुसार राष्ट्रवाद ‘‘आधुनिक भावात्मक एकता बोध के साथ दो पुरानी अवधारणाओं-राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय भक्ति के अतिशयोक्तिकरण से मिलकर बनता है। कोहन कहता है कि ‘‘राष्ट्रवाद सबसे पहले और सर्वाधिक रूप से एक मनः स्थिति का नाम है, चेतना का नाम है।‘‘ आज राष्ट्रवाद मूलरूप से एक साझी मनः स्थिति एक साझा बंधन, देशभक्ति और चेतन कर्म के रूप में परिभाषित किया जाता है। आज पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद राजनीतिक जीवन का रूप ले चुका है और यही कारण है राष्ट्रों का आपसी संबंध अंतर्राष्ट्रीय संबंध की विषयवस्तु बना हुआ है। फिर भी, जैसा कि कोहन ने लिखा है, ‘‘राष्ट्रवाद प्रत्येक देश की विशिष्टता ऐतिहासिक स्थितियों तथा सामाजिक संरचना के अनुसार अलग-अलग होता है। जैसे-जैसे राष्ट्रवाद की अवधारणा फैलती गयी है, वैसे वैसे व्यक्ति की अहमियत कम होती गई है। राष्ट्र राज्य सर्वशक्तिमान बन चुका है।
राष्ट्रवाद की अवधारणा समाज के अधिकांश तबकों में ष्हम एक हैंष् की भावना से पैदा होती है। प्रोफेसर सिन्डर ने माना है कि राष्ट्रवाद को सरल भाषा में परिभाषित करना आसान नहीं है फिर भी उसने एक ऐसी व्याख्या प्रस्तुत करने की कोशिश की है जिसे लेकर कम से कम आपत्ति हो सकती है। उसने लिखा है’’………… इतिहास के एक खास दौर में राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और बौद्धिक कारकों से उत्पन्न राष्ट्रवाद एक भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले लोगों की मनः स्थिति, भावना अथवा उदभावना का नाम है।………………।’’ इस पर विपरीत प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सिन्डर कहता है, “राष्ट्रवाद न तो पूरी तरह तार्किक है, न ही विवेकसम्मत। इसकी जड़ें अचेतन दुनिया की अतार्किकता, अविवेक एवं फंतासी में ढूंढी जा सकती हैं। ‘‘सरल भाषा में कहा जा सकता है कि राष्ट्रवाद स्थितिजन्य भावना का नाम है जो लोगों को एकसूत्र में करती है।
राष्ट्रवाद के विविध चरण
अलग-अलग पाश्चात्य विद्वानों ने राष्ट्रवाद को अलग-अलग रूपों में वर्गीकृत किया है। किसी ने इसे अच्छा और बुरे के खानों में बाँटा तो किसी ने सृजनात्मक व विध्वंसक के खानों में और किसी अन्य ने भौतिक व आध्यात्मिक खानों में। ये व्याख्याएँ राष्ट्रवाद के चरित्र पर आधारित हैं जिसके बारे में विश्वास के साथ कुछ कहना मुश्किल है। फिर भी विद्वानों ने राष्ट्रवाद के विविध चरणों को रेखांकित करने की कोशिश की है। इनमें क्विन्सी राइट भी शामिल है। क्रमिक तौर पर उसने राष्ट्रवाद को मध्ययुगीन, राजतंत्री क्रांतिकारी, उदारवादी और एकाधिकारवादी खानों में वर्गीकृत किया है। उसने सांस्कृतिक एवं मानवतावादी राष्ट्रवाद को कोई विशेष महत्व नहीं दिया है। किन्तु हेम्स ने राष्ट्रवाद के आर्थिक कारकों का विशद वर्णन किया है। प्रो. सिन्डर ने राष्ट्रवाद की चार अवस्थाओं – एक्यकारी, राष्ट्रवाद (1815-1871) विध्वंसक राष्ट्रवाद (1871-1899) आक्रामक राष्ट्रवाद (1900-1945) तथा सामयिक राष्ट्रवाद (1845 से) के नाम से गिनाये है। प्रथम चरण में राष्ट्रवाद जर्मनी और इटली जैसे देशों के एकीकरण के रूप में प्रकट हुआ था। दूसरे दौर में आश्रित राष्ट्रीयताओं जैसे आस्ट्रिया के अंतर्गत हंगरी द्वारा स्वतंत्रता की माँग की गयी। सिन्डर का मानना है कि दोनों विश्वयुद्ध आक्रामक राष्ट्रवाद के प्रतिफल थे। यह राष्ट्रवाद की तीसरी अवस्था है। चैथे दौर में आकर एशिया और अफ्रीका के उपनिवेश स्वतंत्र हुए।
कहा जाता है कि आधनिक राष्ट्रवाद का जन्म 17वीं और 18वी सदी में पश्चिमी यरोप और अमरीका में हुआ था। 18वीं सदी के आते-आते राष्ट्रवाद पूरे यूरोप में एक आम आंदोलन बन चुका था। शुरूआती राष्ट्रवाद को राजतंत्री राष्ट्रवाद के रूप में जाना जाता है। यह फ्रांसीसी क्रांति का नतीजा था कि लोग लोकतंत्र की अवधारणा जो जनता की सामान्य इच्छा तथा व्यक्ति एवं नागरिक के अधिकारों पर आधारित होती है, से वाकिफ हो सके। नेपोलियन की वजह से उसके शत्रु राष्ट्रों में जिस राष्ट्रवाद का जन्म हुआ उसे हेवस पारंपरिक राष्ट्रवाद का नाम देता है। इसी तरह रूस का जार अलेक्जेंडर 1815 में पारंपरिक राष्ट्रवाद का पुरोधा बन बैठा। दुनिया के लोगों और राष्ट्रों की बेहतरी के नाम पर उसने पवित्र गठबंधन का नारा बुलंद किया।
उन्नीसवीं सदी के उदारवादी राष्ट्रवाद से जर्मनी तथा इटली का एकीकरण संभव हो सका। बेल्जियम और पुर्तगाल जैसे देशों को राष्ट्र बनाने के लिए राष्ट्रीय विप्लव का सहारा लेना पड़ा। तब तक राष्ट्रवाद यूरोप की ही चीज मानी जाती थी। किन्तु तुरंत ही यह एशिया और अफ्रीका में फैल गया। पाल्मर एवं पार्किन्स ने लिखा है कि उन्नीसवीं सदी के अधिकांश काल में राष्ट्रवाद कई दूसरे आंदोलन जैसे लोकतंत्र, छायावाद, औद्योगिकवाद, साम्राज्यवाद और उदारवाद से जुड़ा रहा। बीसवीं सदी के आरंभ में उदार राष्ट्रवाद का पतन हो. गया क्योंकि महाशक्तियों की आपसी प्रतिस्पर्धा एक आमबात हो गयी थी। यही प्रतिस्पर्धा प्रथम विश्वयुद्ध का कारण भी बनी।
कहते हैं कि राष्ट्रवाद प्रथम विश्वयुद्ध का कारक भी है और प्रभाव भी है। सिडनी वी. के. लिखता है, “राष्ट्रवाद ने प्रथम विश्वयुद्ध के लिए राजनीतिज्ञों का पथ प्रशस्त किया तथा लोगों को दिमागी रूप से तैयार किया ……….. इसका तात्कालिक कारण युगोस्लोवाकिया के गुप्त राष्ट्रीय संगठनों की जान लेना था ………… जबकि इसका स्पष्ट तात्कालिक प्रभाव केन्द्रीय और पूर्वी यूरोप के देशों के स्वनिर्णय के अधिकार को अंगीकार करना था ……।‘‘ प्रथम विश्वयुद्ध के बाद अंतराष्ट्रीयवाद का मुखौटा कारगर साबित न हो सका, नतीजतन अनेक देशों में सर्वाधिकारवादी राष्ट्रवाद का उदय हआ। हिटलर, मुसोलिनी और फ्रैंको जैसे व्यक्तियों ने इस नयी धारा की अगुआई की। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष जो राष्ट्रवाद का ही एक नया रूप था, प्रकट हुआ। उसने साम्राज्यवाद की बुनियादें हिला दी तथा उपनिवेशों के मुक्त होने की प्रक्रिया का सूत्रपात किया द्य ऐशिया, अफ्रीका व लैटिन अमरीका के अधिकांश देशों ने साम्राज्यवाद के जुए को उतार फेंका। नतीजतन, जो 100 से अधिक राष्ट्र राज्य अस्तित्व में आए, जहाँ लोकतंत्र, सामान्य इच्छा, स्वतंत्रता तथा न्याय पर आधारित राष्ट्रवाद का जन्म हुआ।
बोध प्रश्न 3
टिप्पणी क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से अपने उत्तर को मिलाइए।
1) राष्ट्रवाद की अवधारणा का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
2) राष्ट्रवाद के विविध रूपों एवं अवस्थाओं का उल्लेख कीजिए।
बोध प्रश्न 3 उत्तर
1. किसी देश की जनता के बहुल तबकों में एक होने का भाव राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक कारकों से बनी एवज की मनः स्थिति अथवा भावना।
2. स्नाइडर चार अवस्थाओं को रेखांकित करता है – संयोजनकारी राष्ट्रवाद। इसके प्रकार हैंः शुभ (भारतीय स्वतंत्रता संग्राम) अथवा अशुभ (हिटलर का नाजीवाद, रचनात्मक व विधवंसात्मक, भौतिक व आध्यात्मिक।)
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